मीडिया हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं का एक अग्रणी चेहरा है। इन पांच सालों में गोदी मीडिया बनने की प्रक्रिया तेज़ ही हुई है, कम नहीं हुई। एक मालिक के हाथों में पचासों चैनल आ गए हैं और पुराने मालिकों पर दबाव डालकर उनके सारे चैनलों के सुर बदल दिए गए हैं। राजनीति और कारोबारी पैसे के घाल-मेल से रातों-रात चैनल खड़े किए जा रहे हैं। अगर सारे चैनल या 90 फीसदी चैनल एक ही मालिक के हो गए और वह किसी सरकार से झुक गया तब क्या होगा। इसलिए ज़रूरी ह है कि विपक्ष से भी सवाल पूछा जाए कि मीडिया को लेकर उसने क्या सोचा है। षनलों के मालिकाना हक के बारे में कोई स्पष्टता नहीं है।
चैनलों में ऐसे राजनीतिक संपादक और एंकर पैदा किए गए हैं जो पूरी निर्लज्जता के साथ सरकार की वकालत कर रहे हैं। उन्हें सरकार की नीतियों में कमी नज़र नहीं आती। सवाल तो भूल जाइये। वे प्रधानमंत्री के बयानों और नीतियों का स्वागत करने की जल्दी में रहते हैं। कई चैनलों में यही मुख्य चेहरा और आवाज़ हैं। कुछ जगहों पर इन्हें वैकल्पिक आवाज़ और चेहरे के रूप में मान्यता दी गई है। कुछ चालाक चैनलों ने इस विविधता को लेकर विज्ञापन भी बना दिया है मगर यह विविधता नहीं है। बल्कि विविधता के नाम पर व्यापक रूप से प्रोपेगैंडा की एकरूपता को ही कायम करना है।
विपक्ष को गोदी मीडिया की समझ नहीं है। उसे लगता है कि इस मंच का वह भी इस्तमाल कर सकता है । संतुलन के नाम पर विपक्ष को प्रोपेगैंडा के मंच पर बिठाया जाता है। सवाल, तेवर, तर्क और तथ्य सब बीजेपी के होते हैं। एंकर विपक्ष से पूछते वक्त आक्रामक हो जाता है मगर सरकार से पूछते वक्त मिमियाने लगता है। मीडिया के कारख़ाने में विपक्ष की ख़बरों को प्रोसेस किया जाता है। सरकार के प्रोपेगैंडा को ख़बर बनाने के लिए सूत्र लगा दिया जाता है। यह पहले भी होता था मगर चैनलों के बीच की घोर प्रतिस्पर्धा के कारण भांडा फूट जाता था। अब यह प्रतिस्पर्धा समाप्त है। अलग-अलग चैनलों पर एक ही प्रोपेगैंडा है। विपक्ष के सही सवाल भी प्रमुखता नहीं पा सकते हैं।
डिबेट के समय स्क्रीन पर फ्लैश की जो पट्टिआं चलती हैं उनकी भाषा प्रोपेगैंडा की होती है। आप उन्हीं पट्टियों को देख रहे होते हैं। उनमें न तथ्य होते हैं और न ही सवाल। एंकर या रिपोर्टर अपनी तरफ से रिसर्च कर बीजेपी के सवालों के समक्ष तथ्य नहीं रखते हैं। वर्ना प्रोपेगैंडा मास्टर संपादक को ही चैनल से बाहर करवा देगा। आप खुद बताएं कि पिछले चार महीने में विपक्ष के उठाए हुए सवाल पर कितनी बहसों में आपके नेता या प्रवक्ता गए हैं।
सारा संसाधान प्रधानमंत्री की दिन की चार चार रैलियों में लगा दिया जाता है। प्रधानमंत्री के महत्व के नाम पर किया जाता है। जबकि आचार संहिता लागू होने के बाद सब बराबर हो जाने चाहिए।
कई चैनलों मं स्ट्रिंगरों को यहां तक निर्देश दिए जाते हैं कि विपक्ष का नेता मतदान भी करे तो ऐसे सामान्य फुटेज नहीं दिखाने हैं। न्यूज़ रूमों में जिस न्यूज़ एजेंसी के ज़रिए जो वीडियो फुटेज पहुंचता है, उसमें विपक्ष की रैलियों का हिस्सा कम होता है। विपक्ष के नेताओं के भाषण या तो नहीं होते हैं या बहुत कम होते हैं। चैनल चाहें तो उस न्यूज़ एजेंसी का फीड अपने मुख्यालय में किराये पर ले लें। उन्हें पता चलेगा कि केवल और केवल बीजेपी की रैलियों के फुटेज न्यूज़ रूप में आते हैं। चार दिनों की रैली निकालिए। मोदी और राहुल की। आप खुद देख लेंगे कि केवल प्रधानमंत्री की रैली को प्रमुखता मिलती है। उन्हें करीब करीब पूरा दिखाया जाता है।
कई जगहों पर पत्रकारों के ट्वीट और सोशल मीडिया पर पोस्ट की मानिटरिंग हो रही है। आपत्ति दर्ज कराई जा रही है क्यों सरकार के बारे में पोस्ट किया था। पत्रकारों से कहा जा रहा है कि आप सभी दलों के बारे में ट्वीट करें। मतलब साफ है, सरकार से सवाल करने वाले ट्वीट न करें।
एंकर स्टुडियों की बहसों में भारत माता की जय के नारे लगा रहे हैं और लगवा रहे हैं। भारत माता की जय का नारा राजनीतिक नारे के विकल्प के रूप में लगाया जा रहा है। कोई बीजेपी ज़िंदाबाद बोले तो यह बिल्कुल ठीक है। मगर तब दर्शक समझ जाएंगे कि स्टुडियो में केवल बीजेपी के समर्थक भरे हैं। भारत माता की जय के नारे लगाएंगे तो लगेगा कि आम लोग बैठे हैं और यह उनकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। इस तरह की कई चालाकियां रोज़ की जा रही हैं।
मीडिया में अब ज़मीन की रिपोर्ट नहीं दिखती है। सब कुछ सर्वे के नंबर में बदल गया है।फसल बीमा योजना में किसान कैसे लुटे हैं और बिना डाक्टर और अस्पताल के आयुष्मान योजना कैसे इलाज हो रहा है इसे अब ज़मीन से की गई रिपोर्ट के आधार पर बताने की प्रक्रिया मिटा दी गई है। इन बातों को चर्चाओं में कामयाब बता कर सर्वे के नंबरों से पुष्टि कराई जाती है। ये एंकर नहीं हैं। मोदी के ठठेरे हैं जो उनके दिए गए सांचे में दर्शकों को ढाल रहे हैं। हिन्दी वर्णमाला की किताब में आपने ठ से ठठेरा पढ़ा होगा।
बेरोज़ागों के चेहरे चैनलों से ग़ायब हैं। बेरोज़गारी के सवाल को अब नए शब्द जॉब से बदल दिया गया है। जॉब की बात को सर्वे के डेटा में बदल दिया गया है। स्वास्थ्य से लेकर किसानों के सवाल गायब हैं। हर तरफ वाह-वाही के बयान और बाइट खोजने के आदेश दिए गए हैं। आलोचना आती है तो उसे मोदी विरोधी बोलकर किनारे कर दिया जाता है। तारीफ के दस बाइट लगा दें कोई दिक्कत नहीं। जैसे ही आलोचना आती है संतुलन के लिए तारीफ की बाइट खोजी जाने लगती है।
आपने चुनाव के समय जगह-जगह डिबेट के कार्यक्रम देखे होंगे। मेरठ से लाइव तो शोलापुर से लाइव। इन बहसों पर बीजेपी और संघ का कब्ज़ा हो गया है। पूरी तरह से उनके ही मुद्दों और उनके लोगों के बीच ये डिबेट होते हैं। किसी शहर में रानी सर्कस की तरह डिबेट आता है तो वहां इनके लोग पहुंच कर जगह भर देते हैं। चैनलों का भीड़ पर कोई नियंत्रण नहीं होता, हो भी नहीं सकता है। एंकर कोई रिसर्च कर नहीं जाता। सवाल पूछने की जगह आपके प्रवक्ता से उसे भिड़ा देता है और बाकी सब हंगामे के शोर में खो जाता है। आपने देखा होगा कि मुज़फ्फरनगर में एक टीवी डिबेट के दौरान 12 वीं के छात्र की आलोचना करने पर पिटाई कर दी गई। यही हाल ग्राउंड रिपोर्टिंग की हो गई है। आम लोगों से सवाल पूछना मुश्किल हो गया है। पब्लिक स्पेस में सवालों की निगरानी हो रही है।
इसलिए मैं जानना चाहता हूं कि इन चुनावों के दौरान और चुनावों के बाद में मीडिया को लेकर विपक्ष की क्या रणनीति और नीति है?
मालिकाना हक से लेकर विज्ञापन की नीतियों तक उसने मीडिया के बारे में क्या सोचा है जिससे लगे कि जहां उसकी सरकार है और अगर दिल्ली में बनी तो विपक्ष की तरफ से मीडिया को नियंत्रित करने का काम नहीं किया जाएगा। इस मामले में विपक्ष का रिकार्ड पाक-साफ है। इसलिए अगर विपक्ष अब से सुधरना चाहता है तो मैं जानना चाहूंगा कि मीडिया को लेकर विपक्ष की क्या नीतियां हैं। पार्टी के हिसाब से और गठबंधन के हिसाब से भी।
जनता के पैसे से किए जाने वाले विज्ञापन की नीतियों में पारदर्शिता ज़रूरी है। उसका हर महीने प्रदर्शन होना चाहिए कि किस चैनल और अखबार को कितने करोड़ या लाख का विज्ञापन मिला है। जनता को यह जानने का हक होना चाहिए। हमें नहीं मालूम कि पांच हज़ार करोड़ से अधिक का पैसा किन चैनलों और अखबारों के पास सबसे अधिक गया है और किनके पास नहीं गया है। दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उन अखबारों में भी विज्ञापन दिए हैं जो सांप्रदायिकता और प्रोपेगैंडा फैलाते हैं। आज जिन मुद्दों से लड़ रहे हैं उसमें जनता के पैसे से कैसे खाद-पानी डाल सकते हैं। इसलिए यह जानना ज़रूरी है कि विज्ञापन की सरकारी नीतियों का क्या पैमान है और क्या होगा?
आप सभी जानते हैं कि मैंने चुनावों के दौरान ढाई महीने न्यूज़ चैनल नहीं देखने की अपील की है। मैं यह नहीं कह रहा कि आप मुझे सपोर्ट करें। वैसे बीजेपी ने 2016 से मेरे शो का बहिष्कार किया है। दुनिया की इतनी बड़ी पार्टी के प्रवक्ता और नेता मेरा सामने करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। यह पांच साल मेरे जीवन का गौरव का साल है। भारत का सबसे ताकतवर नेता मेरे शो में अपने प्रवक्ताओं को भेजने का साहस नहीं जुटा सका। विपक्ष के नेताओं ने भी अलग-अलग समय पर अलग-अलग चैनलों का बहिष्कार किया है। इसलिए बहिष्कार अब सामान्य है। आपको डिबेट शो का बहिष्कार कर देना चाहिए और प्रवक्ता से कहना चाहिए दिन में बीस छोटी छोटी सभाएं करें।
गोदी मीडिया के बारे में अपनी हर सभा में बताएं। अपने प्रचार पोस्टरों में उसके बारे में लिखें। लोगों को जागरूक करें। बगैर गोदी मीडिया से लड़े आफ लोकतंत्र की कोई लड़ाई नहीं लड़ सकते। औऱ आप गोदी मीडिया से नहीं लड़ सकते तो घंटा आप से कुछ न होगा। जनता को बताएं कि विपक्ष का मतलब आप नेता नहीं बल्कि वह भी है। आप भी बेहतर विपक्ष बनने का प्रयास करें। जनता यह भी चाहती है।
आपको तय करना है कि गोदी मीडिया की बहसों में जाकर उसके प्रोपेगैंडा का मान्यता देनी है या नहीं। मेरे हिसाब से तो आपको इन बहसों में नहीं जाना चाहिए। अगर ऐसा कोई फैसला करें तो किसी भी चैनल पर न जाएं। सौ प्रतिशत बहिष्कार करें। ऐसा करने से चैनलों से बहस का स्पेस कम होगा और ग्राउंड रिपोर्टिंग का स्पेस बढ़ेगा। आपके इतना भर कर देने से लोकतंत्र और जनता का भला हो जाएगा क्योंकि तब उसकी आवाज़ को जगह मिलने लगेगी।
चुनावों के दौरान या तो चुनाव आयोग बनाए या फिर विपक्ष की तरह से मीडिया रिसर्स सेंटर बने जो हर भाषा के अख़बारों और कई सौ चैनलों को मानिटर करे। उसकी रिपोर्ट हर दिन प्रकाशित करे। चुनाव आयोग को बाध्य करे कि इस रिपोर्ट को उन्हीं अखबारों और चैनलों से प्रसारित करवाया जाए। अपनी सभाओं और पोस्टरों के विज्ञापन में शामिल कीजिए। बताइये कि मीडिया ने बीजेपी को कितनी जगह दी है और विपक्ष को कितनी जगह दी है। खासकर हिन्दी के अखबारों और चैनलों को लेकर जनता को सावधान करना बहुत ज़रूरी है।
आपका फैसला साफ करेगा कि आप लोकतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त करने के अपने पुराने पापों से मुक्त होने, मौजूदा दौर के पापों को मिटाने के लिए कितने ईमानदार हैं। इससे यह भी साबित होगा कि लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए आपमें लड़ने का नैतिक बल है या नहीं ।
चैनलों में ऐसे राजनीतिक संपादक और एंकर पैदा किए गए हैं जो पूरी निर्लज्जता के साथ सरकार की वकालत कर रहे हैं। उन्हें सरकार की नीतियों में कमी नज़र नहीं आती। सवाल तो भूल जाइये। वे प्रधानमंत्री के बयानों और नीतियों का स्वागत करने की जल्दी में रहते हैं। कई चैनलों में यही मुख्य चेहरा और आवाज़ हैं। कुछ जगहों पर इन्हें वैकल्पिक आवाज़ और चेहरे के रूप में मान्यता दी गई है। कुछ चालाक चैनलों ने इस विविधता को लेकर विज्ञापन भी बना दिया है मगर यह विविधता नहीं है। बल्कि विविधता के नाम पर व्यापक रूप से प्रोपेगैंडा की एकरूपता को ही कायम करना है।
विपक्ष को गोदी मीडिया की समझ नहीं है। उसे लगता है कि इस मंच का वह भी इस्तमाल कर सकता है । संतुलन के नाम पर विपक्ष को प्रोपेगैंडा के मंच पर बिठाया जाता है। सवाल, तेवर, तर्क और तथ्य सब बीजेपी के होते हैं। एंकर विपक्ष से पूछते वक्त आक्रामक हो जाता है मगर सरकार से पूछते वक्त मिमियाने लगता है। मीडिया के कारख़ाने में विपक्ष की ख़बरों को प्रोसेस किया जाता है। सरकार के प्रोपेगैंडा को ख़बर बनाने के लिए सूत्र लगा दिया जाता है। यह पहले भी होता था मगर चैनलों के बीच की घोर प्रतिस्पर्धा के कारण भांडा फूट जाता था। अब यह प्रतिस्पर्धा समाप्त है। अलग-अलग चैनलों पर एक ही प्रोपेगैंडा है। विपक्ष के सही सवाल भी प्रमुखता नहीं पा सकते हैं।
डिबेट के समय स्क्रीन पर फ्लैश की जो पट्टिआं चलती हैं उनकी भाषा प्रोपेगैंडा की होती है। आप उन्हीं पट्टियों को देख रहे होते हैं। उनमें न तथ्य होते हैं और न ही सवाल। एंकर या रिपोर्टर अपनी तरफ से रिसर्च कर बीजेपी के सवालों के समक्ष तथ्य नहीं रखते हैं। वर्ना प्रोपेगैंडा मास्टर संपादक को ही चैनल से बाहर करवा देगा। आप खुद बताएं कि पिछले चार महीने में विपक्ष के उठाए हुए सवाल पर कितनी बहसों में आपके नेता या प्रवक्ता गए हैं।
सारा संसाधान प्रधानमंत्री की दिन की चार चार रैलियों में लगा दिया जाता है। प्रधानमंत्री के महत्व के नाम पर किया जाता है। जबकि आचार संहिता लागू होने के बाद सब बराबर हो जाने चाहिए।
कई चैनलों मं स्ट्रिंगरों को यहां तक निर्देश दिए जाते हैं कि विपक्ष का नेता मतदान भी करे तो ऐसे सामान्य फुटेज नहीं दिखाने हैं। न्यूज़ रूमों में जिस न्यूज़ एजेंसी के ज़रिए जो वीडियो फुटेज पहुंचता है, उसमें विपक्ष की रैलियों का हिस्सा कम होता है। विपक्ष के नेताओं के भाषण या तो नहीं होते हैं या बहुत कम होते हैं। चैनल चाहें तो उस न्यूज़ एजेंसी का फीड अपने मुख्यालय में किराये पर ले लें। उन्हें पता चलेगा कि केवल और केवल बीजेपी की रैलियों के फुटेज न्यूज़ रूप में आते हैं। चार दिनों की रैली निकालिए। मोदी और राहुल की। आप खुद देख लेंगे कि केवल प्रधानमंत्री की रैली को प्रमुखता मिलती है। उन्हें करीब करीब पूरा दिखाया जाता है।
कई जगहों पर पत्रकारों के ट्वीट और सोशल मीडिया पर पोस्ट की मानिटरिंग हो रही है। आपत्ति दर्ज कराई जा रही है क्यों सरकार के बारे में पोस्ट किया था। पत्रकारों से कहा जा रहा है कि आप सभी दलों के बारे में ट्वीट करें। मतलब साफ है, सरकार से सवाल करने वाले ट्वीट न करें।
एंकर स्टुडियों की बहसों में भारत माता की जय के नारे लगा रहे हैं और लगवा रहे हैं। भारत माता की जय का नारा राजनीतिक नारे के विकल्प के रूप में लगाया जा रहा है। कोई बीजेपी ज़िंदाबाद बोले तो यह बिल्कुल ठीक है। मगर तब दर्शक समझ जाएंगे कि स्टुडियो में केवल बीजेपी के समर्थक भरे हैं। भारत माता की जय के नारे लगाएंगे तो लगेगा कि आम लोग बैठे हैं और यह उनकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। इस तरह की कई चालाकियां रोज़ की जा रही हैं।
मीडिया में अब ज़मीन की रिपोर्ट नहीं दिखती है। सब कुछ सर्वे के नंबर में बदल गया है।फसल बीमा योजना में किसान कैसे लुटे हैं और बिना डाक्टर और अस्पताल के आयुष्मान योजना कैसे इलाज हो रहा है इसे अब ज़मीन से की गई रिपोर्ट के आधार पर बताने की प्रक्रिया मिटा दी गई है। इन बातों को चर्चाओं में कामयाब बता कर सर्वे के नंबरों से पुष्टि कराई जाती है। ये एंकर नहीं हैं। मोदी के ठठेरे हैं जो उनके दिए गए सांचे में दर्शकों को ढाल रहे हैं। हिन्दी वर्णमाला की किताब में आपने ठ से ठठेरा पढ़ा होगा।
बेरोज़ागों के चेहरे चैनलों से ग़ायब हैं। बेरोज़गारी के सवाल को अब नए शब्द जॉब से बदल दिया गया है। जॉब की बात को सर्वे के डेटा में बदल दिया गया है। स्वास्थ्य से लेकर किसानों के सवाल गायब हैं। हर तरफ वाह-वाही के बयान और बाइट खोजने के आदेश दिए गए हैं। आलोचना आती है तो उसे मोदी विरोधी बोलकर किनारे कर दिया जाता है। तारीफ के दस बाइट लगा दें कोई दिक्कत नहीं। जैसे ही आलोचना आती है संतुलन के लिए तारीफ की बाइट खोजी जाने लगती है।
आपने चुनाव के समय जगह-जगह डिबेट के कार्यक्रम देखे होंगे। मेरठ से लाइव तो शोलापुर से लाइव। इन बहसों पर बीजेपी और संघ का कब्ज़ा हो गया है। पूरी तरह से उनके ही मुद्दों और उनके लोगों के बीच ये डिबेट होते हैं। किसी शहर में रानी सर्कस की तरह डिबेट आता है तो वहां इनके लोग पहुंच कर जगह भर देते हैं। चैनलों का भीड़ पर कोई नियंत्रण नहीं होता, हो भी नहीं सकता है। एंकर कोई रिसर्च कर नहीं जाता। सवाल पूछने की जगह आपके प्रवक्ता से उसे भिड़ा देता है और बाकी सब हंगामे के शोर में खो जाता है। आपने देखा होगा कि मुज़फ्फरनगर में एक टीवी डिबेट के दौरान 12 वीं के छात्र की आलोचना करने पर पिटाई कर दी गई। यही हाल ग्राउंड रिपोर्टिंग की हो गई है। आम लोगों से सवाल पूछना मुश्किल हो गया है। पब्लिक स्पेस में सवालों की निगरानी हो रही है।
इसलिए मैं जानना चाहता हूं कि इन चुनावों के दौरान और चुनावों के बाद में मीडिया को लेकर विपक्ष की क्या रणनीति और नीति है?
मालिकाना हक से लेकर विज्ञापन की नीतियों तक उसने मीडिया के बारे में क्या सोचा है जिससे लगे कि जहां उसकी सरकार है और अगर दिल्ली में बनी तो विपक्ष की तरफ से मीडिया को नियंत्रित करने का काम नहीं किया जाएगा। इस मामले में विपक्ष का रिकार्ड पाक-साफ है। इसलिए अगर विपक्ष अब से सुधरना चाहता है तो मैं जानना चाहूंगा कि मीडिया को लेकर विपक्ष की क्या नीतियां हैं। पार्टी के हिसाब से और गठबंधन के हिसाब से भी।
जनता के पैसे से किए जाने वाले विज्ञापन की नीतियों में पारदर्शिता ज़रूरी है। उसका हर महीने प्रदर्शन होना चाहिए कि किस चैनल और अखबार को कितने करोड़ या लाख का विज्ञापन मिला है। जनता को यह जानने का हक होना चाहिए। हमें नहीं मालूम कि पांच हज़ार करोड़ से अधिक का पैसा किन चैनलों और अखबारों के पास सबसे अधिक गया है और किनके पास नहीं गया है। दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उन अखबारों में भी विज्ञापन दिए हैं जो सांप्रदायिकता और प्रोपेगैंडा फैलाते हैं। आज जिन मुद्दों से लड़ रहे हैं उसमें जनता के पैसे से कैसे खाद-पानी डाल सकते हैं। इसलिए यह जानना ज़रूरी है कि विज्ञापन की सरकारी नीतियों का क्या पैमान है और क्या होगा?
आप सभी जानते हैं कि मैंने चुनावों के दौरान ढाई महीने न्यूज़ चैनल नहीं देखने की अपील की है। मैं यह नहीं कह रहा कि आप मुझे सपोर्ट करें। वैसे बीजेपी ने 2016 से मेरे शो का बहिष्कार किया है। दुनिया की इतनी बड़ी पार्टी के प्रवक्ता और नेता मेरा सामने करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। यह पांच साल मेरे जीवन का गौरव का साल है। भारत का सबसे ताकतवर नेता मेरे शो में अपने प्रवक्ताओं को भेजने का साहस नहीं जुटा सका। विपक्ष के नेताओं ने भी अलग-अलग समय पर अलग-अलग चैनलों का बहिष्कार किया है। इसलिए बहिष्कार अब सामान्य है। आपको डिबेट शो का बहिष्कार कर देना चाहिए और प्रवक्ता से कहना चाहिए दिन में बीस छोटी छोटी सभाएं करें।
गोदी मीडिया के बारे में अपनी हर सभा में बताएं। अपने प्रचार पोस्टरों में उसके बारे में लिखें। लोगों को जागरूक करें। बगैर गोदी मीडिया से लड़े आफ लोकतंत्र की कोई लड़ाई नहीं लड़ सकते। औऱ आप गोदी मीडिया से नहीं लड़ सकते तो घंटा आप से कुछ न होगा। जनता को बताएं कि विपक्ष का मतलब आप नेता नहीं बल्कि वह भी है। आप भी बेहतर विपक्ष बनने का प्रयास करें। जनता यह भी चाहती है।
आपको तय करना है कि गोदी मीडिया की बहसों में जाकर उसके प्रोपेगैंडा का मान्यता देनी है या नहीं। मेरे हिसाब से तो आपको इन बहसों में नहीं जाना चाहिए। अगर ऐसा कोई फैसला करें तो किसी भी चैनल पर न जाएं। सौ प्रतिशत बहिष्कार करें। ऐसा करने से चैनलों से बहस का स्पेस कम होगा और ग्राउंड रिपोर्टिंग का स्पेस बढ़ेगा। आपके इतना भर कर देने से लोकतंत्र और जनता का भला हो जाएगा क्योंकि तब उसकी आवाज़ को जगह मिलने लगेगी।
चुनावों के दौरान या तो चुनाव आयोग बनाए या फिर विपक्ष की तरह से मीडिया रिसर्स सेंटर बने जो हर भाषा के अख़बारों और कई सौ चैनलों को मानिटर करे। उसकी रिपोर्ट हर दिन प्रकाशित करे। चुनाव आयोग को बाध्य करे कि इस रिपोर्ट को उन्हीं अखबारों और चैनलों से प्रसारित करवाया जाए। अपनी सभाओं और पोस्टरों के विज्ञापन में शामिल कीजिए। बताइये कि मीडिया ने बीजेपी को कितनी जगह दी है और विपक्ष को कितनी जगह दी है। खासकर हिन्दी के अखबारों और चैनलों को लेकर जनता को सावधान करना बहुत ज़रूरी है।
आपका फैसला साफ करेगा कि आप लोकतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त करने के अपने पुराने पापों से मुक्त होने, मौजूदा दौर के पापों को मिटाने के लिए कितने ईमानदार हैं। इससे यह भी साबित होगा कि लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए आपमें लड़ने का नैतिक बल है या नहीं ।