मॉल्स, फैक्ट्री, रेस्त्रां में काम करने वालों से कैसे पूछें कि आप कैसे हैं ?

Written by Mithun Prajapati | Published on: July 27, 2020
सुबह का समय था। मार्किट बिलकुल सोकर उठे हुए इंसान की तरह सुस्त थी। कुछ दुकानें खुली थीं कुछ खुलने के लिए मालिक या मालिक के असिस्टेंट का वेट कर रही थीं। सड़क पर कुछ ही लोग दिख रहे थे जो जरूरत से निकले थे। 



एक कार का ब्रेक ठीक दुकान के सामने लगा। ब्रेक लगने से चीं चांयं की आवाज बड़ी तेज से गूंजी। ऐसा लगा कार को बहुत दिन से बाहर निकाला नहीं गया था तो ब्रेक जाम की वजह से यह हो गया। पर गाड़ी की आवाज से बहुतों का काम प्रभावित हुआ। दूध का पैकेट बेचने वाला हिसाब भूल गया, चोरी से जो चाय बेच रहा था वह डरा कि कहीं पुलिस तो नहीं है, केले वाला यह भूल कर बैठा कि ग्राहक ने चार केले मांगे या छः, चलते हुए राहगीरों में कुछ को एक्सीडेंट का भ्रम हुआ। मतलब कि इस गाड़ी की आवाज जितनों के कान में पड़ी सब प्रभावित हुए। बाकी दुनिया जो जग रही थी और आवाज न सुनी उसे इसका कोई फर्क न पड़ा। मसलन जो व्यक्ति रातभर जगकर डॉक्टर कफ़ील, सुधा भारद्वाज, वरवर राव जैसे लोगों की रिहाई के लिए पोस्टर बनाता रहा वह अब भी थककर सोता ही रहा। कश्मीर में धारा 370 खत्म होने के एक साल होने ही वाले हैं। इस एक साल में कश्मीर ने क्या झेला क्या क्या सहा, इसपर लेख लिखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता को भी इस गाड़ी के रुकने से कुछ फर्क न पड़ा क्योंकि उसने आवाज न सुनी। फर्क तो उन्हें भी न पड़ा जो जेल में बस इस शक में ठूस दिए गए हैं कि उनके संबंध देश विरोधी ताकतों से हैं। इन जेल में ठूसे गए लोगों को इस बात का प्रभाव जरूर पड़ा कि उनकी ज़िंदगी का एक और बहुमूल्य दिन इसलिए यातनाओं से गुजर गया कि वे माइनॉरिटी से हैं, आदिवासी हैं।

कार ठीक दुकान के सामने रुकी। वह इतनी गंदी दिख रही थी कि शायद मालिक ने भी उसे नंबर से ही पहचाना होगा। चिड़ियों की टट्टी और धूल, ऊपर से गिरी हुई पेड़ की पत्तियों से गाड़ी बहुत ही भद्दी दिख रही थी। सामने के कांच पर यदि वाइपर न चलाया गया होता तो मेरे लिए भी यह पहचान करना मुश्किल होता कि जो गाड़ी सामने आकर आवाज करती हुई रुकी है उसमें बैठा व्यक्ति मेरा रेगुलर ग्राहक है या नया है या फिर कभी कभी आने वाला। गाड़ी पर ठीक आगे बीच में छोटे छोटे अक्षरों में राजपूत लिखा था। 

उस राजपूत लिखे और पारदर्शी हुए कांच के उस पार दिख रहे चेहरे को देखकर मुझे जरा भी वक्त ये जानने में न लगा वे मेरे प्रिय ग्राहक हैं जो रेगुलर भी हैं। राजपूत उन्होंने नहीं लिखवाया था। वो तो उनके फादर की जिद थी। फादर उनके इस बात पर गर्व करते हैं कि वे राजपूत हैं। पर उनके अंदर यह बात नहीं है। अक्सर लोग घर का माहौल ठीक रखने के लिए फादर से समझौता कर लेते हैं। 

वे कार से उतरे। दाढी बढ़ी हुई थी। पहले वे क्लीन शेव रखते थे। वे बहुत दिन बाद दिखे थे। उतरते ही उन्होंने पहले की तरह हाय कहा। पर इस हाय में वह बात न थी जो वे पहले कहा करते थे। वाइफ उनकी गाड़ी में ही थी। उन्होंने अंदर से ही हाय कहा। मैंने बस मुस्कुराहट में जवाब दिया। 

इतने दिन बाद उन्हें देखकर मुझे खुशी हुई। वे इंसान अच्छे हैं। सब्जियां भी खूब ले लेते हैं। पैसे भी पूरे देते हैं। मैंने हमेशा की तरह आज भी पहले हाल चाल पूछा। उन्होंने कहा- बस ठीक ही है। 

इस कोरोना काल में किसी के हाल पूछना भी तंज जैसा लगता है। अक्सर आजकल जवाब ठीक ही है से मिलता है। कितना ठीक है यह तो सब दिखाई दे रहा है। मैं किसी मॉल में काम करने वाले से उसका हाल पूछता हूँ तो मुझे यह पहले पता होना चाहिए कि मॉल्स सब बन्द है। अधिक से अधिक लोगों को नौकरी से निकाल दिया है। जिन्हें महीने के 10 से 20 हजार मिल जाते थे इन चार महीनों में उन्होंने अपना समय कैसे काटा होगा ? मैं उन लोगों से हाल कैसे पूछुं जो ट्रेनों में घूमकर सामान बेचते थे, सड़क किनारे दाढ़ी बनाते थे, कोरोना से पहले चल रही फैक्ट्री में काम करते थे, या फिर वो महिलाएं जो दूसरों के घर में काम करती थी पर मालकिन अब नहीं बुला रही ? 

मैंने उन्हें चाय के लिए पूछा। वे पूछे- मिल रही है?
मैंने कहा- हो जाता है जुगाड़। 

वे थोड़ा मुस्कुराये। बोले- लॉक डाउन के बाद से ही आज बाहर निकले हैं कार लेकर। डर की वजह से बहुत जरूरी होने पर बस घर के नीचे तक आ जाते थे अबतक। 

उन्होंने वाइफ की तरफ इशारा करते हुए कहा- उनसे भी पूछ लो शायद चाय पियें। बहुत दिन से बाहर की चाय पीने का मन था। कितना मन मारें। 

मैंने गाड़ी की तरफ इशारा करके इशारे में ही उनकी वाइफ से चाय के लिए पूछा। उन्होंने मुस्कुराते हुए हां कहा। 

मैंने चाय वाले को चाय के लिए फोन किया तो वह तुरंत आ गया लेकर। अब पहले जैसा मामला नहीं है कि दो बार फोन करना पड़े। अब वह बस ग्राहक देखते रहता है। एक दिन कह रहा था कि बड़ी मुश्किल से खर्च चल रहा है। पर बैठने से अच्छा है कुछ तो चल रहा है।  आधी चाय तो साहब लोग को पिलाने में ही खत्म हो जाती है। पर ठीक है। 

मैंने उन्हें चाय पकड़ाई। वाइफ को भी दे आया। वे चाय पीते हुए कहने लगे- कैसा चल रहा तुम्हारा सब ? 
मेरे मुंह से भी यही निकला - बस चल रहा है। 

वे कहने लगे- अप्रैल से जॉब चली गई है। लीव विदाउट पे पर भेज दिया है। इसे क्या ही समझें। हालात हमारे भी बहुत अच्छे नहीं हैं। घर का भाड़ा, बच्चों की स्कूल फीस, डेली खर्च से बची हुई सेविंग भी खत्म होने को है। सब कब नार्मल होगा कुछ पता नहीं। राजपूत हो या किसी का पूत यह कारपोरेट किसी को नहीं बख़्सता। 

मैं बस इतना कह पाया कि ये दिन भी निकल जाएंगे। चाय खत्म कर उन्होंने वाइफ की तरफ इशारा कर कहा कि पूछो कुछ सब्जियां लेनी हैं उन्हें। 

मैंने गाड़ी की तरफ देखा। उनकी वाइफ ने कुछ सब्जियां बताई। मैं निकालने लगा। वे बस देख रहे थे। कुछ सब्जियां निकल जाने के बाद उन्होंने पूछा- इतने का कितना पैसा हुआ ? 

मैंने बताया- 150 तक हुआ होगा। 

उन्होंने वाइफ की तरफ देखते हुए कहा- बस करो अब अगली बार ले लेंगे। 

पर वाइफ ने फिर बताना शुरू  किया कि ये ये भी खत्म है। उन्होंने कहा- दे दो भाई ये भी। 

"अब कितने पैसे हुए ?" उन्होंने उदास होते हुए पूछा।

मैंने बताया- 220 तक हुए होंगे। 

उन्होंने कहा- अब बस करो। 

वाइफ ने अंदर से आवाज दी- आलू तो कुछ भी नहीं है घर में। 

उन्होंने कहा- एक किलो आलू भी दे दो पर....

अब वाइफ की तरफ मुड़े और कहा- अब कुछ मत लो। अगली बार ले लेंगे। 

वाइफ ने बस हां में सिर हिलाया। 

उन्होंने टोटल पूछा तो मैंने 255 बताया। वे बोले- आलू 35 का किलो हो गया है ? 

मैं कैसे कहता कि नहीं 40 बेच रहा हूँ पर 35 ही पकड़ा है? यह सबको नहीं कहा जाता। आजतक उन्होंने कभी इस तरह से नहीं पूछा था कि फला सब्जी इतना महंगा हो गया है ? उन्होंने 150 का किलो प्याज खाया 140 का किलो पिछले साल टमाटर खाया पर भाव कभी न पूछा। हर बार 500 के करीब की सब्जी भर लेते थे पर आज आधे भी न हुए। ऐसे सिर्फ वे ही नहीं थे। बहुत से ग्राहकों का यही हाल हो गया है इन दिनों। 

मैंने बस उन्हें हां में जवाब दिया। 

उन्होंने 270 रुपये दिए और कहा- 15 चाय वाले को दे देना। यह अक्सर वह करते थे। चाय पीते थे पर चाय का पैसा जबरदस्ती दे देते थे। मैंने आज भी मना न किया। 

सब्जी गाड़ी में रख दी गई। वे गाड़ी में बैठे। उनकी वाइफ की निगाह सामने पड़ी हरी चायपत्ती पर पड़ी। वह अक्सर यह ले जाया करती थी। मेरी निगाह उन्हें चायपत्ती देखते हुए देख गई। वह चायपत्ती के लिए हसबैण्ड से कह नहीं पा रही थीं। शायद पति की तंगी बहुत अच्छे से समझ रही थी। 

मुझे उन्हें हरी चायपत्ती देनी थी। पर क्या करता ? 

अचानक कुछ सूझा मुझे। मैंने चाय की पट्टी का बंडल खोला। उसमें से उतनी चाय पत्ती निकालकर लपेटी जितना वे ले जाती थी। गाड़ी स्टार्ट हो चुकी थी। मैं गाड़ी की तरफ दौड़ा। मैंने पीछे बैठी वाइफ को चायपत्ती पकड़ा दी और उनके हसबैण्ड से कहने लगा- हिसाब में थोड़ी गड़बड़ हो गई थी। बीस रुपये गलती से ज्यादा जोड़ लिए थे। अभी छुट्टा भी नहीं है और धंधा भी नहीं। ये चाय पत्ती दे दे रहा हूँ। वे बोले ठीक है। 

वाइफ और वे दोनों मुस्कुरा रहे थे। उनकी वाइफ के चेहरे पर जो खुशी फैली थी वह देखते ही बनती थी। शायद सुबह के खिले फूल की तरह। 

गाड़ी जा चुकी थी। उन दोनों की खुशी मैं अब भी महसूस कर रहा था।

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