मैं भी रामभरोसे, तुम भी रामभरोसे

Written by Rakesh Kayasth | Published on: June 13, 2018
धंधा मंदा था। हफ्ता लंबे समय से बकाया था। जेब में नैनो चिप वाला एक ही नोट था, जिसे नोएडा पुलिस का सिपाही छीन ले गया। रामभरोसे खूब रोया और सोचने लगा कि अगर उसके प्रिय नेता देश में होते तो यह दिन ना देखना पड़ता।



अचानक कंधे पर किसी ने हाथ रखा। फौलाद जैसा ताकवर हाथ। गनीमत यह कि रामभरोसे पाकिस्तान नहीं था!

रामभरोसे एकांत में रहना चाहता था. वह चिल्लाया.. कौन है बे?

`मैं हूं बेटा’ 

रामभरोसे मुड़ा, चारो तरफ एसपीजी वाले बंदूकधारियों का घेरा था। आखिर नज़रे घूमती हुई प्रभु तक जा पहुंची। आंखे फटी की फटी रह गईं। मुंह ऐसे खुल गया कि उसमें पाव भर पकौड़े एक साथ समा जायें। पांच सेकेंड के भीतर मन में दस ख्याल आये— मैने इनके मन की बात सुनी, इन्होने भी मेरे मन की बात सुन ली। मैने इनका स्मरण किया और ये क्षण भर में प्रकट हो गये।

बाबा तो कहते थे कि ऋषि-मुनियों को पेड़ से उल्टा लटककर धुंआ पीना पड़ता था। जटाओं में चिड़िया घोसला बना लेती थी। सैकड़ो-हजारो वर्षों की तपस्या के बाद भगवान प्रकट होते थे। यहां तो मामला एकदम इंस्टेंट रीजार्ज जैसा है।

रामभरोसे की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। तभी कानों में दिव्य आवाज़ गूंजी- रोइये मत रामभरोसे जी। राष्ट्र निर्माण के लिए आप जैसे युवकों की बहुत आवश्यकता है।

रामभरोसे ने चौंककर पूछा— धन्य हो। आपको मेरा नाम भी मालूम है।

वे गहरी सांस लेकर बोले— भइया तुमसे अलग कहा हूं मैं, तुम भी रामभरोसे हो और मैं भी रामभरोसे हूं।

(उपन्यास` प्रजातंत्र के पकौड़े का अंश')

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