तमाम चुनौतियों व खतरों के बावजूद यह कॉन्फ्रेंस हो रही है, यह ख़ुशी की बात है. इस कॉन्फ्रेंस में आपने मुझे वक्ता के रूप में बुलाया और अपनी बात रखने का मौका दिया, इसके लिए मैं आपका आभार प्रकट करता हूँ.
मैं सबसे पहले तो स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि हिन्दुत्व कोई धर्म या विश्वास नहीं है बल्कि हिन्दू धर्म की ब्राहमणवादी शाखा पर आधारित एक सांप्रदायिक राजनीतिक विचारधारा है, यह एक ऐसा विचार है जो भारत को ‘सेकुलर देश’ के बजाय ‘हिन्दू राष्ट्र’ बनाना चाहता है. हिन्दुत्व और हिन्दूराष्ट्र, लोकतंत्र, न्याय, समानता और स्वतंत्रता व धर्मनिरपेक्षता का विरोधी विचार है, जो संविधान की जगह मनुस्मृति के आधार पर शासन चलाना चाहता है.
हिन्दुत्व जाति और वर्ण की विभेदकारी व्यवस्था को बनाये रखने का पक्षधर है, वह अपने ही धर्म को मानने वाली बहुजन आबादी को नीचा, अशुद्ध और अपवित्र मानने के लिये प्रतिबद्ध है. हिन्दुत्व ब्राहमणों की श्रेष्ठता के अमानवीय विचार से संचालित होता है, यह हिन्दू धर्म का दलित, आदिवासी, पिछड़ा और स्त्री विरोधी उग्रवादी संस्करण है, जो अपने सिद्धांतों और विचारों से पूरी तरह मनुवादी है.
उन्नीसवी सदी के अंतिम दिनों में जब भारत में सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन और विचार अपना स्थान बना रहे थे, सदियों से शोषित व वंचित वर्गों को सत्ता, संपत्ति और शिक्षा जैसे अधिकार मिलने लगे थे, तब प्रतिक्रियावादी विचारकों ने हिन्दुत्व को धर्म का आवरण ओढ़ाकर विकसित किया और दलित, आदिवासी और स्त्रियों को उनके मानवीय हक़ नहीं मिले इसके लिये काम करना शुरू किया.
हिन्दुत्व का जन्म भले ही दिखावे के लिये धर्मांतरण को रोकने, हिन्दू संस्कृति व जीवन मूल्यों को बचाने के नाम पर हुआ था, लेकिन उसका असली मकसद अछूतों व शूद्रों तथा औरतों की आज़ादी को बाधित करना था, इसने इसके लिये मुसलमानों, ईसाईयों के प्रति नफरत फ़ैलाने को अपना हथियार बनाया और इन धर्मों को विदेशी कहते हुए स्वधर्म की रक्षा का झंडा उठाया. किन्तु सच्चाई यह थी कि हिन्दुत्व उन कट्टर जातिवादी सनातनी हिन्दुओं के लिये ढाल के रूप में खड़ा हुआ, जो वर्ण व्यवस्था और जाति की भयावह असमानता को बरक़रार रखते हुए कथित उच्च जातियों का वर्चस्व बनाये रखना चाहते थे.
भारत में आप हिन्दुत्व के पक्षधर संगठनों, समूहों, व्यक्तियों और विचारकों के लेखन और भाषण तथा संगठनों को देखकर इस बात को आसानी से समझ सकते हैं कि यह विचार जाति को बनाये रखने और दलित, आदिवासियों व शूद्रों को मानसिक, वैचारिक,धार्मिक तथा सांस्कृतिक रूप से गुलाम बनाये रखने के लिये बनाया गया सिद्धांत था, जो पूर्णत: राजनीतिक षड्यंत्र था, जिसने हिन्दू धर्म का आवरण ओढ़ रखा था. वह धर्म की रक्षा के नाम पर जाति की रक्षा के एजेंडे को पूरा कर रहा था.
हम साफ देख सकते हैं कि जैसे जैसे भारत में परिवर्तनकामी आन्दोलन खड़े होने लगे, लोग जाति और जाति जन्य भेदभाव और छुआछुत तथा शोषण के खिलाफ खड़े होने लगे, प्रतिक्रियावादी ताकतों ने हिन्दुत्व के झंडे तले खुद को इकट्ठा करना शुरू कर दिया.भारतीय समाज में अछूतों को मानवीय अधिकार दिलाने का काम करने वाले बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने सन 1922 से सामाजिक परिवर्तन का अभियान शुरू किया ही था कि सवर्ण सनातनी नेता विनायक दामोदर सावरकर ने ‘हिन्दुत्व’ को एक सिद्धांत के रूप में स्थापित करने के लिये हिन्दुत्व नाम से किताब लिख डाली.
जब डॉ अम्बेडकर जाति और जातिगत भेदभाव के खिलाफ महाराष्ट्र में सड़कों पर जन आन्दोलन करने के लिये जागृति अभियान शुरू कर रहे थे, ठीक उसी समय में नागपुर में सवर्ण हिन्दू नेता डॉ हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम पर ब्राह्मण श्रेष्ठता को संरक्षित करने और सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन को रोकने के लिये एक अर्ध सैनिक बल गठित करके उसे शस्त्र प्रशिक्षण देना शुरू किया, हालाँकि इसका घोषित उद्धेश्य भारत को उसके आन्तरिक दुश्मनों-जिसमें मुस्लिम,ईसाई और कम्युनिष्ट शामिल थे, इनका मुकाबला करना था, लेकिन असलियत यह थी कि निरंतर कमजोर होती जा रही जाति की दीवार का पुनर्निर्माण इसका अघोषित लक्ष्य था और डॉ अम्बेडकर के परिवर्तन के आन्दोलनों का मुकाबला करना था.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कभी भी डॉ अम्बेडकर के सामाजिक परिवर्तन के किसी भी आन्दोलन का समर्थन नहीं किया. अम्बेडकर जब महाराष्ट्र में महाड के चावदार तालाब में अछूतों को पानी पीने का अधिकार दिलाने हेतु जल सत्याग्रह कर रहे थे, तब आरएसएस ने दूरी बनाये रखी और जब अम्बेडकर के अनुयायियों ने मनुस्मृति का दहन किया तो इसकी आलोचना की, इसके बाद नासिक में कालाराम मंदिर में प्रवेश हेतु डॉ अम्बेडकर की अगुवाई में चले लम्बे आन्दोलन में भी न हेडगेवार आरएसएस और न ही हिन्दुत्व के सिद्धांतकार वी डी सावरकर ने किसी प्रकार का सहयोग दिया.
डॉ अम्बेडकर ने जब जाति को भारत और हिन्दू धर्म की सबसे क्रूर, अमानवीय और अतार्किक तथा अवैज्ञानिक व्यवस्था बताया और जाति का विनाश नामक किताब लिखी तो उसके प्रत्युतर में आरएसएस के विचारक गुरूजी गोलवलकर तथा अन्यों ने जाति को हिन्दू धर्म का वैशिष्ट्य बताया और इस विशिष्टता पर गर्व किया. उन्होंने जाति, वर्ण को अपने धर्म की महान पद्धति बताया और बाद के दिनों में उन्होंने भारतीय संविधान को पश्चिम देशों की नक़ल बताते हुए उसकी जगह मनु स्मृति लागू करने की खुले आम वकालत की और डॉ अम्बेडकर की कड़ी आलोचना की. जब डॉ अम्बेडकर हिन्दू स्त्रियों की मुक्ति के लिये हिन्दू कोड बिल जैसा क्रान्तिकारी कानून पास करना चाहते थे, तब भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू महासभा और अन्य हिन्दुत्ववादी समूहों ने कानून तथा डॉ अम्बेडकर की उग्र आलोचना की, उनके पुतले जलाये और जान से मारने की धमकियाँ तक दीं.
इस तरह हम देख सकते हैं कि हिन्दुत्व अपने जन्म से ही जातिवादी, अमानवीय तथा असहिष्णु व क्रूर है. हिन्दुत्व के सिद्धांत की पैदाइश ही जाति की व्यवस्था को बनाये रखने और सामाजिक बराबरी लाने के आन्दोलन को रोकने के लिये हुई है. उसकी कथनी और करनी में जमीन आसमान का अन्तर रहा है. आरएसएस जो कि आज हिन्दुत्व का सबसे बड़ा प्रवक्ता है और देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है, उसका चरित्र भी जातिवादी है, उसके विचार और व्यवहार से मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूँ कि हिन्दुत्व के नाम पर आरएसएस ब्राहमणवाद की पुनर्स्थापना करना चाहता है.
आरएसएस के सांगठनिक ढाँचे में काम करते हुए मैंने वहां जाति को सबसे प्रमुख रूप से मौजूद पाया और खुद भी जातिगत भेदभाव सहन किया. मैं पांच साल आरएसएस के साथ था. मैं मुख्यशिक्षक से लेकर जिला कार्यालय प्रमुख तक रहा और अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ने के लिये की गई पहली कारसेवा में भाग लेने गया. दस दिन जेल में भी रहा. मैं आरएसएस का फुलटाइम प्रचारक बनना चाहता था. मेरे जैसे कार्यकर्ता के घर पर बना खाना भी राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद् के लोग और साधु-संत इसलिये नहीं खाये, क्योंकि मैं एक कथित नीची जाति से ताल्लुक रखता हूँ और मुझ जैसे अस्पृश्य के घर खाना खाने से इन श्रेष्ठ हिन्दुओं का हिन्दुत्व नष्ट हो सकता था, इसलिए वे मेरे घर बना खाना पैक करवा कर ले गये और रास्ते में फेंक कर चले गये, दरअसल आरएसएस की नाभि में ही दलित आदिवासियों के प्रति घृणा कूट कूट कर भरी हुई है.
मैंने आरएसएस में काम करते हुये देखा है कि दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोग उनके हरावल दस्ते के रूप में काम करने के लिये रखे जाते हैं, वे नीति निर्माण अथवा रणनीतियां तय नहीं करते, उनका उपयोग और उपभोग किया जाता है तथा उन्हें धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध औजार के रूप में इस्तेमाल किये जाते हैं. आरएसएस के 95 साल के लम्बे सफ़र में उसके सात मुखियाओं में से छह ब्राहमण और एक क्षत्रिय को मौका मिला है, एक भी दलित, आदिवासी और पिछड़ा सरसंघचालक नहीं बन सका है और न ही अगले पचास साल बन सकने की कोई संभावना है, भारत का राष्ट्रपति दलित बन सकता है,लेकिन आरएसएस का मुखिया दलित नहीं बन सकता है, यहाँ तक कि आरएसएस की अखिल भारतीय कार्यकारिणी में भी कोई दलित आदिवासी नहीं प्रवेश कर सकता है. अगर हिन्दुत्ववादी ताकतों का यही हिन्दू राष्ट्र है तो ऐसे जातिवादी हिन्दुराष्ट्र में तो उनके लिये कोई जगह दिखाई नहीं देती है.
आरएसएस के बड़े नेता हिन्दुत्व की आड़ लेकर चाहे जितने समरसता के दावे करें, लेकिन उसका सम्पूर्ण कैडर दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के लिये निर्धारित संवैधानिक आरक्षण का विरोधी है, वह आरक्षण को हटाने की मांग करता है, यहाँ तक कि जातिगत छुआछुत और अन्याय उत्पीडन रोकने के लिये बनाये गये अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम जैसे कानून के भी आरएसएस का कैडर खिलाफ में खड़ा रहता है.
हिन्दुत्व के पैरोकारों ने आज तक जाति को ख़त्म करने अथवा जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिये कोई आन्दोलन नहीं चलाया, वे तो जाति को जरुरी मानते हैं, जाति पर गर्व करते हैं, जाति में जन्मते हैं, जाति में शादियाँ करते है और जाति के लिये मरने मारने तक के लिये तैयार रहते हैं.
आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व राजनीतिक रूप से सही रहने के लिये मीठी मीठी बातें करता है और पोलिटिकली करेक्ट बयान जारी करता है, जबकि उसकी समर्थित भाजपा सरकार दलितों को प्रदत्त तमाम सुविधाएँ और कानूनी संरक्षण को लगातार कम कर रही हैं. आरक्षण, छात्रवृतियां, शोधवृतियां, अत्याचार निवारण एक्ट और अनुसूचित जाति जनजाति विकास हेतु आने वाले फंड्स में निरंतर कमी की जा रही, तेजी से तमाम सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में बेचा जा रहा है, ताकि आरक्षण स्वत: ख़त्म हो जाये.
भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनियां में जातिवाद ने जड़ें जमा ली हैं, विदेशों में भी दलितों को भेदभाव सहन करना पड़ता है, हिन्दुत्व प्रेरित धार्मिक समूह दलित श्रमिकों का देश और विदेश तक में शोषण कर रहे हैं, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति घृणा इस स्तर पर बढ़ा दी गई है कि अब उनकी खुले आम मॉब लिंचिंग की जा रही है, स्थितियां बेहद भयावह हो चुकी हैं. आज हिन्दुत्व का उग्र राजनीतिक सिद्धांत और उसको माननेवाले लोग मानवता के लिये चुनौती बन गये हैं, इसलिए यह बहुत जरुरी है कि इस जातिवादी, जनविरोधी उग्र हिन्दुत्व को नकार दिया जाये और वैश्विक रूप से इसके फैलाव को रोका जाये, अन्यथा यह सबके लिये खतरनाक साबित होगा.
आपने मुझे आमंत्रित किया और अपनी बात रखने का अवसर दिया,मैं आपका आभारी हूँ, उम्मीद है कि हम हिंदुत्व के इस अमानवीय और मारक राजनीतिक विचार को विनष्ट करने के काम को साथ मिलकर करते रहेंगे.बहुत बहुत शुक्रिया.
(लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी ने 'डिस्मेन्टलिंग ग्लोबल हिंदुत्व कॉन्फ्रेंस' में हिस्सा लिया। उन्होंने वहां जो भाषण दिया वह यहां शून्यकाल से साभार प्रकाशित किया गया है।)
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हिन्दुत्व जाति और वर्ण की विभेदकारी व्यवस्था को बनाये रखने का पक्षधर है, वह अपने ही धर्म को मानने वाली बहुजन आबादी को नीचा, अशुद्ध और अपवित्र मानने के लिये प्रतिबद्ध है. हिन्दुत्व ब्राहमणों की श्रेष्ठता के अमानवीय विचार से संचालित होता है, यह हिन्दू धर्म का दलित, आदिवासी, पिछड़ा और स्त्री विरोधी उग्रवादी संस्करण है, जो अपने सिद्धांतों और विचारों से पूरी तरह मनुवादी है.
उन्नीसवी सदी के अंतिम दिनों में जब भारत में सामाजिक परिवर्तन का आन्दोलन और विचार अपना स्थान बना रहे थे, सदियों से शोषित व वंचित वर्गों को सत्ता, संपत्ति और शिक्षा जैसे अधिकार मिलने लगे थे, तब प्रतिक्रियावादी विचारकों ने हिन्दुत्व को धर्म का आवरण ओढ़ाकर विकसित किया और दलित, आदिवासी और स्त्रियों को उनके मानवीय हक़ नहीं मिले इसके लिये काम करना शुरू किया.
हिन्दुत्व का जन्म भले ही दिखावे के लिये धर्मांतरण को रोकने, हिन्दू संस्कृति व जीवन मूल्यों को बचाने के नाम पर हुआ था, लेकिन उसका असली मकसद अछूतों व शूद्रों तथा औरतों की आज़ादी को बाधित करना था, इसने इसके लिये मुसलमानों, ईसाईयों के प्रति नफरत फ़ैलाने को अपना हथियार बनाया और इन धर्मों को विदेशी कहते हुए स्वधर्म की रक्षा का झंडा उठाया. किन्तु सच्चाई यह थी कि हिन्दुत्व उन कट्टर जातिवादी सनातनी हिन्दुओं के लिये ढाल के रूप में खड़ा हुआ, जो वर्ण व्यवस्था और जाति की भयावह असमानता को बरक़रार रखते हुए कथित उच्च जातियों का वर्चस्व बनाये रखना चाहते थे.
भारत में आप हिन्दुत्व के पक्षधर संगठनों, समूहों, व्यक्तियों और विचारकों के लेखन और भाषण तथा संगठनों को देखकर इस बात को आसानी से समझ सकते हैं कि यह विचार जाति को बनाये रखने और दलित, आदिवासियों व शूद्रों को मानसिक, वैचारिक,धार्मिक तथा सांस्कृतिक रूप से गुलाम बनाये रखने के लिये बनाया गया सिद्धांत था, जो पूर्णत: राजनीतिक षड्यंत्र था, जिसने हिन्दू धर्म का आवरण ओढ़ रखा था. वह धर्म की रक्षा के नाम पर जाति की रक्षा के एजेंडे को पूरा कर रहा था.
हम साफ देख सकते हैं कि जैसे जैसे भारत में परिवर्तनकामी आन्दोलन खड़े होने लगे, लोग जाति और जाति जन्य भेदभाव और छुआछुत तथा शोषण के खिलाफ खड़े होने लगे, प्रतिक्रियावादी ताकतों ने हिन्दुत्व के झंडे तले खुद को इकट्ठा करना शुरू कर दिया.भारतीय समाज में अछूतों को मानवीय अधिकार दिलाने का काम करने वाले बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर ने सन 1922 से सामाजिक परिवर्तन का अभियान शुरू किया ही था कि सवर्ण सनातनी नेता विनायक दामोदर सावरकर ने ‘हिन्दुत्व’ को एक सिद्धांत के रूप में स्थापित करने के लिये हिन्दुत्व नाम से किताब लिख डाली.
जब डॉ अम्बेडकर जाति और जातिगत भेदभाव के खिलाफ महाराष्ट्र में सड़कों पर जन आन्दोलन करने के लिये जागृति अभियान शुरू कर रहे थे, ठीक उसी समय में नागपुर में सवर्ण हिन्दू नेता डॉ हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम पर ब्राह्मण श्रेष्ठता को संरक्षित करने और सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन को रोकने के लिये एक अर्ध सैनिक बल गठित करके उसे शस्त्र प्रशिक्षण देना शुरू किया, हालाँकि इसका घोषित उद्धेश्य भारत को उसके आन्तरिक दुश्मनों-जिसमें मुस्लिम,ईसाई और कम्युनिष्ट शामिल थे, इनका मुकाबला करना था, लेकिन असलियत यह थी कि निरंतर कमजोर होती जा रही जाति की दीवार का पुनर्निर्माण इसका अघोषित लक्ष्य था और डॉ अम्बेडकर के परिवर्तन के आन्दोलनों का मुकाबला करना था.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कभी भी डॉ अम्बेडकर के सामाजिक परिवर्तन के किसी भी आन्दोलन का समर्थन नहीं किया. अम्बेडकर जब महाराष्ट्र में महाड के चावदार तालाब में अछूतों को पानी पीने का अधिकार दिलाने हेतु जल सत्याग्रह कर रहे थे, तब आरएसएस ने दूरी बनाये रखी और जब अम्बेडकर के अनुयायियों ने मनुस्मृति का दहन किया तो इसकी आलोचना की, इसके बाद नासिक में कालाराम मंदिर में प्रवेश हेतु डॉ अम्बेडकर की अगुवाई में चले लम्बे आन्दोलन में भी न हेडगेवार आरएसएस और न ही हिन्दुत्व के सिद्धांतकार वी डी सावरकर ने किसी प्रकार का सहयोग दिया.
डॉ अम्बेडकर ने जब जाति को भारत और हिन्दू धर्म की सबसे क्रूर, अमानवीय और अतार्किक तथा अवैज्ञानिक व्यवस्था बताया और जाति का विनाश नामक किताब लिखी तो उसके प्रत्युतर में आरएसएस के विचारक गुरूजी गोलवलकर तथा अन्यों ने जाति को हिन्दू धर्म का वैशिष्ट्य बताया और इस विशिष्टता पर गर्व किया. उन्होंने जाति, वर्ण को अपने धर्म की महान पद्धति बताया और बाद के दिनों में उन्होंने भारतीय संविधान को पश्चिम देशों की नक़ल बताते हुए उसकी जगह मनु स्मृति लागू करने की खुले आम वकालत की और डॉ अम्बेडकर की कड़ी आलोचना की. जब डॉ अम्बेडकर हिन्दू स्त्रियों की मुक्ति के लिये हिन्दू कोड बिल जैसा क्रान्तिकारी कानून पास करना चाहते थे, तब भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिन्दू महासभा और अन्य हिन्दुत्ववादी समूहों ने कानून तथा डॉ अम्बेडकर की उग्र आलोचना की, उनके पुतले जलाये और जान से मारने की धमकियाँ तक दीं.
इस तरह हम देख सकते हैं कि हिन्दुत्व अपने जन्म से ही जातिवादी, अमानवीय तथा असहिष्णु व क्रूर है. हिन्दुत्व के सिद्धांत की पैदाइश ही जाति की व्यवस्था को बनाये रखने और सामाजिक बराबरी लाने के आन्दोलन को रोकने के लिये हुई है. उसकी कथनी और करनी में जमीन आसमान का अन्तर रहा है. आरएसएस जो कि आज हिन्दुत्व का सबसे बड़ा प्रवक्ता है और देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है, उसका चरित्र भी जातिवादी है, उसके विचार और व्यवहार से मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूँ कि हिन्दुत्व के नाम पर आरएसएस ब्राहमणवाद की पुनर्स्थापना करना चाहता है.
आरएसएस के सांगठनिक ढाँचे में काम करते हुए मैंने वहां जाति को सबसे प्रमुख रूप से मौजूद पाया और खुद भी जातिगत भेदभाव सहन किया. मैं पांच साल आरएसएस के साथ था. मैं मुख्यशिक्षक से लेकर जिला कार्यालय प्रमुख तक रहा और अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ने के लिये की गई पहली कारसेवा में भाग लेने गया. दस दिन जेल में भी रहा. मैं आरएसएस का फुलटाइम प्रचारक बनना चाहता था. मेरे जैसे कार्यकर्ता के घर पर बना खाना भी राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद् के लोग और साधु-संत इसलिये नहीं खाये, क्योंकि मैं एक कथित नीची जाति से ताल्लुक रखता हूँ और मुझ जैसे अस्पृश्य के घर खाना खाने से इन श्रेष्ठ हिन्दुओं का हिन्दुत्व नष्ट हो सकता था, इसलिए वे मेरे घर बना खाना पैक करवा कर ले गये और रास्ते में फेंक कर चले गये, दरअसल आरएसएस की नाभि में ही दलित आदिवासियों के प्रति घृणा कूट कूट कर भरी हुई है.
मैंने आरएसएस में काम करते हुये देखा है कि दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोग उनके हरावल दस्ते के रूप में काम करने के लिये रखे जाते हैं, वे नीति निर्माण अथवा रणनीतियां तय नहीं करते, उनका उपयोग और उपभोग किया जाता है तथा उन्हें धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरुद्ध औजार के रूप में इस्तेमाल किये जाते हैं. आरएसएस के 95 साल के लम्बे सफ़र में उसके सात मुखियाओं में से छह ब्राहमण और एक क्षत्रिय को मौका मिला है, एक भी दलित, आदिवासी और पिछड़ा सरसंघचालक नहीं बन सका है और न ही अगले पचास साल बन सकने की कोई संभावना है, भारत का राष्ट्रपति दलित बन सकता है,लेकिन आरएसएस का मुखिया दलित नहीं बन सकता है, यहाँ तक कि आरएसएस की अखिल भारतीय कार्यकारिणी में भी कोई दलित आदिवासी नहीं प्रवेश कर सकता है. अगर हिन्दुत्ववादी ताकतों का यही हिन्दू राष्ट्र है तो ऐसे जातिवादी हिन्दुराष्ट्र में तो उनके लिये कोई जगह दिखाई नहीं देती है.
आरएसएस के बड़े नेता हिन्दुत्व की आड़ लेकर चाहे जितने समरसता के दावे करें, लेकिन उसका सम्पूर्ण कैडर दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के लिये निर्धारित संवैधानिक आरक्षण का विरोधी है, वह आरक्षण को हटाने की मांग करता है, यहाँ तक कि जातिगत छुआछुत और अन्याय उत्पीडन रोकने के लिये बनाये गये अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम जैसे कानून के भी आरएसएस का कैडर खिलाफ में खड़ा रहता है.
हिन्दुत्व के पैरोकारों ने आज तक जाति को ख़त्म करने अथवा जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिये कोई आन्दोलन नहीं चलाया, वे तो जाति को जरुरी मानते हैं, जाति पर गर्व करते हैं, जाति में जन्मते हैं, जाति में शादियाँ करते है और जाति के लिये मरने मारने तक के लिये तैयार रहते हैं.
आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व राजनीतिक रूप से सही रहने के लिये मीठी मीठी बातें करता है और पोलिटिकली करेक्ट बयान जारी करता है, जबकि उसकी समर्थित भाजपा सरकार दलितों को प्रदत्त तमाम सुविधाएँ और कानूनी संरक्षण को लगातार कम कर रही हैं. आरक्षण, छात्रवृतियां, शोधवृतियां, अत्याचार निवारण एक्ट और अनुसूचित जाति जनजाति विकास हेतु आने वाले फंड्स में निरंतर कमी की जा रही, तेजी से तमाम सार्वजनिक उपक्रमों को निजी हाथों में बेचा जा रहा है, ताकि आरक्षण स्वत: ख़त्म हो जाये.
भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनियां में जातिवाद ने जड़ें जमा ली हैं, विदेशों में भी दलितों को भेदभाव सहन करना पड़ता है, हिन्दुत्व प्रेरित धार्मिक समूह दलित श्रमिकों का देश और विदेश तक में शोषण कर रहे हैं, दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति घृणा इस स्तर पर बढ़ा दी गई है कि अब उनकी खुले आम मॉब लिंचिंग की जा रही है, स्थितियां बेहद भयावह हो चुकी हैं. आज हिन्दुत्व का उग्र राजनीतिक सिद्धांत और उसको माननेवाले लोग मानवता के लिये चुनौती बन गये हैं, इसलिए यह बहुत जरुरी है कि इस जातिवादी, जनविरोधी उग्र हिन्दुत्व को नकार दिया जाये और वैश्विक रूप से इसके फैलाव को रोका जाये, अन्यथा यह सबके लिये खतरनाक साबित होगा.
आपने मुझे आमंत्रित किया और अपनी बात रखने का अवसर दिया,मैं आपका आभारी हूँ, उम्मीद है कि हम हिंदुत्व के इस अमानवीय और मारक राजनीतिक विचार को विनष्ट करने के काम को साथ मिलकर करते रहेंगे.बहुत बहुत शुक्रिया.
(लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी ने 'डिस्मेन्टलिंग ग्लोबल हिंदुत्व कॉन्फ्रेंस' में हिस्सा लिया। उन्होंने वहां जो भाषण दिया वह यहां शून्यकाल से साभार प्रकाशित किया गया है।)
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