झारखंड: फर्जीवाड़ा कर 6 साल पहले ले लिया प्रमोशन का लाभ, करोड़ों डकार गए योजना सेवा के अधिकारी

Written by Sabrangindia Staff | Published on: December 27, 2018
रांची। भाजपा शासित झारखंड में सरकारी अधिकारियों द्वारा भारी अनियमितता का मामला सामने आया है। अधिकारियों ने फैक्ट्स को तोड़ मरोड़कर और छिपाकर गुपचुप तरीके से किस तरह घालमेल कर वित्त विभाग को चपत लगाई इसका उल्लेख दैनिक जागरण की रिपोर्ट में किया गया है। आशीष झा की यह रिपोर्ट सरकारी अधिकारियों की पोल खोल रही है। पढ़िए...

योजना विभाग के कुछ पदाधिकारियों ने तो वित्त का बैंड ही बजा दिया है। गुपचुप तरीके से तथ्यों को छिपाते हुए मुट्ठी भर अधिकारियों ने अपने लाभ के लिए सरकार को करोड़ों रुपये से अधिक का गच्चा दे दिया है। 2012 में योजना सेवा नियमावली लागू हुई थी और इसके पूर्व वित्त विभाग की सहमति आवश्यक होती है। वित्त विभाग द्वारा नियमावली गठन पर इस शर्त के साथ सहमति प्रदान की गई थी कि नियमावली गठन की तिथि से वित्तीय लाभ दिया जाएगा। वित्त विभाग के परामर्श को ताक पर रखते हुए चालाकी से वास्तविक लाभ तो नियमावली गठन की तिथि से दिया गया परंतु वैचारिक लाभ 1 जनवरी 2006 से ले लिया गया।

नियमावली बनाने के क्रम में वित्त विभाग की आपत्ति गुम हो गई और कैबिनेट के लिए तैयार संलेख में वैचारिक लाभ दिये जाने के मामले को शामिल करते हुए वित्त विभाग के परामर्श को दरकिनार कर दिया गया। कुछ अधिकारियों ने छह वर्ष पूर्व से वेतन निर्धारण एवं अन्य लाभ ले लिया है। इससे प्रत्येक पदाधिकारी को कम से कम बारह हजार रुपये का लाभ प्रति महीना मिला है और बाद की प्रोन्नतियों में भी इसका गुणात्मक लाभ मिला।

वित्त विभाग ने 1 जनवरी 2006 से वैचारिक लाभ दिए जाने पर प्रश्न उठाया तो मामले को दबा दिया गया और संबंधित फाइल को पेंडिंग रख दिया गया। तत्कालीन संयुक्त सचिव विनोद चंद्र झा ने इस मामले में फाइल पर अपनी टिप्पणी में लिखा कि वित्त विभाग की सहमति नहीं मिलने के बावजूद नियमावली लागू होने के पूर्व के प्रभाव से अधिसूचित पदों का वैचारिक वेतनमान स्वीकृत करने का प्रस्ताव भेजे जाने का आधार एवं औचित्य स्पष्ट किया जाए। 2015 में की गई इस टिप्पणी को भी नजरअंदाज कर दिया गया। फाइल में तत्कालीन सचिव राजबाला वर्मा ने भी सवाल उठाए थे।

गुपचाप दिया प्रभार: योजना सेवा के पदाधिकारी योजना संबंधी मामलों को देखते हैं। मामले को दबाने के लिए चुपचाप ही योजना सेवा के अधिकारी को मामले से संबंधित स्थापना का प्रभार दिया गया। उच्च पदाधिकारी  द्वारा वित्त विभाग से बिना पृच्छा का निराकरण कराए हाथोंहाथ फाइल लाकर ख़ुद एवं अन्य पदाधिकारियों को एमएसीपी एवं प्रोन्नति का लाभ प्रदान किया गया। अभी फिर से कुछ पदाधिकारियों को एमएसीपी का लाभ देने की तैयारी चल रही है।

ग्रेड पे में गड़बड़ी: इस मामले में एक बात और है कि लाभ प्राप्त करने वाले अधिकारी जिला योजना पदाधिकारी के पद पर नियुक्त हुए थे। नियमावली में उनका वेतनमान ग्रेड पे 6600 निर्धारित किया गया जबकि भारतीय प्रशासनिक सेवा के पदाधिकारियों की नियुक्ति 5400 ग्रेड पे पर होती है। यही कारण है कि राज्य में 8900 ग्रेड पे प्राप्त करने वाले ये एकमात्र राज्य सेवा के अधिकारी हैं। राज्य प्रशासनिक सेवा के पदाधिकारी को भी अधिकतम 8700 ग्रेड पे ही मिलता है। मामले में विवाद से बचने के लिए नवगठित नियमावली में सहायक योजना पदाधिकारी को मूल नियुक्ति का पद बना दिया गया और जिला योजना अधिकारी को प्रोन्नति का पद ताकि वेतन निर्धारण में किसी और अन्य विवाद से बचा जा सके।

पद सृजन के मामले में भी हुआ खेल: योजना सेवा के पदों के सृजन में गड़बड़ी हुई है। संयुक्त निदेशक सह संयुक्त सचिव एवं उप निदेशक सह उप सचिव के पदों की संख्या बारह-बारह है। नियमानुसार प्रोन्नति के पदों की संख्या कम होनी चाहिए। सरकारी भाषा में इसे पिरामिड आकार कहा जाता है। पदों के सृजन के समय 8 विभागों में योजना इकाई का गठन हुआ और 10 विभागों में स्वीकृत उप निदेशक के पदों को हस्तांतरित किया गया। लेकिन इसमें किसी भी विभाग करी सहमति या परामर्श प्राप्त नहीं किया गया।

यहां तक कि कार्मिक विभाग का भी इस मामले में परामर्श नहीं लिया गया जबकि किसी भी सेवा के पदों के सृजन के मामले में कार्मिक विभाग का परामर्श आवश्यक है। योजना विभाग में उपनिदेशक के 12 पद और संयुक्त निदेशक के 4 पद (8 पद अन्य विभागों के लिये सृजित किए गए हैं) एवं अपर निदेशक के 5 पद सृजित किये गए हैं लेकिन इनके कार्यों का विस्तृत बंटवारा नहीं किया गया । एक विभाग में इतने पदाधिकारी क्या करेंगे यह सोचने की बात है। ऐसा लगता है कि पदों का सृजन सिर्फ प्रोन्नति प्रदान करने के लिए किया गया है।

चुपचाप बना ली दूसरी फाइल: इस मामले में पदों के सृजन के लिए एक दूसरी फाइल चुपचाप तैयार कर ली गई। बड़ी बात यह है कि इस फाइल को किसी सहायक संवर्ग के पदाधिकारी ने नहीं बल्कि उसी पदाधिकारी ने शुरू किया जिस को इसका लाभ मिलना था। मंशा कुछ भी हो गड़बड़ी तो कदम-कदम पर हुई है। 

 

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