धन्यवाद नेहरू! हमें आप मिले, जिन्ना नहीं. यह दो साल पहले की बात है. इन दिनों मैं स्नातक के अंतिम वर्षों में थी और रसायन शास्त्र के सूत्रों में उलझी रहती थी. अजमेर के सुदूर गांव बांदरसिंदरी में स्थित राजस्थान के उस एकमात्र केंद्रीय विश्वविद्यालय में गिनती के विचार वान और जागरूक लोग मिलते थे. सभी की तरह मैं भी स्नातक के बाद अपने आगे के अकादमिक भविष्य को लेकर संशय में थी.
असाइनमेंट, तीन इंटरनल एग्जाम और सेमेस्टर एग्जाम के बीच शायद ही अन्य विचारों को पढ़ने का समय मिल पाता था ऐसे में एक साथी ऐसा मिला जहां से एक नए वैचारिक संसार की यात्रा शुरू हुई जो शायद अब कभी खत्म ना होगी. इस वैचारिक यात्रा में पढ़ते-पढ़ते आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद के बहुत सारे लोगों और उनके विचारों के बारे में पढ़ने का मौका मिला.
इनमें से सबसे ज्यादा प्रभावित किया भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने. राजनीतिक विचारों और विचारकों को पढ़ते-पढ़ते राजनीति विज्ञान की तरफ इतना झुकाव हुआ कि आगे के अध्ययन के लिए मैंने अपना विषय राजनीति विज्ञान ही चुन लिया. अब खोज करने का समय था कि इसे सबसे बेहतर तरीके से कहां पढ़ा जाए, तो पाया कि सामाजिक विज्ञान को भारत में अगर कहीं बेहतरीन तरीके से पढ़ा जा सकता है तो वह है जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय. उस वक्त मेरे लिए यह एक सामान्य सा संयोग था कि सबसे पसंदीदा विचारक के नाम पर ही सबसे प्राथमिकता वाला विश्वविद्यालय था.
यात्रा आगे बढ़ी और मैंने जेएनयू में राजनीति विज्ञान विषय में प्रवेश ले लिया. जब आप जेएनयू का नाम सुनते हैं तो उसके साथ मीडिया और राजनीति के एक तबके द्वारा फैलाई हुई भ्रांतियां को स्वत: ही अपने मस्तिष्क पटल पर पाते हैं, लेकिन जब आप जेएनयू आते हैं, पढ़ते हैं, रहते हैं, जीते हैं और महसूस करते हैं तो आपको जेएनयू वह दुनिया, वह जगह लगती है जिसकी कल्पना देश के पहले प्रधानमंत्री ने की थी. मैंने भी जब यह सब कुछ जिया, तो दोनों के नाम का संयोग सार्थक लगने लगा.
लोकतांत्रिक समाजवाद में विश्वास रखने वाले नेहरू के विचार उनकी स्वलिखित तीन पुस्तकों [एन ऑटो बायोग्राफी (1936), ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री (1931) एवं डिस्कवरी ऑफ इंडिया (1944)] एवं अन्य लिखित दस्तावेजों से समझने को मिलते हैं. आज जो लोग नेहरू के बारे में भ्रामक जानकारियां रखते हैं, उनको ज़रूर यह सब पढ़ना चाहिए. उसके बाद अगर उन्हें लगे तो ज़रूर अपनी आलोचना और असहमतियां दर्ज करानी चाहिए जो कि खुद नेहरू भी चाहते थे.
लोकतंत्र और संसदीय व्यवस्था में उनकी गहरी आस्था और विश्वास का इससे नायाब उदाहरण कोई नहीं हो सकता कि वे संसद में विपक्षी सांसदों के साथ-साथ अपनी ही पार्टी के सांसदों-मंत्रियों को अपनी और अपनी सरकार की आलोचना करने के लिए प्रेरित करते थे. उन्हें भली-भांति पता था कि लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना कितना जरूरी है और वे यह भी जानते थे कि भारत अभी-अभी एक नए आज़ाद और संप्रभु गणराज्य के रूप में अस्तित्व में आया है इसलिए यहां एक मजबूत विपक्ष का अभाव है. भारत की जनता का कांग्रेस पार्टी और उसके ‘करिश्माई’ नेताओं में अटूट विश्वास है, जो आगे चलकर भारत और उसके नए लोकतांत्रिक ढांचे के लिए खतरा बन सकता है. इसी दूरदर्शी और अधिनायकवाद-विरोधी सोच के चलते नेहरू ने एक मजबूत विपक्ष खड़ा करने की ठानी.
उन्होंने भारत में मीडिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के भरसक प्रयास किए. वे चाहते थे कि विपक्षी पार्टियों के लोग ही नहीं बल्कि उनकी अपनी पार्टी के भीतर से भी लोग उनकी वाजिब आलोचना करने से ना कतराएं. यही नहीं उनकी हमेशा कोशिश रही की संविधान की रचना करने वाली संविधान सभा में सभी विचारधाराओं को जगह मिले, इसीलिए अनेक वैचारिक असहमतियो के बावजूद भी वे चाहते थे कि भीमराव अंबेडकर भी संविधान सभा में रहे और श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी. उनके व्यक्तित्व में आलोचनाओं का महत्व इस हद तक शुमार था कि वे अपने सबसे प्रिय ‘बापू’ की आलोचना करने और उनकी आलोचना को स्वीकार करने में जरा भी नहीं कतराते थे. शायद वह समय ही कुछ ऐसा रहा होगा जहां सबसे करीबी लोग ही एक दूसरे के सबसे बड़े आलोचक हुआ करते थे. गांधी नेहरू के और नेहरू गांधी के, पटेल नेहरू के और नेहरू पटेल के, टैगोर गांधी के और गांधी टैगोर के, यही उनके आपसी संबंधों की खूबसूरती भी थी.
नेहरू ने कभी अपनी आलोचनाओं को ना तो अपने स्वाभिमान पर चोट की तरह लिया और ना ही कभी अपने ऊपर हावी होने दिया. वे सीखते चले गए और शायद इसीलिए उनकी सोच-समझ, उनके विचार समय के साथ और बेहतर होते गए और उनका व्यक्तित्व समय के साथ और निखरता गया.
भारत की आज़ादी ज्यादा उत्सुकता नहीं लाई क्योंकि उसमें भारत और पाकिस्तान के विभाजन का दंश भी छिपा था. विभाजन के दौरान हुई हिंसा खून-ख़राबा और विध्वंस से बाकी हिंदुस्तानियों की तरह नेहरू भी आहत और विचलित थे.
वे कभी नहीं चाहते थे कि हिंदुस्तान का विभाजन हो. विभाजन से बचने के लिए वे मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग के साथ हर संभव समझौता करने को तैयार थे, लेकिन दुर्भाग्यवश सांप्रदायिकता की चिंगारी तब तक आग पकड़ चुकी थी और विभाजन की त्रासदी हमेशा के लिए हिंदुस्तान के इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई. नेहरू को हमेशा यह मलाल रहा कि वे इसे नहीं रोक सके. आजादी के बाद भी सांप्रदायिकता का डर उन्हें सताता रहता था. जो विभाजन के समय हुआ वे उसे आजाद भारत में नहीं देखना चाहते थे. उनका मानना था कि अल्पसंख्यक हमेशा बहुसंख्या के बीच असहज और डरा हुआ महसूस करते हैं और इसीलिए उनका स्वभाव सुरक्षा की दृष्टि से थोड़ा आक्रामक होता है. उन्हें अंदेशा था कि यह आक्रामकता कभी भी देश के सांप्रदायिक सौहार्द को नष्ट कर सकती है और इसीलिए वे मानते थे कि बहुसंख्या को हमेशा नरम और सहनशील होना चाहिए.
भारत में अल्पसंख्यक कभी भी अपने आपको बाहरी, कमतर या उपेक्षित महसूस ना करें इसलिए वे हमेशा उन्हें लेकर बचाव का रवैया अपनाए हुए रहते थे. इसके लिए उन्हें अमूमन गलत समझा जाता रहा है उन्हें बहुसंख्या विरोधी कहा जाता रहा है. अल्पसंख्यकों के प्रति उनके इस रवैये को लोगो द्वारा हमेशा तुष्टिकरण समझा गया. वे धर्म और राजनीति को अलग रखना चाहते थे. उनकी धर्मनिरपेक्षता का अर्थ था कि भारतीय गणराज्य हर धर्म से उचित दूरी बनाए रखेगा और धार्मिक गतिविधियों और कर्म- कांडों से अपने आप को दूर रखेगा.
इतनी तेजी और स्थिरता के साथ उभरते हुए भारत में उनकी भूमिका को देखते हुए उन्हें दुनिया भर में ‘स्टेट्समैन” कहा जाने लगा. विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में उनकी खासी रुचि थी.
वे हमेशा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में विश्व बंधुत्व, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और गुटनिरपेक्षता जैसे मूल्यों के पक्षधर थे. जिस समय पूरा विश्व अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चल रहे शीत युद्ध की वजह से दो गुटों में बटा हुआ था, उस समय नेहरू ने भारत ही नहीं बल्कि तीसरी दुनिया के अन्य देशों को साथ लाकर गुट-निरपेक्षता के सिद्धांत को विश्व राजनीति में स्थापित किया. संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद गुटनिरपेक्ष आंदोलन विश्व का दूसरा बड़ा संप्रभु देशों वाला संगठन बना.
नेहरू के अनुसार जब तक कोई भी देश अपने आप को हर प्रकार की सैन्य दौड़ और युद्ध-मुठभेड़ों से मुक्त नहीं कर लेता तब तक उसका सामाजिक-आर्थिक विकास होना नामुमकिन है. वे मानते थे कि पड़ोसी देशों में शांति स्थापित करने हेतु परस्पर विश्वास होना बहुत जरूरी है, इसी के चलते उन्होंने पड़ोसी देश चीन के साथ ‘पंचशील’समझौते पर हस्ताक्षर किए और तब तक सिद्धांतों का पालन किया जब तक कि उन्हें भारत-चीन संबंधों के पीछे छुपे हुए चीन के नापाक इरादों के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हो गए.
1962 के युद्ध में भारत की हार और इससे हुए नुकसान से बहुत आहत थे और युद्ध के बाद उनकी तबीयत लगातार बिगड़ती चली गई. 2 साल बाद उन्होंने इस दुनिया से विदा ली.
साम्यवाद से प्रेरित और समाजवादी विचारधारा के पैरोकार नेहरू ने भारत की आर्थिक नीतियों में भी अपनी छाप छोड़ी और देश-काल-परिस्थितियों को देखते हुए समाजवादी अर्थव्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाने के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया. नवरत्न कंपनियों की स्थापना की, और एक बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को आगे बढ़ाया. योजना आयोग की स्थापना और पंचवर्षीय योजनाओं को आधार बनाकर भारत को आर्थिक मजबूती प्रदान की.
शिक्षा के क्षेत्र में आईआईटी, आईआईएम जैसे अतुलनीय संस्थाओं की स्थापना करने वाले नेहरू का जोर वैज्ञानिक सोच और तार्किक पर समझ रहा है. वे चाहते थे कि भारत की शिक्षा व्यवस्था यहां की सामाजिक रूढ़िवादी सोच से हटकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किकता पर आधारित हो.
विश्वविद्यालयों को लेकर उनके विचार बहुत ही स्पष्ट और साफ थे, जिसकी बानगी आपको जेएनयू के प्रशासनिक भवन के सामने लगी उनकी मूर्ति के शिलालेख पर अंकित मिलती है -”एक विश्वविद्यालय मानवता, सहिष्णुता, तार्किक विचारों के आंदोलन तथा सत्य की खोज का केंद्र होता है. वह मानव जाति के आगे और अधिक उच्च उद्देश्यों की ओर प्रस्थान का भी केंद्र होता है. यदि विश्वविद्यालय अपने दायित्व उचित रूप से पूरा करते हैं तो यह देश और लोगों के लिए बेहतर होगा.”
हालांकि नेहरू नहीं चाहते थे कि उनके नाम से कोई संस्था या विश्वविद्यालय बनाया जाए लेकिन फिर भी उनके नाम पर बने इस विश्वविद्यालय ने उनके द्वारा विश्वविद्यालयों को लेकर रखी गई सोच को वास्तविक रूप देने का काम बखूबी किया है. मैंने देखा है कि जेएनयू के कण-कण में उनके विचार और कार्य प्रणाली रचे बसे हैं.
तमाम हमले सहते हुए भी यह विश्वविद्यालय भी उसी प्रकार मजबूती से खड़ा रहा है जिस प्रकार नेहरु के द्वारा स्थापित किया गया इस देश का लोकतंत्र.
ऐसा नहीं है की कोई कमी नेहरू या जेएनयू में ना हो लेकिन सिर्फ वाजिब आलोचनाएं ही सार्थक हो सकती है, नहीं तो फैलाया हुआ झूठ और भ्रम तो काठ की हांडी की तरह होता है जो एक ही बार चल सकता है,जल सकता है और उबल सकता है. फिर सब कुछ साफ और स्पष्ट हो जाता है.
उम्मीद है कि जैसे जेएनयू के बारे में फैलाया गया दुष्प्रचार अब साफ होने लगा है वैसे ही नेहरू के बारे में फैलाया गया दुष्प्रचार भी जल्द ही साफ होगा और यह देश और दुनिया जान सकेगी कि उस व्यक्ति ने इस देश के लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संप्रभुता, अखंडता और सहिष्णुता में जो योगदान दिया है उसी पर यह देश प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से गर्व करता आया है और करता रहेगा. ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और ‘विविधता में एकता’ कि सिर्फ लोग बात नहीं करेंगे बल्कि उसे समझेंगे, अपनाएंगे और जिएंगे भी. जो लोग पाकिस्तान से राष्ट्रवाद और देशभक्ति सीखने की दुहाई देने लगते हैं वे भी जान सकेंगे नेहरू और जिन्ना के बीच का फर्क. धन्यवाद नेहरू की आप आए और हम खुशनसीब हैं कि हमें आप मिले, जिन्ना नहीं. हमें हिंदुस्तान मिला, पाकिस्तान नहीं.
(खुशबू शर्मा जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में स्नाकोत्तर की छात्रा हैं।)
असाइनमेंट, तीन इंटरनल एग्जाम और सेमेस्टर एग्जाम के बीच शायद ही अन्य विचारों को पढ़ने का समय मिल पाता था ऐसे में एक साथी ऐसा मिला जहां से एक नए वैचारिक संसार की यात्रा शुरू हुई जो शायद अब कभी खत्म ना होगी. इस वैचारिक यात्रा में पढ़ते-पढ़ते आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद के बहुत सारे लोगों और उनके विचारों के बारे में पढ़ने का मौका मिला.
इनमें से सबसे ज्यादा प्रभावित किया भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने. राजनीतिक विचारों और विचारकों को पढ़ते-पढ़ते राजनीति विज्ञान की तरफ इतना झुकाव हुआ कि आगे के अध्ययन के लिए मैंने अपना विषय राजनीति विज्ञान ही चुन लिया. अब खोज करने का समय था कि इसे सबसे बेहतर तरीके से कहां पढ़ा जाए, तो पाया कि सामाजिक विज्ञान को भारत में अगर कहीं बेहतरीन तरीके से पढ़ा जा सकता है तो वह है जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय. उस वक्त मेरे लिए यह एक सामान्य सा संयोग था कि सबसे पसंदीदा विचारक के नाम पर ही सबसे प्राथमिकता वाला विश्वविद्यालय था.
यात्रा आगे बढ़ी और मैंने जेएनयू में राजनीति विज्ञान विषय में प्रवेश ले लिया. जब आप जेएनयू का नाम सुनते हैं तो उसके साथ मीडिया और राजनीति के एक तबके द्वारा फैलाई हुई भ्रांतियां को स्वत: ही अपने मस्तिष्क पटल पर पाते हैं, लेकिन जब आप जेएनयू आते हैं, पढ़ते हैं, रहते हैं, जीते हैं और महसूस करते हैं तो आपको जेएनयू वह दुनिया, वह जगह लगती है जिसकी कल्पना देश के पहले प्रधानमंत्री ने की थी. मैंने भी जब यह सब कुछ जिया, तो दोनों के नाम का संयोग सार्थक लगने लगा.
लोकतांत्रिक समाजवाद में विश्वास रखने वाले नेहरू के विचार उनकी स्वलिखित तीन पुस्तकों [एन ऑटो बायोग्राफी (1936), ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री (1931) एवं डिस्कवरी ऑफ इंडिया (1944)] एवं अन्य लिखित दस्तावेजों से समझने को मिलते हैं. आज जो लोग नेहरू के बारे में भ्रामक जानकारियां रखते हैं, उनको ज़रूर यह सब पढ़ना चाहिए. उसके बाद अगर उन्हें लगे तो ज़रूर अपनी आलोचना और असहमतियां दर्ज करानी चाहिए जो कि खुद नेहरू भी चाहते थे.
लोकतंत्र और संसदीय व्यवस्था में उनकी गहरी आस्था और विश्वास का इससे नायाब उदाहरण कोई नहीं हो सकता कि वे संसद में विपक्षी सांसदों के साथ-साथ अपनी ही पार्टी के सांसदों-मंत्रियों को अपनी और अपनी सरकार की आलोचना करने के लिए प्रेरित करते थे. उन्हें भली-भांति पता था कि लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना कितना जरूरी है और वे यह भी जानते थे कि भारत अभी-अभी एक नए आज़ाद और संप्रभु गणराज्य के रूप में अस्तित्व में आया है इसलिए यहां एक मजबूत विपक्ष का अभाव है. भारत की जनता का कांग्रेस पार्टी और उसके ‘करिश्माई’ नेताओं में अटूट विश्वास है, जो आगे चलकर भारत और उसके नए लोकतांत्रिक ढांचे के लिए खतरा बन सकता है. इसी दूरदर्शी और अधिनायकवाद-विरोधी सोच के चलते नेहरू ने एक मजबूत विपक्ष खड़ा करने की ठानी.
उन्होंने भारत में मीडिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के भरसक प्रयास किए. वे चाहते थे कि विपक्षी पार्टियों के लोग ही नहीं बल्कि उनकी अपनी पार्टी के भीतर से भी लोग उनकी वाजिब आलोचना करने से ना कतराएं. यही नहीं उनकी हमेशा कोशिश रही की संविधान की रचना करने वाली संविधान सभा में सभी विचारधाराओं को जगह मिले, इसीलिए अनेक वैचारिक असहमतियो के बावजूद भी वे चाहते थे कि भीमराव अंबेडकर भी संविधान सभा में रहे और श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी. उनके व्यक्तित्व में आलोचनाओं का महत्व इस हद तक शुमार था कि वे अपने सबसे प्रिय ‘बापू’ की आलोचना करने और उनकी आलोचना को स्वीकार करने में जरा भी नहीं कतराते थे. शायद वह समय ही कुछ ऐसा रहा होगा जहां सबसे करीबी लोग ही एक दूसरे के सबसे बड़े आलोचक हुआ करते थे. गांधी नेहरू के और नेहरू गांधी के, पटेल नेहरू के और नेहरू पटेल के, टैगोर गांधी के और गांधी टैगोर के, यही उनके आपसी संबंधों की खूबसूरती भी थी.
नेहरू ने कभी अपनी आलोचनाओं को ना तो अपने स्वाभिमान पर चोट की तरह लिया और ना ही कभी अपने ऊपर हावी होने दिया. वे सीखते चले गए और शायद इसीलिए उनकी सोच-समझ, उनके विचार समय के साथ और बेहतर होते गए और उनका व्यक्तित्व समय के साथ और निखरता गया.
भारत की आज़ादी ज्यादा उत्सुकता नहीं लाई क्योंकि उसमें भारत और पाकिस्तान के विभाजन का दंश भी छिपा था. विभाजन के दौरान हुई हिंसा खून-ख़राबा और विध्वंस से बाकी हिंदुस्तानियों की तरह नेहरू भी आहत और विचलित थे.
वे कभी नहीं चाहते थे कि हिंदुस्तान का विभाजन हो. विभाजन से बचने के लिए वे मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग के साथ हर संभव समझौता करने को तैयार थे, लेकिन दुर्भाग्यवश सांप्रदायिकता की चिंगारी तब तक आग पकड़ चुकी थी और विभाजन की त्रासदी हमेशा के लिए हिंदुस्तान के इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई. नेहरू को हमेशा यह मलाल रहा कि वे इसे नहीं रोक सके. आजादी के बाद भी सांप्रदायिकता का डर उन्हें सताता रहता था. जो विभाजन के समय हुआ वे उसे आजाद भारत में नहीं देखना चाहते थे. उनका मानना था कि अल्पसंख्यक हमेशा बहुसंख्या के बीच असहज और डरा हुआ महसूस करते हैं और इसीलिए उनका स्वभाव सुरक्षा की दृष्टि से थोड़ा आक्रामक होता है. उन्हें अंदेशा था कि यह आक्रामकता कभी भी देश के सांप्रदायिक सौहार्द को नष्ट कर सकती है और इसीलिए वे मानते थे कि बहुसंख्या को हमेशा नरम और सहनशील होना चाहिए.
भारत में अल्पसंख्यक कभी भी अपने आपको बाहरी, कमतर या उपेक्षित महसूस ना करें इसलिए वे हमेशा उन्हें लेकर बचाव का रवैया अपनाए हुए रहते थे. इसके लिए उन्हें अमूमन गलत समझा जाता रहा है उन्हें बहुसंख्या विरोधी कहा जाता रहा है. अल्पसंख्यकों के प्रति उनके इस रवैये को लोगो द्वारा हमेशा तुष्टिकरण समझा गया. वे धर्म और राजनीति को अलग रखना चाहते थे. उनकी धर्मनिरपेक्षता का अर्थ था कि भारतीय गणराज्य हर धर्म से उचित दूरी बनाए रखेगा और धार्मिक गतिविधियों और कर्म- कांडों से अपने आप को दूर रखेगा.
इतनी तेजी और स्थिरता के साथ उभरते हुए भारत में उनकी भूमिका को देखते हुए उन्हें दुनिया भर में ‘स्टेट्समैन” कहा जाने लगा. विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में उनकी खासी रुचि थी.
वे हमेशा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में विश्व बंधुत्व, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और गुटनिरपेक्षता जैसे मूल्यों के पक्षधर थे. जिस समय पूरा विश्व अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चल रहे शीत युद्ध की वजह से दो गुटों में बटा हुआ था, उस समय नेहरू ने भारत ही नहीं बल्कि तीसरी दुनिया के अन्य देशों को साथ लाकर गुट-निरपेक्षता के सिद्धांत को विश्व राजनीति में स्थापित किया. संयुक्त राष्ट्र संघ के बाद गुटनिरपेक्ष आंदोलन विश्व का दूसरा बड़ा संप्रभु देशों वाला संगठन बना.
नेहरू के अनुसार जब तक कोई भी देश अपने आप को हर प्रकार की सैन्य दौड़ और युद्ध-मुठभेड़ों से मुक्त नहीं कर लेता तब तक उसका सामाजिक-आर्थिक विकास होना नामुमकिन है. वे मानते थे कि पड़ोसी देशों में शांति स्थापित करने हेतु परस्पर विश्वास होना बहुत जरूरी है, इसी के चलते उन्होंने पड़ोसी देश चीन के साथ ‘पंचशील’समझौते पर हस्ताक्षर किए और तब तक सिद्धांतों का पालन किया जब तक कि उन्हें भारत-चीन संबंधों के पीछे छुपे हुए चीन के नापाक इरादों के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हो गए.
1962 के युद्ध में भारत की हार और इससे हुए नुकसान से बहुत आहत थे और युद्ध के बाद उनकी तबीयत लगातार बिगड़ती चली गई. 2 साल बाद उन्होंने इस दुनिया से विदा ली.
साम्यवाद से प्रेरित और समाजवादी विचारधारा के पैरोकार नेहरू ने भारत की आर्थिक नीतियों में भी अपनी छाप छोड़ी और देश-काल-परिस्थितियों को देखते हुए समाजवादी अर्थव्यवस्था की तरफ कदम बढ़ाने के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया. नवरत्न कंपनियों की स्थापना की, और एक बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को आगे बढ़ाया. योजना आयोग की स्थापना और पंचवर्षीय योजनाओं को आधार बनाकर भारत को आर्थिक मजबूती प्रदान की.
शिक्षा के क्षेत्र में आईआईटी, आईआईएम जैसे अतुलनीय संस्थाओं की स्थापना करने वाले नेहरू का जोर वैज्ञानिक सोच और तार्किक पर समझ रहा है. वे चाहते थे कि भारत की शिक्षा व्यवस्था यहां की सामाजिक रूढ़िवादी सोच से हटकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किकता पर आधारित हो.
विश्वविद्यालयों को लेकर उनके विचार बहुत ही स्पष्ट और साफ थे, जिसकी बानगी आपको जेएनयू के प्रशासनिक भवन के सामने लगी उनकी मूर्ति के शिलालेख पर अंकित मिलती है -”एक विश्वविद्यालय मानवता, सहिष्णुता, तार्किक विचारों के आंदोलन तथा सत्य की खोज का केंद्र होता है. वह मानव जाति के आगे और अधिक उच्च उद्देश्यों की ओर प्रस्थान का भी केंद्र होता है. यदि विश्वविद्यालय अपने दायित्व उचित रूप से पूरा करते हैं तो यह देश और लोगों के लिए बेहतर होगा.”
हालांकि नेहरू नहीं चाहते थे कि उनके नाम से कोई संस्था या विश्वविद्यालय बनाया जाए लेकिन फिर भी उनके नाम पर बने इस विश्वविद्यालय ने उनके द्वारा विश्वविद्यालयों को लेकर रखी गई सोच को वास्तविक रूप देने का काम बखूबी किया है. मैंने देखा है कि जेएनयू के कण-कण में उनके विचार और कार्य प्रणाली रचे बसे हैं.
तमाम हमले सहते हुए भी यह विश्वविद्यालय भी उसी प्रकार मजबूती से खड़ा रहा है जिस प्रकार नेहरु के द्वारा स्थापित किया गया इस देश का लोकतंत्र.
ऐसा नहीं है की कोई कमी नेहरू या जेएनयू में ना हो लेकिन सिर्फ वाजिब आलोचनाएं ही सार्थक हो सकती है, नहीं तो फैलाया हुआ झूठ और भ्रम तो काठ की हांडी की तरह होता है जो एक ही बार चल सकता है,जल सकता है और उबल सकता है. फिर सब कुछ साफ और स्पष्ट हो जाता है.
उम्मीद है कि जैसे जेएनयू के बारे में फैलाया गया दुष्प्रचार अब साफ होने लगा है वैसे ही नेहरू के बारे में फैलाया गया दुष्प्रचार भी जल्द ही साफ होगा और यह देश और दुनिया जान सकेगी कि उस व्यक्ति ने इस देश के लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संप्रभुता, अखंडता और सहिष्णुता में जो योगदान दिया है उसी पर यह देश प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से गर्व करता आया है और करता रहेगा. ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और ‘विविधता में एकता’ कि सिर्फ लोग बात नहीं करेंगे बल्कि उसे समझेंगे, अपनाएंगे और जिएंगे भी. जो लोग पाकिस्तान से राष्ट्रवाद और देशभक्ति सीखने की दुहाई देने लगते हैं वे भी जान सकेंगे नेहरू और जिन्ना के बीच का फर्क. धन्यवाद नेहरू की आप आए और हम खुशनसीब हैं कि हमें आप मिले, जिन्ना नहीं. हमें हिंदुस्तान मिला, पाकिस्तान नहीं.
(खुशबू शर्मा जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में स्नाकोत्तर की छात्रा हैं।)