'सेव द टाइगर' अभियान के पीछे का स्याह सच क्या है?

Written by Girish Malviya | Published on: July 30, 2019
'सेव द टाइगर' का उजला पक्ष मीडिया कल दिन भर आपको बतलाता रहा, मोदी जी बढ़ते बाघों की संख्या ट्वीट कर अपनी पीठ ठोकते रहे लेकिन बरसो से इस 'सेव द टाइगर' अभियान के पीछे एक ऐसा घिनौना खेल खेला जाता रहा है यह एक ऐसा स्याह पक्ष है जिसके बारे में कोई बात करना भी पसंद नहीं करता।



बाघ बचाओ परियोजना 1973 में शुरू हुई थी। पहले पहल इसमें 9 बाघ अभयारण्य बनाए गए थे। आज इनकी संख्या बढ़कर 50 हो गई है। इसी परियोजना को अब 'नेशनल टाइगर कनवर्सेशन अथॉरिटी' के अधीन कर दिया गया है।

लेकिन आपको यह मालूम नही होगा कि जिस भी वन क्षेत्र को टाइगर रिजर्व घोषित कर दिया जाता है वहाँ रहने वाले आदिवासियों के अधिकारों को शून्य घोषित कर दिया जाता है, इसका बड़ा कारण यह है कि बाघ संरक्षण की अवधारणा में समुदायों को शामिल नहीं किया है। समुदायों को जोड़कर, उन्हें तैयार कर, उनके लिए आर्थिक स्रोत संरक्षण व्यवस्था में विकसित कर साथ लेने के बदले उन्हें उस पूरी प्रक्रिया से काट दिया गया है।

28 मार्च 2017 को नेशनल टाइगर कनवर्सेशन अथॉरिटी' यानी NTCA के असिस्टेंट इंस्पेक्टर जेनरल अॉफ फॉरेस्ट डॉ वैभव सी माथुर ने 18 राज्यों में स्थित सभी 50 टाइगर रेंज के चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डेन को पत्र भेजा था। इसमें लिखा कि वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के तहत टाइगर हैबिटेट्स में किसी अन्य को रहने नहीं दिया जा सकता।

वन सरंक्षण के नाम पर ही 13 फरवरी 2019 को एक बेहद अहम फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 21 राज्‍यों को आदेश दिए हैं कि वे अनुसूचित जनजातियों और अन्‍य पारंपरिक वनवासियों को जंगल की ज़मीन से बेदखल कर के जमीनें खाली करवाएं, कोर्ट ने भारतीय वन्‍य सर्वेक्षण को निर्देश दिए हैं कि वह इन राज्‍यों में वन क्षेत्रों का उपग्रह से सर्वेक्षण कर के कब्‍ज़े की स्थिति को सामने लाए और इलाका खाली करवाए जाने के बाद की स्थिति को दर्ज करवाए।

यह याचिका भी एक एनजीओ ‘वाइल्डलाइफ फर्स्ट’ ने दाखिल की थी जिसमे यह कहा गया था कि वन्य अधिकार अधिनियम 2006 संविधान के खिलाफ है और इस अधिनियम की वजह से जंगल खत्म हो रहे हैं। लेकिन हम यह नही देख रहे है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से देश भर में लाखों आदिवासी परिवार जंगलो से बाहर फेंक दिए जाएंगे।

2017 के एनटीसीए के आदेश का अर्थ यह है कि वन अधिकार कानून 2006 भी इस क्षेत्र में प्रभावी नहीं होगा इस आदेश से टाइगर रिजर्व में रहने वाले आदिवासियों को न सिर्फ जंगलों से बाहर किया जाएगा, बल्कि वनों पर उनके अधिकार को भी खत्म कर दिया जाएगा दरअसल सरकार जानवरों से भी गया गुजरा आदिवासियों को मानती है।

सच तो यह है इन आदेशों के जरिए आदिवासियों को उनके जल, जंगल जमीन से बेदखल करके बेशकीमती संसाधनों पर कब्जे की साजिश की जा रही है।

2018 में महाराष्ट्र के यवतमाल में एक तथाकथित आदमखोर बाघिन की अवनि को गोली मार दी गई और वह सिर्फ इसलिए कि वह उस क्षेत्र में रह रहीं थी जिसके आसपास अनिल अंबानी की रिलायंस को जमीन बेच दी गयी थी जनवरी 2018 में मोदी सरकार ने अनिल अंबानी की रिलायंस ग्रुप को सीमेंट फैक्ट्री लगाने के लिए यवतमाल के जंगल का 467 हेक्टयर दे दिया था।

अवनि मार दी गयी उसके दो शावकों की भी मृत्यु हो गयी सिर्फ इसलिए क्योंकि उद्योगपति की जमीन की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।

इस टाइगर बचाओ खेल की असलियत यही है कि पहले बड़े बड़े वन क्षेत्र को टाइगर के नाम पर जंगल के नाम पर सरंक्षित करने की बात करो वहाँ रहने वाले आदिवासी समुदाय को जंगल से बाहर कर दो फिर तस्कर, शिकारी, होटल रिसोर्ट वालो को यहाँ खुली छूट दे दो।

सच तो यह है इन टाइगर रिजर्व पार्कों में होटल और टूर व्यवसायीयो का राज चलता है अवैध खनन चलता है कोई वहाँ जा नही सकता कोई रिपोर्टिग वहाँ से की नही जा सकती ये लोग राजनीतिज्ञों ओर वन विभाग के बड़े अधिकारियों को अपने साथ मिला कर इतने प्रभावशाली हो जाते हैं कि कोर जोन तक में मनचाहा सड़क निर्माण करवा लेते हैं।

अब सेव द टाइगर कोई पवित्र लक्ष्य नही है यह एक उद्योग बन चुका है जिसमे सत्ताधारी दल के बड़े नेताओं के लग्गु भग्गूओ को जो अपने NGO खोल कर बैठे है बड़ी मात्रा में फंड उपलब्ध कराया जाता है ....विदेशों से UN से भी जो भी फंडिंग आता है उसे मिलजुलकर हड़पने की योजना बनाई जाती है।

UPA सरकार के समय NDTV इन NGO की अगुआई कर रहा था अब कोई ओर कर रहा है हजारों करोड़ रुपये का फंड सेव द टाइगर के नाम पर कलेक्ट किया जाता है, सैकड़ो करोड़ के विज्ञापन मीडिया संस्थानों को रिलीज कर दिए जाते है इन्ही विज्ञापनों के चक्कर मे Men Vs Wild जैसे प्रोग्राम बनाए जाते है जिसमे हमारे प्रधानमंत्री मोदीं जी बड़े शौक से हिस्सा लेते हैं।

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