कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनने के बाद विधानसभा अध्यक्ष ने इस्तीफा दे दिया। यह खबर तो अखबारों में है पर क्यों दिया – यह भले पता हो आज शायद ही किसी अखबार ने बताया है। द टेलीग्राफ की खबर के अनुसार, इस्तीफा देने से पहले कर्नाटक विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार ने सदन से यह प्रस्ताव पास करने की अपील की कि उन्होंने जो कहा वह बेहद आवश्यक चुनाव सुधार है और इसे केंद्र को भेज दिया जाए। उन्होंने कहा, लोगों का विश्वास हासिल करने के लिए चुनाव सुधार आवश्यक हैं और इसके बिना भ्रष्टाचार की बात करने का कोई मतलब नहीं है। उन्होंने सदन से इस बात पर विचार करने के लिए कहा कि संविधान की 10वीं अनुसूची में क्या बदलाव किए जाएं जिससे दलबदल के मामले नियंत्रित किए जा सकें जिससे पिछली सरकार गिर गई। हमसब जानते हैं कि हाल में जो कुछ हुआ उससे बचने के लिए दसवीं अनुसूची को मजबूत होना जरूरी है।"
अखबार ने बताया है कि केआर रमेश कुमार 1994 में पहली बार विधानसभा अध्यक्ष बने थे। इसके बाद 2013 से 2018 तक जब पीसी सिद्धरमैया मुख्यमंत्री थे तो श्री कुमार विधानसभाध्यक्ष थे। गए साल उन्हें आम राय के विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया था और कहने की जरूरत नहीं है कि अच्छा या नियमानुसार काम करने के लिए भाजपा उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की योजना बना रही थी। इसीलिए उन्होंने इस्तीफा दे दिया है। बागियों ने यह आरोप भी लगाया है कि उन्हें अयोग्य ठहराए जाने की वजह यह है कि वे (विधानसभा अध्यक्ष) कांग्रेसी हैं। बागियों ने विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य ठहराने को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। आज के अखबारों में छोटी-बड़ी, पहले पन्ने पर या अंदर यह खबर है। पर चुनाव सुधार या दल बदल कानून को प्रभावी बनाने की चर्चा नहीं है।
आम तौर पर सरकार बदलने का काम आराम से होता रहा है। इस महीने कर्नाटक के साथ गोवा में भी सरकार बदल गई। एक दिन खबर छपी और खेल हो गया। कर्नाटक का मामला 6 जुलाई से शुरू हुआ था और आज विधानसभा में बहुमत मिलने की खबर है अभी मंत्रिमंडल बनना बाकी है। जाहिर है, कर्नाटक का मामला अलग रहा। मुझे याद नहीं है कि किसी अखबार ने बताया (जो समझते जानते रहे उनकी बात अलग है) कि इसका कारण यह रहा कि विधानसभा अध्यक्ष ने इस मामले में दल बदल कानून का सख्ती से पालन किया और इसीलिए सरकार बदलने का खेल इसबार सुप्रीम कोर्ट तक आया इतना समय लगा और 17 बागी विधायकों की सदस्यता दांव पर लगाकर भाजपा की सरकार बनी है। अंत में तो स्थिति यह बन गई कि भाजपा ने लगभग साफ-साफ कह दिया कि विधानसभा अध्यक्ष को हटाने की कार्रवाई की जाएगी।
असल में कोशिश थी कि बागी सदस्यों की सदस्यता बच जाए और उन्हें अयोग्य नहीं घोषित किया जाए। किसी एक पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर जीतना और सरकार बनाने या मंत्री बनने के लिए दूसरी पार्टी का समर्थन करना बेईमानी तो है ही जनादेश का अपमान भी है। फिर भी, जमाने से ऐसा चलता आ रहा है और तरह-तरह से सरकार बदलती रही है। अंतरात्मा की आवाज पर सरकार बदलना उसमें सबसे नया रहा। पर कर्नाटक में जो हुआ वह बहुत दिनों बाद हुआ और ठीक हुआ। हालांकि, जो हुआ उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। मेरा मुद्दा सही गलत पर चर्चा करना नहीं - रिपोर्टिंग और दी गई सूचनाओं पर चर्चा करना है। आज भाजपा की सरकार बन गई इसके साथ सूचना यह है कि संभवतः 17 सीटों पर उपचुनाव हो और अगर सुप्रीम कोर्ट ने अलग व्यवस्था नहीं दी तो बागी विधायक जिन्हें अयोग्य ठहराया गया है वे चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। अखबारों ने इस विषय में कुछ नहीं बताया है।
चुनाव पूर्व नियुक्ति जीतने पर छंटनी
आज के अखबारों में एक और महत्वपूर्ण खबर है जिसे नवोदय टाइम्स ने पहले पन्ने पर प्रमुखता से छापा है। खबर है कि रेलवे में तीन लाख कर्मचारियों की छंटनी होगी और 55 पार या 30 साल नौकरी कर चुके कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति की पेशकश की तैयारी है। इसपर मुझे रेलवे का एक पुराना विज्ञापन याद आया जो इसी साल दो मार्च को छपा था। चुनाव से पहले आपके पैसे से प्रकाशित पूरे पन्ने के इस विज्ञापन में सरकार जी ने अपनी तस्वीर के साथ बताया था, यात्री सुरक्षा हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता। पिछले पांच साल में इसे न जाने कितनी बार कहा बताया गया था और चुनाव से पहले विज्ञापन भी छपवाया गया। मैंने तब लिखा था, यात्री सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं देने का विकल्प है क्या? क्या रेलवे के पास यह विकल्प है कि वह पैसे कमाने या ट्रेन समय से चलाने के लिए यात्रियों की सुरक्षा को नजरअंदाज कर दे? जाहिर है यह विकल्प रेलवे के पास नहीं है। हो नहीं सकता। फिर हमारे ही पैसे से हमें ही यह सूचना देने का क्या मतलब?
इसी विज्ञापन में तब कहा गया था, 1.5 लाख से अधिक सुरक्षा संबंधी पदों पर नियुक्तियां की जा रही हैं। मैं तब लिखा था इतने पद खाली हैं और सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता? अगर ये पद नए सृजित किए गए होते तो यही विज्ञापन होना चाहिए था या विज्ञापन में यही कहा जाना चाहिए कि सुरक्षा के लिए हम 1.5 लाख खाली पदों को भर रहे हैं। पर ऐसा है नहीं और प्रचार की भूखी सरकार प्रचार के लिए प्रचार कर रही है। जनता के पैसे अखबार वालों को लुटा रही है। इसे बड़ें अक्षरों में प्रमुखता से लिखा जाता तो पोल खुल जाती कि सुरक्षा संबंधी एक-दो नहीं डेढ़ लाख पद खाली हैं। लिखना जरूरी भी है, क्योंकि इससे वोट मिलेंगे। पांच साल ये पद क्यों नहीं भरे गए इसपर विज्ञापन चुप है। वैसे तो ऐसे विज्ञापन कम ही लोग पूरा पढ़ते हैं। इसलिए भी सिर्फ शीर्षक देखने वालों के लिए एक लोकलुभावन घोषणा है और पूरा पढ़ने वालों के लिए डेढ़ लाख ही नहीं, अगले दो वर्षों में 2.3 लाख अतिरिक्त पदों पर भर्ती करने का लॉलीपॉप भी है। और अब छंटनी की यह खबर। गोदी वालों ने इस अंदर, काट-छांट कर छापा है। इन नियुक्तियों का क्या हुआ इसका न विज्ञापन है और ना खबर .... भक्तों को फर्क भी नहीं पड़ता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)
अखबार ने बताया है कि केआर रमेश कुमार 1994 में पहली बार विधानसभा अध्यक्ष बने थे। इसके बाद 2013 से 2018 तक जब पीसी सिद्धरमैया मुख्यमंत्री थे तो श्री कुमार विधानसभाध्यक्ष थे। गए साल उन्हें आम राय के विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया था और कहने की जरूरत नहीं है कि अच्छा या नियमानुसार काम करने के लिए भाजपा उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की योजना बना रही थी। इसीलिए उन्होंने इस्तीफा दे दिया है। बागियों ने यह आरोप भी लगाया है कि उन्हें अयोग्य ठहराए जाने की वजह यह है कि वे (विधानसभा अध्यक्ष) कांग्रेसी हैं। बागियों ने विधानसभा की सदस्यता से अयोग्य ठहराने को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। आज के अखबारों में छोटी-बड़ी, पहले पन्ने पर या अंदर यह खबर है। पर चुनाव सुधार या दल बदल कानून को प्रभावी बनाने की चर्चा नहीं है।
आम तौर पर सरकार बदलने का काम आराम से होता रहा है। इस महीने कर्नाटक के साथ गोवा में भी सरकार बदल गई। एक दिन खबर छपी और खेल हो गया। कर्नाटक का मामला 6 जुलाई से शुरू हुआ था और आज विधानसभा में बहुमत मिलने की खबर है अभी मंत्रिमंडल बनना बाकी है। जाहिर है, कर्नाटक का मामला अलग रहा। मुझे याद नहीं है कि किसी अखबार ने बताया (जो समझते जानते रहे उनकी बात अलग है) कि इसका कारण यह रहा कि विधानसभा अध्यक्ष ने इस मामले में दल बदल कानून का सख्ती से पालन किया और इसीलिए सरकार बदलने का खेल इसबार सुप्रीम कोर्ट तक आया इतना समय लगा और 17 बागी विधायकों की सदस्यता दांव पर लगाकर भाजपा की सरकार बनी है। अंत में तो स्थिति यह बन गई कि भाजपा ने लगभग साफ-साफ कह दिया कि विधानसभा अध्यक्ष को हटाने की कार्रवाई की जाएगी।
असल में कोशिश थी कि बागी सदस्यों की सदस्यता बच जाए और उन्हें अयोग्य नहीं घोषित किया जाए। किसी एक पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर जीतना और सरकार बनाने या मंत्री बनने के लिए दूसरी पार्टी का समर्थन करना बेईमानी तो है ही जनादेश का अपमान भी है। फिर भी, जमाने से ऐसा चलता आ रहा है और तरह-तरह से सरकार बदलती रही है। अंतरात्मा की आवाज पर सरकार बदलना उसमें सबसे नया रहा। पर कर्नाटक में जो हुआ वह बहुत दिनों बाद हुआ और ठीक हुआ। हालांकि, जो हुआ उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। मेरा मुद्दा सही गलत पर चर्चा करना नहीं - रिपोर्टिंग और दी गई सूचनाओं पर चर्चा करना है। आज भाजपा की सरकार बन गई इसके साथ सूचना यह है कि संभवतः 17 सीटों पर उपचुनाव हो और अगर सुप्रीम कोर्ट ने अलग व्यवस्था नहीं दी तो बागी विधायक जिन्हें अयोग्य ठहराया गया है वे चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। अखबारों ने इस विषय में कुछ नहीं बताया है।
चुनाव पूर्व नियुक्ति जीतने पर छंटनी
आज के अखबारों में एक और महत्वपूर्ण खबर है जिसे नवोदय टाइम्स ने पहले पन्ने पर प्रमुखता से छापा है। खबर है कि रेलवे में तीन लाख कर्मचारियों की छंटनी होगी और 55 पार या 30 साल नौकरी कर चुके कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति की पेशकश की तैयारी है। इसपर मुझे रेलवे का एक पुराना विज्ञापन याद आया जो इसी साल दो मार्च को छपा था। चुनाव से पहले आपके पैसे से प्रकाशित पूरे पन्ने के इस विज्ञापन में सरकार जी ने अपनी तस्वीर के साथ बताया था, यात्री सुरक्षा हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता। पिछले पांच साल में इसे न जाने कितनी बार कहा बताया गया था और चुनाव से पहले विज्ञापन भी छपवाया गया। मैंने तब लिखा था, यात्री सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं देने का विकल्प है क्या? क्या रेलवे के पास यह विकल्प है कि वह पैसे कमाने या ट्रेन समय से चलाने के लिए यात्रियों की सुरक्षा को नजरअंदाज कर दे? जाहिर है यह विकल्प रेलवे के पास नहीं है। हो नहीं सकता। फिर हमारे ही पैसे से हमें ही यह सूचना देने का क्या मतलब?
इसी विज्ञापन में तब कहा गया था, 1.5 लाख से अधिक सुरक्षा संबंधी पदों पर नियुक्तियां की जा रही हैं। मैं तब लिखा था इतने पद खाली हैं और सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता? अगर ये पद नए सृजित किए गए होते तो यही विज्ञापन होना चाहिए था या विज्ञापन में यही कहा जाना चाहिए कि सुरक्षा के लिए हम 1.5 लाख खाली पदों को भर रहे हैं। पर ऐसा है नहीं और प्रचार की भूखी सरकार प्रचार के लिए प्रचार कर रही है। जनता के पैसे अखबार वालों को लुटा रही है। इसे बड़ें अक्षरों में प्रमुखता से लिखा जाता तो पोल खुल जाती कि सुरक्षा संबंधी एक-दो नहीं डेढ़ लाख पद खाली हैं। लिखना जरूरी भी है, क्योंकि इससे वोट मिलेंगे। पांच साल ये पद क्यों नहीं भरे गए इसपर विज्ञापन चुप है। वैसे तो ऐसे विज्ञापन कम ही लोग पूरा पढ़ते हैं। इसलिए भी सिर्फ शीर्षक देखने वालों के लिए एक लोकलुभावन घोषणा है और पूरा पढ़ने वालों के लिए डेढ़ लाख ही नहीं, अगले दो वर्षों में 2.3 लाख अतिरिक्त पदों पर भर्ती करने का लॉलीपॉप भी है। और अब छंटनी की यह खबर। गोदी वालों ने इस अंदर, काट-छांट कर छापा है। इन नियुक्तियों का क्या हुआ इसका न विज्ञापन है और ना खबर .... भक्तों को फर्क भी नहीं पड़ता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं।)