वित्त मंत्रालय में पत्रकारों का जाना हुआ आसान, ख़बरों का आना हुआ मुश्किल

Written by Ravish Kumar | Published on: July 12, 2019
सब चले गए थे। उनके जाने के बाद शाम भी दिन को लिए जा चुकी थी। 
हवा अपने पीछे उमस छोड़ गई थी। और घड़ी की दो सुइयां अधमरी पड़ी थीं



मैं सपने में था। सपने में वित्त मंत्रालय था।

कमरे में अफ़सर फाइलों को पलट रहे थे। उनके पलटते ही नंबर बदल जाते थे।

पीले-पीले पन्नों को गुलाबी होते देख रहा था।

0 के आगे 10 लगा देने से 100 हो जा रहा था। 100 से 00 हटा देने पर नंबर 1 हो जा रहा था।

कुछ अफ़सरों की निगाहें भी मिल गईं। मिलते ही उन्होंने निगाहें चुरा लीं।

उनकी आंखों में काजल थे। पानी नहीं था।

किसकी गर्दन कितनी बार मुड़ी। किस किस से मिली। किसने किसकी तरफ़ इशारे किए।

एक बाबू था जो फ़ाइलों में दर्ज कर रहा था।

रिकार्ड। सब कुछ रिकार्ड है। मैं ऑफ रिकार्ड था। सपने ऑफ रिकार्ड होते हैं।

पत्रकारों का अंदर आना मना है। आने से पहले इजाज़त लेनी होगी। रिकार्ड पर आना होगा।

एक अफ़सर कांप रहा था। उस पर शक है कि उसने एक पत्रकार से बात की थी।

गुलाबी किए जाने से पहले के आंकड़े उसे दे दिए थे।

45 साल में सबसे अधिक बेरोज़गारी के आंकड़े की रिपोर्ट छपी थी।

उस अफ़सर ने कहा कि नया आदेश पत्रकारों के ख़िलाफ़ नहीं हैं।

तो?

यह ईमान वाले अफ़सरों के ख़िलाफ़ हैं। उनकी निशानदेही होगी।

अफ़सर भी फ़ाइलों में बंद किए जाएंगे।

उस रात सपने में बहुतों से नज़र मिली थी।

संविधान की शपथ लेकर ईमान की बात करने वालों ने नज़र फेर ली थी।

देर तक नज़र मिलाने में उनकी पलकें थरथरा रही थीं।

पहली बार पलकों को थरथराते देखा था। वैसे ही जैसे कबूतर गोली मार दिए जाने के बाद फड़फड़ाता है।

सबको पता था कि हम सपने में हैं। असल में तो मैं वित्त मंत्रालय जा ही नहीं सकता। पीआईबी कार्ड भी नहीं है।

बजट में जो राजस्व के आंकड़े हैं वो आर्थिक सर्वे में नहीं हैं। जो आर्थिक सर्वे में है वो बजट में नहीं है।

वित्त मंत्री ने कहा है कि आंकड़े प्रमाणिक हैं। उनमें निरंतरता है।

एक लाख 70 हज़ार करोड़ का हिसाब नहीं है। कमाई कम हुई है मगर सरकार ज़्यादा बता रही है। ख़र्च कम हुआ है मगर सरकार ज़्यादा बता रही है। संसद में सफाई आ गई है।

उस रात वित्त मंत्रालय में देर तक टहलता रहा। अफसर चुपचाप अपना टिफिन खा रहे थे। रोटियां भी साझा नहीं हो रही थीं। 1857 में रोटियों में लपेट कर काफी कुछ साझा हो गया था। रोटियों को सीसीटीवी कैमरे पर रखा जा रहा था। देखने के लिए कि इनमें कहीं आंकड़े तो नहीं हैं।

सभी दयालु मंत्री का शुक्रिया अदा कर रहे थे। वित्त मंत्री ने चाय पानी और कॉपी का इंतज़ाम कर दिया था।

एक अफ़सर गहरी नींद में सोता हुआ दिखा। वह भी मेरी तरह सपने में था। मैं उसके सपने में चला गया।

उसकी आत्मा उन फ़ाइलों को पढ़ रही थी। उन आंकड़ों को भी। वह आत्मा से छिप रहा था। फाइलों को उसके हाथों से छीन रहा था।

आत्मा और अफ़सर की लड़ाई मैंने पहली बार देखी।

वह अफ़सर दहेज में मिला थर्मस लाया था। बता रहा था कि चाय पत्नी के हाथ का ही पीता है।

उसे पता है कि ईमान कुछ नहीं होता है। आत्मा कुछ नहीं होती है। उसके बच्चे तब भी उसे महान समझेंगे।

चाणक्यपुरी और पंडारा रोड के बच्चे समझदार होते हैं।

ईमान से सवाल नहीं करते हैं। आत्मा से बात नहीं करते हैं।

भारती नगर और काका नगर के बच्चे भी भारत को लेकर बेचैन नहीं हैं।

उन्हें सही आंकड़ों की ज़रूरत नहीं है।

उन्हें हर शाम आंकड़ा दिख जाता है।

जब मां या पिता दफ़्तर से घर आते हैं।

चुप रहने के लिए जाते हैं, चुप होकर आ जाते हैं।

सपने में उस अफ़सर ने एक बात कही थी।

हमें मौत का डर नहीं है। हम मारे जाने से पहले मर चुके हैं।

उसने सोचा कि मैं बेचैन हो जाऊंगा।

मैंने गीता पढ़ी है। आत्मा अमर है।

अफ़सर ने कहा कि आत्मा अमर है। यही तो मुसीबत है।

मरे हुए लोगों की आत्माएं भी अमर होती हैं।

उसकी अमरता ही तो सत्ता है।

सत्ता अमर है।

एक सवाल और। मेरे इस सवाल पर उसने मना कर दिया।

मैंने पूछ लिया।

उसने यही कहा।

अख़बार तो लोग ख़रीदेंगे। उन्हें ख़रीदने की आदत है। वैसे ही जैसे हमें मरने की आदत है।

मैं नींद से जाग गया था।

बारिश हो रही थी।

रायसीना शाम की रौशनी में बूंदों के बीच दुल्हन की तरह लग रही थी।

जार्ज ऑरवेल की किताब 1984 पढ़ते हुए सोना नहीं चाहिए।

इस किताब को जो पढ़ेगा वो सोते हुए सपना पाएगा।

उसके ख़्वाब गुलाबी हो जाएंगे।

अख़बार अपने आप छप जाएंगे।

अख़बार में ख़बर नहीं छपेगी तो अख़बार फिर भी बिकेगा।

चैनलों में ख़बर नहीं होगी तो चैनल फिर भी देख जाएंगे।

पत्रकार की ज़रूरत नहीं है।

वह अब चुपके से कहीं नहीं जा सकता है।

जब पाठक और दर्शक यह जानकर चुप रह सकते हैं

तो फिर पत्रकार को चुप रहने में क्या दिक्कत है।

यही दिक्कत है।

जलवायु परिवर्तन से लाखों लोगों के विस्थापित होने के बाद भी
लगता है उसका विस्थापन कभी नहीं होगा।

पाठक का विस्थापन नहीं होगा।

दर्शक का विस्थापन नहीं होगा।

वह ख़तरों से फूल प्रूफ है।

लोकतंत्र का यह जलवायु परिवर्तन है।

तापमान ज़्यादा हो गया है।

पाठकों का शुक्रिया।

बग़ैर ख़बरों के अख़बार ख़रीदते रहने के लिए.

बग़ैर ख़बरों के चैनल देखते रहने के लिए।

वित्त मंत्री के फ़ैसले का स्वागत हो।

ख़बरों की मौत पर श्राद्ध का भोज हो।

तेरहवीं का इंतज़ार न करें।

मरने के दिन ही भोज का आयोजन हो।

मैंने देखा अफ़सरों की तरह लोग भी निगाहें नहीं मिला रहे थे। 
ये मैंने सपने में नहीं देखा।

गहरी नींद से जागने के बाद लोगों से मिलने के बाद देखा था।

एक दर्शक ने व्हाट्स एप किया था।

हमसे नज़र मिलाने से पहले इजाज़त ज़रूरी है।

आप किसी के गौरव को शर्मिंदा नहीं कर सकते हैं।

मैंने एडिटर्स गिल्ड के फैसले की आलोचना कर दी।

गिल्ड ने वित्त मंत्रालय के फैसले की आलोचना की थी।

अब सब ठीक है। आत्मा भी और अफ़सर भी। दर्शक भी और पाठक भी।

बस इनबॉक्स वाला नारा़ है।

उसे मेरे लेख का शीर्षक समझ नहीं आ रहा है।

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