मैं तो रोऊंगा! लाशों का ढेर मेरे ईर्द-गिर्द, मेरे भारत में लगे तो मैं क्यों न कंपकपांऊ? क्यों न व्यथित होकर सोचूं? यों हिंदुओं ने महामारी में लाखों-करोड़ों लाशें फूंकने के वैश्विक रिकार्ड बना रखे हैं। पर आज के वक्त में, अपने सामने लोग मरें और उसकी संख्या लोगों को रूलाए नहीं, उनमें कंपकंपी, संवेदना पैदा न करे तो मैं भी वैसा बनूं, यह संभव नहीं। मैं इंसान हूं और ईश्वर की कृपा से जिंदा हूं व दिमाग क्योंकि सत्य सोचने-देखने,-सुनने की दशा में है तो मानवीय जीवन का मोल मुझे समझ आता है। मेरे लिए एक-एक जान की कीमत है। मानवता जरूर याद रखेगी कि 21वीं सदी में भारत वह देश था, जहां 27 हजार लाशों की चिताओं पर सार्वजनिक संवेदनाओं के दो बोल भी सुनाई नहीं दिए। मानो पूरा देश मुर्दा हो जो ग्यारह लाख बीमार और 27 हजार मौतों की घड़ी में भी वह सपाट-मुर्दा भाव चेहरे पर धारे हुए हैं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो।

हां, मैंने 10 लाख संक्रमितों और 25 हजार मौत के आंकड़े के दिन, इनके उठावने के चार दिन तक इतंजार किया कि देश में कहीं किसी से, टीवी चैनलों की बहस में, मीडिया में ढाह-ढाह कर रोते, गुस्से में भभकते विलाप की रूदाली सुनने को मिले ताकि अपने आपको ढाढस बंधाऊं कि भारत के मरघट में रोने वाले भी हैं। भारत में जान का मोल, जान की धड़कनों में संवेदनाएं बसती हैं। मगर मुझे पिछले चार दिनों में कोई विलाप, शोक या बेमौत मौत की जवाबदेही बनवाते चेहरे नहीं दिखलाई दिए। सर्वत्र नैरेटिव मोदी सरकार के राजस्थान में कमल खिलाने के ऑपरेशन का, गहलोत बनाम पायलट का या फिर रिलायंस के चमचमाने जैसी बातों का मिला।
कोविड-19 वायरस पृथ्वी पर सर्वव्यापी है। लेकिन बीमारी, मौत में संवेदना, चिंता, इलाज - वह फर्क बताने वाला है, जिससे मानवता जानेगी कि दुनिया के किन हिस्सों में इंसान लावारिस है और कहां नहीं! किन देशों में जान की कीमत है और कहां उनका मरना भेड़-बकरियों जैसा है? कहां संवेदनाओं वाली सरकार-व्यवस्था है और कहां जान रामभरोसे है? कहां प्रतिदिन का आंकड़ा कंपकंपी बनाता है और कहां मौत यह प्रतिक्रिया लिए होती है कि शहर में वायरस से चार ही तो मरे हैं तो इतने तो मरते हैं। या यह कि मरने की दर कम है, जबकि अमेरिका में इतने मरे हैं। भारत के लोग दूसरे देशों की मौत देखते हैं अपने यहां की नहीं। मुर्दा कौम सोचती नहीं है। वह घर में एक मूर्ति स्थापित किए रहती है और उसी की पूजापाठ में अपने को बचा हुआ सुरक्षित मानती है।
कहते हैं, 1918-20 की स्पेनिश फ्लू महामारी में भारत की आबादी पांच-सात प्रतिशत खत्म हुई। तब भी उस वक्त के लोगों, हिंदुओं के आंसू बहाने की दास्तां कलमबद्ध नहीं हुई। तब भी हिंदू चलते-चलते गिर मरे थे लेकिन मुर्दा कौम में किसी को सुध नहीं थी जो रोते हुए लिख कर यह जाता कि हिंदुओं हमारे भगवानों ने हमें बुद्धि दे कर भेजा है तो बुद्धि से काम लो, अपने को बचाओ। कोई राजा मूर्ख बनाए कि दिया जलाओ, टार्च दिखाओ, ताली-थाली बजाओ और लाशों को चुपचाप फूंक डालो, गंगा में बहा दो तो बुद्धि के बल से उससे भिड़ो, लड़ो और पूछो कि क्या तुम्हें ताली-थाली बजवाने के लिए राजा बनवाया है, लाशों का ढेर बनवाने के लिए राजा बनाया है या टेस्ट, मेडिकल इलाज के लिए बनाया!
मैं शायद अकेला हूं, जो फरवरी से महामारी से भारत में अवश्यंभावी भारी आपदा और सरकार की लापरवाही के संकेतों की हकीकत को अपनी समझ अनुसार दो टूक अंदाज में बताता आ रहा है! लेकिन नक्कारखाने में तूती! इतिहास में लिखा है कि गोरे अंग्रेज शासक भी भारत में महामारी के वक्त हैरानी में पूछते थे कि हिंदुओं और मुसलमानों को कैसे समझाया जा सकता है। एक तो भीड़, ऊपर से तीर्थयात्रा-त्योहारों में साफ-सफाई-दूरी आदि का इनका स्वभाव बन ही नहीं सकता है। जागरूकता आ नहीं सकती। इसलिए जो होना है सो होगा। ध्यान रहे मेडिकल सुविधा तब भी नहीं थी और भारत अब भी गांव में ज्यादा रहता है।
सौ साल बाद का फर्क? क्या कोई है? 21वीं सदी में भारत के मौजूदा शासक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महामारी से निपटने के लिए क्या कोई ओरिजनल-नया आइडिया जनता को दिया? 138 करोड़ लोगों को क्या मंत्र दिया? बिना आगा-पीछा सोचे लॉकडाउन और उसमें संध्या काल ताली-थाली-दीये-टार्च जला कर आकाश को दिखाने का टोटका! फिर अचानक वायरस के साथ जीने का मंत्र या वायरस मौका है, जिसमें धंधा चमकाया जा सकता है और आत्मनिर्भर हुआ जा सकता है!
हर सभ्यता, हर देश में महामारी, युद्ध जैसी स्थितियों में कुछ मौत के सौदागर लोगों का खून पी कर अपने को खुशहाल बनाते हैं। बावजूद इसके कोविड-19 के वक्त में बाकी दुनिया एक तरफ और भारत दूसरी तरफ इसलिए है क्योंकि बीमारी और मौत की जो बेसिक बात है उसमें पूरा भारत इस कोशिश में है कि संक्रमण, बीमारी, मौत छुपी रहे। लाशों का ढेर यदि बने भी तो उसे रूटीन का आंकड़ा बना डालो। खबर-चर्चा में हेडिंग नहीं ताकि मौत फुस्स, बीमारी फुस्स और महामारी खत्म। यह चर्चा ज्यादा हो कि कितने ठीक हुए और कितने नहीं मरे और आबादी के अनुपात में बहुत मामूली आंकड़े। ऐसे छलावों में हम मार्च में थे तो जुलाई में भी हैं और दिसंबर में भी होंगे।
नोट रखें कि देहात-गांव और यूपी-बिहार या गंगा के किनारे की पूरी आबादी और हिंदी भाषी प्रदेशों में लोग कोविड-19 के लक्षण, बीमारी को छुपाने की प्रवृत्ति में ढल चुके हैं। जैसे एक वक्त किसी को कोढ़ होती थी तो वह छुपाता था और लोग उससे दूर भागते थी। वहीं भाव इस वायरस के संक्रमण में है। लोग लक्षण के बावजूद न टेस्ट कराएंगें और न इलाज के लिए अस्पताल जाएंगें (पैसे कहां हैं, अस्पताल कहां हैं?)। घर-देहात-कस्बों में वायरस पकता रहेगा, एक-दूसरे से फैलता रहेगा। तभी कुछ महीनों बाद लोग चलते-चलते गिर कर लाश में बदलें तब आश्चर्य नहीं करना। हां, भारत में न व्यक्ति टेस्ट को इच्छुक है न सरकार में टेस्ट से वायरस को पकड़ने की ईमनादारी है तो वायरस क्यों नहीं एटम बम की तरह फूटेगा?
(नया इंडिया से साभार)

हां, मैंने 10 लाख संक्रमितों और 25 हजार मौत के आंकड़े के दिन, इनके उठावने के चार दिन तक इतंजार किया कि देश में कहीं किसी से, टीवी चैनलों की बहस में, मीडिया में ढाह-ढाह कर रोते, गुस्से में भभकते विलाप की रूदाली सुनने को मिले ताकि अपने आपको ढाढस बंधाऊं कि भारत के मरघट में रोने वाले भी हैं। भारत में जान का मोल, जान की धड़कनों में संवेदनाएं बसती हैं। मगर मुझे पिछले चार दिनों में कोई विलाप, शोक या बेमौत मौत की जवाबदेही बनवाते चेहरे नहीं दिखलाई दिए। सर्वत्र नैरेटिव मोदी सरकार के राजस्थान में कमल खिलाने के ऑपरेशन का, गहलोत बनाम पायलट का या फिर रिलायंस के चमचमाने जैसी बातों का मिला।
कोविड-19 वायरस पृथ्वी पर सर्वव्यापी है। लेकिन बीमारी, मौत में संवेदना, चिंता, इलाज - वह फर्क बताने वाला है, जिससे मानवता जानेगी कि दुनिया के किन हिस्सों में इंसान लावारिस है और कहां नहीं! किन देशों में जान की कीमत है और कहां उनका मरना भेड़-बकरियों जैसा है? कहां संवेदनाओं वाली सरकार-व्यवस्था है और कहां जान रामभरोसे है? कहां प्रतिदिन का आंकड़ा कंपकंपी बनाता है और कहां मौत यह प्रतिक्रिया लिए होती है कि शहर में वायरस से चार ही तो मरे हैं तो इतने तो मरते हैं। या यह कि मरने की दर कम है, जबकि अमेरिका में इतने मरे हैं। भारत के लोग दूसरे देशों की मौत देखते हैं अपने यहां की नहीं। मुर्दा कौम सोचती नहीं है। वह घर में एक मूर्ति स्थापित किए रहती है और उसी की पूजापाठ में अपने को बचा हुआ सुरक्षित मानती है।
कहते हैं, 1918-20 की स्पेनिश फ्लू महामारी में भारत की आबादी पांच-सात प्रतिशत खत्म हुई। तब भी उस वक्त के लोगों, हिंदुओं के आंसू बहाने की दास्तां कलमबद्ध नहीं हुई। तब भी हिंदू चलते-चलते गिर मरे थे लेकिन मुर्दा कौम में किसी को सुध नहीं थी जो रोते हुए लिख कर यह जाता कि हिंदुओं हमारे भगवानों ने हमें बुद्धि दे कर भेजा है तो बुद्धि से काम लो, अपने को बचाओ। कोई राजा मूर्ख बनाए कि दिया जलाओ, टार्च दिखाओ, ताली-थाली बजाओ और लाशों को चुपचाप फूंक डालो, गंगा में बहा दो तो बुद्धि के बल से उससे भिड़ो, लड़ो और पूछो कि क्या तुम्हें ताली-थाली बजवाने के लिए राजा बनवाया है, लाशों का ढेर बनवाने के लिए राजा बनाया है या टेस्ट, मेडिकल इलाज के लिए बनाया!
मैं शायद अकेला हूं, जो फरवरी से महामारी से भारत में अवश्यंभावी भारी आपदा और सरकार की लापरवाही के संकेतों की हकीकत को अपनी समझ अनुसार दो टूक अंदाज में बताता आ रहा है! लेकिन नक्कारखाने में तूती! इतिहास में लिखा है कि गोरे अंग्रेज शासक भी भारत में महामारी के वक्त हैरानी में पूछते थे कि हिंदुओं और मुसलमानों को कैसे समझाया जा सकता है। एक तो भीड़, ऊपर से तीर्थयात्रा-त्योहारों में साफ-सफाई-दूरी आदि का इनका स्वभाव बन ही नहीं सकता है। जागरूकता आ नहीं सकती। इसलिए जो होना है सो होगा। ध्यान रहे मेडिकल सुविधा तब भी नहीं थी और भारत अब भी गांव में ज्यादा रहता है।
सौ साल बाद का फर्क? क्या कोई है? 21वीं सदी में भारत के मौजूदा शासक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महामारी से निपटने के लिए क्या कोई ओरिजनल-नया आइडिया जनता को दिया? 138 करोड़ लोगों को क्या मंत्र दिया? बिना आगा-पीछा सोचे लॉकडाउन और उसमें संध्या काल ताली-थाली-दीये-टार्च जला कर आकाश को दिखाने का टोटका! फिर अचानक वायरस के साथ जीने का मंत्र या वायरस मौका है, जिसमें धंधा चमकाया जा सकता है और आत्मनिर्भर हुआ जा सकता है!
हर सभ्यता, हर देश में महामारी, युद्ध जैसी स्थितियों में कुछ मौत के सौदागर लोगों का खून पी कर अपने को खुशहाल बनाते हैं। बावजूद इसके कोविड-19 के वक्त में बाकी दुनिया एक तरफ और भारत दूसरी तरफ इसलिए है क्योंकि बीमारी और मौत की जो बेसिक बात है उसमें पूरा भारत इस कोशिश में है कि संक्रमण, बीमारी, मौत छुपी रहे। लाशों का ढेर यदि बने भी तो उसे रूटीन का आंकड़ा बना डालो। खबर-चर्चा में हेडिंग नहीं ताकि मौत फुस्स, बीमारी फुस्स और महामारी खत्म। यह चर्चा ज्यादा हो कि कितने ठीक हुए और कितने नहीं मरे और आबादी के अनुपात में बहुत मामूली आंकड़े। ऐसे छलावों में हम मार्च में थे तो जुलाई में भी हैं और दिसंबर में भी होंगे।
नोट रखें कि देहात-गांव और यूपी-बिहार या गंगा के किनारे की पूरी आबादी और हिंदी भाषी प्रदेशों में लोग कोविड-19 के लक्षण, बीमारी को छुपाने की प्रवृत्ति में ढल चुके हैं। जैसे एक वक्त किसी को कोढ़ होती थी तो वह छुपाता था और लोग उससे दूर भागते थी। वहीं भाव इस वायरस के संक्रमण में है। लोग लक्षण के बावजूद न टेस्ट कराएंगें और न इलाज के लिए अस्पताल जाएंगें (पैसे कहां हैं, अस्पताल कहां हैं?)। घर-देहात-कस्बों में वायरस पकता रहेगा, एक-दूसरे से फैलता रहेगा। तभी कुछ महीनों बाद लोग चलते-चलते गिर कर लाश में बदलें तब आश्चर्य नहीं करना। हां, भारत में न व्यक्ति टेस्ट को इच्छुक है न सरकार में टेस्ट से वायरस को पकड़ने की ईमनादारी है तो वायरस क्यों नहीं एटम बम की तरह फूटेगा?
(नया इंडिया से साभार)