कर्नाटक: वन विभाग के खिलाफ 6000 से ज़्यादा जेनु कुरुबा आदिवासियों ने शुरू किया प्रदर्शन

Written by Sabrangindia Staff | Published on: March 25, 2021
आदिवासी समुदाय का कहना है कि वे राज्य के वन विभाग द्वारा ज़बरदस्ती ज़मीन ख़ाली करवाए जाने और प्रताड़ना के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं।



कर्नाटक में नागरहोल टाइगर रिज़र्व के खिलाफ़ 6000 से ज़्यादा जेनु कुरुबा आदिवासी कठोर प्रदर्शन कर रहे हैं। फॉरेस्ट रेंजर के ऑफ़िस के सामने अनिश्चितकाल तक चलने वाला यह विरोध प्रदर्शन 17 मार्च को शुरू हुआ है।

समुदाय का आरोप है कि राज्य सरकार, वन विभाग और WCS (वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन सोसायटी) द्वारा जबरदस्ती उन्हें उनकी ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है, ताकि ईको-टूरिज़्म से जुड़ी गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा सके, जबकि इस दौरान आदिवासियों के वन्य और भू अधिकारों का दमन किया जा रहा है।

बाघ संरक्षण के नाम पर विस्थापन को अंजाम दिया जा रहा है

पारंपरिक तौर पर शहद इकट्ठा करने वाले इस समुदाय का भूमि अधिकार संघर्ष 1970 के दशक से शुरू हो चुका था। हाल में जब नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान में ईको-टूरिज़्म से जुड़ी गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाना शुरू हुआ तो समुदाय को बाहर करने की कोशिशें नए सिरे से शुरू हो गईं।

जेुनु कुरुबा जनजाति के पुरोहित जे के थिम्मा कहते हैं, "अलग-अलग रेंजों में प्रदर्शन किए जा रहे हैं। राज्य सरकार, केंद्र सरकार और उनकी एजेंसी NTCA (नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी) आदिवासियों को उनकी ज़मीन से हटा रही है, ताकि ईको-टूरिज़्म का विस्तार किया जा सके, जिसका मुख्य उद्देश्य पैसा बनाना और मुनाफ़ा कमाना है।" थिम्मा आगे आदिवासियों समुदायों को वन्य अधिकार ना दिए जाने की बात बताते हुए कहते हैं, "हमारे समुदाय ने वैयक्तिक भूमि अधिकारों, सामुदायिक अधिकारों और रहवास अधिकारों के लिए संघर्ष किया है। लेकिन हमारे दावों को खारिज कर दिया गया। भूमि अधिकार के लिए 4000 से ज़्यादा दावे प्रस्तुत किए गए, लेकिन किसी को भी उनकी ज़मीन का अधिकार नहीं मिला। जिन लोगों को वैयक्तिक भूमि अधिकार हासिल भी हो गए, उन्हें भी आगे अपने घरों के विस्तार करने या ज़मीन जोतने के अधिकार नहीं हैं।"

जेनु कुरुबा समुदाय पारंपरिक तौर पर शहद को इकट्ठा करता रहा है, लेकिन आजीविका चलाने के लिए उनकी कृषि और वन से इकट्ठा की गई चीजों पर बहुत ज़्यादा निर्भरता है।

समुदाय का आरोप है कि कर्नाटक वन विभाग ने इन गतिविधियों में बाधा डाल दी है और आदिवासियों के खिलाफ़ मामले भी दर्ज किए हैं। कुरुबा आगे कहती हैं कि बाघ संरक्षण की आड़ में आदिवासियों की पहचान और उनकी आजीविका को दांव पर लगाकर उन्हें जंगल से बाहर निकाला जा रहा है।

थिम्मा के मुताबिक़, "राज्य वन विभाग और केंद्र सरकार इस विमर्श को बढ़ाने के लिए एक-दूसरे का साथ दे रही हैं; इसके ज़रिए समुदाय को ज़मीन से खदेड़ने की मंशा है। हमें हमारी ज़मीनों तक पहुंच से भी रोका जा रहा है।"

राज्य वन्यजीव बोर्ड, राज्य वन विभाग और NTCA पर समुदाय के अधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए थिम्मा कहती हैं, "वन अधिकार कानून की धारा 5(b) ग्राम सभाओं को अपनी ज़मीन से जुड़े फ़ैसले लेने का अधिकार देती है। लेकिन एक तरफ यहां से समुदाय को निकाला जा रहा है, दूसरी तरफ यहां वन विभाग के बंगले, कैंप ऑफ़िस और सड़कें बनाई जा रही हैं। यहां ईको-टूरिज़्म और सफारियों को प्रोत्साहन देने वाला वन विभाग खुद अतिक्रमणकारी है।"

निकासी और 'स्वैच्छिक विस्थापन'

भ-अधिकारों के लिए आदिवासियों का संघर्ष कोई नई बात नहीं है। 1970 के दशक से शुरू हुआ यह संघर्ष आज तक जारी है। नीलगिरी क्षेत्र में जेनु कुरुबा समुदाय के कई लोगों को नागरहोल और बांदीपुर जैसे टाइगर रिज़र्व से अतीत में ही बाहर किया जा चुका है। अब यह लोग भी इन प्रदर्शनकारियों के साथ खड़े हैं।

800 से ज़्यादा लोगों ने जंगल में वापस जाने के लिए दावे लगाए हुए हैं। समुदाय के सदस्य JA शिवु ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा, "जिन लोगों को जंगल से बाहर किया गया, उन्हें दैनिक मज़ूदर और बंधुआ मज़दूर के तौर पर उद्यानों में काम करना पड़ा है, उनका अपनी ज़मीन, संस्कृति और भाषा के साथ संबंध ख़त्म हो गया। जिन लोगों को बाहर किया गया था, अब वे लोग अपनी जगह पर वापस आने की कोशिश कर रहे हैं। वे लोग भी इस आंदोलन का बड़ा हिस्सा हैं। वन अधिकार कानून के तहत अपनी ज़मीन पर वापस लौटने के अधिकार 800 से ज़्यादा लोग संघर्ष कर रहे हैं।"

भारत में दूसरे आदिवासी समुदाय भी बाघ संरक्षण बनाम् आदिवासी की धारणा से जूझ रहे हैं, ताकि वे आगे भी जंगल में रह सकें। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए इस निकासी के खिलाफ़ काम कर रही "सर्वाइवल इंटरनेशनल" की शोधार्थी सोफि ग्रिग ने बताया, "वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसायटी (WCS) जैसे संगठन सरकार की विस्थापन योजनाओं को अपनी पहली संरक्षण गतिविधि बताते हैं, जिसकी जानकारी उनकी वेबसाइट पर भी मौजूद है, यह लोग वन अधिकारियों के लिए "स्वैच्छिक विस्थापन" के विषय में एक वार्षिक प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलाते हैं। हालांकि इन विस्थापनों को स्वैच्छिक बताया जाता है, लेकिन सर्वाइवल इंटरनेशनल ने जितने भी मामलों की जांच की है, उसमें आदिवासियों ने बताया है कि वन विभाग ने उनके खिलाफ़ प्रताड़ना और धमकियों का पूरा एक अभियान छेड़ा हुआ था, ताकि वे लोग थक-हारकर अपनी ज़मीन छोड़ दें, मतलब यह हुआ कि विस्थापन जबरदस्ती करवाया गया और यह गैरकानूनी था। हाल में अपनी ज़मीन से हटाए गए जेनु कुरुबा ने भी इस प्रक्रिया को एक तरह की प्रताड़ना बताया है।" शिवु ने आगे कहा, "आदवासियों को उनकी पैतृक ज़मीन से अलग करना सिर्फ़ उनके लिए बुरा नहीं है, यह संरक्षण की प्रक्रिया के भी विपरीत काम करता है और इसे भारतीय व अंतरराष्ट्रीय कानून में गैरकानूनी माना गया है।"

(सुमेधा पाल की रिपोर्ट न्यूजक्लिक से साभार)
 

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