क्या बिलकिस बानो को न्याय मिल पायेगा

Written by विद्या भूषण रावत | Published on: May 9, 2017
पिछले हफ्ते की दो बड़ी खबरे हमारे सामने अलग अलग तरीके से परोसी गयी।  सुप्रीम कोर्ट में निर्भया कांड के अभियुक्तों को जब फांसी की सजा सुनाई गयी तो वहा मौजूद लोगो ने तालियों की गड़गड़ाहट से इस फैसले का स्वागत किया।  शायद इतने वर्षो में पहली बार हमने ऐसा सुना जब कोर्ट का फैसले पर बॉलीवुड स्टाइल प्रतिक्रिया आयी हो।  निर्भया के साथ सेक्सुअल हिंसा १६ दिसंबर २०१३ को हुई जब वह अपने दोस्त के साथ सिनेमा देखने के बाद रात को घर लौट रही थी।  एक प्राइवेट बस ने उनको लिफ्ट दी और वही से उसके साथ दरिंदगी का खेल शुरू हुआ।  उसके बाद जो दिल्ली में हुआ उसने इतिहास बनाया और आनन् फानन में निर्भया एक्ट भी बन गया।  पुलिस ने त्वरित कार्यवाही की और सभी अपराधियों को पकड़ लिया. केस बहुत टाइट बनाया गया इसलिए अपराधियों के बचने की गुंजाइश नहीं थी।  पब्लिक डिस्कोर्स इतना राष्ट्रवादी था के सुप्रीम कोर्ट भी इस पर प्रभावित न हुआ हुआ इसकी संभावना नहीं दिखती। सभी बलात्कारियो को फांसी मिलनी चाहिए जैसे नारे जंतर मंतर पर जोर जोर से लगे।  निर्भया के माँ बाप टीवी चैनल्स के प्रमुख स्तम्भकार बने क्योंकि हर एक उनसे विशेषज्ञ के तौर पर सवाल पूछता। 

 
फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों के फैसलों पर अपनी सहमति दे दी है।  अभियुक्तों को फांसी हो जायेगी और हम सभी को संतुष्टि हो गयी है के न्याय हो गया है।  निर्भया के बाद बहुत सारे मामले सामने आये है लेकिन न तो उनको न्याय मिला है और न ही हमारे राष्ट्र की  'सामूहिक आत्मा' जगी है।  मुजफ्फरनगर से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, राजस्थान , पंजाब आदि राज्यों से जातिगत हिंसा और उसके बाद महिलाओ पर अत्याचारों की खबरे रोज आती है लेकिन हम निर्लज्जतापूर्वक चुप रहते है।  ऐसा क्या था के जो मोमबत्तिया निर्भया के लिए जली वो दूसरे स्थानों पर हुई हिंसा पर चुप रहती है।  हमारी सामूहिक संवदेना क्यों चुप हो जाती है जब बलात्कार जाति और धर्म की सर्वोच्चता दिखाने का घृणित तरीका बन जाता है। 
 
निर्भया से लगभग १० वर्ष पूर्व सन २००२ में गुजरात में एक बहुत बड़ा हादसा हुआ था जिसके फलस्वरूप बहुत से भारतीयों की जाने गयी, सामूहिक बलात्कार हुए और लोगो को जिन्दा भी जलाया गया।  हिंसा की ऐसी जो भी घटनाये हुयी है उनमे ये भी जुड़ गया। गुजरात २००२ ''राष्ट्रवादी'' राजनीती का ऐसा सूत्रपात हुआ के  जिन लोगो पर हिंसा हुई और यौनाचार हुआ उनके साथ खड़ा होना और उनके लिए न्याय की बात करना भी अपराध हो गया।   जो लोग भी उत्पीड़ित लोगो को न्याय दिलवाने के लिए खड़े हुए उन पर विभिन्न प्रकार के दवाब थे और अपराधियों और उनको सरक्षण देने वाले राज नेताओ ने उनके हौसलों को डिगाने के लिए पुरे प्रयास किया।  मीडिया में भी कुछ लोग इन प्रश्नो पर बोलते रहे लेकिन जब से देश की 'हवा' बदली है न्याय की बात करने वाले भी चुप हो गए हैं और मीडिया ने तो मानो मुद्दों को छुपाने और बनाने की महारत हासिल कर ली है। 
 
गुजरात के उस दुःस्वप्न में उम्मीद और संघर्ष की एक बहुत बड़ी कहानी है बिलकिस बनो की जिसको सुनकर हमारे अंदर की नैतिकता जागृत नहीं हुई और न ही हमने कभी उसकी मज़बूती के लिए जंतर मंतर पर कोई मोमबत्ती जलाई ही।  २७ फ़रवरी २००२ को साबरमती एक्सप्रेस को गोधरा में हमले और जलाने की घटना में ५९ हिन्दुओ की मौत के बाद गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा में बहुत तबाही देखी जिसमे लोगो के घर लुटे गए और हिंसा और बलात्कार की बड़ी घटनाये हुई. बहुत से स्थानों से मुसलमानो और हिन्दुओ ने अपने अपने ' इलाको' के लिए पलायन किया। अहमदाबाद शहर से लगभग २०० किलोमीटर दूर, दहोड़ जिले के  राधिकापुर गॉंव में दंगाइयों ने मुसलमानो के घर जला डेल थे। पहली रात उन्होंने सरपंच पहले सरपंच के घर पर फिर गांव के स्कूल और खेतो में छिपने की कोशिश के लेकिन बचने की कोई सम्भावना नहीं थी इसलिए उन्होंने गांव छोड़ कर भागने का प्रयास किया।  १९ वर्षीया बिलकिस अपने परिवार के १९ सदस्यों के साथ ट्रक पर बैठकरगांव से बाहर जा रही थी ताकि उन्हें किसी मुस्लिम बहुल गाँव में रहने के लिए मिल जाए। लेकिन उनके खून को प्यासे लोगो ने  रस्ते में उन्हें घेर लिया।  यह लगभग ३५ लोगो की भीड़ थी जो गांव के संभ्रांत लोग थे जो लोकल दुकानदार, एक डॉक्टर का बेटा , पंचायत के सदस्य और अन्य कई जिनके साथ बिलकिस और उनके परिवार ने अपने बचपन से अब तक गुजारा था। मात्र एक घटनाक्रम ने पड़ोसियों को इंसानियत छोड़कर दरिंदगी अपनाने को मज़बूर किया जो बेहद शर्मनाक है।  बिलकिस की आँखों के सामने उनके परिवार के १४ सदस्य मारे गए।  उनकी तीन साल की बेटी को भी निर्दयता से मार डाला गया. बिलकिस ५ महीने के गर्भवती थी लेकिन भीड़ में मौजूद अपराधियों ने उनके साथ बलात्कार किया। उनके चचरे भाई शमीम के उससे पहले दिन ही पुत्र हुआ था उसे भी मार डाला गया।  महिलाओ के साथ बलात्कार के बाद हत्याये कर दी गयी।  उनकी हालत बहुत ख़राब थी और वह बेहोश हो कर गिर पड़ी।  अपराधियों ने उन्हें मरा समझकर छोड़ दिया। जब  उन्हें होश आया तो उन्होंने अपने सामने परिवार के लोगो शव देखे। किसी तरह हिम्मत कर वो सामने पहाड़ी पर चली गयी और वह सो गयी।  अगले दिन पानी भरने आने वाली एक आदिवासी महिला ने उसको देखा और कुछ कपडे दिए। कुछ देर बाद वहा से गुजर रहे एक पुलिसवाले से मदद की गुहार पर वह बिलकिस को लिमखेड़ा पुलिस स्टेशन ले गया जहा उसने प्राथमिक सुचना रिपोर्ट लिखवाने की कोशिश की लेकिन पुलिसवालो ने उसको धमकी दी और रिपोर्ट लिखने के बजाय उसको रिलीफ कैंप भेज दिया। पुलिस और प्रशाशन किसी भी प्रकार से मदद को तैयार नहीं था।  उसकी दर्दनाक दास्ताँ को सुनने को राजी नहीं था।  मेडिकल भी ४ दिनों बाद किया गया।  सबसे बड़ी शर्मनाक बात यह है के ऍफ़ आई आर घटना के १५ दिनों के बाद लिखी गयी और कुछ महीनो के बाद पुलिस जैसा की अमूमन ऐसे मामलो में होता है , क्लोजर रिपोर्ट २५ मार्च २००३ को लगा दी।  लेकिन मज़बूत बिलकिस ने अपना रास्ता नहीं छोड़ा। वो न्याय के लिए दर दर भटकी।  मानवाधिकारों और इंसानियत में यकीं करने वाले बहुत से लोगो ने उसकी मदद की लेकिन वहा के हालत ऐसे नहीं थे के उसको आसानी से न्याय मिल पाता। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस पर संज्ञान लिया और सुप्रीम कोर्ट में सीधे याचिका लगवाई जिसके कारण कोर्ट ने सीबीआई को इस मामले की जांच के आदेश दिए। सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट से ये अनुरोध किया के मामले की निष्पक्ष जांच के लिए उसे गुजरात से बाहर स्थानांतरित किया जाए.   २००८ में सुप्रीम कोर्ट ने परिस्थितयो का ध्यान करते इस मामले को महाराष्ट्र ट्रांसफर कर दिया और फिर यह मुंबई हाई कोर्ट के अंतर्गत आ गया।१५ वर्षो में उन्हें बहुत धमकिया मिली।  अपराधी परोल से घर पर आते और इशारो इशारो में धमका के चले जाते।  मुश्किल हालातो में उनके जीवन यापन के लिए कोई स्थाई उपाय नहीं था और हर जगह से उनको घर बदलना पड  रहा था।  पिछले १५ वर्षो में बकौल याक़ूब जो ब्लिकिस के पति हैं , उन्होंने लगभग २० से २५ बार अपने घर बदले. 
 
४ मार्च २०१७ को बम्बई हाई कोर्ट ने सीबीआई की याचिका पर ११ लोगो को दोषी करार दिया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई है।  इसमें महत्वपूर्ण बात यह है के कोर्ट ने ७ पुलिसवालो और १ डॉक्टर को भी सबूतों के साथ छेड़छाड़ या उन्हें मिटाने के कारण उन्हें दोषी करार दिया है। कोर्ट ने पुलिस के क्रिया कलापो पर कड़ी टिपण्णी की है लेकिन क्या मात्र तीन वर्षो की सजा उनके साथ सही न्याय है।  क्या कानून के रक्षको को कानून की मर्यादाओ के उल्लंघन के सिलसिले में सजा नहीं होनी चाहिए। 
 
कल बिलकिस को सुना।  उसके पति याक़ूब  ने अपनी दास्ताँ कही।  बिलकिस ने कहा उन्हें न्याय मिल गया है और वो बहुत खुश हैं।  अब वह नयी जिंदगी जीना चाहती है।  उसकी तीन साल की बेटी वकील बनाना चाहती है।  उसने साफ़ तौर पर कहा के उसे न्याय चाहिए और कोई किसी से बदला नहीं लेना।  अच्छी बात यह है के उसके वकीलों और सभी साथियो ने मौत की सजा के खिलाफ ही बात की।  ये बात साफ़ है के बिलकिस के साथ हुई घटना किसी भी प्रकार से निर्भया मामले से ज्यादा  संगीन है क्योंकि ये एक सामूहिक मामला था लेकिन ऐसे कैसे के एक में सभी लोगो को सजाये मौत होती है और दूसरे में नहीं।  ऐसा कैसे है के एक में हम इतने उद्वेलित होते हैं के इंडिया गेट और जंतर मंतर पर कई दिनों तक संघर्ष करते  जब तक कानून नहीं बन जाता जबकि दूसरे में हमारी सहनुभूति कही नज़र नहीं आती।  मीडिया ज्यादा उल्लेख भी  चाहता और देशभक्त इसे भी सही साबित करने के लिए कई कारण ढूंढ निकाल देंगे। याकूब बताते हैं के उनका पुस्तैनी पेशा पशुपालन है लेकिन अब उसमे भी बहुत दिक्कत  पशुपालक यदि मुस्लमान है तो सीधे कसाई कहा जा रहा है।  आज पशुपालको की सुरक्षा खतरे में है।  इतने सालो में उनकी जिंदगी घुमन्तु समाज वाली हो गयी थी और सरकार या प्रशाशन की और से एक भी व्यक्ति ने उनसे उनकी समस्याओ के बारे में एक प्रश्न भी पूछा हो। 
 
बिलकिस कहती है सब जगह शांति हो और सभी औरतो को न्याय मिले. लेकिन उसकी आँखों में दर्द है, और अनिश्चितता का भय भी है।  आज के हालातो को वो न समझ पा रही हो ऐसा मुझे नहीं लगता।  हालाँकि हम सब मौत की सजा  के खिलाफ है लेकिन जिसकी आँखों इतने तूफ़ान देखे, अन्याय की पराकाष्ठा देखि वो निश्चित तौर पर इस प्रकार  निर्णयों से खुश हो अभी कहना मुश्किल है।  आखिर क्यों बिलकिस को हमारी सेकुलरिज्म की बिसात पर अपने दिल की बात कहने से रोका जा रहा है।  निर्भया का  वह बयान बहुत चल रहा है जिसमे उसने बलात्कारियो  जलाने की बात कही।  उसके माँ बाप और वकील एक मत से इस पक्ष में थे के सभी को सजाये मौत होनी चाहिए। खैर, मैं बिलकिस के क़ानूनी सलाहकारों की इस बात के लिए सराहना करता हूँ के उन्होंने सजाये मौत पर ज्यादा जोर नहीं दिया लेकिन बिलकिस के साथ न्याय कैसे होगा यदि उसके सम्मान पूर्वक पुनर्वास की बात नहीं होगी।  उसके बच्चो और उसकी  अपनी जिंदगी बिना भय के चले इसके लिए आवश्यक है के उसे जरुरी मुआवजा मिले / निर्भया की हत्या के बाद सरकार ने जिस प्रकार से घोषणाएं करके लोगो का गुस्सा ख़त्म करने की कोशिश की वो हम सब जानते हैं और  पहली बार हमने देखना सरकार ने निर्भया कानून बनाया, मुआवजे की राशि बढ़ाई और निर्भय के माँ बाप को एक मकान भी अलॉट किया लेकिन ऐसा कुछ न बिलकिस बानो के साथ हुआ और न ही अन्य किसी भी महिला या पुरुष के साथ जो सामुहिक हिंसा, बर्बरता और जातीय या धार्मिक घृणा का शिकार हुई हो। क्या वे इस देश के नागरिक नहीं ? क्या बात है के एकऐसी महिला जो जिंदगी की इतनी क्रूर जंग को बहादुरी के साथ लड़ रही है उसके दिल की बात हम नहीं समझ पा रहे ? 
 
बिलकिस और याकूब कहते हैं अब हम जिंदगी की दूसरी शुरुआत करेंगे।  याकूब ने पहले हे बता दिया के पिछले १५ वर्षो में किसी ने उन्हें पूछा तक नहीं और रहने तक की दिक्कत है।  आज के दौर में तो उनका पुश्तैनी पेसा भी ख़त्म हो चूका है।  न्याय का मतलब केवल अपराधी को सजाये मौत या उम्रकैद नहीं है।  न्याय का मतलब यह भी होना चाहिए के उत्पीड़ित अपनी जिंदगी को इतने तनावों और अलगाव के बाद कैसे शुरू करे. जब जिंदगी का सब कुछ लुट गया हो तब दोबारा से जीने का साहस कहा से लाये  और यदि साहस बटोर भी लिया तो जिंदगी एक अफसाना नहीं हकीकत है जहा पडोशी या रिस्तेदार आपको घर बैठे नहीं खिलाएंगे। इतने वर्षो तक न्याय पाने के लिए इतना बड़ा हौसला रखना कोई मज़ाक बात नहीं जब आपके पास कोई संशाधन न हो।  बिलकिस के साहस और धैर्य को सलाम।  याकूब को भी जो अपनी पत्नी के साथ प्यूरी सिद्द्त से खड़ा है।  बिलकिस पर जुल्म ढाने वाले अभी सुप्रीम कोर्ट में आएंगे और हम उम्मीद करते हैं के सुप्रीम कोर्ट उनकी सजा को बरकरार रखेगा।  हम केवल ये कहना चाहते हैं जब सरकार की विभिन्न संस्थाओ ने न्याय के इस मामले में अपनी भूमिका सही से नहीं निभाई और जब बिलकिस बिलकुल नयी जिंदगी जीना चाहती है, अपने बच्चो के लिए और अपने लिए, उसके इस जज्बे को जिन्दा रखने के लिए क्या हमारी न्याय प्रक्रिया इतना कर पाएगी के उसे दर दर की ठोकरे न खानी पड़े, बार बार किराये के घर न बदलने पड़े और उसके बच्चो को एक बेहतरीन शिक्षा मिल सके। हम उम्मीद करते हैं न्याय की इस प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट ध्यान देगा. सवाल केवल अपराधियों की सजा नहीं अपितु असल परीक्षा इस बात की है के  जो जिंदगी में उनके अपराधों की सजा भुगत रहे हैं उनके जीवन के बदलाव और बेहतरी के लिए हमारा कानून, संविधान और न्यायतंत्र क्या कुछ कर पायेगा ?

बाकी ख़बरें