स्टीफन हाकिंग की यह बात हमें हर सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और राजनैतिक सन्दर्भ में समझना ज़रूरी है. बात बहुत गहरी है. उदाहरण भी हमारे सामने ही है. हमारे आस-पास ढेरों ज्ञान के स्त्रोत है, उनमें से हम कुछ को चुनते हैं और कुछ को मानने से ही इनकार कर देते है. प्यासे को जब प्यास लगती है तभी पानी मांगता है. वैसे ही, जब ज्ञान पाने की प्यास (यानी जिज्ञासा) रहेगी, तभी तो इंसान ज्ञान को प्राप्त करेगा. आज हमारी यही ज्ञान की प्यास को मिटाया जा रहा है. आज से नहीं, सदियों से. झूठ को इतनी बार सामने चीख- चीख कर बताया जा रहा है की वो सच के रूप में, सच्चे ज्ञान के रूप में माना जाने लगा है.
धर्म के ठेकेदार, ज्ञान के दुश्मन
अगर इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो पायेंगे की धर्म के ठेकेदारों ने आवाम को किस तरह अपनी धारणाओं से प्रभावित किया है. हम जब भी किसी प्रगतिशील चीज़ की ओर बढ़े हैं, तो धर्म के ठेकेदारों ने धर्म का हवाला देकर या किसी पौराणिक के बलबूते पर उसे रोकने का प्रयास किया, और आज भी करते हैं. अपने भारत के इतिहास को ही देखा जाए – ब्राह्मणों के अनुसार दलित और महिलाएं शास्त्रों को छू नहीं सकते थे. मगर उन पर लगाये सारे नियम क़ानून उन्ही शास्त्रों पर आधारित होते थे जिन्हें उन्हें पढ़ने की और छूने की मनाही थी. महिलाएं दबकर रहीं, क्योंकि उन्हें शास्त्रों की गलत व्याख्या समझाई गयी. उनकी ज्ञान की प्यास को वही दकियानूसी जहरीलें ज्ञान से बुझा दिया गया. अगर लोग जागरूक होते तो कोई खुदको वर्ग विशेष खुद को सबसे बेहतर न बता पाता और ना ही अपनी बात को पौराणिक कथा – किरदारों से सही ठहरा पाता.
ज्ञान के उपभोक्ताओं को क्या परोसा जा रहा है?
हमारे सामने ज्ञान के नाम पर धारणाओं का खेल खेला जा रहा है. हमारे सामने वही ज्ञान परोसा जा रहा है जो हमारी धारणा के अनुरूप हो. हम ज्ञान के प्यासे न रहकर एक उपभोक्ता बनकर रह गए है. फिल्म, मीडिया, राजनीति आज धारणाओं का खेल रचकर ही उपभोक्तावाद को आगे ले जा रही है. आप जैसा सोचते हैं वैसी किताबें, वैसे ही लेख, फेसबुक पोस्ट, ट्वीट आपको दिखेंगे हर बार और आपको लगता है कि आपको ज्ञान मिल रहा है. आप उस मिल रहे ज्ञान से संतुष्ट रहेंगे और दूसरी धारणा को समझने की संभावनाएं खो देंगे. ज्ञान के नाम पर मीडिया आपको गुमराह कर रही है, ब्रेनवॉश कर रही है. आपको रोज़ ऐसे मुद्दों में उलझाया जाता है जो आपकी बनी-बनायी धारणा को मज़बूत कर देता है. जिसे आप परम सत्य मानकर उसके उपभोक्ता बन जाते हैं और आपकी आपकी मानसिक चेतना को मूर्छित करने के लिए अफ़ीम का ज़हर रोज़ मिलता रहता है.
आप जब ज्ञान लेने के लिए, ‘जागरूक’ बनने के लिए न्यूज़ चैनल देखते हैं तो धार्मिक मुद्दों पर बहस पाते हैं, ‘मौत का बाथ्तुब’ और ना जाने क्या क्या? मगर कितनी खबरों के उपभोक्ताओं को सारी सरकारी स्कीमों और विदेशी नीतियों के बारे में जानकारी पहुंच पा रही है यह कभीहै? यही खबरें तो न्यूज़ चैनलों को अपने प्राइम टाइम शो में दिखाना चाहिए जो आम इंसान को वाकई में प्रभावित करती हैं. मगर हर बार आपको हिन्दू-मुस्लिम डिबेट में उलझाकर आपको सांप्रदायिक ज़हर दिए जा रहा है, और ऐसा इसलिए संभव हो रहा है क्योंकि आप उसे देख रहे है. आप उस तले-तलाये पकौड़े की तरह बने ज्ञान को पाकर संतुष्ट हैं. आप ज़मीनी सच्चाई से कोसो दूर हैं. स्टीफन हॉकिंग के विचार को आप राजनैतिक सन्दर्भ में आप इस तरीके से समझ सकते हैं.
धर्म के ठेकेदार, ज्ञान के दुश्मन
अगर इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो पायेंगे की धर्म के ठेकेदारों ने आवाम को किस तरह अपनी धारणाओं से प्रभावित किया है. हम जब भी किसी प्रगतिशील चीज़ की ओर बढ़े हैं, तो धर्म के ठेकेदारों ने धर्म का हवाला देकर या किसी पौराणिक के बलबूते पर उसे रोकने का प्रयास किया, और आज भी करते हैं. अपने भारत के इतिहास को ही देखा जाए – ब्राह्मणों के अनुसार दलित और महिलाएं शास्त्रों को छू नहीं सकते थे. मगर उन पर लगाये सारे नियम क़ानून उन्ही शास्त्रों पर आधारित होते थे जिन्हें उन्हें पढ़ने की और छूने की मनाही थी. महिलाएं दबकर रहीं, क्योंकि उन्हें शास्त्रों की गलत व्याख्या समझाई गयी. उनकी ज्ञान की प्यास को वही दकियानूसी जहरीलें ज्ञान से बुझा दिया गया. अगर लोग जागरूक होते तो कोई खुदको वर्ग विशेष खुद को सबसे बेहतर न बता पाता और ना ही अपनी बात को पौराणिक कथा – किरदारों से सही ठहरा पाता.
ज्ञान के उपभोक्ताओं को क्या परोसा जा रहा है?
हमारे सामने ज्ञान के नाम पर धारणाओं का खेल खेला जा रहा है. हमारे सामने वही ज्ञान परोसा जा रहा है जो हमारी धारणा के अनुरूप हो. हम ज्ञान के प्यासे न रहकर एक उपभोक्ता बनकर रह गए है. फिल्म, मीडिया, राजनीति आज धारणाओं का खेल रचकर ही उपभोक्तावाद को आगे ले जा रही है. आप जैसा सोचते हैं वैसी किताबें, वैसे ही लेख, फेसबुक पोस्ट, ट्वीट आपको दिखेंगे हर बार और आपको लगता है कि आपको ज्ञान मिल रहा है. आप उस मिल रहे ज्ञान से संतुष्ट रहेंगे और दूसरी धारणा को समझने की संभावनाएं खो देंगे. ज्ञान के नाम पर मीडिया आपको गुमराह कर रही है, ब्रेनवॉश कर रही है. आपको रोज़ ऐसे मुद्दों में उलझाया जाता है जो आपकी बनी-बनायी धारणा को मज़बूत कर देता है. जिसे आप परम सत्य मानकर उसके उपभोक्ता बन जाते हैं और आपकी आपकी मानसिक चेतना को मूर्छित करने के लिए अफ़ीम का ज़हर रोज़ मिलता रहता है.
आप जब ज्ञान लेने के लिए, ‘जागरूक’ बनने के लिए न्यूज़ चैनल देखते हैं तो धार्मिक मुद्दों पर बहस पाते हैं, ‘मौत का बाथ्तुब’ और ना जाने क्या क्या? मगर कितनी खबरों के उपभोक्ताओं को सारी सरकारी स्कीमों और विदेशी नीतियों के बारे में जानकारी पहुंच पा रही है यह कभीहै? यही खबरें तो न्यूज़ चैनलों को अपने प्राइम टाइम शो में दिखाना चाहिए जो आम इंसान को वाकई में प्रभावित करती हैं. मगर हर बार आपको हिन्दू-मुस्लिम डिबेट में उलझाकर आपको सांप्रदायिक ज़हर दिए जा रहा है, और ऐसा इसलिए संभव हो रहा है क्योंकि आप उसे देख रहे है. आप उस तले-तलाये पकौड़े की तरह बने ज्ञान को पाकर संतुष्ट हैं. आप ज़मीनी सच्चाई से कोसो दूर हैं. स्टीफन हॉकिंग के विचार को आप राजनैतिक सन्दर्भ में आप इस तरीके से समझ सकते हैं.