सरदार पटेल भी 'फेक न्यूज़' से जूझ रहे थे

Written by Ravish Kumar | Published on: March 5, 2020
सरदार पटेल भी फेक न्यूज़ से जूझ रहे थे । उन्होंने एक ऐसे ही फेक न्यूज़ का पर्दाफ़ाश किया था।। इस लेख में उर्विश कोठारी ने दिल्ली से सटे मेवात में हुए दंगे के बारे में लिखा है। मेव मुसलमानों को सरकार पाँच लाख देगी। ऐसा कह कर किसी अख़बार में छाप दिया था। इसका खंडन सरदार पटेल ने किया था।



जिस हिंसा के संदर्भ में उर्विश ने लिखा है उसके आगे की कहानी कुछ बताना चाहता हूँ।

मेवात में तीस हज़ार मेव मुसलमानों को मारा गया था। इस घटना के बारे में इतिहासकार यास्मिन खान ने लिखा है कि पास की दो रियासतों के पास अपनी छोटी सी टुकड़ी थी। भरतपुर और अलवर रियासत। दोनों ने अपनी टुकड़ी खोल दिए और हर तरफ़ से घेर कर ग़रीब मेवों को मारा गया था। तीस हज़ार हत्या मामूली नहीं होती। एक राजकुमार तो जीप से निकलते थे और ग़रीब लोगों को दौड़ा कर मारते थे। गर्व से बताते थे।

अपनी किताब में यास्मिन खान ने लिखा है कि जैसे ही एलान हुआ कि भारत आज़ाद होगा, उस वक्त ब्रिटिश प्रशासन अपना बोरिया बिस्तर बांधने में लग गया। गोरों की सेना जाने लगी। ब्रिटिश कलेक्टरों ने हिंसा रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। नए भारत और नए पाकिस्तान के पास अपनी सेना और पुलिस नहीं थी। ब्रिटिश सेना और पुलिस का बचा हुआ हिस्सा ही मिला था। ऐसे हालात में विभाजन हुआ था। क़ानून व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए पुलिस कम पड़ गई थी। सरदार पटेल को बहुत दिक़्क़तें आ रही थीं।

इसका लाभ दंगाइयों को मिला। हिंसा करने में और अफ़वाह फैलाने में। उस दौरान दोनों तरफ़ के प्रेस का चरित्र हिन्दू प्रेस और मुस्लिम प्रेस का हो गया था। दोनों दूसरे संप्रदाय के बारे में ख़ूब अफ़वाहें फैलाते थे। हालत यह होती थी कि जो घटना कभी घटी नहीं होती थी अफ़वाह के कारण उस जैसी घटना कहीं और हो जाती थी। लोग मारे जाते थे।

हमें याद रखना चाहिए कि 1947 में बीस लाख लोग मारे गए थे। हिन्दू मुसलमान और सिख। तीनों समुदायों के कई हज़ार लोगों की हत्या हुई थी। हज़ारों औरतों का बलात्कार हुआ था। दिल्ली से लेकर पंजाब तक में लाशें बिछ गई थीं।

याद रखना चाहिए कि झूठ और अफ़वाह के दम पर बीस लाख हिन्दू मुसलमान और सिख मारे गए। मारने वाले भी इन्हीं समाज के लोग थे। वे हत्यारे नहीं थे। लेकिन अफ़वाहों ने उन्हें हत्यारा और लुटेरा बना दिया।

अगर नए भारत और नए पाकिस्तान के पास कानून व्यवस्था लागू करने के लिए तंत्र होता तो शायद इतनी बुरी स्थिति नहीं होती। लेकिन प्रेस ने आग में घी डालने का काम किया था।

सरदार पटेल हिन्दू अख़बार ही नहीं मुस्लिम अख़बार पर भी लगाम लगाना चाहते थे। उस वक्त के अख़बारों का चरित्र सांप्रदायिक हो गया था।

1947 के प्रेस और 2020 के प्रेस में कोई अंतर नहीं है।

सोशल मीडिया पर हिंसा और झूठ फैलाने वाले कुछ लोगों को अपनी डीपी में सरदार पटेल का फ़ोटो लगाते देखा है। उन्हें ये रिपोर्ट पढ़नी चाहिए ।

इससे होता क्या है?
सांप्रदायिक हिंसा की स्मृतियाँ ग़लत तथ्यों के आधार पर बनने लगती हैं। एकतरफ़ा। ऐसी स्मृतियाँ पीढ़ियों यात्रा करती हैं। हिंसा की चोट का असर पीढ़ियों रहता है। दूसरी तरफ़ हिंसा करने वालों के बीच गर्व भाव की स्मृतियाँ बची रह जाती हैं। जो अलग अलग समय में अलग अलग दंगों के रूप में प्रकट होती हैं। यह चक्र चलता ही रहता है। किसी दंगे से कोई सबक़ नहीं लिया जाता है। भारत में आज तक नहीं लिया जा सका।

 

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