दिल्ली में कुछ दिनों पहले 5 सफाई कर्मियों की सेफ्टिक टैंक साफ़ करते हुए मौत हो गयी. पिछले एक हफ्तों में शायद 11 से ज्यादा लोग सफाई के कार्य करते हुए शहीद हुए हैं लेकिन मजाल क्या कि हमारे ‘स्वच्छ भारत’ के मालिक उनकी मौत पर एक शब्द भी बोले हों. मैंने पहले भी कहा के स्वच्छ भारत इस देश को साफ़ करने वाली कम्युनिटी को तमाचा है क्योंकि पूरे अभियान में कभी भी उनका नाम तक नहीं लिया जाता. क्या कोई स्वच्छ भारत का अभियान करने वाला कभी गटर में घुसकर देखा है. कम से कम उस समुदाय के दुःख और परेशानी को देख लो जो वर्णव्यवस्था के आधार पर दिए गए काम को करते करते बिना किसी मुआवजे के मर जाता है.
अंग्रेजी के अख़बार इंडियन एक्सप्रेस ने खबर दी के औसतन एक सफाई कर्मी गटर या सीवेज की सफाई करते हर पांचवे दिन में मर रहा है. सरकार् के पास कोई ईमानदार आंकड़े नहीं हैं. होंगे भी कैसे, क्योंकि जब सरकार के मंत्री और कर्मचारियों की आस्थाए मनुवादी व्यवस्था में होगी तो उनसे आप कभी भी ईमानदारी की उम्मीद नहीं कर सकते है. खबरों के अनुसार 2017 में देश भर में सीवर की सफाई करते हुए 300 सफाई कर्मियों की मौत हुई जिसमे दिल्ली में 12 थीं और 140 से अधिक तमिलनाडु में. वैसे सरकार ने एक आंकड़ा जनवरी 2018 में पार्लियामेंट में भी पेश किया और बताया के 1993 के बाद से अभी तक 323 सफाई कर्मियों की मौत हुई है जिसमें 144 तमिलनाडु में, 49 कर्नाटक और 52 उत्तर प्रदेश में लेकिन सफाई कर्मचारी आन्दोलन के साथी इन आंकड़ो को झूठ कहते है क्योंकि उनके अनुसार 1470 से अधिक मौते हुई है जो उनके द्वारा दस्तावेजीकृत है.
अभी सरकार ‘मैला ढोने’ में लगे लोगो की पहचान कर रही है और इसमें भी एक दो संगठनो को छोड़ कर किसी का सहयोग नहीं लिया गया है. इतने बड़े देश की ठेक्दारी एक दो संस्थाओं और सरकारी कर्मचारियों पर थोप देना क्या इतनी भयावह समस्या के साथ न्याय होगा. क्या भाड़े पे लाये गए लोग इस समस्या को इमानदारी से आंकलित कर पायेगे. उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जनपद में सर्वे के दौरान हमारे साथी धीरज कुमार ने अपने समुदाय की 834 महिलाओं को मानव मल ढोने के काम में लिप्त पाने के तौर पर चिन्हित कर उनका पूरा विवरण जब जिले में दिया तो प्रशासन में हडकंप मच गया क्योंकि वहा के अधिकारियों ने आधिकारिक तौर पर मात्र 7 महिलाओं को चिन्हित किया था जो सरकार की चालीस हज़ार रुपैये की राशि के हकदार बनते.
हकीकत ये है के चुनाव के समय सरकार ये पैसा फैंकना चाहती है, उसकी स्वच्छकार समाज की आर्थिक सामजिक हालतों को सुधारने में कोई दिलचस्पी नहीं है.सरकार के सर्वे ऐसे ही हैं.
मोदी सरकार के आने के बाद स्वच्छ भारत अभियान का प्रचार प्रसार इतना किया गया के यदि उसमे स्वच्छकार समाज की परेशानियों, छूआछूत, जातिवाद के विरुद्ध भी बाते होती उसका बहुत असर पड़ता. यदि ये अभियान छूआछूत के विरुद्ध जनता में जाग्रति पैदा करता और ये बताता के सफाई इस समुदाय विशेष का कार्य नहीं होना चाहिए तो देश में बदलाव की बात होती लेकिन पूरा स्वच्छ भारत अभियान सवर्णों के पाखंड को मज़बूत करने के काम के अलावा और कुछ नहीं हुआ. मोदी से सभी ने सीख लिया है के बिना काम किये भी मात्र प्रचार के जरिये भी अपनों को ‘महान’ बनाया जा सकता है. एक जानकारी के अनुसार पिछले वर्ष तक स्वच्छ भारत अभियान में सरकार ने मात्र विज्ञापनों में 530 करोड़ से अधिक रुपैये खर्च कर डाले. स्वच्छ भारत अभियान के लिए सरकार ने पाच वर्ष में 12 करोड़ टॉयलेट बनाने का वायदा किया है और 2017 में कुल 16248 करोड़ रुपैये का बजट दिया लेकिन स्वच्छकार विमुक्ति के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठाया. साफ़ सुथरे इंडिया गेट पर झाड़ू लगाकर या एक मिनट के लिए कैमरे के सामने झाड़ू लगाकर हम इस बड़ी समस्या का समाधान नहीं कर सकते.
इंडिया स्पेंड के एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1 करोड़ 70 लाख लोगो के पास सैनिटेशन के सुविधा नहीं है. 4 करोड़ 40 लाख लोगो के पास कोई टॉयलेट नहीं है. केंद्रीय मनित्र्यो की एक कमेटी ने 2011 में पाया के 26 लाख लोगो के पास शुष्क सौचालय ही है. कमिटी का ये भी कहना है के देश में 53236 मैन्युअल स्कावेंजरस है जिसमे अकेले उत्तर प्रदेश में 28,796 है. सरकार के आंकड़ो पे चले तो 2011 तक देश में 74078 घरो की सफाई ‘मैला ढोने वाले लोग कर रहे थे’ यानी इतने परिवारों के यहाँ मैला ढोने का काम हो रहा था. ये भी बताया गया के 21 लाख घरो में लेट्रिन की सफाई का काम सफाई कर्मी कर रहे थे. सरकार के आंकड़े गुमराह करते है,बेहद झूठ बोलते है. कहते है 1.82 लाख [परिवारों से एक व्यक्ति मैला ढोने का काम कर रहा था . यदि ये सही है तो फिर मैला ढोने वालो की संख्या 53,236 कैसे ?
शोधकर्ताओं के मुताबिक भारत में प्रति दिन 62,000 मिलियन लीटर सीवेज एक दिन में आता है लेकिन मात्र 23,277 मिलियन लीटर पर डे यानी 37% की ही क्षमता है. अभी भी भारत में मात्र 32.7% आबादी ही पाइप्ड सीवर सिस्टम का इस्तेमाल करते है. दिल्ली में 60.5, यूपी में 28.3%,, मध्य प्रदेश में 20.3%, गुजरात 60.4%, महाराष्ट्र 37.8% और तमिलनाडु में 27.4% ही सीवर सिस्टम है.
यदि सेप्टिक टैंक का हाल देखे तो देश में 38.7% लोग इसका इस्तेमाल करते है. दिल्ली में 24.7%. उत्तर प्रदेश में 46.9%, मध्य प्रदेश में 50.1%, गुजरात में 24.7%, महाराष्ट्र में 28.6%, तमिल्नांदु में 37.8%..
अब सरकार से पूछे तो ये बात है के अगर देश में 38.7% परिवारों में सेप्टिक टैंक्स है तो इसको साफ़ करने के लिए कौन लोग आते है. निश्चित है के सवर्णों के बच्चे तो यहाँ आयेंगे नहीं. क्या सेप्टिक टैंक की सफाई करने वाले लोग मैन्युअल स्क्कावेंजेर्स नहीं होते ?
मैला ढोने वालो की परिभाषा बदल गए है. ये केवल सर पे मैला उठाने वालो तक सीमित नहीं है. सीवर की सफाई में लगे लोग भी उसी श्रेणी में आते है. सरकार ये बताये के इस देश में कितने नगर पालिकाए, नगर महापालिकाए और कितने नगर निगम हैं. क्या इन सभी में सेवेज प्लांट्स है ? ये प्रारम्भिक जानकारी मिलने के बाद ये बताया जाए के कितने स्थानों पर सेप्टिक टैंक्स है. तभी हम बता पायेंगे के मैला ढोने की समस्सया कितनी आगे बढ़ी है.
मैला ढोने की समस्या का निदान केवल 40 हज़ार रुपैये देकर शांत रहने का नहीं है. चुनाव और वोटो से आगे इस समस्या को देखना होगा. क्या मैला ढोने का काम छोड़ने वाले महिलाओं के सम्मान जनक पुनार्वश की कोई व्यवस्था है . क्या उनके बच्चो की शिक्षा पर सरकार ने कोई ध्यान दिया. क्या स्वच्छकार समाज के लोगो के सामाजिक स्वीकार्यता और उनके भूमि और आवास की सुविधाओं की कोई चिंता सरकार ने की. केवल जुमले बाजी से काम नहीं चलेगा. करीब 5 पांच वर्ष पूर्व छूआछूट के विरुद्ध हमारे अभियान से हमें पता चला के कैसे ये समस्या मात्र ब्राह्मण, ठाकुर या दलितों के बीच नहीं है बल्कि चमार , मौर्या और स्वच्छकार समुदाय के मध्य है. हमने सरकार से मांग की थी के मैला ढोने का काम छोड़ने वाली महिलाओं को पांच एकड़ भमि खेती के लिए दी जाये. स्वच्छकार समाज के बच्चो को नवोदय विद्यालाओ में प्रवेश मिले और स्वच्चकर समाज के युवाओं को गैर सैनिटेशन वाले कार्यो में 5% का आरक्षण दिया जाए.
सरकार और सामाजिक संगठनो को इस बात पर विचार करना होगा के आखिर इस समाज में बदलाव कैसे आएगा. किसी भी उत्पीडित समाज की तीन लड़ाइया होती है. पहले उससे जो उसका शोषण करता है चाहे व्यक्ति हो या परम्पराए, फिर अपने आप से, अपने रुढिवादिता से, और उन परम्पराओं से जो उसको शोषण को भाग्य मानकर सहन करने के लिए शक्ति देते है, और तीसरी वो जो कानूनन हमें ख़त्म करनी है, जिसे हम राजनैतिक लड़ाई कहते है. अब पहले कानून और सरकारी प्रयासों पर आते है. क्या सरकार ये बता सकती है और राज्य सरकारों से भी बात की जा सकती है के सरकार के विभिन्न पदों पर और ये सिविल सर्विसेज, प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा, सेना, राज्जस्व, न्यायपालिका, मीडिया, शिक्षा, विश्विद्यालयो आदि में स्वच्छकार समाज का कितना प्रतिनिधत्व है. केवल एक दो पार्टी भक्तो को लाल बत्ती थामकर सरकार या राजनैतिक दल समाज के बड़े मुद्दे से ध्यान नहीं भटका सकते.
जब भी स्वच्छकार समाज को नौकरियों की बात आती है तो स्थानीय निकायों में सफाई कर्मियों की नौकरियों के अलावा और कोई बात ही नहीं आती. समुदाय के भी नेता इतने में ही संतुष्ट है. उनकी तरफ से भी ये डिमांड नहीं आती के आखिर हमारे समाज के कितने डीएम्, कितने एस पी, कितने इंजिनियर, कितने टीचर है. जब से स्थानीय निकायों में थोडा पैसा मिलने लगा तो अब सवर्णों और अन्य जातियों के बच्चे भी अप्लाई करने लगे. अखबारों में खबरों को ऐसा बताया जाता है जैसे सवर्णों ने अब मैला ढोने का काम शुरू कर दिया है और जाति प्रथा ख़त्म हो गयी है लेकिन हकीकत ये है के पैसे और पक्की नौकरी के वास्ते व्यक्ति कुछ भी करने के लिए तैयार है. दुसरे, जो भी तथाकथित सवर्ण और दूसरी जातियों के लोग स्थानीय निकायों में सफाई कर्मचारी के तौर पर आते है वे चालाकी, धूर्तता और जातिवाद की बदोलत अपने जुगाड़ लगाकर अपने को ऑफिस असिस्टेंस, चपरासी, पानी पिलाने वाला या सहायको में पोस्ट करवा लेते है और सफाई का कार्य तो वो ही समुदाय करते है जिसे मनुवादी वर्णव्यवस्था ने ‘जिम्मेवारी’ सौंपी है.
इसके अलावा एक और हकीकत है. वो ये के कई लोग सफाई कर्मचारी नियुक्त होते है लेकिन अपनी जगह एक ‘छोटू, या पप्पू को रख देते है, उसे हज़ार दो हज़ार थमाकर, काम कर देते है. ऐसे लोग अपने दस्तखत इत्यादि कर महीने में ही अपना चेहरा दिखाते है. उत्तर प्रदेश में पिछली सरकारों ने ग्राम पंचायतो में सफाई कर्मियों की नियुक्ति कर बहुत वाहवाही लूटी थी और बताया था के कैसे सवर्णों और पिछड़ी जातियों के लोग भी इस पेशे में आया गए है लेकिन जमीनी हकीकत ये थी के स्वच्छकार समाज के लोग घूस देने में असमर्थ थे इसलिए उनको नौकरी नहीं मिली. दूसरी तरफ इसका खेला भी देखो. गाँवों में सफाई का इतना काम होता ही नहीं क्योंकि प्रधान और सेक्रेटरी के घर पे झाड़ू लगादेने से ही काम बन जाता है और उसके लिए 15000 रुपैये मिल रहे थे लेकिन जो नगर पालिकाओ में काम कर रहे है उसमे अधिकांशतः धिहादी में पे है जिनको 5000 रुपैये नहीं मिलते. अगर भारत की नगरपालिकाओं का सोशल ऑडिट करवा दिया जाए तो पता चल जायेगा के वो कितनी बड़ी धांधली कर रहे है. किसी भी स्थानीय निकाय में सफाई कर्मचारियों को कभी भी उनका वेतन समय पर नहीं मिलता . अधिकांश व्यक्ति दैनिक वेतन वाले है जिन्हें न पी ऍफ़ है, न छुट्टी, न मेडिकल. इन सेवाओं का निजीकरण करके सरकार ने स्वच्छकार समाज के पेट पर लात मारी है.
क्या कारण है के जब स्वच्छकार समाज के लोग कोई कार्य करते है तो उसकी वैल्यू नहीं लेकिन अगर बिन्देश्वर पाठक जैसे लोग ‘इन्वेस्ट’ करते है तो न केवल विश्व प्रसिद्द होते है अपितु मालामाल भी. देश में सुलभ शौचालयों की भरमार है जो इतना पैसा कमा रहे है लेकिन पूछिए के इनके मालिक कौन है तो पैसे पर झा जी, शर्मा जी, दुबे जी, गुप्ता साहेब, मिश्रा जी बैठे होंगे लेकिन झाड़ू, पोंछा, सफाई का जिम्मा केवल एक ही बिरादरी के पास है. क्या सरकार इन सभी शौचालयों को स्वच्छकार समाज को नहीं सौंप सकती ताकि वे इससे पैसा कमा सके ? यानी जब तक पुस्थेनी पेशे में गन्दगी है, हाथ का इस्तेमाल है, पैसा नहीं है तब तक स्वच्छकार समाज वो कार्य करे लेकिन जब उसमे तकनीक आ जाए और पैसा बढ़ जाए तो माल पर जातिवादी लोग कब्ज़ा कर ले . क्या फलसफा है सामाजिक न्याय का.
स्वच्छकार समाज को न केवल आर्थिक विकास चाहिए अपितु सामाजिक और सांस्कृतिक भी. केवल अलग से वाल्मीकि बस्तिया बनाने से काम नहीं चलेगा. जब तक जी डी ए या डी डी ए और उन जैसी अन्य संस्थाओं में बनाए जाने वाले घरो में स्वच्छकार समाज के लोगो को जगह नहीं मिलेगी. जब तक नवोदय विद्यालयों और अन्य केंद्रीय विद्यालयों में उनके बच्चो को प्रवेश नहीं मिलेगा और हॉस्टल की सुविधाए नहीं होंगी, सरकार, नेताओं और आन्दोलनों की भूमिका संदेह के घेरे में रहेगी.
सीवर में सफाई कर रहे लोगो की मौत पर अफ़सोस जता कर उस समस्या का ईमानदारी से समाधान नहीं होगा जब तक हम समस्या की जड़ में नहीं जायेंगे. केवल चालीस हज़ार या दो लाख बाँट कर आप समस्या का समाधान नहीं कर सकते. समुदाय की महिलाओं को भागीदारी चाहिए, उन्हें घर चाहिए, खेती की जमीन चाहिए. दिल्ली में जिस नवयुवा अनिल की मौत सीवर की सफाई करते हुए हुई उसके परिवार के पास उसके अंतिम संस्कार के लिए पैसे नहीं थी. उसके छोटे बच्चे की तस्वीर ने बहुतो की आत्मा को कचोटा और इसीलिये कुछ लोगो ने क्राउड फंडिंग से उसके लिए करीब 12 लाख रुपैये इकठा कर दिया जो एक बेहतरीन उदहारण है लेकिन ये एक रिएक्शन भी है के जब समाज की पोल खुलती है तो वो बहुत से इंतज़ाम करते है. कुछ इसको नकारते है, कुछ थोडा अच्छे होते हैं तो वो दिल की बात सुनकर काम करते हैं. लेकिन ये ऐतिहासिक समस्या के स्थाई समाधान नहीं है क्योंकि अनिल तो दिल्ली में था और सब ने अखबार में फोटो देखकर संवेदना दिखा दी लेकिन देश के गाँवों, छोटे कस्बो में ऐसे सैंकड़ो अनिल है जिनकी हमें खबर भी नहीं है और जिनकी मौत अखबारों की सुर्खिया नहीं बनती.
हमारी एक सहयोगी की माँ करीब 30 वर्षो से एक स्कूल में कार्य करती है लेकिन आज तक उन्हें मात्र दो हज़ार रुपैये मिल रहे हैं. क्या कहेंगे इसे ? क्या उनके लिए महगाई नहीं है ? क्या इतने वर्षो में काम करने के बाद भी कुछ सोशल सेक्सुरिटी है या नहीं ? ऐसे सैंकड़ो है जिन्हें पैसा भी नहीं मिलता. शब्दों की बाजीगरी और नारों की जुमलेबाजी से बड़ी है सामाजिक हकीकत जो जब तक समाज तक नहीं पहुंचेंगे पता भी नहीं चलेगा.
स्वच्छकार समाज तो स्वयं दलित आन्दोलन के हासिये पे हैं. गाँवों में तो ‘बड़े’ दलित उनके घर पर नहीं जाते. डॉम, बांसफोर, हेला, रावत, बाल्मीकि, सुदर्शन, और अन्य जातीय गाँव में बिलकुल हासिये पे हैं. उत्तर प्रदेश में कुछ वर्ष पूर्व जो दलित महिलाओं के हाथ से मिड डे मील न खाने की बात आयी थी उसमे अधिकांश मसला बाल्मीकि समाज की महिलाओं द्वारा बनाये गए खाने से सम्बंधित था. नारे लगाने वाले बहुत लिख लेते है और बोल लेते है लेकिन एक बार गाँवों में दूसरी जातियों की बस्तियों में भी पहुँच जाइए तो पता चल जाएगा के मामला कितना गंभीर है. हमारी साथी मालती बाल्मीकि ने एक बार कहा के समस्या ये नहीं के हमारे साथ बामन, ठाकुर छुआछूत करते है, वो कहती है, के दलित भी उनके साथ वैसा ही वर्ताब करते है. दूकानदार फेंक के पैसा वापस करते है,ढाबो में चाय अभी भी नहीं मिलती. फेहरिश्त बहुत लम्बी है.
जरुरत इस बात की है कि समाज की स्थिति को समझने के लिए एक विशेष समिति का गठन होना चाहिए जो समयबद्ध सीमाओं में इस कार्य को कर सके लेकिन जरुरी ये है के सरकार ये ठाने के स्वच्छकार समाज के लोगो को अब प्रतिनिधित्व देना होगा और मैं जानता हूँ ऐसे हजारो बच्चे हैं जो इस समाज से निकले हैं और काबिलियत रखते हैं अगर उनको मौका मिले तो. क्या हमारी सरकारें, नेता, सामाजिक आन्दोलन इसके लिए तैयार हैं ? अगर आज भी भारत में किसी के साथ नस्लीय भेदभाव है तो वो स्वच्छकार और इससे जुड़े समाज हैं. केरल ने रोबोट के जरिये ये काम करना शुरू कर दिया है जो सराहनीय है लेकिन उसके साथ जरुरी ये भी है स्वच्छकार समाज का सामाजिक विकास होगा और उसकी सत्ता, प्रशासन में भागीदारी सुनिश्चित की जाए, देश के दुसरे हिस्सों में भी सरकारी नियम सख्ती से लागू हो और हर एक मौत के लिए उसका ठेकेदार और स्थानीय निकायों को जिम्मेवार ठहराया जाए. जब तक सफाई कर्मियों की मौत के लिए किसी को जिम्मेवार नहीं ठहराया जाएगा तब तक ये मौते होती रहेंगी और कुछ दिनों की सुर्खियों के बाद खबर भी अपने आप ही मर जायेगी और फिर किसी नयी मौत पर हमारा दिल ‘पिघलेगा’.
अंग्रेजी के अख़बार इंडियन एक्सप्रेस ने खबर दी के औसतन एक सफाई कर्मी गटर या सीवेज की सफाई करते हर पांचवे दिन में मर रहा है. सरकार् के पास कोई ईमानदार आंकड़े नहीं हैं. होंगे भी कैसे, क्योंकि जब सरकार के मंत्री और कर्मचारियों की आस्थाए मनुवादी व्यवस्था में होगी तो उनसे आप कभी भी ईमानदारी की उम्मीद नहीं कर सकते है. खबरों के अनुसार 2017 में देश भर में सीवर की सफाई करते हुए 300 सफाई कर्मियों की मौत हुई जिसमे दिल्ली में 12 थीं और 140 से अधिक तमिलनाडु में. वैसे सरकार ने एक आंकड़ा जनवरी 2018 में पार्लियामेंट में भी पेश किया और बताया के 1993 के बाद से अभी तक 323 सफाई कर्मियों की मौत हुई है जिसमें 144 तमिलनाडु में, 49 कर्नाटक और 52 उत्तर प्रदेश में लेकिन सफाई कर्मचारी आन्दोलन के साथी इन आंकड़ो को झूठ कहते है क्योंकि उनके अनुसार 1470 से अधिक मौते हुई है जो उनके द्वारा दस्तावेजीकृत है.
अभी सरकार ‘मैला ढोने’ में लगे लोगो की पहचान कर रही है और इसमें भी एक दो संगठनो को छोड़ कर किसी का सहयोग नहीं लिया गया है. इतने बड़े देश की ठेक्दारी एक दो संस्थाओं और सरकारी कर्मचारियों पर थोप देना क्या इतनी भयावह समस्या के साथ न्याय होगा. क्या भाड़े पे लाये गए लोग इस समस्या को इमानदारी से आंकलित कर पायेगे. उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जनपद में सर्वे के दौरान हमारे साथी धीरज कुमार ने अपने समुदाय की 834 महिलाओं को मानव मल ढोने के काम में लिप्त पाने के तौर पर चिन्हित कर उनका पूरा विवरण जब जिले में दिया तो प्रशासन में हडकंप मच गया क्योंकि वहा के अधिकारियों ने आधिकारिक तौर पर मात्र 7 महिलाओं को चिन्हित किया था जो सरकार की चालीस हज़ार रुपैये की राशि के हकदार बनते.
हकीकत ये है के चुनाव के समय सरकार ये पैसा फैंकना चाहती है, उसकी स्वच्छकार समाज की आर्थिक सामजिक हालतों को सुधारने में कोई दिलचस्पी नहीं है.सरकार के सर्वे ऐसे ही हैं.
मोदी सरकार के आने के बाद स्वच्छ भारत अभियान का प्रचार प्रसार इतना किया गया के यदि उसमे स्वच्छकार समाज की परेशानियों, छूआछूत, जातिवाद के विरुद्ध भी बाते होती उसका बहुत असर पड़ता. यदि ये अभियान छूआछूत के विरुद्ध जनता में जाग्रति पैदा करता और ये बताता के सफाई इस समुदाय विशेष का कार्य नहीं होना चाहिए तो देश में बदलाव की बात होती लेकिन पूरा स्वच्छ भारत अभियान सवर्णों के पाखंड को मज़बूत करने के काम के अलावा और कुछ नहीं हुआ. मोदी से सभी ने सीख लिया है के बिना काम किये भी मात्र प्रचार के जरिये भी अपनों को ‘महान’ बनाया जा सकता है. एक जानकारी के अनुसार पिछले वर्ष तक स्वच्छ भारत अभियान में सरकार ने मात्र विज्ञापनों में 530 करोड़ से अधिक रुपैये खर्च कर डाले. स्वच्छ भारत अभियान के लिए सरकार ने पाच वर्ष में 12 करोड़ टॉयलेट बनाने का वायदा किया है और 2017 में कुल 16248 करोड़ रुपैये का बजट दिया लेकिन स्वच्छकार विमुक्ति के लिए कोई सार्थक कदम नहीं उठाया. साफ़ सुथरे इंडिया गेट पर झाड़ू लगाकर या एक मिनट के लिए कैमरे के सामने झाड़ू लगाकर हम इस बड़ी समस्या का समाधान नहीं कर सकते.
इंडिया स्पेंड के एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 1 करोड़ 70 लाख लोगो के पास सैनिटेशन के सुविधा नहीं है. 4 करोड़ 40 लाख लोगो के पास कोई टॉयलेट नहीं है. केंद्रीय मनित्र्यो की एक कमेटी ने 2011 में पाया के 26 लाख लोगो के पास शुष्क सौचालय ही है. कमिटी का ये भी कहना है के देश में 53236 मैन्युअल स्कावेंजरस है जिसमे अकेले उत्तर प्रदेश में 28,796 है. सरकार के आंकड़ो पे चले तो 2011 तक देश में 74078 घरो की सफाई ‘मैला ढोने वाले लोग कर रहे थे’ यानी इतने परिवारों के यहाँ मैला ढोने का काम हो रहा था. ये भी बताया गया के 21 लाख घरो में लेट्रिन की सफाई का काम सफाई कर्मी कर रहे थे. सरकार के आंकड़े गुमराह करते है,बेहद झूठ बोलते है. कहते है 1.82 लाख [परिवारों से एक व्यक्ति मैला ढोने का काम कर रहा था . यदि ये सही है तो फिर मैला ढोने वालो की संख्या 53,236 कैसे ?
शोधकर्ताओं के मुताबिक भारत में प्रति दिन 62,000 मिलियन लीटर सीवेज एक दिन में आता है लेकिन मात्र 23,277 मिलियन लीटर पर डे यानी 37% की ही क्षमता है. अभी भी भारत में मात्र 32.7% आबादी ही पाइप्ड सीवर सिस्टम का इस्तेमाल करते है. दिल्ली में 60.5, यूपी में 28.3%,, मध्य प्रदेश में 20.3%, गुजरात 60.4%, महाराष्ट्र 37.8% और तमिलनाडु में 27.4% ही सीवर सिस्टम है.
यदि सेप्टिक टैंक का हाल देखे तो देश में 38.7% लोग इसका इस्तेमाल करते है. दिल्ली में 24.7%. उत्तर प्रदेश में 46.9%, मध्य प्रदेश में 50.1%, गुजरात में 24.7%, महाराष्ट्र में 28.6%, तमिल्नांदु में 37.8%..
अब सरकार से पूछे तो ये बात है के अगर देश में 38.7% परिवारों में सेप्टिक टैंक्स है तो इसको साफ़ करने के लिए कौन लोग आते है. निश्चित है के सवर्णों के बच्चे तो यहाँ आयेंगे नहीं. क्या सेप्टिक टैंक की सफाई करने वाले लोग मैन्युअल स्क्कावेंजेर्स नहीं होते ?
मैला ढोने वालो की परिभाषा बदल गए है. ये केवल सर पे मैला उठाने वालो तक सीमित नहीं है. सीवर की सफाई में लगे लोग भी उसी श्रेणी में आते है. सरकार ये बताये के इस देश में कितने नगर पालिकाए, नगर महापालिकाए और कितने नगर निगम हैं. क्या इन सभी में सेवेज प्लांट्स है ? ये प्रारम्भिक जानकारी मिलने के बाद ये बताया जाए के कितने स्थानों पर सेप्टिक टैंक्स है. तभी हम बता पायेंगे के मैला ढोने की समस्सया कितनी आगे बढ़ी है.
मैला ढोने की समस्या का निदान केवल 40 हज़ार रुपैये देकर शांत रहने का नहीं है. चुनाव और वोटो से आगे इस समस्या को देखना होगा. क्या मैला ढोने का काम छोड़ने वाले महिलाओं के सम्मान जनक पुनार्वश की कोई व्यवस्था है . क्या उनके बच्चो की शिक्षा पर सरकार ने कोई ध्यान दिया. क्या स्वच्छकार समाज के लोगो के सामाजिक स्वीकार्यता और उनके भूमि और आवास की सुविधाओं की कोई चिंता सरकार ने की. केवल जुमले बाजी से काम नहीं चलेगा. करीब 5 पांच वर्ष पूर्व छूआछूट के विरुद्ध हमारे अभियान से हमें पता चला के कैसे ये समस्या मात्र ब्राह्मण, ठाकुर या दलितों के बीच नहीं है बल्कि चमार , मौर्या और स्वच्छकार समुदाय के मध्य है. हमने सरकार से मांग की थी के मैला ढोने का काम छोड़ने वाली महिलाओं को पांच एकड़ भमि खेती के लिए दी जाये. स्वच्छकार समाज के बच्चो को नवोदय विद्यालाओ में प्रवेश मिले और स्वच्चकर समाज के युवाओं को गैर सैनिटेशन वाले कार्यो में 5% का आरक्षण दिया जाए.
सरकार और सामाजिक संगठनो को इस बात पर विचार करना होगा के आखिर इस समाज में बदलाव कैसे आएगा. किसी भी उत्पीडित समाज की तीन लड़ाइया होती है. पहले उससे जो उसका शोषण करता है चाहे व्यक्ति हो या परम्पराए, फिर अपने आप से, अपने रुढिवादिता से, और उन परम्पराओं से जो उसको शोषण को भाग्य मानकर सहन करने के लिए शक्ति देते है, और तीसरी वो जो कानूनन हमें ख़त्म करनी है, जिसे हम राजनैतिक लड़ाई कहते है. अब पहले कानून और सरकारी प्रयासों पर आते है. क्या सरकार ये बता सकती है और राज्य सरकारों से भी बात की जा सकती है के सरकार के विभिन्न पदों पर और ये सिविल सर्विसेज, प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा, सेना, राज्जस्व, न्यायपालिका, मीडिया, शिक्षा, विश्विद्यालयो आदि में स्वच्छकार समाज का कितना प्रतिनिधत्व है. केवल एक दो पार्टी भक्तो को लाल बत्ती थामकर सरकार या राजनैतिक दल समाज के बड़े मुद्दे से ध्यान नहीं भटका सकते.
जब भी स्वच्छकार समाज को नौकरियों की बात आती है तो स्थानीय निकायों में सफाई कर्मियों की नौकरियों के अलावा और कोई बात ही नहीं आती. समुदाय के भी नेता इतने में ही संतुष्ट है. उनकी तरफ से भी ये डिमांड नहीं आती के आखिर हमारे समाज के कितने डीएम्, कितने एस पी, कितने इंजिनियर, कितने टीचर है. जब से स्थानीय निकायों में थोडा पैसा मिलने लगा तो अब सवर्णों और अन्य जातियों के बच्चे भी अप्लाई करने लगे. अखबारों में खबरों को ऐसा बताया जाता है जैसे सवर्णों ने अब मैला ढोने का काम शुरू कर दिया है और जाति प्रथा ख़त्म हो गयी है लेकिन हकीकत ये है के पैसे और पक्की नौकरी के वास्ते व्यक्ति कुछ भी करने के लिए तैयार है. दुसरे, जो भी तथाकथित सवर्ण और दूसरी जातियों के लोग स्थानीय निकायों में सफाई कर्मचारी के तौर पर आते है वे चालाकी, धूर्तता और जातिवाद की बदोलत अपने जुगाड़ लगाकर अपने को ऑफिस असिस्टेंस, चपरासी, पानी पिलाने वाला या सहायको में पोस्ट करवा लेते है और सफाई का कार्य तो वो ही समुदाय करते है जिसे मनुवादी वर्णव्यवस्था ने ‘जिम्मेवारी’ सौंपी है.
इसके अलावा एक और हकीकत है. वो ये के कई लोग सफाई कर्मचारी नियुक्त होते है लेकिन अपनी जगह एक ‘छोटू, या पप्पू को रख देते है, उसे हज़ार दो हज़ार थमाकर, काम कर देते है. ऐसे लोग अपने दस्तखत इत्यादि कर महीने में ही अपना चेहरा दिखाते है. उत्तर प्रदेश में पिछली सरकारों ने ग्राम पंचायतो में सफाई कर्मियों की नियुक्ति कर बहुत वाहवाही लूटी थी और बताया था के कैसे सवर्णों और पिछड़ी जातियों के लोग भी इस पेशे में आया गए है लेकिन जमीनी हकीकत ये थी के स्वच्छकार समाज के लोग घूस देने में असमर्थ थे इसलिए उनको नौकरी नहीं मिली. दूसरी तरफ इसका खेला भी देखो. गाँवों में सफाई का इतना काम होता ही नहीं क्योंकि प्रधान और सेक्रेटरी के घर पे झाड़ू लगादेने से ही काम बन जाता है और उसके लिए 15000 रुपैये मिल रहे थे लेकिन जो नगर पालिकाओ में काम कर रहे है उसमे अधिकांशतः धिहादी में पे है जिनको 5000 रुपैये नहीं मिलते. अगर भारत की नगरपालिकाओं का सोशल ऑडिट करवा दिया जाए तो पता चल जायेगा के वो कितनी बड़ी धांधली कर रहे है. किसी भी स्थानीय निकाय में सफाई कर्मचारियों को कभी भी उनका वेतन समय पर नहीं मिलता . अधिकांश व्यक्ति दैनिक वेतन वाले है जिन्हें न पी ऍफ़ है, न छुट्टी, न मेडिकल. इन सेवाओं का निजीकरण करके सरकार ने स्वच्छकार समाज के पेट पर लात मारी है.
क्या कारण है के जब स्वच्छकार समाज के लोग कोई कार्य करते है तो उसकी वैल्यू नहीं लेकिन अगर बिन्देश्वर पाठक जैसे लोग ‘इन्वेस्ट’ करते है तो न केवल विश्व प्रसिद्द होते है अपितु मालामाल भी. देश में सुलभ शौचालयों की भरमार है जो इतना पैसा कमा रहे है लेकिन पूछिए के इनके मालिक कौन है तो पैसे पर झा जी, शर्मा जी, दुबे जी, गुप्ता साहेब, मिश्रा जी बैठे होंगे लेकिन झाड़ू, पोंछा, सफाई का जिम्मा केवल एक ही बिरादरी के पास है. क्या सरकार इन सभी शौचालयों को स्वच्छकार समाज को नहीं सौंप सकती ताकि वे इससे पैसा कमा सके ? यानी जब तक पुस्थेनी पेशे में गन्दगी है, हाथ का इस्तेमाल है, पैसा नहीं है तब तक स्वच्छकार समाज वो कार्य करे लेकिन जब उसमे तकनीक आ जाए और पैसा बढ़ जाए तो माल पर जातिवादी लोग कब्ज़ा कर ले . क्या फलसफा है सामाजिक न्याय का.
स्वच्छकार समाज को न केवल आर्थिक विकास चाहिए अपितु सामाजिक और सांस्कृतिक भी. केवल अलग से वाल्मीकि बस्तिया बनाने से काम नहीं चलेगा. जब तक जी डी ए या डी डी ए और उन जैसी अन्य संस्थाओं में बनाए जाने वाले घरो में स्वच्छकार समाज के लोगो को जगह नहीं मिलेगी. जब तक नवोदय विद्यालयों और अन्य केंद्रीय विद्यालयों में उनके बच्चो को प्रवेश नहीं मिलेगा और हॉस्टल की सुविधाए नहीं होंगी, सरकार, नेताओं और आन्दोलनों की भूमिका संदेह के घेरे में रहेगी.
सीवर में सफाई कर रहे लोगो की मौत पर अफ़सोस जता कर उस समस्या का ईमानदारी से समाधान नहीं होगा जब तक हम समस्या की जड़ में नहीं जायेंगे. केवल चालीस हज़ार या दो लाख बाँट कर आप समस्या का समाधान नहीं कर सकते. समुदाय की महिलाओं को भागीदारी चाहिए, उन्हें घर चाहिए, खेती की जमीन चाहिए. दिल्ली में जिस नवयुवा अनिल की मौत सीवर की सफाई करते हुए हुई उसके परिवार के पास उसके अंतिम संस्कार के लिए पैसे नहीं थी. उसके छोटे बच्चे की तस्वीर ने बहुतो की आत्मा को कचोटा और इसीलिये कुछ लोगो ने क्राउड फंडिंग से उसके लिए करीब 12 लाख रुपैये इकठा कर दिया जो एक बेहतरीन उदहारण है लेकिन ये एक रिएक्शन भी है के जब समाज की पोल खुलती है तो वो बहुत से इंतज़ाम करते है. कुछ इसको नकारते है, कुछ थोडा अच्छे होते हैं तो वो दिल की बात सुनकर काम करते हैं. लेकिन ये ऐतिहासिक समस्या के स्थाई समाधान नहीं है क्योंकि अनिल तो दिल्ली में था और सब ने अखबार में फोटो देखकर संवेदना दिखा दी लेकिन देश के गाँवों, छोटे कस्बो में ऐसे सैंकड़ो अनिल है जिनकी हमें खबर भी नहीं है और जिनकी मौत अखबारों की सुर्खिया नहीं बनती.
हमारी एक सहयोगी की माँ करीब 30 वर्षो से एक स्कूल में कार्य करती है लेकिन आज तक उन्हें मात्र दो हज़ार रुपैये मिल रहे हैं. क्या कहेंगे इसे ? क्या उनके लिए महगाई नहीं है ? क्या इतने वर्षो में काम करने के बाद भी कुछ सोशल सेक्सुरिटी है या नहीं ? ऐसे सैंकड़ो है जिन्हें पैसा भी नहीं मिलता. शब्दों की बाजीगरी और नारों की जुमलेबाजी से बड़ी है सामाजिक हकीकत जो जब तक समाज तक नहीं पहुंचेंगे पता भी नहीं चलेगा.
स्वच्छकार समाज तो स्वयं दलित आन्दोलन के हासिये पे हैं. गाँवों में तो ‘बड़े’ दलित उनके घर पर नहीं जाते. डॉम, बांसफोर, हेला, रावत, बाल्मीकि, सुदर्शन, और अन्य जातीय गाँव में बिलकुल हासिये पे हैं. उत्तर प्रदेश में कुछ वर्ष पूर्व जो दलित महिलाओं के हाथ से मिड डे मील न खाने की बात आयी थी उसमे अधिकांश मसला बाल्मीकि समाज की महिलाओं द्वारा बनाये गए खाने से सम्बंधित था. नारे लगाने वाले बहुत लिख लेते है और बोल लेते है लेकिन एक बार गाँवों में दूसरी जातियों की बस्तियों में भी पहुँच जाइए तो पता चल जाएगा के मामला कितना गंभीर है. हमारी साथी मालती बाल्मीकि ने एक बार कहा के समस्या ये नहीं के हमारे साथ बामन, ठाकुर छुआछूत करते है, वो कहती है, के दलित भी उनके साथ वैसा ही वर्ताब करते है. दूकानदार फेंक के पैसा वापस करते है,ढाबो में चाय अभी भी नहीं मिलती. फेहरिश्त बहुत लम्बी है.
जरुरत इस बात की है कि समाज की स्थिति को समझने के लिए एक विशेष समिति का गठन होना चाहिए जो समयबद्ध सीमाओं में इस कार्य को कर सके लेकिन जरुरी ये है के सरकार ये ठाने के स्वच्छकार समाज के लोगो को अब प्रतिनिधित्व देना होगा और मैं जानता हूँ ऐसे हजारो बच्चे हैं जो इस समाज से निकले हैं और काबिलियत रखते हैं अगर उनको मौका मिले तो. क्या हमारी सरकारें, नेता, सामाजिक आन्दोलन इसके लिए तैयार हैं ? अगर आज भी भारत में किसी के साथ नस्लीय भेदभाव है तो वो स्वच्छकार और इससे जुड़े समाज हैं. केरल ने रोबोट के जरिये ये काम करना शुरू कर दिया है जो सराहनीय है लेकिन उसके साथ जरुरी ये भी है स्वच्छकार समाज का सामाजिक विकास होगा और उसकी सत्ता, प्रशासन में भागीदारी सुनिश्चित की जाए, देश के दुसरे हिस्सों में भी सरकारी नियम सख्ती से लागू हो और हर एक मौत के लिए उसका ठेकेदार और स्थानीय निकायों को जिम्मेवार ठहराया जाए. जब तक सफाई कर्मियों की मौत के लिए किसी को जिम्मेवार नहीं ठहराया जाएगा तब तक ये मौते होती रहेंगी और कुछ दिनों की सुर्खियों के बाद खबर भी अपने आप ही मर जायेगी और फिर किसी नयी मौत पर हमारा दिल ‘पिघलेगा’.