कहानी- गांव का मोहर्रम

Written by जंग हिंदुस्तानी | Published on: August 10, 2022
मातादीन को इस बार इस बात का बहुत दुख था कि वह ताजियादारी नहीं कर पाएंगे। घरेलू समस्या और पैसे की तंगी के साथ-साथ अपने ऊपर वह वर्तमान राजनीति का दबाव भी महसूस कर रहे थे। मातादीन का परिवार कई पीढि़यों से मुहर्रम के मौके पर ताजिया रखता चला आया है। घर के बाहर तख्त डाल कर उस पर बांस और कागज से बने हुए ताजिए को रखकर पूरे श्रद्धा और विश्वास के साथ सम्मान पूर्वक सेवा करते हुए कर्बला तक ले जाते रहे हैं। ढोल और ताशे को बजाते रहे हैं। शिरनी और प्रसाद भी बांटते रहे हैं। अपने सभी त्योहारों के साथ साथ समान रूप से इस त्यौहार को भी मनाते रहे हैं।



मातादीन का गांव तो बहुत छोटा सा है और बहुत पिछड़े इलाके में बसा हुआ है लेकिन गांव में राजनीति राष्ट्रीय स्तर की होती है। बदले हुए माहौल में मातादीन की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह इस वर्ष ताजियादारी करें। इसलिए चुपचाप अपने घर पर बैठे हुए थे। कभी पहले इस गांव में एक दूसरे समुदाय का घर था जिसके साथ बहुत अच्छे संबंध थे लेकिन बदलती हुई परिस्थितियों को भांपकर वह परिवार एक कस्बे में जाकर बस गया, जहां उसकी बिरादरी से बहुत सारे लोग हुआ करते हैं। हालांकि इस गांव से उसे कोई शिकायत न पहले थी और ना आज ही है। शायद उन लोगों की वजह से ताजियादारी का काम मातादीन जैसे अन्य लोगों ने भी सीखा होगा। गांव में उच्च वर्ग के लोगों का प्रभुत्व था लेकिन फिर भी सभी लोग मोहर्रम के ताजिए का सम्मान करते थे। लोग ढोल बजाते हुए उनके दरवाजे पर जाते थे। घर से चीनी या अन्य कोई प्रसाद बांटने के लिए दिया जाता था और शाम को मोहर्रम के मेले में शामिल भी होते थे। पहले इस गांव में लगभग हर घर पर ताजियादारी होती थी लेकिन धीरे-धीरे कम होती चली गई। पिछले साल अकेले मातादीन ने ताजिएदारी की थी लेकिन इस बार तो वह भी चुप मारे बैठे हुए थे।



इस वर्ष मोहर्रम की शुरुआत पर जब गांव में ढोल नहीं बजी तो गांव के लोग इकट्ठा हुए और उन्होंने मातादीन से बुला कर समस्या पूछी। मातादीन ने कहा कि और कोई समस्या नहीं है हम आज ही कावड़ यात्रा से वापस लौटे हैं इसलिए एक तो पैसा नहीं है। आजकल छोटी सी ताजिया भी ₹250 से कम की नहीं मिलती है, दूसरी बात कोई बवाल ना हो जाए, इसलिए हमारी हिम्मत नहीं हो रही है। गांव के सभी लोगों ने एक आवाज़ में कहा कि भले ही हम लोग ताजियादारी करने वाले बिरादरी से नहीं हैं लेकिन हम लोगों के होते हुए तुम्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए था। हम लोग चंदा इकट्ठा करके दे रहे हैं और जाकर आज ही ताजिया लेकर आओ। मातादीन का मन खुशी से झूम उठा। 



आज मोहर्रम है। मातादीन के दरवाजे से ताजिए का जुलूस उठा है। विकास पंडित और संजू सिंह ढोल बजा रहे हैं। विनीत यादव ताशे से आवाज निकाल रहे हैं। पूरा गांव जुलूस के साथ साथ चल रहा है। दरवाजे दरवाजे जा जाकर बड़ी सी ढोल बज रही है। सब कर्बला की ओर जा रहे हैं। बीच-बीच में या हुसैन, या हुसैन के नारे लग रहे हैं। सैकड़ों की तादाद में "पायग" भरने वाले भी और उन्हें कर्बला का वाकया सुनाने वाले भी हैं। मेले में दुकानदार भी वही हैं और खरीदार भी वही। पूछने पर कहते हैं कि जब हम तमाम देवताओं, वृक्षों, पहाड़ों और नदियों को सम्मान पूर्वक मान सकते हैं तो कर्बला में शहीद होने वाले हुसैन को क्यों नहीं? जो ताजियादारी का विरोध करते चले आए हैं वह भी कर्बला में मौजूद हैं। हिंदुस्तान की अजीब तहजीब दूर-दूर तक कर्बला में नजर आ रही है और आपसी एकता फिरकापरस्ती के खिलाफ जंग कर रही है। संविधान मुस्करा रहा है। 

(तस्वीरें प्रतीकात्मक)

(कहानी काल्पनिक है, लेखक कहानी कविता लेख आदि लिखने के साथ-साथ पिछले 18 वर्ष से वन निवासियों के अधिकारों के लिए कतरनिया घाट के जंगलों में अखिल भारतीय वनजन श्रमजीवी यूनियन के साथ जुड़कर कार्य कर रहे हैं।)

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