संसद में अविश्वास प्रस्ताव की प्रासंगिकता और उसकी कामयाबी इसी एक बात से सिद्ध हो जाती है कि पिछले चार सालों में पहली बार संसद बहस के केंद्र में आयी। इसके पहले मोदी इसको ठेंगे पर लिए हुए थे। कब सत्र आया और कब बीत गया। कुछ पता ही नहीं चलता था। और कई सत्र तो सत्ता पक्ष के अंहकार के चलते हंगामों की ही भेट चढ़ गए। जो चलते भी थे तो उनके भीतर सत्ता पक्ष मनमाने तरीके से काम करता था। कभी किसी विधेयक को मनी बिल के रास्ते से पारित करा दिया गया। तो किसी को पारित करने से पहले जरूरी बहस को भी कराना जरूरी नहीं समझा गया। नतीजतन मिनी संसद के तौर पर जानी जाने वाली ज्यादातर स्टैंडिंग कमेटियों को या तो खत्म कर दिया गया या फिर वो अप्रासंगिक हो गयीं।
इस पूरी कवायद में मोदी की मंशा विपक्ष को बौना साबित कर खुद को महामानव के तौर पर पेश करने की थी। मोदी के उस खांचे में विपक्ष का कोई नेता कहीं दूर-दूर तक नहीं टिकता था। और आखिर में वो खुद संसद के ऊपर बैठ जाना चाहते थे। जैसा कि गुजरात सरकार में रहते उन्होंने विपक्ष और असेंबली के साथ किया था। लिहाजा इस अविश्वास प्रस्ताव को उनके इन कुंठित मंसूबों को तहस-नहस करने का श्रेय तो जाता ही है।
अविश्वास प्रस्ताव महज संख्या बल का मामला नहीं होता है। अगर किसी सरकार के पास प्रचंड बहुमत है लेकिन वो जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती है तो ये विपक्ष की जिम्मेदारी बनती है कि उसे उसकी गलती याद दिलाए। इस बात में कोई शक नहीं कि सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है। उसने जितने वादे किए थे उस पर वो खरी नहीं उतरी। और गिनाने के लिए जुमलों से ज्यादा उसके पास कुछ नहीं है। किसी बड़ी उपलब्धि की बात छोड़िए इस सरकार ने नागरिकों की सुरक्षा के बुनियादी कर्तव्य को भी पूरा नहीं किया है। जिसके लिए राज्य का गठन हुआ है। राज्य के अस्तित्व में आने की पहली शर्त ही यही है कि वो नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करेगा। लेकिन सरकार इस मोर्चे पर ही बुरी तरह से नाकाम हो गयी है।
राह चलते लिंचिंग की घटनाएं बताती हैं कि देश एक बार फिर पिछली सदी की किसी कबीलाई व्यवस्था में चला गया है। जिसमें राज्य जैसी किसी संस्था का कोई अस्तित्व नहीं था और उसमें चीजें बुद्धि और विवेक की जगह ताकत के बल पर तय होती थीं। ऐसे में जनता का कल्याण तो बहुत दूर की बात है। अभी तो नागरिकों के सामने अपनी जान-माल के खतरे का संकट पैदा हो गया है। ऐसे में जनता के बीच अपना इकबाल खो चुकी इस सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का ये बेहद मौजूं वक्त था।
अविश्वास प्रस्ताव में बहस के दौरान इस बात में कोई शक नहीं है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जनता के मुद्दों पर अपने तीखे हमलों और सुसंगत भाषण के जरिये से मोदी सरकार की जमकर घेरेबंदी की। जो किसी भी विपक्षी नेता का काम होता है। उन्होंने राफेल से लेकर डोकलाम और लिंचिंग से लेकर महंगाई तक के सवाल उठाए। ट्रेजरी बेंच की प्रतिक्रिया बताती है कि तीर सही निशाने पर लगा। और पहली बार सत्ता पक्ष परेशान दिखा। भाषण के बाद राहुल गांधी का मोदी से मिलने जाना कोई जरूरी नहीं था। और अपने भाषण में खुद को हिंदू बताना और मोदी को हिंदू सम्राट घोषित करना किसी लिहाज से सही नहीं था। एक सेकुलर निजाम में सदन के भीतर नेताओं की इस तरह की बातचीत ही आपत्तिजनक है। बावजूद इसके अगर राहुल मोदी के पास गए भी तो पीएम मोदी से भी एक बड़प्पन की उम्मीद की जाती है। आप सदन के नेता हैं और अगर आप से कोई मिलने गया है तो सामान्य शिष्टाचार यही कहता है कि आप भी उसी तरह से उसके साथ पेश आइये। लेकिन यहां तो व्यक्तित्व का बौनापन पूरी सोच पर हावी है। जो उस शख्स को अपने निजी और तुच्छ राजनीतिक हितों के दायरे से बाहर सोचने ही नहीं देती है।
नतीजतन राहुल के इशारे के बावजूद पीएम अपनी कुर्सी से उठकर उनसे मिलना जरूरी नहीं समझे। ऐसे में राहुल का उनके गले पड़ने का दृश्य सामने आया। जिसके लिए पीएम मोदी पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। बिना बुलाए पाकिस्तान जाकर नवाज के गले पड़ने का मामला हो या फिर ओबामा से लेकर मार्केल तक के साथ शिष्टाचार भेंट के दौरान घटी तमाम अटपटी घटनाएं। पीएम की हर राष्ट्राध्यक्ष के साथ मुलाकात एक नई कहानी लेकर सामने आयी है। जिसमें गर्व की जगह शर्मिंदगी के क्षण ज्यादा थे। लेकिन आज उसी पीएम को सामने से किया गया उसी तरह का व्यवहार नागवार गुजरा। और अब उनकी पार्टी विशेषाधिकार हनन से लेकर न जाने क्या-क्या प्रस्ताव लाने की धमकी दे रही है।
सबसे अजीबोगरीब रवैया तो सदन की स्पीकर का रहा। वैसे तो उन्हें निष्पक्ष रहना चाहिए लेकिन सच्चाई ये है कि सत्ता पक्ष के साथ अपनी नजदीकी प्रदर्शित करने का वो कोई भी मौका नहीं छोड़ती हैं। और राहुल गांधी की इस पहल को ही सदन की कार्यवाही का उल्लंघन करार दे बैंठी। सदन में त-तू-मैं-मैं, मारपीट, पोर्न फिल्में देखना सब कुछ जायज है लेकिन उनके ‘नियम’ के मुताबिक किसी का किसी के प्रति सद्भावना प्रेम का प्रदर्शन भी गलत है। हालांकि इस घटनाक्रम के बाद राहुल गांधी का आंखें दबाने का दृश्य बिल्कुल बेतुका था। लेकिन ये शायद गांधी की प्रतिक्रिया का स्वाभाविक तरीका था जिससे संबंधित पहले भी कई मौकों पर उनकी इस तरह की तस्वीरें आ चुकी हैं। और ये मोदी के मिलने से ज्यादा अपने भाषण पर अपने सहयोगी ज्योतिरादित्य सिंधिया की प्रतिक्रिया के जवाब में था।
लेकिन अविश्वास प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री का जवाब न तो उनकी गरिमा के अनुकूल था और न ही हमेशा की तरह उन्होंने उसका ख्याल रखना जरूरी समझा। इस बात में कोई शक नहीं कि भाषण में कला थी लेकिन उसमें कटेंट गायब था। और ऊपर से पूरे भाषण में नाटक का पक्ष हावी हो गया था। जिस पीएम पद की गरिमा की बात की जा रही है सवाल ये है कि खुद पीएम उसके प्रति कितने सचेत हैं। शायद ही कोई ऐसा मौका होता हो जिसमें मोदी अपने व्यवहार और बातचीत से उस पद को एक इंच नीचे ले जाने का काम नहीं करते हों। यहां भी यही हुआ। अगर राहुल गांधी का आपके साथ व्यवहार संसदीय परंपरा और उसकी मान्यताओं के अनुकूल नहीं था। तो फिर एक पीएम का नाटकीय ढंग से चीजों को पेश करना किस संसदीय परंपरा और आचरण के तहत आता है? अगर उन्होंने आंख मटकाई थी तो अपने हाथों से और आंखों के इशारे से आप क्या कर रहे थे? पीएम से सदन तो एक उच्चस्तरीय आचरण की अपेक्षा कर ही सकता है। और जिस अहंकार का आरोप पीएम राहुल पर लगा रहे थे और उनके पीएम बनने के दावे को उसके उदाहरण के तौर पर पेश कर रहे थे।
ठीक उसी समय आप विपक्ष से 2024 में फिर से अविश्वास प्रस्ताव लाने की बात कह कर उसी तरह के एक अहंकार का प्रदर्शन नहीं करते हैं? ये किस लोकतंत्र का हिस्सा है? गांधी परिवार को ठेकेदार बताने वाले पीएम क्या इसके जरिये खुद को पूरी जनता के ठेकेदार नहीं साबित कर रहे थे? इतना ही नहीं इससे भी दो कदम आगे बढ़कर सारी योजनाओं की समाप्ति 2019 की जगह 2022 बताकर क्या पूरे भारतीय लोकतंत्र और उसकी जनता को आप ठेंगे पर नहीं रख रहे थे। आप की जवाबदेही 2019 तक बनती है उससे आगे किसी भी तरह से सत्ता पर अपना अधिकार जताना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ जाता है। वो न सिर्फ अहंकार की श्रेणी में आता है बल्कि एक अहमकानी सोच को भी प्रदर्शित करता है।
पीएम की पूरी कोशिश थी कि उनकी नाटकीय मुद्राओं को ही विपक्ष अपने सवालों का जवाब समझ ले। अगर उन्होंने कुछ सवालों के जवाब देने की कोशिश भी की तो उसमें जवाब कम सवाल ज्यादा थे। सत्ता पक्ष का काम जवाब देना होता है सवाल खड़े करना नहीं। राफेल पर सरकार ने भले ही फ्रांस से बयान जारी करवा दिया हो। लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति का इंडिया टूडे को दिया गया बयान देश के सामने है। जिसमें उन्होंने खुलकर कहा है कि सौदे के कुछ मामलों का खुलासा किया जा सकता है। दरअसल वो क्लासीफाइड चीजों की बात की गयी है जिसमें उसकी तकनीक और दूसरे गोपनीय पक्ष आते हैं। न कि फाइटर प्लेन का दाम और उसमें आया खर्चा शामिल है। और वैसे भी ये गोपनीय समझौता 2008 में हुआ था जो 10 साल बाद खत्म हो गया। लेकिन सरकार अपनी इस गोपनीयता की आड़ में किसी बड़े भ्रष्टाचार को छुपाना चाह रही है।
और जिस सुरक्षा के नाम पर सरकार विपक्ष पर हमले बोल रही है उसे ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि विपक्ष ने बोफोर्स पर कई सरकारें गिरायी और बनाई हैं। और आज भी खुद मोदी की सरकार उसको फिर से कोर्ट में ले जाने की कोशिश कर रही है। डोकलाम पर जवाब की जगह राहुल से सवाल थे। और फिर जब रोजगार की बारी आयी तो पीएम ने हद ही कर दी। बस पकौड़ा बनाने वालों और पार्टी द्वारा गाली देने के लिए खड़ी की गयी अपनी ट्रौल आर्मी की संख्या गिनाना बाकी रह गया था। और फिर इस तरह से नाटकीय मुद्राओं से शुरू हुआ पीएम का भाषण जुमलों पर समाप्त हुआ।
बीजेपी उनके समर्थक और ट्रौल आर्मी चाहे जो भ्रम फैलाए लेकिन सच यही है कि अविश्वास प्रस्ताव के बाद राहुल बनाम मोदी का ही डिसकोर्स चल रहा है। ये पहली बार है जब सत्ता पक्ष उन्हें दरकिनार नहीं कर पाया। ये विपक्ष के नेता के तौर पर राहुल गांधी की एक बड़ी कामयाबी है। एक बात पर और गौर करना चाहिए कि आजमगढ़ से लेकर कोलकाता तक अपनी नई रैलियों में मोदी सांप्रदायिक मुद्दे को पूरी मजबूती के साथ उठा रहे हैं। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा था कि अविश्वास प्रस्ताव के इस मौके को भी मोदी अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन ऐसा उनको करने की हिम्मत नहीं पड़ी या फिर उसकी कोई दूसरी वजह है। कह पाना मुश्किल है। जो भी हो ये जनता की एक बड़ी जीत है।
इसलिए कहा जा सकता है कि विपक्ष ने 2019 के लिए अपना एजेंडा साफ कर दिया है। लेकिन सत्ता पक्ष अभी भी भ्रम का शिकार है।
साभारः जनचौक
इस पूरी कवायद में मोदी की मंशा विपक्ष को बौना साबित कर खुद को महामानव के तौर पर पेश करने की थी। मोदी के उस खांचे में विपक्ष का कोई नेता कहीं दूर-दूर तक नहीं टिकता था। और आखिर में वो खुद संसद के ऊपर बैठ जाना चाहते थे। जैसा कि गुजरात सरकार में रहते उन्होंने विपक्ष और असेंबली के साथ किया था। लिहाजा इस अविश्वास प्रस्ताव को उनके इन कुंठित मंसूबों को तहस-नहस करने का श्रेय तो जाता ही है।
अविश्वास प्रस्ताव महज संख्या बल का मामला नहीं होता है। अगर किसी सरकार के पास प्रचंड बहुमत है लेकिन वो जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती है तो ये विपक्ष की जिम्मेदारी बनती है कि उसे उसकी गलती याद दिलाए। इस बात में कोई शक नहीं कि सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया है। उसने जितने वादे किए थे उस पर वो खरी नहीं उतरी। और गिनाने के लिए जुमलों से ज्यादा उसके पास कुछ नहीं है। किसी बड़ी उपलब्धि की बात छोड़िए इस सरकार ने नागरिकों की सुरक्षा के बुनियादी कर्तव्य को भी पूरा नहीं किया है। जिसके लिए राज्य का गठन हुआ है। राज्य के अस्तित्व में आने की पहली शर्त ही यही है कि वो नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करेगा। लेकिन सरकार इस मोर्चे पर ही बुरी तरह से नाकाम हो गयी है।
राह चलते लिंचिंग की घटनाएं बताती हैं कि देश एक बार फिर पिछली सदी की किसी कबीलाई व्यवस्था में चला गया है। जिसमें राज्य जैसी किसी संस्था का कोई अस्तित्व नहीं था और उसमें चीजें बुद्धि और विवेक की जगह ताकत के बल पर तय होती थीं। ऐसे में जनता का कल्याण तो बहुत दूर की बात है। अभी तो नागरिकों के सामने अपनी जान-माल के खतरे का संकट पैदा हो गया है। ऐसे में जनता के बीच अपना इकबाल खो चुकी इस सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का ये बेहद मौजूं वक्त था।
अविश्वास प्रस्ताव में बहस के दौरान इस बात में कोई शक नहीं है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जनता के मुद्दों पर अपने तीखे हमलों और सुसंगत भाषण के जरिये से मोदी सरकार की जमकर घेरेबंदी की। जो किसी भी विपक्षी नेता का काम होता है। उन्होंने राफेल से लेकर डोकलाम और लिंचिंग से लेकर महंगाई तक के सवाल उठाए। ट्रेजरी बेंच की प्रतिक्रिया बताती है कि तीर सही निशाने पर लगा। और पहली बार सत्ता पक्ष परेशान दिखा। भाषण के बाद राहुल गांधी का मोदी से मिलने जाना कोई जरूरी नहीं था। और अपने भाषण में खुद को हिंदू बताना और मोदी को हिंदू सम्राट घोषित करना किसी लिहाज से सही नहीं था। एक सेकुलर निजाम में सदन के भीतर नेताओं की इस तरह की बातचीत ही आपत्तिजनक है। बावजूद इसके अगर राहुल मोदी के पास गए भी तो पीएम मोदी से भी एक बड़प्पन की उम्मीद की जाती है। आप सदन के नेता हैं और अगर आप से कोई मिलने गया है तो सामान्य शिष्टाचार यही कहता है कि आप भी उसी तरह से उसके साथ पेश आइये। लेकिन यहां तो व्यक्तित्व का बौनापन पूरी सोच पर हावी है। जो उस शख्स को अपने निजी और तुच्छ राजनीतिक हितों के दायरे से बाहर सोचने ही नहीं देती है।
नतीजतन राहुल के इशारे के बावजूद पीएम अपनी कुर्सी से उठकर उनसे मिलना जरूरी नहीं समझे। ऐसे में राहुल का उनके गले पड़ने का दृश्य सामने आया। जिसके लिए पीएम मोदी पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। बिना बुलाए पाकिस्तान जाकर नवाज के गले पड़ने का मामला हो या फिर ओबामा से लेकर मार्केल तक के साथ शिष्टाचार भेंट के दौरान घटी तमाम अटपटी घटनाएं। पीएम की हर राष्ट्राध्यक्ष के साथ मुलाकात एक नई कहानी लेकर सामने आयी है। जिसमें गर्व की जगह शर्मिंदगी के क्षण ज्यादा थे। लेकिन आज उसी पीएम को सामने से किया गया उसी तरह का व्यवहार नागवार गुजरा। और अब उनकी पार्टी विशेषाधिकार हनन से लेकर न जाने क्या-क्या प्रस्ताव लाने की धमकी दे रही है।
सबसे अजीबोगरीब रवैया तो सदन की स्पीकर का रहा। वैसे तो उन्हें निष्पक्ष रहना चाहिए लेकिन सच्चाई ये है कि सत्ता पक्ष के साथ अपनी नजदीकी प्रदर्शित करने का वो कोई भी मौका नहीं छोड़ती हैं। और राहुल गांधी की इस पहल को ही सदन की कार्यवाही का उल्लंघन करार दे बैंठी। सदन में त-तू-मैं-मैं, मारपीट, पोर्न फिल्में देखना सब कुछ जायज है लेकिन उनके ‘नियम’ के मुताबिक किसी का किसी के प्रति सद्भावना प्रेम का प्रदर्शन भी गलत है। हालांकि इस घटनाक्रम के बाद राहुल गांधी का आंखें दबाने का दृश्य बिल्कुल बेतुका था। लेकिन ये शायद गांधी की प्रतिक्रिया का स्वाभाविक तरीका था जिससे संबंधित पहले भी कई मौकों पर उनकी इस तरह की तस्वीरें आ चुकी हैं। और ये मोदी के मिलने से ज्यादा अपने भाषण पर अपने सहयोगी ज्योतिरादित्य सिंधिया की प्रतिक्रिया के जवाब में था।
लेकिन अविश्वास प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री का जवाब न तो उनकी गरिमा के अनुकूल था और न ही हमेशा की तरह उन्होंने उसका ख्याल रखना जरूरी समझा। इस बात में कोई शक नहीं कि भाषण में कला थी लेकिन उसमें कटेंट गायब था। और ऊपर से पूरे भाषण में नाटक का पक्ष हावी हो गया था। जिस पीएम पद की गरिमा की बात की जा रही है सवाल ये है कि खुद पीएम उसके प्रति कितने सचेत हैं। शायद ही कोई ऐसा मौका होता हो जिसमें मोदी अपने व्यवहार और बातचीत से उस पद को एक इंच नीचे ले जाने का काम नहीं करते हों। यहां भी यही हुआ। अगर राहुल गांधी का आपके साथ व्यवहार संसदीय परंपरा और उसकी मान्यताओं के अनुकूल नहीं था। तो फिर एक पीएम का नाटकीय ढंग से चीजों को पेश करना किस संसदीय परंपरा और आचरण के तहत आता है? अगर उन्होंने आंख मटकाई थी तो अपने हाथों से और आंखों के इशारे से आप क्या कर रहे थे? पीएम से सदन तो एक उच्चस्तरीय आचरण की अपेक्षा कर ही सकता है। और जिस अहंकार का आरोप पीएम राहुल पर लगा रहे थे और उनके पीएम बनने के दावे को उसके उदाहरण के तौर पर पेश कर रहे थे।
ठीक उसी समय आप विपक्ष से 2024 में फिर से अविश्वास प्रस्ताव लाने की बात कह कर उसी तरह के एक अहंकार का प्रदर्शन नहीं करते हैं? ये किस लोकतंत्र का हिस्सा है? गांधी परिवार को ठेकेदार बताने वाले पीएम क्या इसके जरिये खुद को पूरी जनता के ठेकेदार नहीं साबित कर रहे थे? इतना ही नहीं इससे भी दो कदम आगे बढ़कर सारी योजनाओं की समाप्ति 2019 की जगह 2022 बताकर क्या पूरे भारतीय लोकतंत्र और उसकी जनता को आप ठेंगे पर नहीं रख रहे थे। आप की जवाबदेही 2019 तक बनती है उससे आगे किसी भी तरह से सत्ता पर अपना अधिकार जताना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ जाता है। वो न सिर्फ अहंकार की श्रेणी में आता है बल्कि एक अहमकानी सोच को भी प्रदर्शित करता है।
पीएम की पूरी कोशिश थी कि उनकी नाटकीय मुद्राओं को ही विपक्ष अपने सवालों का जवाब समझ ले। अगर उन्होंने कुछ सवालों के जवाब देने की कोशिश भी की तो उसमें जवाब कम सवाल ज्यादा थे। सत्ता पक्ष का काम जवाब देना होता है सवाल खड़े करना नहीं। राफेल पर सरकार ने भले ही फ्रांस से बयान जारी करवा दिया हो। लेकिन फ्रांस के राष्ट्रपति का इंडिया टूडे को दिया गया बयान देश के सामने है। जिसमें उन्होंने खुलकर कहा है कि सौदे के कुछ मामलों का खुलासा किया जा सकता है। दरअसल वो क्लासीफाइड चीजों की बात की गयी है जिसमें उसकी तकनीक और दूसरे गोपनीय पक्ष आते हैं। न कि फाइटर प्लेन का दाम और उसमें आया खर्चा शामिल है। और वैसे भी ये गोपनीय समझौता 2008 में हुआ था जो 10 साल बाद खत्म हो गया। लेकिन सरकार अपनी इस गोपनीयता की आड़ में किसी बड़े भ्रष्टाचार को छुपाना चाह रही है।
और जिस सुरक्षा के नाम पर सरकार विपक्ष पर हमले बोल रही है उसे ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि विपक्ष ने बोफोर्स पर कई सरकारें गिरायी और बनाई हैं। और आज भी खुद मोदी की सरकार उसको फिर से कोर्ट में ले जाने की कोशिश कर रही है। डोकलाम पर जवाब की जगह राहुल से सवाल थे। और फिर जब रोजगार की बारी आयी तो पीएम ने हद ही कर दी। बस पकौड़ा बनाने वालों और पार्टी द्वारा गाली देने के लिए खड़ी की गयी अपनी ट्रौल आर्मी की संख्या गिनाना बाकी रह गया था। और फिर इस तरह से नाटकीय मुद्राओं से शुरू हुआ पीएम का भाषण जुमलों पर समाप्त हुआ।
बीजेपी उनके समर्थक और ट्रौल आर्मी चाहे जो भ्रम फैलाए लेकिन सच यही है कि अविश्वास प्रस्ताव के बाद राहुल बनाम मोदी का ही डिसकोर्स चल रहा है। ये पहली बार है जब सत्ता पक्ष उन्हें दरकिनार नहीं कर पाया। ये विपक्ष के नेता के तौर पर राहुल गांधी की एक बड़ी कामयाबी है। एक बात पर और गौर करना चाहिए कि आजमगढ़ से लेकर कोलकाता तक अपनी नई रैलियों में मोदी सांप्रदायिक मुद्दे को पूरी मजबूती के साथ उठा रहे हैं। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा था कि अविश्वास प्रस्ताव के इस मौके को भी मोदी अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन ऐसा उनको करने की हिम्मत नहीं पड़ी या फिर उसकी कोई दूसरी वजह है। कह पाना मुश्किल है। जो भी हो ये जनता की एक बड़ी जीत है।
इसलिए कहा जा सकता है कि विपक्ष ने 2019 के लिए अपना एजेंडा साफ कर दिया है। लेकिन सत्ता पक्ष अभी भी भ्रम का शिकार है।
साभारः जनचौक