थुईंगालेंग मुइवाह, जो नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालिम यानी एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) के प्रमुख नेता हैं, का कहना है कि नागालैण्ड भौतिक रूप से कमजोर हो सकता है किंतु राजनीतिक रूप से वह बहुत ही मजबूत है। यह कोई कम आश्चर्य की बात नहीं कि यह संगठन, जिसके नेता थुईंगालेंग मुइवाह अपने आप को प्रधान मंत्री कहते हैं व नागालैण्ड में अपनी सामानांतर सरकार चलाते हैं भारत सरकार के साथ 1997 में हुए युद्ध-विराम के बाद से 22 वर्षों से लगातार वार्ता कर रहे हैं। इसके बावजूद कि जम्मू व कश्मीर के लोगों को धारा 370 के तहत मिली आंशिक स्वायत्ता समाप्त कर उसका अलग झंडा व संविधान भी वापस ले लिया गया है, थुईंगालेंग मुइवाह का 2015 में नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति में समझौता के अनुसार भारत के साथ एक साझा सम्प्रभुता व स्थाई शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के साथ दो इकाइयों के बाच एक समावेशी रिश्ते का सपना अभी जिंदा है। उनकी उम्मीद की वजह भी है। कश्मीर के विपरीत भारत सरकार का नागालैण्ड में वहां के उस समय के सबसे बड़े नेता अंगामी जापू फीजो के साथ विलय का कोई लिखित समझौता नहीं हुआ था। नागालैण्ड को पहले अंग्रेजों ने व फिर भारत ने बलपूर्वक अपने साथ कर लिया था। नागाओं ने इसका विरोध किया और दोनों ही बार सभी पक्षों की ओर से काफी हिंसा भी हुई। किंतु नागाओं ने कभी आत्मसमर्पण नहीं किया और मानते हैं कि अभी वार्ता से उनका समाधान निकलना बाकी है। मुइवाह का कहना है कि नागालैण्ड कभी भी अपनी मर्जी से अथवा किसी बाहरी ताकत के कब्जे से किसी अन्य के आधीन नहीं रहा है। भारत की स्वतंत्रता के समय नागाओं ने अंग्रेजों से कहा था कि उन्हें भारत के रहम पर न छोड़ा जाए। रोचक है कि लगभग इसी तरह की बात डॉ. अम्बेडकर ने दलितों के संदर्भ में अंग्रेजों से कही थी।
नेहरू ने नागालैण्ड में महात्मा गांधी की इच्छा के विरुद्ध सेना भेजी जिसका नागाओं ने तीर-कमान, भाले व द्वितीय विश्व युद्ध के समय वापस लौटते जापानियों द्वारा छोड़ी गई बंदूकों से सामना किया। मुइवाह के मुताबिक नेहरू ने नागाओं के साथ मानवीय व्यवहार नहीं किया। 1995 में जब प्रधान मंत्री पी.वी. नरसिंह राव आइसैक व मुइवाह से पेरिस में मिले तो वे तीन बातों के लिए तैयार हुए - बातचीत बिना शर्त होगी, उच्चतम स्तर पर होगी व भारत के बाहर होगी। उन्होंने नागाओं के पृथक इतिहास की बात भी मानी। इसके बाद प्रधान मंत्री देवे गौड़ा से आइसैक व मुइवाह की मुलाकात बैंगकॉक में हुई। देवे गौड़ा चाहते थे कि नागा भारत का संविधान मान लें, जो उन्हें मंजूर नहीं था। मुइवाह ने कह दिया कि दोनों पक्ष अपने अपने रास्ते जाएं। दो वर्ष बाद भारत ने माना कि नागा कभी भारत का हिस्सा नहीं रहे व नागाओं की समस्या का पृथक समाधान चाहिए। इसी के बाद साझा सम्प्रभुता की अवधारणा पर चर्चा शुरू हुई। प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ एमस्टरडम में वार्ता के बाद नागा नेतृत्व ने देश लौटना स्वीकार किया व मनमोहन सिंह सरकार से वार्ता भारत में हुई। नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने चिर परिचित अंदाज में 2015 में नागा नेतृत्व के साथ प्रारूप समझौते पर हस्ताक्षर कर बातचीत सफलतापूर्वक सम्पन्न होने का ऐलान कर दिया। किंतु नागा नेतृत्व की अलग झंडे व अलग संविधान की मांग पर मामला अटक गया। कश्मीर का अलग संविधान खत्म कर, जिसमें लिखा था कि जम्मू व कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, भारतीय जनता पार्टी की सरकार जो एक देश, एक संविधान की बात जोर-शोर से कर चुकी है के लिए नागा नेतृत्व की मांग को मानना अब पेचीदा मुद्दा बन गया है। वहीं मुइवाह ने स्पष्ट कर दिया है कि अलग झंडा व अलग संविधान उनके लिए मौलिक मुद्दे हैं।
जवाब में बातचीत के सूत्रधार बने आर.एन. रवि, जो अब नागालैण्ड के राज्यपाल भी बना दिए गए हैं, ने 2017 से सात संगठनों के एक मंच नागा राष्ट्रीय राजनीतिक समूह से भी बातचीत शुरू कर दी। यह एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) को संतुलित करने का प्रयास है, जबकि 2015 में समझौते पर हस्ताक्षर सिर्फ एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) के साथ ही हुए हैं। उन्हें इतिहास से सीखना चाहिए कि पहले भारत सरकार ने फीजो के नागा नेशनल काउंसिल को छोड़ नागा पीपुल्स कन्वेंशन के साथ समझौता कर लिया तो उससे समस्या का समाधान नहीं निकला। यदि एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) को नजरअंदाज कर कोई समझौता होता है तो एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) ने संकेत दे दिए हैं कि दोबारा वह भूमिगत होकर सशस्त्र संघर्ष शुरू कर देगा। ऐसी परिस्थिति में म्यांमार में अब निष्क्रिय हो चुका एन.एस.सी.एन. (खापलांग) भी जिंदा हो सकता है। जम्मू व कश्मीर के अनुभव से, हालांकि अभी सरकार यहां अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है, सरकार को यह समझना चाहिए कि बिना स्थानीय लोगों को विश्वास में लिए कोई फैसला यदि लोगों पर थोपा जाएगा तो उससे समाधान नहीं होगा। सरकार के भारत के साथ एकीकरण के दावे के विपरीत जम्मू व कश्मीर के लोग भारत से और दूर चले गए हैं।
जम्मू व कश्मीर की तरह के समाधान का समर्थन नहीं किया जा सकता। राज्य द्वारा हिंसा, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को थोपना, अलगाववादी संगठनों की प्रति-हिंसा, जिस कुचक्र में बड़ी व लगातार मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएं होती रही हैं और पूर्वोत्तर को उसका प्रत्यक्ष अनुभव है, इस तरह का समाधान हम वहन कर पाने की स्थिति में नहीं हैं।
अलग झंडे व अलग संविधान को प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाने के बजाए सरकार को चाहिए कि एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) के साथ जो उसने साझा सम्प्रभुता की अवधारणा के तहत विस्तार से जिम्मेदारियों के बंटवारे का प्रारूप तैयार किया है उसपर बात करे। एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) ने शासन-प्रशासन के ऐसे ढांचे की कल्पना की है जिसमें सर्वोच्च इकाई हो-हो होगी जिसमें हरेक गांव का प्रतिनिधित्व होगा और इसका कार्यकाल छह वर्ष का होगा। यह समझते हुए कि मणिपुर, असम व अरुणांचल प्रदेश के नागा इलाकों का नागालैण्ड के साथ एकीकरण कर एक वृहत्तर नागालिम बनाना सम्भव नहीं है इस तीन राज्यों में क्षेत्रीय परिषदों के गठन की कल्पना की गई है।
सरकार को जल्दीबाजी में कोई गलत समाधान निकाल कर उपलब्धि हासिल करने, जैसा उसने कश्मीर में किया है, के मोह से बचना चाहिए। उसे नागालैण्ड के अंदर बाहर सभी हितधारकों से बातचीत कर, बिना एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) को दरकिनार किए, सभी को संतुष्ट करना चाहिए। एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) को भी समझना होगा कि शुरू में शायद वह नागालैण्ड का एकमात्र महत्वपूर्ण समूह था लेकिन अब अन्य समूह भी हैं जिनके प्रति उसे संवेदनशीलता प्रदर्शित करनी पड़ेगी। उदाहरण के लिए मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में नागाओं के साथ कुकी भी रहते हैं जिनसे उनका लगातार संघर्ष चलता ही रहा है। कुकी कभी भी नागा वर्चस्व को स्वीकार नहीं करेंगे। बल्कि मणिपुर एकता समन्वय समिति नामक एक संगठन ने मणिपुर की भौगोलिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अथवा प्रशासनिक स्थिति के साथ छेड़-छेाड़ न करने की चेतावनी दे है।
काफी सम्भव है कि एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) की मांगों की धार कम करने के लिए सरकार जानबूझ कर नागालैण्ड के अंदर व बाहर अन्य संगठनों को जरूरत से ज्यादा महत्व दे रही हो किंतु यह भी सत्य है कि मणिपुर जैसा समाज पीढ़ियों-पीढ़ियों से सांस्कृतिक रूप से बहुलतावादी समाज की परीक्षा दे चुका है। समाज के किसी एक वर्ग के लिए उन्हें अपने संसाधन अथवा शासनिक-प्रशासनिक ढांचे से हाथ धोना मंजूर न होगा। सरकार व एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) को भी पूरी पारदर्शिता के साथ सभी राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समूहों को, जिन्होंने वृहत्तर नागा इलाके की राजनीति को शक्ल देने में भूमिका निभाई है, विश्वास में लेकर ही कोई फैसला लेना चाहिए।
एक समय था जब नागा नेताओं को समाधान की जल्दी थी व वे वार्ता की प्रक्रिया बीच में ही छोड़ यूरोप वापस चले जाने की बात कर रहे थे और आज ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार को जल्दी है। नरेन्द्र मोदी को दिखावे और श्रेय लेने की मानसिकता से बिना वार्ता ठीक से सम्पन्न हुए कोई घोषणा करने से बचना चाहिए। यदि समाधान के नाम पर क्षेत्र के नाजुक संतुलन, जहां हिंसा का इतिहास रहा हो, को संवेदनशीलता के साथ नहीं सम्भाला गया तो नतीजा विध्वंसकारी भी हो सकता है।
लेखकः संदीप, बबलू लोइतोंगबाम व मीरा संघमित्रा
(संदीप सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) से सम्बद्ध हैं, बबलू लोइतोंगबाम मणिपुर के मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं तथा मीरा संघमित्रा जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से जुड़ी हैं।)
नेहरू ने नागालैण्ड में महात्मा गांधी की इच्छा के विरुद्ध सेना भेजी जिसका नागाओं ने तीर-कमान, भाले व द्वितीय विश्व युद्ध के समय वापस लौटते जापानियों द्वारा छोड़ी गई बंदूकों से सामना किया। मुइवाह के मुताबिक नेहरू ने नागाओं के साथ मानवीय व्यवहार नहीं किया। 1995 में जब प्रधान मंत्री पी.वी. नरसिंह राव आइसैक व मुइवाह से पेरिस में मिले तो वे तीन बातों के लिए तैयार हुए - बातचीत बिना शर्त होगी, उच्चतम स्तर पर होगी व भारत के बाहर होगी। उन्होंने नागाओं के पृथक इतिहास की बात भी मानी। इसके बाद प्रधान मंत्री देवे गौड़ा से आइसैक व मुइवाह की मुलाकात बैंगकॉक में हुई। देवे गौड़ा चाहते थे कि नागा भारत का संविधान मान लें, जो उन्हें मंजूर नहीं था। मुइवाह ने कह दिया कि दोनों पक्ष अपने अपने रास्ते जाएं। दो वर्ष बाद भारत ने माना कि नागा कभी भारत का हिस्सा नहीं रहे व नागाओं की समस्या का पृथक समाधान चाहिए। इसी के बाद साझा सम्प्रभुता की अवधारणा पर चर्चा शुरू हुई। प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ एमस्टरडम में वार्ता के बाद नागा नेतृत्व ने देश लौटना स्वीकार किया व मनमोहन सिंह सरकार से वार्ता भारत में हुई। नरेन्द्र मोदी सरकार ने अपने चिर परिचित अंदाज में 2015 में नागा नेतृत्व के साथ प्रारूप समझौते पर हस्ताक्षर कर बातचीत सफलतापूर्वक सम्पन्न होने का ऐलान कर दिया। किंतु नागा नेतृत्व की अलग झंडे व अलग संविधान की मांग पर मामला अटक गया। कश्मीर का अलग संविधान खत्म कर, जिसमें लिखा था कि जम्मू व कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, भारतीय जनता पार्टी की सरकार जो एक देश, एक संविधान की बात जोर-शोर से कर चुकी है के लिए नागा नेतृत्व की मांग को मानना अब पेचीदा मुद्दा बन गया है। वहीं मुइवाह ने स्पष्ट कर दिया है कि अलग झंडा व अलग संविधान उनके लिए मौलिक मुद्दे हैं।
जवाब में बातचीत के सूत्रधार बने आर.एन. रवि, जो अब नागालैण्ड के राज्यपाल भी बना दिए गए हैं, ने 2017 से सात संगठनों के एक मंच नागा राष्ट्रीय राजनीतिक समूह से भी बातचीत शुरू कर दी। यह एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) को संतुलित करने का प्रयास है, जबकि 2015 में समझौते पर हस्ताक्षर सिर्फ एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) के साथ ही हुए हैं। उन्हें इतिहास से सीखना चाहिए कि पहले भारत सरकार ने फीजो के नागा नेशनल काउंसिल को छोड़ नागा पीपुल्स कन्वेंशन के साथ समझौता कर लिया तो उससे समस्या का समाधान नहीं निकला। यदि एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) को नजरअंदाज कर कोई समझौता होता है तो एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) ने संकेत दे दिए हैं कि दोबारा वह भूमिगत होकर सशस्त्र संघर्ष शुरू कर देगा। ऐसी परिस्थिति में म्यांमार में अब निष्क्रिय हो चुका एन.एस.सी.एन. (खापलांग) भी जिंदा हो सकता है। जम्मू व कश्मीर के अनुभव से, हालांकि अभी सरकार यहां अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है, सरकार को यह समझना चाहिए कि बिना स्थानीय लोगों को विश्वास में लिए कोई फैसला यदि लोगों पर थोपा जाएगा तो उससे समाधान नहीं होगा। सरकार के भारत के साथ एकीकरण के दावे के विपरीत जम्मू व कश्मीर के लोग भारत से और दूर चले गए हैं।
जम्मू व कश्मीर की तरह के समाधान का समर्थन नहीं किया जा सकता। राज्य द्वारा हिंसा, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को थोपना, अलगाववादी संगठनों की प्रति-हिंसा, जिस कुचक्र में बड़ी व लगातार मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाएं होती रही हैं और पूर्वोत्तर को उसका प्रत्यक्ष अनुभव है, इस तरह का समाधान हम वहन कर पाने की स्थिति में नहीं हैं।
अलग झंडे व अलग संविधान को प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाने के बजाए सरकार को चाहिए कि एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) के साथ जो उसने साझा सम्प्रभुता की अवधारणा के तहत विस्तार से जिम्मेदारियों के बंटवारे का प्रारूप तैयार किया है उसपर बात करे। एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) ने शासन-प्रशासन के ऐसे ढांचे की कल्पना की है जिसमें सर्वोच्च इकाई हो-हो होगी जिसमें हरेक गांव का प्रतिनिधित्व होगा और इसका कार्यकाल छह वर्ष का होगा। यह समझते हुए कि मणिपुर, असम व अरुणांचल प्रदेश के नागा इलाकों का नागालैण्ड के साथ एकीकरण कर एक वृहत्तर नागालिम बनाना सम्भव नहीं है इस तीन राज्यों में क्षेत्रीय परिषदों के गठन की कल्पना की गई है।
सरकार को जल्दीबाजी में कोई गलत समाधान निकाल कर उपलब्धि हासिल करने, जैसा उसने कश्मीर में किया है, के मोह से बचना चाहिए। उसे नागालैण्ड के अंदर बाहर सभी हितधारकों से बातचीत कर, बिना एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) को दरकिनार किए, सभी को संतुष्ट करना चाहिए। एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) को भी समझना होगा कि शुरू में शायद वह नागालैण्ड का एकमात्र महत्वपूर्ण समूह था लेकिन अब अन्य समूह भी हैं जिनके प्रति उसे संवेदनशीलता प्रदर्शित करनी पड़ेगी। उदाहरण के लिए मणिपुर के पहाड़ी इलाकों में नागाओं के साथ कुकी भी रहते हैं जिनसे उनका लगातार संघर्ष चलता ही रहा है। कुकी कभी भी नागा वर्चस्व को स्वीकार नहीं करेंगे। बल्कि मणिपुर एकता समन्वय समिति नामक एक संगठन ने मणिपुर की भौगोलिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अथवा प्रशासनिक स्थिति के साथ छेड़-छेाड़ न करने की चेतावनी दे है।
काफी सम्भव है कि एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) की मांगों की धार कम करने के लिए सरकार जानबूझ कर नागालैण्ड के अंदर व बाहर अन्य संगठनों को जरूरत से ज्यादा महत्व दे रही हो किंतु यह भी सत्य है कि मणिपुर जैसा समाज पीढ़ियों-पीढ़ियों से सांस्कृतिक रूप से बहुलतावादी समाज की परीक्षा दे चुका है। समाज के किसी एक वर्ग के लिए उन्हें अपने संसाधन अथवा शासनिक-प्रशासनिक ढांचे से हाथ धोना मंजूर न होगा। सरकार व एन.एस.सी.एन. (आई.एम.) को भी पूरी पारदर्शिता के साथ सभी राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समूहों को, जिन्होंने वृहत्तर नागा इलाके की राजनीति को शक्ल देने में भूमिका निभाई है, विश्वास में लेकर ही कोई फैसला लेना चाहिए।
एक समय था जब नागा नेताओं को समाधान की जल्दी थी व वे वार्ता की प्रक्रिया बीच में ही छोड़ यूरोप वापस चले जाने की बात कर रहे थे और आज ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार को जल्दी है। नरेन्द्र मोदी को दिखावे और श्रेय लेने की मानसिकता से बिना वार्ता ठीक से सम्पन्न हुए कोई घोषणा करने से बचना चाहिए। यदि समाधान के नाम पर क्षेत्र के नाजुक संतुलन, जहां हिंसा का इतिहास रहा हो, को संवेदनशीलता के साथ नहीं सम्भाला गया तो नतीजा विध्वंसकारी भी हो सकता है।
लेखकः संदीप, बबलू लोइतोंगबाम व मीरा संघमित्रा
(संदीप सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) से सम्बद्ध हैं, बबलू लोइतोंगबाम मणिपुर के मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं तथा मीरा संघमित्रा जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय से जुड़ी हैं।)