24 मार्च को, प्रधानमंत्री ने जब अचानक पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा की और प्रवासी श्रमिकों की आजीविका को पूरी तरह बाधित कर दिया तो देश में 552 कोविड-19 के मामले थे। प्रवासी मजदूरों को बताया गया कि लोगों की आवा-जाही से वायरस फैल जाएगा और उन्हें वहीं रहना चाहिए, जहां वे हैं। हजारों लोगों को रास्ते से वापस भेज दिया गया या रोक लिया गया और पुलिस ने जो ज्यादती की वह अपनी जगह।
pc- social media
कल, जब हम प्रवासी मजदूरों को वापस अपने घरों की ओर जाने देने को राजी हुए लगते हैं, तो देश में वैसे ही मामलों की संख्या 31,000 के करीब हो चुकी थी। हिसाब लगाएं तो हमने उन्हें तभी बंद कर दिया था जब मामले अभी के मुकाबले बहुत कम थे।
प्रधानमंत्री ने हमसे जो भी कहा लोगों ने उसका अनुशासित ढंग से पालन किया है। उनके आदेशों को डंडे के बल पर ही सही लागू भी लगभग शानदार ढंग से कराया गया। अपनी छवि के अनुकूल। अगर कुछ कमी रही तो वह योजना, नीति, रणनीति और ऊपर वालों की सोच की थी। यह एक जबरदस्त झटका रहा जो बिना किसी उद्देश्य या योजना के था।
अब ये सवाल पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जब हमने लॉकडाउन की योजना बनाई तो इन दैनिक मजदूरी वालों के बारे में क्यों नहीं सोचा? इन लोगों को अपने घरों तक वापस जाने के अधिकार से क्यों रोका गया था? किसने हमें यह अधिकार दिया कि उनके स्वाभिमान को छीन लिया जाए? अपने ही देश में वे भिखारी क्यों बनाये जाएं? उन्हें भूखा क्यों रहना पड़ा?
ऐसा क्यों है कि हम उनकी दुर्दशा से अप्रभावित रहे? कैसे कोई सरकार ज्यादातर भूखे, बच्चों और बुजुर्ग लोगों द्वारा पैदल चले जाने से अप्रभावित रह सकती है जबकि वे गर्मी में चुपचाप बिना किसी विरोध या शिकायत के अपने स्तर पर, सिर्फ चले जा रहे थे। क्या उन्हें जीने और आजीविका कमाने का अधिकार है? किसने हमें उनका भगवान बन जाने का अधिकार दिया? यह मूर्खता और जवाबदेही की कमी कब खत्म चलेगी?
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कल, जब हम प्रवासी मजदूरों को वापस अपने घरों की ओर जाने देने को राजी हुए लगते हैं, तो देश में वैसे ही मामलों की संख्या 31,000 के करीब हो चुकी थी। हिसाब लगाएं तो हमने उन्हें तभी बंद कर दिया था जब मामले अभी के मुकाबले बहुत कम थे।
प्रधानमंत्री ने हमसे जो भी कहा लोगों ने उसका अनुशासित ढंग से पालन किया है। उनके आदेशों को डंडे के बल पर ही सही लागू भी लगभग शानदार ढंग से कराया गया। अपनी छवि के अनुकूल। अगर कुछ कमी रही तो वह योजना, नीति, रणनीति और ऊपर वालों की सोच की थी। यह एक जबरदस्त झटका रहा जो बिना किसी उद्देश्य या योजना के था।
अब ये सवाल पहले से अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जब हमने लॉकडाउन की योजना बनाई तो इन दैनिक मजदूरी वालों के बारे में क्यों नहीं सोचा? इन लोगों को अपने घरों तक वापस जाने के अधिकार से क्यों रोका गया था? किसने हमें यह अधिकार दिया कि उनके स्वाभिमान को छीन लिया जाए? अपने ही देश में वे भिखारी क्यों बनाये जाएं? उन्हें भूखा क्यों रहना पड़ा?
ऐसा क्यों है कि हम उनकी दुर्दशा से अप्रभावित रहे? कैसे कोई सरकार ज्यादातर भूखे, बच्चों और बुजुर्ग लोगों द्वारा पैदल चले जाने से अप्रभावित रह सकती है जबकि वे गर्मी में चुपचाप बिना किसी विरोध या शिकायत के अपने स्तर पर, सिर्फ चले जा रहे थे। क्या उन्हें जीने और आजीविका कमाने का अधिकार है? किसने हमें उनका भगवान बन जाने का अधिकार दिया? यह मूर्खता और जवाबदेही की कमी कब खत्म चलेगी?