जन आंदोलनों पर जीती हैं जन पत्रिकायें
“जनपत्रिकायें तब सुरक्षित होती हैं जब जनान्दोलन होता है। दोनों के बीच गहरा अंतर्संबंध होता है। जनपत्रिकायें आन्दोलन पर जीती हैं और जनान्दोलन इन्हीं जनपत्रिकाओं से आगे बढ़ते हैं।” उपरोक्त बातें पत्रकार संपादक लेखक सीमा आज़ाद ने दस्तक के 100-101 वें अंक के लोकार्पण कार्यक्रम में मोहम्मद बाकर डायस से कहीं। उनसे पहले वरिष्ठ पत्रकार और संपादक अनिल चमड़िया ने बताया कि क्रान्ति और आन्दोलन से ऊर्जा पैदा होती है। इस ऊर्जा से एक वर्ग कुछ सृजन करना चाहता है। यही कारण कि 1857 की क्रान्ति और 1974 के नक्सलबाड़ी आन्दोलन से बहुत सी पत्रिकायें निकलीं।
दस्तक टीम द्वारा कार्यक्रम हॉल में हस्तलिखित पोस्टर्स लगाये गये। श्रोताओं से खचाखच भरे हॉल में सीमा आज़ाद ने पत्रकार रुपेश कुमार और विद्रोही पत्रिका के संपादक सुधीर धावले की रिहाई की मांग उठायी। कार्यक्रम इलाहाबाद के विज्ञान परिषद भवन में आयोजित किया गया। कार्यक्रम में दस्तक के 100 अंकों के सफ़र का जिक्र करते हुए सीमा आज़ाद ने बताया कि गंगा एक्सप्रेसवे पर विशेषांक निकालने पर उन्हें धमकी दी गई जबकि सलवा जुडुम और ऑपरेशन ग्रीन हंट पर विशेषांक निकालने के बाद उन्हें गिरफ्तार करके ढाई सालों तक जेल में रखा गया। इस दौरान लगभग ढाई- तीन साल तक दस्तक का प्रकाशन बंद रहा।
कार्यक्रम की शुरुआत शहीद "भगत सिंह छात्र मोर्चा" के युवाओं द्वारा प्रस्तुत जनगीत से और कार्यक्रम का समापन पश्चिम बंगाल से आयी "नारी चेतना" समूह की लड़कियों बंग्लाभाषा के जनगीत से हुआ।
पहला शहीद पत्रकार मोहम्मद बाक़र
कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत करते हुए सीमा आज़ाद ने शहीद पत्रकार मोहम्मद बाक़र के परिचय देते हुए किया। कार्यक्रम में वक्ताओं के लिये इस्तेमाल हुये डायस का नाम भी "मोहम्मद बाक़र डायस" रखा गया। सीमा आज़ाद ने बताया कि उन्हें भी मोहम्मद बाकर के बारे में कुर्बान अली जी से जानकारी मिली। मोहम्मद बाकर "देहली उर्दू" नाम से उर्दू अख़बार निकालते थे। उन्हें 16 सितंबर 1857 में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ जनमानस तैयार करने के आरोप में तोप से उड़ा दिया गया। कार्यक्रम हॉल का नामकरण शहीद पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम पर किया गया। सीमा आज़ाद ने कहा, "दस्तक नए समय की" अपने आप को आजादी के आंदोलन के अखबार "भविष्य" "अभ्युदय" "चांद" "प्रताप" और "मूकनायक" की विरासत का वाहक मानता है, जिन्हें अपने प्रकाशन और लेखन के कारण कई कई बार जेल जाना पड़ा, अखबारों की जब्ती झेलनी पड़ी, इसलिए हमने यह मंच इन पत्रिकाओं और अखबारों को समर्पित किया है।
कोई सरकार आये या जाये हमें फर्क नहीं पड़ता- मीना कोटवाल
"द मूकनायक" की संस्थापक संपादक मीना कोटवाल ने पहले वक्ता के तौर पर कार्यक्रम में कहा कि मौजूदा सरकार में लोग फ्रीडम ऑफ स्पीच की दुहाई दे रहे हैं। लेकिन दलित समुदाय के लिये तो फ्रीडम ऑफ स्पीच कभी रहा ही नहीं, चाहे जो सरकार रही हो। उन्होंने आगे कहा कि मूकनायक की शुरुआत बाबा साहेब ने इसीलिये की, क्योंकि तब दलितों की बातें कहीं नहीं आती थी। आज भी दलित आदिवासी कहीं नहीं हैं। एडिटोरियल पोस्ट पर दलित कभी रहा ही नहीं। इसी वजह से उन्होंने दो साल पहले ‘द मूकनायक’ की शुरुआत की।
उन्होंने आगे कहा कि अभी भी हर जगह एक तरह के लोग, एक तरह के विचार एक तरह का काम है। अल्टरनेटिव मीडिया का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि यहां भी एक तरह के लोग हैं, एडीटोरियल में हर जगह सवर्ण हैं।
उन्होंने कहा कि बहुजन मीडिया में भी यह कमी है कि वहां भी दलित, आदिवासी महिलायें नहीं हैं जबकि, बाबा साहेब महिलाओं की भागीदारी की बात करते थे। लेकिन मीडिया में उन्हें मेरिट के आधार पर पीछे धकेल दिया गया। मीना कोटवाल ने आखिर में कहा कि कोई भी सरकार आये या जाये उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता, इसीलिये वो लोग राजनीतिक मुद्दों के बजाय समाजिक मुद्दों पर काम करते हैं, किसी को बिजली मिल जाये, किसी की एफआईआर लिख जाये।
जन अधिकारों की बात पूंजीपति की पत्रिका नहीं करेगी
जनमीडिया के संपादक व मीडिया स्टडीज ग्रुप के अध्यक्ष अनिल चमड़िया ने आज के समाज को "प्रचारजीवी" बताते हुए बतौर वक्ता कहा कि वो दो पत्रिकायें निकालते हैं और यह मानकर निकालते हैं कि कोई नहीं लेगा क्योंकि विज्ञापन और प्रचार का इतना हमला है कि लोग उनकी पत्रिका क्यों लेंगे। उन्होंने कहा कि वो इतिहास के लिये ये पत्रिकायें निकाल रहे हैं। उन्होंने कहा कि हमारा समाज "विचारजीवी" नहीं "प्रचारजीवी" हो गया है।
हिन्दी समाज को जड़ समाज का हिस्सा बताते हुए उन्होंने आगे कहा कि हिन्दी पाठक पुलिसिया निगाह रखता है, वो पूछता है पत्रिकायें निकालने का पैसा कहाँ से आया। इस तरह वो आप (पत्रिका निकालने वाले) की ऊर्जा का दमन करते हैं। उन्होने आगे कहा कि हिन्दी समाज का पाठक पत्रिका तौलकर लेता है वो 20 रुपये की 20 पेज वाली पत्रिका देखकर मुंह बिचकाता है। उन्होंने पत्रिकाओं के इतिहास का हवाला देते हुये आगे कहा कि बड़ी कंपनियों, पूँजीपतियों की पत्रिकायें नागरिक अधिकारों की बात नहीं करेंगी। जो नागरिक अधिकार आज हासिल हैं उनमें छोटी पत्रिकाओं की भूमिका रही है। उन्होंने आगे कहा कि दस्तक, समयान्तर जैसी कुछ पत्रिकायें अकेले दम निकलती हैं। कुछ लोग प्रतिबद्ध हैं इसीलिये विचार बचे हैं। इन हालातों में हिन्दी में पत्रिका निकालना घर फूंक तमाशा देखने वाला काम है।
मीडिया आलोचक अनिल चमड़िया ने आगे कहा कि बड़ी पूंजी वाले लोगों ने अभिव्यक्ति के अधिकारों का अपने हित में इस्तेमाल किया। आपका अधिकार कंपनियां इस्तेमाल कर रही हैं। इसीलिये बाबा साहेब ने मीडिया संस्थानों को विशेषाधिकार नहीं दिया। संवाद का काम बहुत बारीक काम है एक विशेषण से सब बदल जाता है। उन्होंने महिलाओं की पत्रिकाओं का जिक्र करके कहा कि आज़ादी से पहले महिलाओं की सैकड़ों पत्रिकायें होती थी, कोई बौद्धिक पत्रिका महिलाओं की नहीं निकलती। जो निकलती हैं वो महिलाओं के सौन्दर्य की हैं। उन्होंने कहा कि हम विकास विकास करते रह गये और वो सब निगल गये। उन्होंने इस बात का खास तौर पर जिक्र किया कि आज़ादी की लड़ाई के समय पूंजीपति वर्ग जातिवादी पत्रिकायें निकाल रहा था। इलाहाबाद से कायस्थ समाचार पत्रिका निकली।
आलोचना के बिना कोई समाज ज़िन्दा नहीं रह सकता
बीबीसी के पूर्व संवादादता कुर्बान अली ने उर्दू पत्रिकाओं के इतिहास पर संक्षेप में बातें रखीं। उन्होंने बताया कि 1794 में टीपू सुल्तान ने शेरे मैसूर के नाम से उर्दू पत्रिका निकाली थी। उन्होंने शिवनारायण भटनागर के अख़बार ‘स्वराज्य’ की विशेष तौर पर चर्चा करते हुए बताया कि चार वर्षों में उसके 9 संपादकों को राजद्रोह के अंतर्गत सजा, जेल और काला पानी की सजा हुई। उन्होंने आगे बताया कि भयंकर परिस्थितियों में संपादक के पद के लिये विज्ञापन निकाला गया कि स्वराज के लिए एक संपादक चाहिए वेतन दो सूखी रोटियां, एक गिलास ठंडा पानी, और प्रत्येक संपदकीय के लिये 10 साल जेल। इस विज्ञापन के बाद भी 1910 तक पत्र को संपादक मिलते रहे जब तक कि सरकार द्वारा उसे बंद नहीं कर दिया गया।
वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली ने आगे कहा कि 1857 से 1947 के 90 साल के राष्ट्रीय आन्दोलन में जितने भी राजनेता थे वो सब जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिये पत्र-पत्रिकायें निकाला करते थे। उन्होंने कहा कि 200 सालों के पत्रकारिता के इतिहास में पहले 125 साल राष्ट्रीय आन्दोलन के थे, और आज़ादी के बाद के 75 साल राष्ट्र निर्माण के। उन्होंने फिक्र जाहिर करते हुये कहा कि कहा जा रहा है कि साल 2040 में अमेरिका में आखिरी अख़बार प्रिंट होगा।
प्रेस की आज़ादी के संदर्भ में उन्होंने कहा कि जनतंत्र में मीडिया फ्री नहीं होगा तो जन-आवाज़ दब जायेगी। 19 महीने के आपातकाल में हमने सब देखा है। मौजूदा हालात उससे अच्छे नहीं हैं, बीबीसी पर पड़े छापे इसके गवाह हैं। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु का जिक्र करते हुए कुर्बान अली ने कहा कि उन्होंने कहा था कि प्रेस चाहे जितना भी ग़ैरजिम्मेदार हो जाये लेकिन उस पर पांबंदी लगाने के पक्ष में नहीं हैं।
उन्होंने आगे कहा कि बिना आलोचना के कोई समाज ज़िन्दा नहीं रह सकता। मीडिया की क्रेडिबिलिटी खत्म हो गई है। उन्होंने पेड न्यूज की एक घटना का जिक्र करते हुए कहा कि भूपेंद्र हुड्डा के बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा रोहतक से चुनाव लड़ रहे थे। रोहतक में उनके खिलाफ़ लड़ रहे प्रत्याशी का एक चुनावी कार्यक्रम था। उसमें बीस पच्चीस हजार लोग आये थे। अगले दिन एक अखबार ने पूरे पेज पर 25 हजार की भीड़ को 5 लाख बताया। भूपेंद्र चौधरी ने अख़बार के संपादक को फोन किया तो उसने उन्हें बताया कि ये पेड न्यूज है। इसके लिये उन्हें पैसे दिये गये और जो कहा गया वो उन्होंने छाप दिया। इस पर भूपेंद्र चौधरी ने संपादक से कहा कि अगले दिन के लिये पूरा अख़बार मेरे नाम से बुक करो और लिखो कि ‘यह अख़बार झूठ बोलता है’।
लघुपत्रिकायें जनता की आवाज़ बन रही हैं
समयान्तर के संपादक पंकज बिष्ट ने कार्यक्रम में बोलते हुये कहा कि पूंजीवाद सामान्य आदमी तक आसान पहुंचवाली चीजों को खत्म कर दे रहा है और नई चीजों को ला रहा है जो आम आदमी के पहुंच से दूर है। उन्होंने कहा कि आज आपके हाथ में जो भी है उसका नियंत्रण सत्ताधारी, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास है। ऐसे में लघु पत्रिकाओं का काम है जनता को सचेत करना। वरिष्ठ साहित्यकार पंकज बिष्ट ने आगे कहा कि आज जो सत्ता के लिये ख़तरा बनेगा वो लघु पत्रिकाये ही हैं। जिनमें बड़ी पूंजी लगी है वो सत्ता से बैर नहीं लेंगी। उन्होंने आगे कहा कि लघु पत्रिकायें, जनपत्रिकायें उस गैप को भर रही हैं। जनता की आवाज़ बन रही हैं।
खुद तोप बनने के लिये अडानी अंबानी निकाल रहे अख़ाबर
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुये वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र कुमार ने कहा कि यादें भी प्रतिरोध होती हैं। उन्होंने कहा कि आज हमारी यादें, हमारी स्मृतियां हमसे छीनी जा रही है। वो जानते हैं कि हमें जितना अपनी विरासत का ध्यान रहेगा उतना प्रतिरोध होगा। उन्होंने कहा कि शब्दों के कैसे अपने पक्ष में मोल्ड करना है इसे सत्ता जानती है। वो अपने शासनकाल को "अमृतकाल" और "अमृतपर्व" कहकर प्रचारित कर रही है। वरिष्ठ आलोचक ने आगे कहा कि एक नागरिक के तौर पर हमें सत्ता को शंका की नजर से देखना चाहिए। कि वो हमें अमृत की जगह स्लो प्वाइजन तो नहीं दे रही कि हम अपना होना ही भूल जायें। उन्होंने बीबीसी पर ताजा कार्रवाई का जिक्र करके कहा कि आज अभिव्यक्ति की आज़ादी के दरवाजे बंद किये जा रहे हैं जब कोई दस्तक देता है तो बीबीसी सा हाल होता है।
प्रताप नारायण मिश्र द्वारा ' ब्राह्मण' नाम से अख़बार निकालने का जिक्र करते हुये उन्होंने कहा कि जातिवादी नाम रखने के बावजूद पत्रकारिता ने इतना असर डाला कि उन्हें हिन्दुस्तान को परिभाषित करते हुये लिखना पड़ा- “अहै इहाँ पर तीन मत, हिन्दू, यवन, क्रिस्तान, भारत की शुभ देह में, तीनहुँ अस्थि समान।” मीडिया द्वारा गांधी को पूंजीपतियों का दलाल बताकर पेश किये जाने पर नाराज़गी जाहिर कते हुये उन्होंने एक वाकिये का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि एक बार घनश्याम दास बिड़ला ने गांधी जी से पूछा कि बापू जब अंग्रेज चले जायेंगे तो हम किससे लड़ेंगे। गांधी ने उत्तर में कहा कि आज़ाद "भारत में हम तुमसे लड़ेगें।" राजेंद्र कुमार जी ने आखिर में अकबर इलाहाबदी के शेर का जिक्र करते हुये कहा कि - तोप हो मुकाबिल तो अख़बार निकालिये, लेकिन आज अडानी अंबानी खुद तोप बन जाने के लिये अखबार निकाल रहे हैं।
दस्तक के 100वें अंक की इस संगोष्ठी में बनारस, आजमगढ़, गोरखपुर, दिल्ली, चंदौली और कोलकाता से भी दस्तक के प्रतिनिधि और पाठक शामिल हुए। इलाहाबाद शहर से वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता रवि किरन जैन, अधिवक्ता, मोहम्मद सईद, राजवेंद्र सिंह, काशन सिद्धिकी, शमशुल इस्लाम, प्रबल प्रताप, सदाशिव, राम कुमार गौतम, नाथूराम बौद्ध, समीउज्जमा खान, साहित्यकार संतोष भदौरिया, सूर्यनारायण, कुमार वीरेंद्र, अंशुमान, संध्या नवोदिता, सुधांशु मालवीय, रश्मि मालवीय, प्रकर्ष, झरना, रूपम मिश्र,आनंद मालवीय, अजामिल, ज्योतिर्मयी, हिमांशु रंजन, अंशुमान, चित्रकार अजय जेटली, रंगकर्मी अनिल रंजन भौमिक, आशुतोष पर्थेश्वर, इतिहासकार हेरंब चतुर्वेदी, ट्रेड यूनियन लीडर हरिश्चंद्र द्विवेदी, अविनाश मिश्र, आर पी कैथल, मानवाधिकार कर्मी गायत्री गांगुली, सोनी आज़ाद, मनीष सिन्हा, महिला संगठन से जुड़ीं एक्टिविस्ट डॉक्टर निधि मिश्र, स्वाति गांगुली, किरण गुप्ता, संपादक जी पी मिश्र, विजय चितौरी सहित इलाहाबाद के विश्वविद्यालय के छात्र छात्राएं और नागरिक बड़ी संख्या में शामिल थे।
कार्यक्रम का समापन सीमा आज़ाद ने फ़ैज़ की इन लाइनों के साथ किया -
"हम परवरिश-ए लौहो-कलम करते रहेंगे
जो दिल पे गुजरती है रकम करते रहेंगे।"
यह विस्तृत रिपोर्ट बनाई है Sushil Manav ने
तस्वीरें Vandana Bhagat और Krishna Manohara
“जनपत्रिकायें तब सुरक्षित होती हैं जब जनान्दोलन होता है। दोनों के बीच गहरा अंतर्संबंध होता है। जनपत्रिकायें आन्दोलन पर जीती हैं और जनान्दोलन इन्हीं जनपत्रिकाओं से आगे बढ़ते हैं।” उपरोक्त बातें पत्रकार संपादक लेखक सीमा आज़ाद ने दस्तक के 100-101 वें अंक के लोकार्पण कार्यक्रम में मोहम्मद बाकर डायस से कहीं। उनसे पहले वरिष्ठ पत्रकार और संपादक अनिल चमड़िया ने बताया कि क्रान्ति और आन्दोलन से ऊर्जा पैदा होती है। इस ऊर्जा से एक वर्ग कुछ सृजन करना चाहता है। यही कारण कि 1857 की क्रान्ति और 1974 के नक्सलबाड़ी आन्दोलन से बहुत सी पत्रिकायें निकलीं।
दस्तक टीम द्वारा कार्यक्रम हॉल में हस्तलिखित पोस्टर्स लगाये गये। श्रोताओं से खचाखच भरे हॉल में सीमा आज़ाद ने पत्रकार रुपेश कुमार और विद्रोही पत्रिका के संपादक सुधीर धावले की रिहाई की मांग उठायी। कार्यक्रम इलाहाबाद के विज्ञान परिषद भवन में आयोजित किया गया। कार्यक्रम में दस्तक के 100 अंकों के सफ़र का जिक्र करते हुए सीमा आज़ाद ने बताया कि गंगा एक्सप्रेसवे पर विशेषांक निकालने पर उन्हें धमकी दी गई जबकि सलवा जुडुम और ऑपरेशन ग्रीन हंट पर विशेषांक निकालने के बाद उन्हें गिरफ्तार करके ढाई सालों तक जेल में रखा गया। इस दौरान लगभग ढाई- तीन साल तक दस्तक का प्रकाशन बंद रहा।
कार्यक्रम की शुरुआत शहीद "भगत सिंह छात्र मोर्चा" के युवाओं द्वारा प्रस्तुत जनगीत से और कार्यक्रम का समापन पश्चिम बंगाल से आयी "नारी चेतना" समूह की लड़कियों बंग्लाभाषा के जनगीत से हुआ।
पहला शहीद पत्रकार मोहम्मद बाक़र
कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत करते हुए सीमा आज़ाद ने शहीद पत्रकार मोहम्मद बाक़र के परिचय देते हुए किया। कार्यक्रम में वक्ताओं के लिये इस्तेमाल हुये डायस का नाम भी "मोहम्मद बाक़र डायस" रखा गया। सीमा आज़ाद ने बताया कि उन्हें भी मोहम्मद बाकर के बारे में कुर्बान अली जी से जानकारी मिली। मोहम्मद बाकर "देहली उर्दू" नाम से उर्दू अख़बार निकालते थे। उन्हें 16 सितंबर 1857 में अंग्रेजों के ख़िलाफ़ जनमानस तैयार करने के आरोप में तोप से उड़ा दिया गया। कार्यक्रम हॉल का नामकरण शहीद पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम पर किया गया। सीमा आज़ाद ने कहा, "दस्तक नए समय की" अपने आप को आजादी के आंदोलन के अखबार "भविष्य" "अभ्युदय" "चांद" "प्रताप" और "मूकनायक" की विरासत का वाहक मानता है, जिन्हें अपने प्रकाशन और लेखन के कारण कई कई बार जेल जाना पड़ा, अखबारों की जब्ती झेलनी पड़ी, इसलिए हमने यह मंच इन पत्रिकाओं और अखबारों को समर्पित किया है।
कोई सरकार आये या जाये हमें फर्क नहीं पड़ता- मीना कोटवाल
"द मूकनायक" की संस्थापक संपादक मीना कोटवाल ने पहले वक्ता के तौर पर कार्यक्रम में कहा कि मौजूदा सरकार में लोग फ्रीडम ऑफ स्पीच की दुहाई दे रहे हैं। लेकिन दलित समुदाय के लिये तो फ्रीडम ऑफ स्पीच कभी रहा ही नहीं, चाहे जो सरकार रही हो। उन्होंने आगे कहा कि मूकनायक की शुरुआत बाबा साहेब ने इसीलिये की, क्योंकि तब दलितों की बातें कहीं नहीं आती थी। आज भी दलित आदिवासी कहीं नहीं हैं। एडिटोरियल पोस्ट पर दलित कभी रहा ही नहीं। इसी वजह से उन्होंने दो साल पहले ‘द मूकनायक’ की शुरुआत की।
उन्होंने आगे कहा कि अभी भी हर जगह एक तरह के लोग, एक तरह के विचार एक तरह का काम है। अल्टरनेटिव मीडिया का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि यहां भी एक तरह के लोग हैं, एडीटोरियल में हर जगह सवर्ण हैं।
उन्होंने कहा कि बहुजन मीडिया में भी यह कमी है कि वहां भी दलित, आदिवासी महिलायें नहीं हैं जबकि, बाबा साहेब महिलाओं की भागीदारी की बात करते थे। लेकिन मीडिया में उन्हें मेरिट के आधार पर पीछे धकेल दिया गया। मीना कोटवाल ने आखिर में कहा कि कोई भी सरकार आये या जाये उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता, इसीलिये वो लोग राजनीतिक मुद्दों के बजाय समाजिक मुद्दों पर काम करते हैं, किसी को बिजली मिल जाये, किसी की एफआईआर लिख जाये।
जन अधिकारों की बात पूंजीपति की पत्रिका नहीं करेगी
जनमीडिया के संपादक व मीडिया स्टडीज ग्रुप के अध्यक्ष अनिल चमड़िया ने आज के समाज को "प्रचारजीवी" बताते हुए बतौर वक्ता कहा कि वो दो पत्रिकायें निकालते हैं और यह मानकर निकालते हैं कि कोई नहीं लेगा क्योंकि विज्ञापन और प्रचार का इतना हमला है कि लोग उनकी पत्रिका क्यों लेंगे। उन्होंने कहा कि वो इतिहास के लिये ये पत्रिकायें निकाल रहे हैं। उन्होंने कहा कि हमारा समाज "विचारजीवी" नहीं "प्रचारजीवी" हो गया है।
हिन्दी समाज को जड़ समाज का हिस्सा बताते हुए उन्होंने आगे कहा कि हिन्दी पाठक पुलिसिया निगाह रखता है, वो पूछता है पत्रिकायें निकालने का पैसा कहाँ से आया। इस तरह वो आप (पत्रिका निकालने वाले) की ऊर्जा का दमन करते हैं। उन्होने आगे कहा कि हिन्दी समाज का पाठक पत्रिका तौलकर लेता है वो 20 रुपये की 20 पेज वाली पत्रिका देखकर मुंह बिचकाता है। उन्होंने पत्रिकाओं के इतिहास का हवाला देते हुये आगे कहा कि बड़ी कंपनियों, पूँजीपतियों की पत्रिकायें नागरिक अधिकारों की बात नहीं करेंगी। जो नागरिक अधिकार आज हासिल हैं उनमें छोटी पत्रिकाओं की भूमिका रही है। उन्होंने आगे कहा कि दस्तक, समयान्तर जैसी कुछ पत्रिकायें अकेले दम निकलती हैं। कुछ लोग प्रतिबद्ध हैं इसीलिये विचार बचे हैं। इन हालातों में हिन्दी में पत्रिका निकालना घर फूंक तमाशा देखने वाला काम है।
मीडिया आलोचक अनिल चमड़िया ने आगे कहा कि बड़ी पूंजी वाले लोगों ने अभिव्यक्ति के अधिकारों का अपने हित में इस्तेमाल किया। आपका अधिकार कंपनियां इस्तेमाल कर रही हैं। इसीलिये बाबा साहेब ने मीडिया संस्थानों को विशेषाधिकार नहीं दिया। संवाद का काम बहुत बारीक काम है एक विशेषण से सब बदल जाता है। उन्होंने महिलाओं की पत्रिकाओं का जिक्र करके कहा कि आज़ादी से पहले महिलाओं की सैकड़ों पत्रिकायें होती थी, कोई बौद्धिक पत्रिका महिलाओं की नहीं निकलती। जो निकलती हैं वो महिलाओं के सौन्दर्य की हैं। उन्होंने कहा कि हम विकास विकास करते रह गये और वो सब निगल गये। उन्होंने इस बात का खास तौर पर जिक्र किया कि आज़ादी की लड़ाई के समय पूंजीपति वर्ग जातिवादी पत्रिकायें निकाल रहा था। इलाहाबाद से कायस्थ समाचार पत्रिका निकली।
आलोचना के बिना कोई समाज ज़िन्दा नहीं रह सकता
बीबीसी के पूर्व संवादादता कुर्बान अली ने उर्दू पत्रिकाओं के इतिहास पर संक्षेप में बातें रखीं। उन्होंने बताया कि 1794 में टीपू सुल्तान ने शेरे मैसूर के नाम से उर्दू पत्रिका निकाली थी। उन्होंने शिवनारायण भटनागर के अख़बार ‘स्वराज्य’ की विशेष तौर पर चर्चा करते हुए बताया कि चार वर्षों में उसके 9 संपादकों को राजद्रोह के अंतर्गत सजा, जेल और काला पानी की सजा हुई। उन्होंने आगे बताया कि भयंकर परिस्थितियों में संपादक के पद के लिये विज्ञापन निकाला गया कि स्वराज के लिए एक संपादक चाहिए वेतन दो सूखी रोटियां, एक गिलास ठंडा पानी, और प्रत्येक संपदकीय के लिये 10 साल जेल। इस विज्ञापन के बाद भी 1910 तक पत्र को संपादक मिलते रहे जब तक कि सरकार द्वारा उसे बंद नहीं कर दिया गया।
वरिष्ठ पत्रकार कुर्बान अली ने आगे कहा कि 1857 से 1947 के 90 साल के राष्ट्रीय आन्दोलन में जितने भी राजनेता थे वो सब जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिये पत्र-पत्रिकायें निकाला करते थे। उन्होंने कहा कि 200 सालों के पत्रकारिता के इतिहास में पहले 125 साल राष्ट्रीय आन्दोलन के थे, और आज़ादी के बाद के 75 साल राष्ट्र निर्माण के। उन्होंने फिक्र जाहिर करते हुये कहा कि कहा जा रहा है कि साल 2040 में अमेरिका में आखिरी अख़बार प्रिंट होगा।
प्रेस की आज़ादी के संदर्भ में उन्होंने कहा कि जनतंत्र में मीडिया फ्री नहीं होगा तो जन-आवाज़ दब जायेगी। 19 महीने के आपातकाल में हमने सब देखा है। मौजूदा हालात उससे अच्छे नहीं हैं, बीबीसी पर पड़े छापे इसके गवाह हैं। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु का जिक्र करते हुए कुर्बान अली ने कहा कि उन्होंने कहा था कि प्रेस चाहे जितना भी ग़ैरजिम्मेदार हो जाये लेकिन उस पर पांबंदी लगाने के पक्ष में नहीं हैं।
उन्होंने आगे कहा कि बिना आलोचना के कोई समाज ज़िन्दा नहीं रह सकता। मीडिया की क्रेडिबिलिटी खत्म हो गई है। उन्होंने पेड न्यूज की एक घटना का जिक्र करते हुए कहा कि भूपेंद्र हुड्डा के बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा रोहतक से चुनाव लड़ रहे थे। रोहतक में उनके खिलाफ़ लड़ रहे प्रत्याशी का एक चुनावी कार्यक्रम था। उसमें बीस पच्चीस हजार लोग आये थे। अगले दिन एक अखबार ने पूरे पेज पर 25 हजार की भीड़ को 5 लाख बताया। भूपेंद्र चौधरी ने अख़बार के संपादक को फोन किया तो उसने उन्हें बताया कि ये पेड न्यूज है। इसके लिये उन्हें पैसे दिये गये और जो कहा गया वो उन्होंने छाप दिया। इस पर भूपेंद्र चौधरी ने संपादक से कहा कि अगले दिन के लिये पूरा अख़बार मेरे नाम से बुक करो और लिखो कि ‘यह अख़बार झूठ बोलता है’।
लघुपत्रिकायें जनता की आवाज़ बन रही हैं
समयान्तर के संपादक पंकज बिष्ट ने कार्यक्रम में बोलते हुये कहा कि पूंजीवाद सामान्य आदमी तक आसान पहुंचवाली चीजों को खत्म कर दे रहा है और नई चीजों को ला रहा है जो आम आदमी के पहुंच से दूर है। उन्होंने कहा कि आज आपके हाथ में जो भी है उसका नियंत्रण सत्ताधारी, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास है। ऐसे में लघु पत्रिकाओं का काम है जनता को सचेत करना। वरिष्ठ साहित्यकार पंकज बिष्ट ने आगे कहा कि आज जो सत्ता के लिये ख़तरा बनेगा वो लघु पत्रिकाये ही हैं। जिनमें बड़ी पूंजी लगी है वो सत्ता से बैर नहीं लेंगी। उन्होंने आगे कहा कि लघु पत्रिकायें, जनपत्रिकायें उस गैप को भर रही हैं। जनता की आवाज़ बन रही हैं।
खुद तोप बनने के लिये अडानी अंबानी निकाल रहे अख़ाबर
अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुये वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र कुमार ने कहा कि यादें भी प्रतिरोध होती हैं। उन्होंने कहा कि आज हमारी यादें, हमारी स्मृतियां हमसे छीनी जा रही है। वो जानते हैं कि हमें जितना अपनी विरासत का ध्यान रहेगा उतना प्रतिरोध होगा। उन्होंने कहा कि शब्दों के कैसे अपने पक्ष में मोल्ड करना है इसे सत्ता जानती है। वो अपने शासनकाल को "अमृतकाल" और "अमृतपर्व" कहकर प्रचारित कर रही है। वरिष्ठ आलोचक ने आगे कहा कि एक नागरिक के तौर पर हमें सत्ता को शंका की नजर से देखना चाहिए। कि वो हमें अमृत की जगह स्लो प्वाइजन तो नहीं दे रही कि हम अपना होना ही भूल जायें। उन्होंने बीबीसी पर ताजा कार्रवाई का जिक्र करके कहा कि आज अभिव्यक्ति की आज़ादी के दरवाजे बंद किये जा रहे हैं जब कोई दस्तक देता है तो बीबीसी सा हाल होता है।
प्रताप नारायण मिश्र द्वारा ' ब्राह्मण' नाम से अख़बार निकालने का जिक्र करते हुये उन्होंने कहा कि जातिवादी नाम रखने के बावजूद पत्रकारिता ने इतना असर डाला कि उन्हें हिन्दुस्तान को परिभाषित करते हुये लिखना पड़ा- “अहै इहाँ पर तीन मत, हिन्दू, यवन, क्रिस्तान, भारत की शुभ देह में, तीनहुँ अस्थि समान।” मीडिया द्वारा गांधी को पूंजीपतियों का दलाल बताकर पेश किये जाने पर नाराज़गी जाहिर कते हुये उन्होंने एक वाकिये का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि एक बार घनश्याम दास बिड़ला ने गांधी जी से पूछा कि बापू जब अंग्रेज चले जायेंगे तो हम किससे लड़ेंगे। गांधी ने उत्तर में कहा कि आज़ाद "भारत में हम तुमसे लड़ेगें।" राजेंद्र कुमार जी ने आखिर में अकबर इलाहाबदी के शेर का जिक्र करते हुये कहा कि - तोप हो मुकाबिल तो अख़बार निकालिये, लेकिन आज अडानी अंबानी खुद तोप बन जाने के लिये अखबार निकाल रहे हैं।
दस्तक के 100वें अंक की इस संगोष्ठी में बनारस, आजमगढ़, गोरखपुर, दिल्ली, चंदौली और कोलकाता से भी दस्तक के प्रतिनिधि और पाठक शामिल हुए। इलाहाबाद शहर से वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता रवि किरन जैन, अधिवक्ता, मोहम्मद सईद, राजवेंद्र सिंह, काशन सिद्धिकी, शमशुल इस्लाम, प्रबल प्रताप, सदाशिव, राम कुमार गौतम, नाथूराम बौद्ध, समीउज्जमा खान, साहित्यकार संतोष भदौरिया, सूर्यनारायण, कुमार वीरेंद्र, अंशुमान, संध्या नवोदिता, सुधांशु मालवीय, रश्मि मालवीय, प्रकर्ष, झरना, रूपम मिश्र,आनंद मालवीय, अजामिल, ज्योतिर्मयी, हिमांशु रंजन, अंशुमान, चित्रकार अजय जेटली, रंगकर्मी अनिल रंजन भौमिक, आशुतोष पर्थेश्वर, इतिहासकार हेरंब चतुर्वेदी, ट्रेड यूनियन लीडर हरिश्चंद्र द्विवेदी, अविनाश मिश्र, आर पी कैथल, मानवाधिकार कर्मी गायत्री गांगुली, सोनी आज़ाद, मनीष सिन्हा, महिला संगठन से जुड़ीं एक्टिविस्ट डॉक्टर निधि मिश्र, स्वाति गांगुली, किरण गुप्ता, संपादक जी पी मिश्र, विजय चितौरी सहित इलाहाबाद के विश्वविद्यालय के छात्र छात्राएं और नागरिक बड़ी संख्या में शामिल थे।
कार्यक्रम का समापन सीमा आज़ाद ने फ़ैज़ की इन लाइनों के साथ किया -
"हम परवरिश-ए लौहो-कलम करते रहेंगे
जो दिल पे गुजरती है रकम करते रहेंगे।"
यह विस्तृत रिपोर्ट बनाई है Sushil Manav ने
तस्वीरें Vandana Bhagat और Krishna Manohara