मोदी सरकार द्वारा वन संरक्षण कानून के नियमों में बदलाव कर, वन संसाधनों को कॉरपोरेट के हाथ सौंपने की तैयारी की जा रही है। जिससे आदिवासियों के अधिकारों में कटौती के तौर पर देखा जा रहा है। केंद्र सरकार ने जंगलों को काटने के संबंध में नए नियम अधिसूचित किए हैं। ये नए नियम निजी डेवलपर्स को बिना आदिवासियों या जंगल में रहने वाले समुदायों की सहमति लिए जंगल काटने की अनुमति देते हैं। कांग्रेस और सीपीएम के साथ किसान सभा ने इसे आदिवासियों के अस्तित्व पर हमला करार दिया है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि जंगल की ज़मीन को लूटने के लिए बीजेपी सरकार वन संरक्षण 2022 के नए नियम ले कर आई है।“ छत्तीसगढ़ किसान सभा ने इन बदलावों को कॉरपोरेटों के हाथों वन संसाधनों को सौंपने और आदिवासियों के अस्तित्व को खत्म करने की साजिश करार दिया है। किसान सभा का कहना है कि संशोधित नियमों ने ग्राम सभाओं और वनों में रहने वाले आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है, क्योंकि सरकार द्वारा विकास परियोजनाओं के अनुमोदन और मंजूरी से पूर्व प्रत्येक ग्राम सभा की सहमति की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया है। इसलिए इन नियमों को तुरंत निरस्त किया जाना चाहिए।
वन संरक्षण कानून 2022 के नए नियमों में सबसे पहली और बड़ी आशंका संविधान की अनुसूची 5 में दिए गए आदिवासी अधिकारों में कटौती की जताई गई है। इसके साथ ही पेसा और वन अधिकार क़ानून 2006 में किए गए प्रावधानों का उल्लंघन की आशंका भी ज़ाहिर की गई है। 28 जून को केन्द्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने वन संरक्षण नियम 2022 नोटिफाई कर दिए हैं। नए नियमों के तहत जंगल पर आदिवासियों के परंपरागत अधिकार को सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी केन्द्र सरकार से राज्य सरकार को दे दी गई है।
पूर्व राज्य सभा सांसद और सीपीएम पोलित ब्यूरो सदस्य बृंदा करात के अनुसार, यह एक ऐसा बदलाव है, जो आदिवासियों को संविधान की अनुसूची 5 में दिए गए अधिकार, पेसा और वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करता है। ज़मीन अधिग्रहण के लिए सबसे ज़रूरी शर्त है कि ग्राम सभा की मंज़ूरी ली जाए लेकिन इन बदलावों के बाद ग्राम सभा की मंज़ूरी की दरकार ख़त्म कर दी गई है।” बृंदा करात उन विपक्षी नेताओं में से हैं जो इस मसले पर शुरुआत से ही बोलती रही हैं। उन्होंने पिछले साल अक्टूबर महीने में ही पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव को एक पत्र लिखा था। उस पत्र में बृंदा करात ने लिखा था कि वन संरक्षण के प्रस्तावित नए नियम वन संरक्षण के लिए कम और कॉरपोरेट के लिए सस्ती ज़मीन फटाफट उपलब्ध कराने के लिए ज़्यादा नज़र आते हैं।
उन्होंने उस समय भी आशंका जताई थी कि वन संरक्षण के नए नियम आदिवासी अधिकारों पर बड़ा हमला होंगे। उनके अनुसार नए नियम जंगल, आरक्षित जंगल और डीम्ड जंगल की परिभाषा को भी कमज़ोर करते हैं।
खास है कि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने बीते 28 जून को 2003 में लाए गए वन संरक्षण अधिनियम की जगह वन संरक्षण अधिनियम 2022 को अधिसूचित किया है। एमबीबी आदि विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, एक बड़ा और महत्वपूर्ण बदलाव यह भी हुआ है कि अब जंगल काटने के लिए आदिवासी समुदायों या फिर जंगल में रहने वाले दूसरे समुदायों से सहमति हासिल करना केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं होगी। नए नियमों के तहत अब यह काम राज्य सरकार का होगा। पहले नियमों के अनुसार यह एक अनिवार्य काम था जो केंद्र सरकार को करना पड़ता था। इस नियम के तहत केंद्र सरकार को वन भूमि की निजी परियोजनाओं के लिए सौंपे जाने की मंज़ूरी देने से पहले केंद्र सरका को आदिवासी समुदायों से मिली सहमती को सत्यापित करना होता था।
इस मसले पर पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। उन्होंने इस सिलसिले में लिखा है,” आदिवासी इलाक़ों में रहने वाले समुदायों की रोज़ी रोटी और जीविका की क़ीमत पर राज्य सरकारों पर जंगल की ज़मीन को डायवर्ट करने का केंद्र सरकार का दबाव अधिक होगा।” उन्होंने कहा है कि नए नियमों को लागू करने से पहले व्यापक विमर्श नहीं किया गया है। जयराम रमेश के अनुसार नए नियम करोड़ों आदिवासियों और जंगल में रहने वाले समुदायों के हक़ों पर हमला है। इन नियमों के बाद उनके अधिकारों में भारी कटौती हो गई है। उन्होंने इस बाबत एक पेज के नोट में लिखा है कि वन संरक्षण अधिनियम 1980 को वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अनुरूप लागू करना सुनिश्चित करने का दायित्व संसद ने सरकार को सौंपा था। लेकिन सरकार ने उस दायित्व को तिलांजलि दे दी है। नए नियमों को विज्ञान और प्रद्योगिकी मंत्रालय यथा पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय संबंधी संस की स्थायी समितियों में विचार विमर्श के लिए नहीं भेजा गया था।
कांग्रेस के नेता और लोकसभा सांसद राहुल गांधी ने भी इस मसले में अपनी राय रखी है। उन्होंने लिखा “मोदी-मित्र सरकार मिलीभगत के चरम पर है! जंगल की ज़मीन को लूटने के लिए बीजेपी सरकार वन संरक्षण 2022 के नए नियम ले कर आई है।“
उधर, विपक्ष के सवालों और आरोपों का जवाब देते हुए सरकार की तरफ़ से कहा गया है कि नए नियम सुधार की दृष्टि से बनाए गए हैं। पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने जयराम रमेश के आरोप का जवाब देते हुए लिखा है, “आप ज़बरदस्ती एक समस्या खड़ी खरने की कोशिश कर रहे हैं जबकि समस्या कोई है ही नहीं। वन अधिकार क़ानून को कमज़ोर नहीं किया गया है। यह स्पष्ट उल्लेखित है कि राज्य सरकार जंगल की ज़मीन को परियोजना के लिए देने से पहले वन अधिकार क़ानून 2006 के सभी प्रावधानों का पालन सुनिश्चित करेगी।” सरकार की तरफ़ से बताया गया है कि वन अधिकार अधिनियम 2006 एक स्वतंत्र प्रक्रिया है। राज्य सरकारें इसका पालन किसी भी स्टेज पर कर सकती हैं लेकिन राज्य सरकारों को जंगल की ज़मीन को किसी परियोजना के लिए देने से पहले यह प्रक्रिया पूरी करनी ही होगी।
पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने कहा है कि अगर कोई राजनीतिक दल इस बात को नहीं समझ रहा है या फिर नहीं समझना चाहता है तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता है। आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा ने भी इस मामले में नए नियमों का बचाव किया है। उन्होंने इस पूरे मामले को अलग ही मोड़ दे दिया है। वो कहते हैं कि विपक्ष के इन आरोपों में कोई दम नहीं है। उनके अनुसार विपक्ष दरअसल इस बात से परेशान है कि एनडीए की तरफ़ से एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया गया है। गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में चुनाव होने से मुद्दे पर राजनीति भी गरम हैं।
वन संरक्षण नियम 2022 से जुड़ी आशंकाएं
वन संरक्षण नियम 2022 के नए नियमों में सबसे पहली और बड़ी आशंका संविधान की अनुसूची 5 में दिए गए आदिवासी अधिकारों में कटौती की जताई गई है। साथ ही पेसा और वन अधिकार क़ानून 2006 में किए गए प्रावधानों का उल्लंघन की आशंका भी ज़ाहिर की गई है। वन संरक्षण क़ानून के नए नियमों के अनुसार कई तरह की परियोजनाओं के लिए जंगल काटने की अनुमति और ज़मीन का हस्तांतरण के लिए निजी कंपनियों को केन्द्र सरकार की अनुमति की ज़रूरत नहीं होगी।
वन संरक्षण के नए नियमों में किसी तरह की लापरवाही के लिए कई तरह की सज़ा यहाँ तक की जेल की सज़ा का प्रावधान भी रखा गया है लेकिन मोटे तौर पर ये नए नियम पहले के नियमों को ढीला करने की मंशा से ही लाए गए लगते हैं। नए नियमों के तहत ग़ैर वानिकी उद्देश्यों के लिए जंगल की ज़मीन हस्तांतरित करना आसान होगा। इन नियमों का बेशक जंगल पर आदिवासियों के परंपरागत अधिकार पर असर पड़ेगा।
उधर, छत्तीसगढ़ किसान सभा ने इन बदलावों को कॉरपोरेट के हाथों वन संसाधनों को सौंपने और आदिवासियों के अस्तित्व को खत्म करने की साजिश करार दिया है। किसान सभा का कहना है कि संशोधित नियमों ने ग्राम सभाओं और वनों में रहने वाले आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है, क्योंकि सरकार द्वारा विकास परियोजनाओं के अनुमोदन और मंजूरी से पूर्व प्रत्येक ग्राम सभा की सहमति की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया है। इसलिए इन नियमों को तुरंत निरस्त किया जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष संजय पराते और महासचिव ऋषि गुप्ता ने कहा है कि वन संरक्षण कानून के नियमों में इस प्रकार के संशोधनों से निजी और कॉरपोरेट कंपनियों का देश के वनों पर नियंत्रण स्थापित होगा। संशोधित नियमों के अनुसार प्रतिपूरक वनीकरण के लिए अन्य राज्यों की गैर-वन भूमि उपलब्ध कराई जाएगी, जिसका सीधा प्रभाव आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर तबकों के भूमि-विस्थापन के रूप में सामने आएगा और जिनके लिए पुनर्वास और मुआवजे का कोई प्रावधान नहीं किया गया है। इस प्रकार भूमिहीनों की जमीन भी कॉरपोरेट कंपनियों के हाथों चली जायेगी। किसान नेताओं ने कहा है कि वन कानून के नियमों में ये संशोधन पूरी तरह से आदिवासी समुदायों और कमजोर तबकों को दी गई संवैधानिक गारंटी के खिलाफ है तथा यह आदिवासी वनाधिकार कानून, पांचवीं और छठी अनुसूचियों, पेसा और संशोधित वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम का भी उल्लंघन है। ये संशोधित नियम वर्ष 2013 में नियमगिरि खनन मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी उल्लंघन है।
किसान सभा ने आरोप लगाया है कि इन नियमों को प्रभावित समुदायों से विचार-विमर्श किये बिना और जनजातीय मामलों के मंत्रालय के सुझावों को नजरअंदाज करके बनाया गया है। इसलिए इन नियमों को संसद की संबंधित स्थायी समिति के पास जांच के लिए भेजा जाना चाहिए, देश की आम जनता के साथ सलाह-मशविरा किया जाना चाहिए और जनजातीय मामलों के मंत्रालय की राय को शामिल किया जाना चाहिए, जो वन अधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए नोडल मंत्रालय है। तब तक के लिए इन नियमों को लागू करना स्थगित करने की मांग किसान सभा ने की है।
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वन संरक्षण कानून 2022 के नए नियमों में सबसे पहली और बड़ी आशंका संविधान की अनुसूची 5 में दिए गए आदिवासी अधिकारों में कटौती की जताई गई है। इसके साथ ही पेसा और वन अधिकार क़ानून 2006 में किए गए प्रावधानों का उल्लंघन की आशंका भी ज़ाहिर की गई है। 28 जून को केन्द्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने वन संरक्षण नियम 2022 नोटिफाई कर दिए हैं। नए नियमों के तहत जंगल पर आदिवासियों के परंपरागत अधिकार को सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी केन्द्र सरकार से राज्य सरकार को दे दी गई है।
पूर्व राज्य सभा सांसद और सीपीएम पोलित ब्यूरो सदस्य बृंदा करात के अनुसार, यह एक ऐसा बदलाव है, जो आदिवासियों को संविधान की अनुसूची 5 में दिए गए अधिकार, पेसा और वन अधिकार अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करता है। ज़मीन अधिग्रहण के लिए सबसे ज़रूरी शर्त है कि ग्राम सभा की मंज़ूरी ली जाए लेकिन इन बदलावों के बाद ग्राम सभा की मंज़ूरी की दरकार ख़त्म कर दी गई है।” बृंदा करात उन विपक्षी नेताओं में से हैं जो इस मसले पर शुरुआत से ही बोलती रही हैं। उन्होंने पिछले साल अक्टूबर महीने में ही पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव को एक पत्र लिखा था। उस पत्र में बृंदा करात ने लिखा था कि वन संरक्षण के प्रस्तावित नए नियम वन संरक्षण के लिए कम और कॉरपोरेट के लिए सस्ती ज़मीन फटाफट उपलब्ध कराने के लिए ज़्यादा नज़र आते हैं।
उन्होंने उस समय भी आशंका जताई थी कि वन संरक्षण के नए नियम आदिवासी अधिकारों पर बड़ा हमला होंगे। उनके अनुसार नए नियम जंगल, आरक्षित जंगल और डीम्ड जंगल की परिभाषा को भी कमज़ोर करते हैं।
खास है कि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) ने बीते 28 जून को 2003 में लाए गए वन संरक्षण अधिनियम की जगह वन संरक्षण अधिनियम 2022 को अधिसूचित किया है। एमबीबी आदि विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, एक बड़ा और महत्वपूर्ण बदलाव यह भी हुआ है कि अब जंगल काटने के लिए आदिवासी समुदायों या फिर जंगल में रहने वाले दूसरे समुदायों से सहमति हासिल करना केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं होगी। नए नियमों के तहत अब यह काम राज्य सरकार का होगा। पहले नियमों के अनुसार यह एक अनिवार्य काम था जो केंद्र सरकार को करना पड़ता था। इस नियम के तहत केंद्र सरकार को वन भूमि की निजी परियोजनाओं के लिए सौंपे जाने की मंज़ूरी देने से पहले केंद्र सरका को आदिवासी समुदायों से मिली सहमती को सत्यापित करना होता था।
इस मसले पर पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। उन्होंने इस सिलसिले में लिखा है,” आदिवासी इलाक़ों में रहने वाले समुदायों की रोज़ी रोटी और जीविका की क़ीमत पर राज्य सरकारों पर जंगल की ज़मीन को डायवर्ट करने का केंद्र सरकार का दबाव अधिक होगा।” उन्होंने कहा है कि नए नियमों को लागू करने से पहले व्यापक विमर्श नहीं किया गया है। जयराम रमेश के अनुसार नए नियम करोड़ों आदिवासियों और जंगल में रहने वाले समुदायों के हक़ों पर हमला है। इन नियमों के बाद उनके अधिकारों में भारी कटौती हो गई है। उन्होंने इस बाबत एक पेज के नोट में लिखा है कि वन संरक्षण अधिनियम 1980 को वन अधिकार अधिनियम, 2006 के अनुरूप लागू करना सुनिश्चित करने का दायित्व संसद ने सरकार को सौंपा था। लेकिन सरकार ने उस दायित्व को तिलांजलि दे दी है। नए नियमों को विज्ञान और प्रद्योगिकी मंत्रालय यथा पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय संबंधी संस की स्थायी समितियों में विचार विमर्श के लिए नहीं भेजा गया था।
कांग्रेस के नेता और लोकसभा सांसद राहुल गांधी ने भी इस मसले में अपनी राय रखी है। उन्होंने लिखा “मोदी-मित्र सरकार मिलीभगत के चरम पर है! जंगल की ज़मीन को लूटने के लिए बीजेपी सरकार वन संरक्षण 2022 के नए नियम ले कर आई है।“
उधर, विपक्ष के सवालों और आरोपों का जवाब देते हुए सरकार की तरफ़ से कहा गया है कि नए नियम सुधार की दृष्टि से बनाए गए हैं। पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने जयराम रमेश के आरोप का जवाब देते हुए लिखा है, “आप ज़बरदस्ती एक समस्या खड़ी खरने की कोशिश कर रहे हैं जबकि समस्या कोई है ही नहीं। वन अधिकार क़ानून को कमज़ोर नहीं किया गया है। यह स्पष्ट उल्लेखित है कि राज्य सरकार जंगल की ज़मीन को परियोजना के लिए देने से पहले वन अधिकार क़ानून 2006 के सभी प्रावधानों का पालन सुनिश्चित करेगी।” सरकार की तरफ़ से बताया गया है कि वन अधिकार अधिनियम 2006 एक स्वतंत्र प्रक्रिया है। राज्य सरकारें इसका पालन किसी भी स्टेज पर कर सकती हैं लेकिन राज्य सरकारों को जंगल की ज़मीन को किसी परियोजना के लिए देने से पहले यह प्रक्रिया पूरी करनी ही होगी।
पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने कहा है कि अगर कोई राजनीतिक दल इस बात को नहीं समझ रहा है या फिर नहीं समझना चाहता है तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता है। आदिवासी मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा ने भी इस मामले में नए नियमों का बचाव किया है। उन्होंने इस पूरे मामले को अलग ही मोड़ दे दिया है। वो कहते हैं कि विपक्ष के इन आरोपों में कोई दम नहीं है। उनके अनुसार विपक्ष दरअसल इस बात से परेशान है कि एनडीए की तरफ़ से एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया गया है। गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में चुनाव होने से मुद्दे पर राजनीति भी गरम हैं।
वन संरक्षण नियम 2022 से जुड़ी आशंकाएं
वन संरक्षण नियम 2022 के नए नियमों में सबसे पहली और बड़ी आशंका संविधान की अनुसूची 5 में दिए गए आदिवासी अधिकारों में कटौती की जताई गई है। साथ ही पेसा और वन अधिकार क़ानून 2006 में किए गए प्रावधानों का उल्लंघन की आशंका भी ज़ाहिर की गई है। वन संरक्षण क़ानून के नए नियमों के अनुसार कई तरह की परियोजनाओं के लिए जंगल काटने की अनुमति और ज़मीन का हस्तांतरण के लिए निजी कंपनियों को केन्द्र सरकार की अनुमति की ज़रूरत नहीं होगी।
वन संरक्षण के नए नियमों में किसी तरह की लापरवाही के लिए कई तरह की सज़ा यहाँ तक की जेल की सज़ा का प्रावधान भी रखा गया है लेकिन मोटे तौर पर ये नए नियम पहले के नियमों को ढीला करने की मंशा से ही लाए गए लगते हैं। नए नियमों के तहत ग़ैर वानिकी उद्देश्यों के लिए जंगल की ज़मीन हस्तांतरित करना आसान होगा। इन नियमों का बेशक जंगल पर आदिवासियों के परंपरागत अधिकार पर असर पड़ेगा।
उधर, छत्तीसगढ़ किसान सभा ने इन बदलावों को कॉरपोरेट के हाथों वन संसाधनों को सौंपने और आदिवासियों के अस्तित्व को खत्म करने की साजिश करार दिया है। किसान सभा का कहना है कि संशोधित नियमों ने ग्राम सभाओं और वनों में रहने वाले आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों को पूरी तरह से समाप्त कर दिया है, क्योंकि सरकार द्वारा विकास परियोजनाओं के अनुमोदन और मंजूरी से पूर्व प्रत्येक ग्राम सभा की सहमति की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया है। इसलिए इन नियमों को तुरंत निरस्त किया जाना चाहिए।
छत्तीसगढ़ किसान सभा के अध्यक्ष संजय पराते और महासचिव ऋषि गुप्ता ने कहा है कि वन संरक्षण कानून के नियमों में इस प्रकार के संशोधनों से निजी और कॉरपोरेट कंपनियों का देश के वनों पर नियंत्रण स्थापित होगा। संशोधित नियमों के अनुसार प्रतिपूरक वनीकरण के लिए अन्य राज्यों की गैर-वन भूमि उपलब्ध कराई जाएगी, जिसका सीधा प्रभाव आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर तबकों के भूमि-विस्थापन के रूप में सामने आएगा और जिनके लिए पुनर्वास और मुआवजे का कोई प्रावधान नहीं किया गया है। इस प्रकार भूमिहीनों की जमीन भी कॉरपोरेट कंपनियों के हाथों चली जायेगी। किसान नेताओं ने कहा है कि वन कानून के नियमों में ये संशोधन पूरी तरह से आदिवासी समुदायों और कमजोर तबकों को दी गई संवैधानिक गारंटी के खिलाफ है तथा यह आदिवासी वनाधिकार कानून, पांचवीं और छठी अनुसूचियों, पेसा और संशोधित वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम का भी उल्लंघन है। ये संशोधित नियम वर्ष 2013 में नियमगिरि खनन मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी उल्लंघन है।
किसान सभा ने आरोप लगाया है कि इन नियमों को प्रभावित समुदायों से विचार-विमर्श किये बिना और जनजातीय मामलों के मंत्रालय के सुझावों को नजरअंदाज करके बनाया गया है। इसलिए इन नियमों को संसद की संबंधित स्थायी समिति के पास जांच के लिए भेजा जाना चाहिए, देश की आम जनता के साथ सलाह-मशविरा किया जाना चाहिए और जनजातीय मामलों के मंत्रालय की राय को शामिल किया जाना चाहिए, जो वन अधिकार अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए नोडल मंत्रालय है। तब तक के लिए इन नियमों को लागू करना स्थगित करने की मांग किसान सभा ने की है।
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