आदरणीय जस्टिस मार्कण्डेय काटजू,
आपके फ़ेसबुक पोस्ट “प्रधानमंत्री के ऐतिहासिक भाषण” को मैंने ग़ौर से पढ़ा। इस भाषण में, बलोचिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर के भीतर मानवाधिकारों के हनन और पाकिस्तानी राज्य द्वारा इन इलाक़ों में नागरिक अधिकारों के कुचलने के उल्लेख को एक सन्दर्भ बिंदु बनाते हुए आपने जो परिकल्पनाएं प्रस्तुत की हैं, उन पर मेरे कुछ आकलन और सवाल हैं।
आपके विश्लेषण और परिकल्पनाओं की विसंगतियों को सिलसिलेवार तौर पर रेखांकित करने से पहले मैं आपके लेखन के सामान्य पेशकश पर स्पष्टीकरण देना ज़रूरी समझाता हूँ।
मैं आपको देश के बेहतरीन, ज़हीन और इंसाफ़पसंद न्यायाधीशों की परंपरा का अहम किरदार मानता हूँ। न्याय के प्रति आपकी बेबाक निष्ठा असंदिग्ध रही है। साथ ही, हमारे देश के मीडिया, राजनीतिक संस्कृति, भाषिक और अदबी सरंचनाओं सहित हिंदू-मुस्लिम समुदायों में प्रचलित अंधविश्वासों, अवैज्ञानिक मान्यताओं आदि पर पैनी टिप्पणियाँ एक ज़रूरी हस्तक्षेप महसूस होती हैं।
बावजूद इसके, आपके भारत-पाकिस्तान की सरकारों के बीच कश्मीर और बलोचिस्तान को लेकर आपसी खींचतान और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति को जिस तरह आपने एक अनैतिहासिक और “शांतिदूत के भेष में युद्ध” की अनिवार्यता के आख्यान को पुष्ट किया है, उसपे एक वैकल्पिक नज़रिये से सोचना और सवाल करना ज़रूरी हो चला है।
आपकी केंद्रीय परिकल्पना है कि चूंकि पाकिस्तान की बुनियाद में अंग्रेजी हुकूमत की ‘बांटो और राज करो’ की दमनकारी नीति और नक़ली “दो राष्ट्र का” सिद्धांत है अतः पाकिस्तान एक कृत्रिम रचना है। साथ ही, लोकप्रिय जुमले में आपने ये भी कहा है कि अंग्रेजों ने हमें बेवक़ूफ़ बनाया कि हम दुश्मन हैं और एक दूसरे से अलग हैं।
“अंग्रेज़ों द्वारा हमें बेवक़ूफ़” बनाने और हमारे इस भोलेपन से बेवक़ूफ़ बन जाने की ऐतिहासिक अदा को विभाजन की ख़ूनी दहलीज तक ले जाने के उनके जाल को एक मात्र ज़िम्मेदार ठहराना जंगल की विशेषता बयान करने के बजाय एक पेड़ गिनने की क़वायद मात्र है। आपके समूचे विश्लेषण से सबसे पहले हिंदू महासभा के “दो-राष्ट्र के सिद्धांत” और कालांतर में मुस्लिम लीग द्वारा इस लकीर को पीटने के उल्लेख तक की ज़हमत नहीं उठाई है। अंग्रेज़ों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति विभाजन का एक कारक थी, एक मात्र कारक नहीं। वास्तव में, औपनिवेशिक शासन से आज़ादी की लड़ी जा रही लड़ाई और हिंदुस्तान के यूरोपीय अर्थों में आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनने की प्रक्रिया साथ साथ गतिमान थी। प्रधानमंत्री नेहरू का मशहूर भाषण ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ भारत के आधुनिक, आत्मनिर्भर, संप्रभु और समावेशी राष्ट्र बनने की इस ज़रूरत को स्वर देता है। ऑन अ लाइटर नोट, नेहरू के इस भाषण में “मैं”, “मेरा” जैसी व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के लिए एक बार भी जगह नहीं है, बल्कि नेहरू सामूहिकता को अभिव्यक्त करने वाले “हम” सर्वनाम का इस्तेमाल करते हैं, जिसकी बेमेल और बेतुकी तुलना आपने लाल क़िले से दिए गए मोदी के भाषण से की है। बल्कि, शब्दों का अपव्यय करते हुए, इसे ‘तक़दीर से दूसरी भेंट’ का विशेषण दे दिया है।
राष्ट्र-राज्य बनने की यह बारीक़ प्रक्रिया कई सतहों पर अब तक जारी है। हालांकि, 1947 से 1965 तक, विभाजन के अकल्पनीय त्रासद परिणामों के बावजूद, भारत और पाकिस्तान के आम अवाम और हुक्मरानों के बीच नफ़रत की जड़ें इतनी मज़बूत नहीं हुई थीं। परस्पर दोस्ताना संबंध क़ायम रखने की गुज़ारिश एक हक़ीकत थी। भौगोलिक सरहद के आर-पार आना-जाना आसान था। वीज़े की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। अमृतसर से कई प्रोफ़ेसर सुबह सुबह कक्षाएं लेने या कॉपियाँ चेक करने लाहौर जाते और शाम को वापस लौट आते थे। (विस्तार के लिए देखें, स्मितु कोठारी और ज़िया मियाँ की संपादित किताब, ‘ब्रिज़िंग पार्टीशन, पीपल्स इनिशिएटिव्स फ़ॉर पीस बिटवीन इंडिया एंड पाकिस्तान, ओरिएंट ब्लैकस्वान, 2010).
1965 के भारत-पाकिस्तान जंग के बाद राष्ट्रवाद की ज़हरीली ख़ुमारी इस तरह तारी हुई कि पाकिस्तान के रेडियो पर हिंदुस्तान के तराने कुफ़्र होने लगे। यही समय था जब राष्ट्रवाद का इकहरा आख्यान “हम” बनाम प्रतिपक्षी “वे” (वी वर्सेस अदर्स) में तब्दील हो गया। इसके पीछे राष्ट्रवाद की उसी नुमाइशी विचारधारा को मज़बूती मिलना एक प्रमुख कारक था, जिसके नुमाइंदे आज कश्मीर और बलोचिस्तान का सिक्का इसलिए उछालते हैं कि रोज़गार, बीमारी, सामाजिक असुरक्षा जैसे मुद्दों को पीछे धकेल कर घरेलू राजनीति को कथित राष्ट्रवादी लकीर के इर्द-गिर्द ध्रुवीकृत किया जा सके। चुनावों के दौरान अश्लीलता की हद तक के वाग्जाल आपको याद ही होंगे, जहाँ अपने घरेलू विरोधियों को “दुश्मन देश” में चले जाने के लिए फटकारा जाता रहा है। इसके लिए, आपने सही ज़िक्र किया है कि हथियारों की होड़ (हालांकि, आपने परमाणु हथियारों से लैस हो जाने की गर्हित अहंकारी प्रतिस्पर्धा को इसमें नहीं जोड़ा है। ऐसा क्यूं?) का नुस्ख़ा आज़माया जाता है और हमारी बेशक़ीमती राष्ट्रीय संपदा का एक अहम हिस्सा बम, बंदूक़ और बारूद और अन्य सैन्य साजो-सामान के आयात में चला जाता है। आपने बीमारी के लक्षण सही गिनाए हैं, लेकिन उसकी उत्पत्ति और उसके इलाज के लिए जो सुझाव दिए हैं वे राष्ट्रवाद के उन्मादी बुख़ार में तप रहे हुक्मरानों को और मदहोश करते हैं। बलोचिस्तान, सिंध और NWFP में हथियारों की आपूर्ति, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष या सीमित या छद्म युद्ध हथियारों के अंतर्राष्ट्रीय सरगना अमेरिकी हुकूमत को दो-मुंही चाल चलने का मौक़ा देगा। अतीत में, अमेरिकी हुकूमत एक तरफ़ दोनों देशों को हथियारों की आपूर्ति करती रही है और दूसरी तरफ़ लोकतंत्र और मानवाधिकारों का हवाला देते हुए अपने अंतर्राष्ट्रीय अत्याचारों के लिए एक मानवीय मुखौटा भी निर्मित करती रही है। अमेरिकी हुकूमत ऐसे मौक़ों पर ‘बिग ब्रदर’ की भूमिका निभाने में विशेषज्ञ है।
पाकिस्तान के निर्माण की चाहे जितनी अवांछित वजहें रही हों लेकिन पिछले सत्तर सालों के इतिहास के आलोक में इसके अस्तित्व से नकारना, आपके शब्द का उपयोग करें तो, “मूर्खता” की पराकाष्ठा है। 1998 में, लाहौर बस सेवा के वक़्त, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने पाकिस्तान राष्ट्र-राज्य की आयकॉनिक इमारत ‘मीनर-ए-पाकिस्तान’ का दौरा कर श्रृद्धा-सुमन अर्पित किया था, तब से इस क़दम को भारत द्वारा पाकिस्तान के अस्तित्व को औपचारिक मान्यता देने के ऐतिहासिक ज़ेस्चर की तरह देखा जाता है। आपका ये अनुभव दुरुस्त है कि जब हम एक ‘निरपेक्ष भूगोल’, न्यूट्रल ज्यॉग्रफ़िकल रीज़न’ में जाते हैं तो भारत और पाकिस्तान के बीच करीने से गढ़ा गया राष्ट्रवाद का अख्यान चूर-चूर हो जाता है और हमारी सांस्कृतिक एकता ज़्यादा निखर कर सामने आती है। लेकिन, यह इसलिए है कि हमारी हुकूमतों से अपनी अपनी जनता के एक बड़े हिस्से को राष्ट्रवाद के बाड़ेबंद विमर्श में क़ैद रखा है और मनोवैज्ञानिक सरहदें बना रखी हैं, जो आपस में घुलते मिलते ही निरर्थक साबित हो जाती हैं।
आख़िर में, आपने भारत की सारी समस्याओं का जो समाधान इसके अत्याधिक औद्योगिक समाज के पुनर्गठन के रूप में दिया है, वो भी समस्याग्रस्त है। पश्चिम की औद्योगिक क्रांति ने ख़ुद वहां के समाज की समस्याओं का पूरी तरह से विलोप नहीं किया है। सिर्फ़, औद्योगिक महिमा का बख़ान करना सभी सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं का इलाज क़त्तई नहीं हो सकता। इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे की परियोजना को लागू करना ही होगा। तभी हिंदुस्तान को आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और एक वैज्ञानिक चिंतन से युक्त देश बनाया जा सकता है।
आपके फ़ेसबुक पोस्ट “प्रधानमंत्री के ऐतिहासिक भाषण” को मैंने ग़ौर से पढ़ा। इस भाषण में, बलोचिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर के भीतर मानवाधिकारों के हनन और पाकिस्तानी राज्य द्वारा इन इलाक़ों में नागरिक अधिकारों के कुचलने के उल्लेख को एक सन्दर्भ बिंदु बनाते हुए आपने जो परिकल्पनाएं प्रस्तुत की हैं, उन पर मेरे कुछ आकलन और सवाल हैं।
आपके विश्लेषण और परिकल्पनाओं की विसंगतियों को सिलसिलेवार तौर पर रेखांकित करने से पहले मैं आपके लेखन के सामान्य पेशकश पर स्पष्टीकरण देना ज़रूरी समझाता हूँ।
मैं आपको देश के बेहतरीन, ज़हीन और इंसाफ़पसंद न्यायाधीशों की परंपरा का अहम किरदार मानता हूँ। न्याय के प्रति आपकी बेबाक निष्ठा असंदिग्ध रही है। साथ ही, हमारे देश के मीडिया, राजनीतिक संस्कृति, भाषिक और अदबी सरंचनाओं सहित हिंदू-मुस्लिम समुदायों में प्रचलित अंधविश्वासों, अवैज्ञानिक मान्यताओं आदि पर पैनी टिप्पणियाँ एक ज़रूरी हस्तक्षेप महसूस होती हैं।
बावजूद इसके, आपके भारत-पाकिस्तान की सरकारों के बीच कश्मीर और बलोचिस्तान को लेकर आपसी खींचतान और आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति को जिस तरह आपने एक अनैतिहासिक और “शांतिदूत के भेष में युद्ध” की अनिवार्यता के आख्यान को पुष्ट किया है, उसपे एक वैकल्पिक नज़रिये से सोचना और सवाल करना ज़रूरी हो चला है।
आपकी केंद्रीय परिकल्पना है कि चूंकि पाकिस्तान की बुनियाद में अंग्रेजी हुकूमत की ‘बांटो और राज करो’ की दमनकारी नीति और नक़ली “दो राष्ट्र का” सिद्धांत है अतः पाकिस्तान एक कृत्रिम रचना है। साथ ही, लोकप्रिय जुमले में आपने ये भी कहा है कि अंग्रेजों ने हमें बेवक़ूफ़ बनाया कि हम दुश्मन हैं और एक दूसरे से अलग हैं।
“अंग्रेज़ों द्वारा हमें बेवक़ूफ़” बनाने और हमारे इस भोलेपन से बेवक़ूफ़ बन जाने की ऐतिहासिक अदा को विभाजन की ख़ूनी दहलीज तक ले जाने के उनके जाल को एक मात्र ज़िम्मेदार ठहराना जंगल की विशेषता बयान करने के बजाय एक पेड़ गिनने की क़वायद मात्र है। आपके समूचे विश्लेषण से सबसे पहले हिंदू महासभा के “दो-राष्ट्र के सिद्धांत” और कालांतर में मुस्लिम लीग द्वारा इस लकीर को पीटने के उल्लेख तक की ज़हमत नहीं उठाई है। अंग्रेज़ों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति विभाजन का एक कारक थी, एक मात्र कारक नहीं। वास्तव में, औपनिवेशिक शासन से आज़ादी की लड़ी जा रही लड़ाई और हिंदुस्तान के यूरोपीय अर्थों में आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनने की प्रक्रिया साथ साथ गतिमान थी। प्रधानमंत्री नेहरू का मशहूर भाषण ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ भारत के आधुनिक, आत्मनिर्भर, संप्रभु और समावेशी राष्ट्र बनने की इस ज़रूरत को स्वर देता है। ऑन अ लाइटर नोट, नेहरू के इस भाषण में “मैं”, “मेरा” जैसी व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के लिए एक बार भी जगह नहीं है, बल्कि नेहरू सामूहिकता को अभिव्यक्त करने वाले “हम” सर्वनाम का इस्तेमाल करते हैं, जिसकी बेमेल और बेतुकी तुलना आपने लाल क़िले से दिए गए मोदी के भाषण से की है। बल्कि, शब्दों का अपव्यय करते हुए, इसे ‘तक़दीर से दूसरी भेंट’ का विशेषण दे दिया है।
राष्ट्र-राज्य बनने की यह बारीक़ प्रक्रिया कई सतहों पर अब तक जारी है। हालांकि, 1947 से 1965 तक, विभाजन के अकल्पनीय त्रासद परिणामों के बावजूद, भारत और पाकिस्तान के आम अवाम और हुक्मरानों के बीच नफ़रत की जड़ें इतनी मज़बूत नहीं हुई थीं। परस्पर दोस्ताना संबंध क़ायम रखने की गुज़ारिश एक हक़ीकत थी। भौगोलिक सरहद के आर-पार आना-जाना आसान था। वीज़े की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। अमृतसर से कई प्रोफ़ेसर सुबह सुबह कक्षाएं लेने या कॉपियाँ चेक करने लाहौर जाते और शाम को वापस लौट आते थे। (विस्तार के लिए देखें, स्मितु कोठारी और ज़िया मियाँ की संपादित किताब, ‘ब्रिज़िंग पार्टीशन, पीपल्स इनिशिएटिव्स फ़ॉर पीस बिटवीन इंडिया एंड पाकिस्तान, ओरिएंट ब्लैकस्वान, 2010).
1965 के भारत-पाकिस्तान जंग के बाद राष्ट्रवाद की ज़हरीली ख़ुमारी इस तरह तारी हुई कि पाकिस्तान के रेडियो पर हिंदुस्तान के तराने कुफ़्र होने लगे। यही समय था जब राष्ट्रवाद का इकहरा आख्यान “हम” बनाम प्रतिपक्षी “वे” (वी वर्सेस अदर्स) में तब्दील हो गया। इसके पीछे राष्ट्रवाद की उसी नुमाइशी विचारधारा को मज़बूती मिलना एक प्रमुख कारक था, जिसके नुमाइंदे आज कश्मीर और बलोचिस्तान का सिक्का इसलिए उछालते हैं कि रोज़गार, बीमारी, सामाजिक असुरक्षा जैसे मुद्दों को पीछे धकेल कर घरेलू राजनीति को कथित राष्ट्रवादी लकीर के इर्द-गिर्द ध्रुवीकृत किया जा सके। चुनावों के दौरान अश्लीलता की हद तक के वाग्जाल आपको याद ही होंगे, जहाँ अपने घरेलू विरोधियों को “दुश्मन देश” में चले जाने के लिए फटकारा जाता रहा है। इसके लिए, आपने सही ज़िक्र किया है कि हथियारों की होड़ (हालांकि, आपने परमाणु हथियारों से लैस हो जाने की गर्हित अहंकारी प्रतिस्पर्धा को इसमें नहीं जोड़ा है। ऐसा क्यूं?) का नुस्ख़ा आज़माया जाता है और हमारी बेशक़ीमती राष्ट्रीय संपदा का एक अहम हिस्सा बम, बंदूक़ और बारूद और अन्य सैन्य साजो-सामान के आयात में चला जाता है। आपने बीमारी के लक्षण सही गिनाए हैं, लेकिन उसकी उत्पत्ति और उसके इलाज के लिए जो सुझाव दिए हैं वे राष्ट्रवाद के उन्मादी बुख़ार में तप रहे हुक्मरानों को और मदहोश करते हैं। बलोचिस्तान, सिंध और NWFP में हथियारों की आपूर्ति, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष या सीमित या छद्म युद्ध हथियारों के अंतर्राष्ट्रीय सरगना अमेरिकी हुकूमत को दो-मुंही चाल चलने का मौक़ा देगा। अतीत में, अमेरिकी हुकूमत एक तरफ़ दोनों देशों को हथियारों की आपूर्ति करती रही है और दूसरी तरफ़ लोकतंत्र और मानवाधिकारों का हवाला देते हुए अपने अंतर्राष्ट्रीय अत्याचारों के लिए एक मानवीय मुखौटा भी निर्मित करती रही है। अमेरिकी हुकूमत ऐसे मौक़ों पर ‘बिग ब्रदर’ की भूमिका निभाने में विशेषज्ञ है।
पाकिस्तान के निर्माण की चाहे जितनी अवांछित वजहें रही हों लेकिन पिछले सत्तर सालों के इतिहास के आलोक में इसके अस्तित्व से नकारना, आपके शब्द का उपयोग करें तो, “मूर्खता” की पराकाष्ठा है। 1998 में, लाहौर बस सेवा के वक़्त, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने पाकिस्तान राष्ट्र-राज्य की आयकॉनिक इमारत ‘मीनर-ए-पाकिस्तान’ का दौरा कर श्रृद्धा-सुमन अर्पित किया था, तब से इस क़दम को भारत द्वारा पाकिस्तान के अस्तित्व को औपचारिक मान्यता देने के ऐतिहासिक ज़ेस्चर की तरह देखा जाता है। आपका ये अनुभव दुरुस्त है कि जब हम एक ‘निरपेक्ष भूगोल’, न्यूट्रल ज्यॉग्रफ़िकल रीज़न’ में जाते हैं तो भारत और पाकिस्तान के बीच करीने से गढ़ा गया राष्ट्रवाद का अख्यान चूर-चूर हो जाता है और हमारी सांस्कृतिक एकता ज़्यादा निखर कर सामने आती है। लेकिन, यह इसलिए है कि हमारी हुकूमतों से अपनी अपनी जनता के एक बड़े हिस्से को राष्ट्रवाद के बाड़ेबंद विमर्श में क़ैद रखा है और मनोवैज्ञानिक सरहदें बना रखी हैं, जो आपस में घुलते मिलते ही निरर्थक साबित हो जाती हैं।
आख़िर में, आपने भारत की सारी समस्याओं का जो समाधान इसके अत्याधिक औद्योगिक समाज के पुनर्गठन के रूप में दिया है, वो भी समस्याग्रस्त है। पश्चिम की औद्योगिक क्रांति ने ख़ुद वहां के समाज की समस्याओं का पूरी तरह से विलोप नहीं किया है। सिर्फ़, औद्योगिक महिमा का बख़ान करना सभी सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं का इलाज क़त्तई नहीं हो सकता। इसके लिए प्राकृतिक संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे की परियोजना को लागू करना ही होगा। तभी हिंदुस्तान को आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और एक वैज्ञानिक चिंतन से युक्त देश बनाया जा सकता है।