आज टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर एक खबर है, “समझौता (एक्सप्रेस ब्लास्ट) मामले में गड़बड़ी की गई थी : शाह”। इस खबर के मुताबिक, ब्लास्ट को एक धर्म से जोड़ने की कोशिश हुई थी और अदालत द्वारा आखिरकार छोड़ दिए गए अभियुक्तों के खिलाफ कोई सबूत नहीं था। अगर देश के गृहमंत्री की बात मान ली जाए तो क्या यह चिन्ताजनक नहीं है कि अपराध और आतंकवाद के एक बड़े और गंभीर मामले में देश की जांच एजेंसी ने जानबूझकर एक खास धर्म से जोड़ने की कोशिश की। और उसी एजेंसी को अब ज्यादा ताकतवर बनाया जा रहा है। खबर में लिखा नहीं है पर यह सर्वविदित है कि वह खास धर्म कौन है और गृहमंत्री (या पूरी सरकार) किस धर्म के पक्ष में रही है। ऐसे लोगों को बिलावजह फंसाने और अपना काम ठीक से नहीं करने वाले अधिकारियों के खिलाफ क्या कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए? खबर इस मामले में शांत है। क्या यह शांति सामान्य है?
असल में सरकार एनआईए को मजबूत करना और ज्यादा अधिकार देना चाहती है। विपक्ष इसे लेकर चिन्तित है और एनआईए के काम-काज पर उंगली उठी है। इस पर खबर में कहा गया है, (समझौता) मामले में न्याय नहीं हुआ इसके लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है। उनका कहना है कि इसका कारण यह है कि मामले को एक खास दिशा में ले जाया गया था और असली अपराधियों को छोड़ दिया गया और दूसरों को एक ऐसे अपराध के लिए पकड़ लिया गया जो उन्होंने किए ही नहीं। उन्होंने कहा है, ब्लास्ट को एक खास धर्म से जोड़ने के लिए मामला बनाया गया था। अपराधियों को छोड़ दिया गया और नए लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। अगर वाकई ऐसा है तो क्या उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए जिन्होंने अपराधियों को छोड़ दिया या निर्दोष लोगों को पकड़ लिया। यह जिम्मेदारी तो सरकार की है ही। साथ ही सरकार को बताना चाहिए कि उसकी सूचना या विश्वास का आधार क्या है।
आज की खबर में ऐसा कुछ नहीं है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने यह जरूर बताया है कि लोकसभा में इससे संबंधित विधेयक पास होने के बाद राज्य सभा में इसका पास होना ज्यादा मुश्किल नहीं था और सरकार के लिए यह बड़ी सफलता है। बहुमत के खेल में मेरा मुद्दा विधेयक पास होना या एनआईए को अधिकार दिया जाना नहीं है। मेरा मतलब आतंकवाद के मामले में सरकार के रवैये से है। कहने की जरूरत नहीं है और टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी लिखा है कि अमित शाह इस मामले में कांग्रेस पर हमला करते रहे हैं। मेरा मतलब कांग्रेस पर हमले की राजनीति से भी नहीं है। मेरा मानना है कि गलती हुई है तो सुधारी जानी चाहिए और दोषियों को बख्शा नहीं जाना चाहिए। और इसमें सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास के अपने ही नारे का भी ख्याल रखा जाना चाहिए।
समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट के आरोपियों की रिहाई का आदेश देने वाले जज ने अपने फैसले में कहा है कि एनआईए सबसे मजबूत सबूत ही अदालत में पेश करने में नाकामयाब रही, साथ ही मामले की जांच में भी कई लापरवाही बरती गई। केन्द्रीय जांच एजेंसी एनआईए की खिंचाई करते हुए कहा कि ‘वह गहरे दुख और पीड़ा के साथ यह कर रहे हैं, क्योंकि एक नृशंस और हिंसक घटना में किसी को सजा नहीं मिली।’ साल 2007 में हुए समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट में अदालत ने चारों आरोपियों असीमानंद, कमल चौहान, राजिंदर चौधरी और लोकेश शर्मा को बीती 20 मार्च को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था। अब 28 मार्च को पंचकूला की विशेष अदालत का यह फैसला सार्वजनिक किया गया है।
इन धमाकों में मारे गए लोगों में 43 पाकिस्तान के निवासी थे, वहीं 10 भारतीय और 15 लोगों की पहचान नहीं हो सकी थी। अपने आदेश में पंचकूला की विशेष अदालत के जज जगदीप सिंह ने कहा कि “अभियोजन द्वारा पेश किए गए सबूतों में कई लापरवाही थी, जिससे इस हिंसक घटना में किसी को सजा नहीं हो सकी। आतंकवाद का कोई धर्म नहीं है, क्योंकि दुनिया का कोई भी धर्म हिंसा नहीं फैलाता है। अदालत का आदेश लोगों की जनभावना के आधार पर नहीं होने चाहिए या फिर किसी राजनीति से प्रेरित नहीं होने चाहिए। यह सिर्फ सबूतों के आधार पर होना चाहिए।”
जज ने कहा कि इस केस में ऐसा कोई सबूत पेश नहीं किया गया, जिससे यह साबित होता हो कि यह अपराध आरोपियों ने किया है। साथ ही कई स्वतंत्र गवाहों से भी पूछताछ नहीं की गई। जज जगदीप सिंह ने कहा कि एनआईए आरोपियों के बीच की बातचीत के सबूत भी पेश करने में नाकामयाब रही। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि ‘संदेह कभी भी साक्ष्य की जगह नहीं ले सकता।’
इस मामले को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि असीमानंद हैं कौन?
समझौता ब्लास्ट मामले में आरोपी असीमानंद को ज्वलंत भाषण और अल्पसंख्यक विरोधी रुख के लिए जाना जाता है। उनका नाम 2007 में हैदराबाद में मक्का मस्जिद में विस्फोट, 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव में विस्फोट, अजमेर दरगाह में धमाके जैसी वारदातों से जुड़ा रहा है। इनके कई नाम हैं - जतिन चटर्जी उर्फ नबाकुमार सरकार उर्फ स्वामी ओंकारनाथ उर्फ स्वामी असीमानंद। वनस्पति विज्ञान में स्नातक असीमानंद पश्चिम बंगाल के हूगली का निवासी हैं और अच्छा पढ़ा-लिखा भी। 1990 से 2007 के बीच स्वामी असीमानंद वनवासी कल्याण आश्रम के प्रांत प्रचारक प्रमुख रहे। असीमानंद ने 1995 के आस-पास गुजरात के डांग में हिंदू संगठनों के साथ 'हिंदू धर्म जागरण और शुद्धीकरण' के काम भी किया है।
डांग के आह्वा में असीमानंद ने शबरी माता का मंदिर बनाया और शबरी धाम की स्थापना की। पुलिस के मुताबिक 2006 में मुस्लिम समुदाय को आतंकित करने के लिए किए गए विस्फोटों से ठीक पहले असीमानंद ने इसी शबरी धाम में कुंभ का आयोजन किया। कुंभ के दौरान धमाके में शामिल करीब 10 लोग इसी आश्रम में रहे। इसके अलावा असीमानंद बिहार के पुरुलिया, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में भी सक्रिय रहे। सीबीआई का दावा है कि स्वामी हरिद्वार में पहचान बदलकर रह रहे थे। स्वामी असीमानंद की तलाश 2009 के बाद से शुरू हुई जब सुरक्षा एजेंसियों को यह ठोस जानकारी मिली कि आरोपी अपने भेष बदलता है। सूत्रों के मुताबिक, स्वामी की मौजूदगी के बारे में जानकारी मिलने के बाद सीबीआई तथा एटीएस (महाराष्ट्र) ने वर्ष 2009-10 में मध्य प्रदेश और गुजरात के विभिन्न स्थानों की तलाशी ली।
स्वामी असीमानंद ने 2011 में मजिस्ट्रेट को दिए इकबालिया बयान में स्वीकार किया था कि अजमेर दरगाह, हैदराबाद की मक्का मस्जिद और कई अन्य जगहों पर हुए बम ब्लास्ट में उनका और कई अन्य हिंदू चरमपंथी संगठनों का हाथ है। हालांकि बाद में असीमानंद अपने बयान से पलट गए और कहा कि उन्होंने पिछला बयान एनआईए के दबाव में दिया था। अब जज ने अपने फैसले में जो कहा है उसका सार संक्षेप यही है कि एनआईए इस मामले में गंभीर ही नहीं था। क्या आप मानेंगे कि असीमानंद को गलत फंसाने वालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। या आप यह मानते हैं कि उन्हें चुनाव लड़वाकर सासंद या मंत्री बना देना पर्याप्त होगा और भाजपा का सत्याग्रह भी हो जाएगा जिसके राजनीतिक लाभ मिलेंगे। क्या यह प्रचारनीति नहीं है।
जहां तक समझौता मामले में अभियुक्तों के बरी होने की बात है - इंडियन एक्सप्रेस की 29 मार्च 2019 को एक खबर का लिंक कमेंट बॉक्स में है जिसका शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होता (अनुवाद मेरा), "समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट मामला : एनआईए जज ने 'तकलीफ' के साथ कहा कि सबूत के बिना 'कायरतापूर्ण कार्रवाई' में सजा नहीं हो सकी"। यह खबर इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर छपी थी। तब इसका शीर्षक था, "सर्वश्रेष्ठ सबूत पेश ही नहीं किए गए : समझौता जज ने एनआईए की निन्दा की" था। इस बारे में मैंने उसी दिन लिखा भी था, “समझौता ब्लास्ट में एनआईए की कार्रवाई पर अदालत की टिप्पणी आपके अखबार में है”?
असल में सरकार एनआईए को मजबूत करना और ज्यादा अधिकार देना चाहती है। विपक्ष इसे लेकर चिन्तित है और एनआईए के काम-काज पर उंगली उठी है। इस पर खबर में कहा गया है, (समझौता) मामले में न्याय नहीं हुआ इसके लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है। उनका कहना है कि इसका कारण यह है कि मामले को एक खास दिशा में ले जाया गया था और असली अपराधियों को छोड़ दिया गया और दूसरों को एक ऐसे अपराध के लिए पकड़ लिया गया जो उन्होंने किए ही नहीं। उन्होंने कहा है, ब्लास्ट को एक खास धर्म से जोड़ने के लिए मामला बनाया गया था। अपराधियों को छोड़ दिया गया और नए लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। अगर वाकई ऐसा है तो क्या उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए जिन्होंने अपराधियों को छोड़ दिया या निर्दोष लोगों को पकड़ लिया। यह जिम्मेदारी तो सरकार की है ही। साथ ही सरकार को बताना चाहिए कि उसकी सूचना या विश्वास का आधार क्या है।
आज की खबर में ऐसा कुछ नहीं है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने यह जरूर बताया है कि लोकसभा में इससे संबंधित विधेयक पास होने के बाद राज्य सभा में इसका पास होना ज्यादा मुश्किल नहीं था और सरकार के लिए यह बड़ी सफलता है। बहुमत के खेल में मेरा मुद्दा विधेयक पास होना या एनआईए को अधिकार दिया जाना नहीं है। मेरा मतलब आतंकवाद के मामले में सरकार के रवैये से है। कहने की जरूरत नहीं है और टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी लिखा है कि अमित शाह इस मामले में कांग्रेस पर हमला करते रहे हैं। मेरा मतलब कांग्रेस पर हमले की राजनीति से भी नहीं है। मेरा मानना है कि गलती हुई है तो सुधारी जानी चाहिए और दोषियों को बख्शा नहीं जाना चाहिए। और इसमें सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास के अपने ही नारे का भी ख्याल रखा जाना चाहिए।
समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट के आरोपियों की रिहाई का आदेश देने वाले जज ने अपने फैसले में कहा है कि एनआईए सबसे मजबूत सबूत ही अदालत में पेश करने में नाकामयाब रही, साथ ही मामले की जांच में भी कई लापरवाही बरती गई। केन्द्रीय जांच एजेंसी एनआईए की खिंचाई करते हुए कहा कि ‘वह गहरे दुख और पीड़ा के साथ यह कर रहे हैं, क्योंकि एक नृशंस और हिंसक घटना में किसी को सजा नहीं मिली।’ साल 2007 में हुए समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट में अदालत ने चारों आरोपियों असीमानंद, कमल चौहान, राजिंदर चौधरी और लोकेश शर्मा को बीती 20 मार्च को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था। अब 28 मार्च को पंचकूला की विशेष अदालत का यह फैसला सार्वजनिक किया गया है।
इन धमाकों में मारे गए लोगों में 43 पाकिस्तान के निवासी थे, वहीं 10 भारतीय और 15 लोगों की पहचान नहीं हो सकी थी। अपने आदेश में पंचकूला की विशेष अदालत के जज जगदीप सिंह ने कहा कि “अभियोजन द्वारा पेश किए गए सबूतों में कई लापरवाही थी, जिससे इस हिंसक घटना में किसी को सजा नहीं हो सकी। आतंकवाद का कोई धर्म नहीं है, क्योंकि दुनिया का कोई भी धर्म हिंसा नहीं फैलाता है। अदालत का आदेश लोगों की जनभावना के आधार पर नहीं होने चाहिए या फिर किसी राजनीति से प्रेरित नहीं होने चाहिए। यह सिर्फ सबूतों के आधार पर होना चाहिए।”
जज ने कहा कि इस केस में ऐसा कोई सबूत पेश नहीं किया गया, जिससे यह साबित होता हो कि यह अपराध आरोपियों ने किया है। साथ ही कई स्वतंत्र गवाहों से भी पूछताछ नहीं की गई। जज जगदीप सिंह ने कहा कि एनआईए आरोपियों के बीच की बातचीत के सबूत भी पेश करने में नाकामयाब रही। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि ‘संदेह कभी भी साक्ष्य की जगह नहीं ले सकता।’
इस मामले को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि असीमानंद हैं कौन?
समझौता ब्लास्ट मामले में आरोपी असीमानंद को ज्वलंत भाषण और अल्पसंख्यक विरोधी रुख के लिए जाना जाता है। उनका नाम 2007 में हैदराबाद में मक्का मस्जिद में विस्फोट, 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव में विस्फोट, अजमेर दरगाह में धमाके जैसी वारदातों से जुड़ा रहा है। इनके कई नाम हैं - जतिन चटर्जी उर्फ नबाकुमार सरकार उर्फ स्वामी ओंकारनाथ उर्फ स्वामी असीमानंद। वनस्पति विज्ञान में स्नातक असीमानंद पश्चिम बंगाल के हूगली का निवासी हैं और अच्छा पढ़ा-लिखा भी। 1990 से 2007 के बीच स्वामी असीमानंद वनवासी कल्याण आश्रम के प्रांत प्रचारक प्रमुख रहे। असीमानंद ने 1995 के आस-पास गुजरात के डांग में हिंदू संगठनों के साथ 'हिंदू धर्म जागरण और शुद्धीकरण' के काम भी किया है।
डांग के आह्वा में असीमानंद ने शबरी माता का मंदिर बनाया और शबरी धाम की स्थापना की। पुलिस के मुताबिक 2006 में मुस्लिम समुदाय को आतंकित करने के लिए किए गए विस्फोटों से ठीक पहले असीमानंद ने इसी शबरी धाम में कुंभ का आयोजन किया। कुंभ के दौरान धमाके में शामिल करीब 10 लोग इसी आश्रम में रहे। इसके अलावा असीमानंद बिहार के पुरुलिया, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में भी सक्रिय रहे। सीबीआई का दावा है कि स्वामी हरिद्वार में पहचान बदलकर रह रहे थे। स्वामी असीमानंद की तलाश 2009 के बाद से शुरू हुई जब सुरक्षा एजेंसियों को यह ठोस जानकारी मिली कि आरोपी अपने भेष बदलता है। सूत्रों के मुताबिक, स्वामी की मौजूदगी के बारे में जानकारी मिलने के बाद सीबीआई तथा एटीएस (महाराष्ट्र) ने वर्ष 2009-10 में मध्य प्रदेश और गुजरात के विभिन्न स्थानों की तलाशी ली।
स्वामी असीमानंद ने 2011 में मजिस्ट्रेट को दिए इकबालिया बयान में स्वीकार किया था कि अजमेर दरगाह, हैदराबाद की मक्का मस्जिद और कई अन्य जगहों पर हुए बम ब्लास्ट में उनका और कई अन्य हिंदू चरमपंथी संगठनों का हाथ है। हालांकि बाद में असीमानंद अपने बयान से पलट गए और कहा कि उन्होंने पिछला बयान एनआईए के दबाव में दिया था। अब जज ने अपने फैसले में जो कहा है उसका सार संक्षेप यही है कि एनआईए इस मामले में गंभीर ही नहीं था। क्या आप मानेंगे कि असीमानंद को गलत फंसाने वालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। या आप यह मानते हैं कि उन्हें चुनाव लड़वाकर सासंद या मंत्री बना देना पर्याप्त होगा और भाजपा का सत्याग्रह भी हो जाएगा जिसके राजनीतिक लाभ मिलेंगे। क्या यह प्रचारनीति नहीं है।
जहां तक समझौता मामले में अभियुक्तों के बरी होने की बात है - इंडियन एक्सप्रेस की 29 मार्च 2019 को एक खबर का लिंक कमेंट बॉक्स में है जिसका शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होता (अनुवाद मेरा), "समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट मामला : एनआईए जज ने 'तकलीफ' के साथ कहा कि सबूत के बिना 'कायरतापूर्ण कार्रवाई' में सजा नहीं हो सकी"। यह खबर इंडियन एक्सप्रेस में पहले पन्ने पर छपी थी। तब इसका शीर्षक था, "सर्वश्रेष्ठ सबूत पेश ही नहीं किए गए : समझौता जज ने एनआईए की निन्दा की" था। इस बारे में मैंने उसी दिन लिखा भी था, “समझौता ब्लास्ट में एनआईए की कार्रवाई पर अदालत की टिप्पणी आपके अखबार में है”?