आज आरक्षण के प्रणेता, उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री (9 जून 1980 - 19 जुलाई 1982), भारत सरकार के पूर्व वित्त व रक्षा मंत्री एवं भारत के 7वें प्रधानमंत्री (2 दिसंबर 1989 - 10 नवंबर 1990) विश्वनाथ प्रताप सिंह (25 जून 1931 - 27 नवंबर 2008) की आज 87वीं जयन्ती है।
90 के दशक में पटना के गाँधी मैदान की सद्भावना रैली में देश के सभी बड़े नेताओं की मौजूदगी में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद जनसैलाब के बीच जोशोखरोश के साथ वी पी सिंह का अभिनंदन कर रहे थे :
राजा नहीं फ़कीर है
भारत की तक़दीर है।
7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने की थी। शरद यादव, रामविलास पासवान, अजित सिंह, जार्ज फ़र्णांडिस, मधु दंडवते, सुबोधकांत सहाय, आदि की सदन के अंदर धारदार बहसों व सड़क पर लालू प्रसाद जैसे नेताओं के संघर्षों की परिणति वीपी सिंह द्वारा पिछड़ोत्थान के लिए ऐतिहासिक, साहसिक व अविस्मरणीय फ़ैसले के रूप में हुई।
वीपी सिंह का कालजयी वक्तव्य जनमानस पर आज भी अंकित है-
"मण्डल से राजनीति का ग्रैमर बदल गया और एक चेतना डिप्राइव्ड सेक्शन में आई, जो पावर स्ट्रक्चर में नहीं थे, उनको एक कॉन्सशनेस आयी । हम समझते हैं, ये कॉन्सशनेस
इंडिविजुअल पार्टी या इंडिविजुअल लीडर से से बड़ी चीज़ आई। हो सकता है, कोई एक पिछड़े वर्ग का नेता इलेक्शन हारे या जीते, लेकिन उस पर यह आरोप नहीं लगाना चाहिए कि मंडल सफल हुआ या विफल क्योंकि पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक का सोशल कंपोजिशन देखें तो वह बदल रहा है। पार्टी कोई भी हो, डिप्राइव्ड सेक्शन के लोग ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में आ रहे हैं जिससे डिसीज़न मेकिंग बॉडीज़ का सोशल कंपोजिशन बदल गया है।"
कहां तक पहुंचा आरक्षण का सफ़र, एक नज़र:
29 जनवरी 1953 को प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग साहित्यकार
दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर की अध्यक्षता में गठित हुआ। कालेलकर ने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को केंद्र सरकार को सौंपी थी। अपनी अनुशंसाओं में 1961 की जनगणना जातिगत आधार पर कराने, सम्पूर्ण स्त्री को पिछड़ा मानते हुए मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि में 70%, सभी सरकारी व स्वायत्तशासी संस्थाओं में प्रथम श्रेणी में 25%, द्वितीय श्रेणी में 33.33% तथा तृतीय व चतुर्थ श्रेणी में 40% आरक्षण की सिफ़ारिश कालेलकर ने की थी। यह रिपोर्ट अपने आप में अद्भुत इसलिए है कि तमाम विसंगतियों और ग़ैर बराबरी का ज़िक्र करने के बाद रिपोर्ट बनाने वाला ही आख़िर में नोट लिखता है कि इसे फिलहाल लागू नहीं किया जाए। कहते हैं कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित नेहरू ने पंडित कालेलकर की सिफारिशें ख़ारिज कर दी थी और रिपोर्ट पर कालेलकर से जबरन लिखवा लिया था कि इसे लागू करने से सामाजिक सद्भाव बिगड़ जायेगा, अतः इसे लागू न किया जाय।
392 पृष्ठ की मंडल कमीशन की रिपोर्ट देश को सामाजिक-आर्थिक विषमता से निबटने का एक तरह से मुकम्मल दर्शन देती है जिसे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व सांसद बी.पी. मंडल ने अपने साथियों के साथ बड़ी लगन से तैयार किया था। 20 दिसंबर 1978 को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अनुच्छेद 340 के तहत 6 सदस्यीय नए पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की घोषणा सदन में की जिसके अध्यक्ष बीपी मंडल व सचिव गिल साहब थे। आयोग की विज्ञप्ति 1 जनवरी, 1979 को जारी की गई, जिसकी रिपोर्ट आयोग ने 31 दिसंबर 1980 को गृहमंत्री ज्ञानी जेल सिंह को सौंपी, राष्ट्रपति ने अनुमोदित किया। 30 अप्रैल 1982 में इसे सदन के पटल पर रखा गया, जो 10 वर्ष तक फिर ठंडे बस्ते में रहा। इसे न इंदिरा गांधी ने लागू किया न राजीव गांधी ने। बीपी मंडल ने 3000 से ज़्यादा जातियों को एक जमात के रूप में सामने लाया और उनकी संख्या 52 % सामने आई। इस रपट की अहम सिफ़ारिशें कुछ यूं थीं:
पिछड़ों को सरकारी सेवाओं में 27% आरक्षण, प्रोन्नति में पिछड़ों को आरक्षण, पिछड़ों का क़ोटा न भरने पर तीन साल तक खाली रखने की संस्तुति, SC/ST की तरह ही आयु सीमा में OBC को छूट देना, SC/ST की तरह ही पदों के प्रत्येक वर्ग के लिए सम्बन्धित पदाधिकारियों द्वारा रोस्टर प्रणाली अपनाने का प्रावधान, वित्तीय सहायता प्राप्त निजी क्षेत्र में पिछड़ों का आरक्षण बाध्यकारी बनाने की सिफारिश, कॉलेज, युनिवर्सिटीज़ में आरक्षण योजना लागू करने की सिफ़ारिश, पिछड़े वर्ग को फ़ीस राहत, छात्रवृत्ति, छात्रावास, मुफ़्त भोजन, किताब, कपड़ा उपलब्ध कराने की सिफ़ारिश, वैज्ञानिक, तकनीकी व व्यावसायिक संस्थानों में पिछड़ों को 27% आरक्षण देने की सिफ़ारिश, पिछड़े वर्ग के छात्रों को विशेष कोचिंग का इंतजाम करने की सिफ़ारिश, पिछड़े वर्ग के भूमिहीन मजदूरों को भूमि देने की सिफ़ारिश, पिछड़ों की तरक्की के लिए पिछड़ा वर्ग विकास निगम बनाने की सिफ़ारिश, राज्य व केंद्र स्तर पर पिछड़ा वर्ग का अलग मंत्रालय बनाने की सिफ़ारिश एवं
पिछड़ा वर्ग आयोग बनाने की सिफ़ारिश।
बोफ़ोर्स विवाद को लेकर वीपी सिंह ने जांच के लिए फाइल आगे बढ़ा दी थी, राजीव गांधी से मनमुटाव के बाद इस्तीफ़ा देकर उन्होंने अरुण नेहरू और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान के साथ मिलकर जनमोर्चा का गठन किया। जब जनता दल बना तो उसने 89 के लोकसभा चुनाव में मंडल की सिफारिशें लागू करने की बात घोषणापत्र में शामिल किया।
मंडल कमीशन लागू होने की दास्तान भी कोई कम दिलचस्प नहीं है। हरियाणा में मेहम कांड और कुछ अन्य बिंदुओं पर ताऊ देवीलाल से वीपी सिंह की खटपट कुछ इस कदर बढ़ गई थी कि मंत्रिमंडल से उन्हें ड्रॉप करने तक की बात हो गई। देवीलाल अपना शक्ति-प्रदर्शन करने के लिए एक विशाल रैली करने जा रहे थे। बस यहीं पर शरद यादव ने वीपी सिंह के सामने एक शर्त रख दी कि या तो रैली से पहले मंडल लगाइए, नहीं तो हम देवीलाल जी के साथ अपनी पुरानी यारी निभाएंगे। लगातार सरकार पर मंडराते ख़तरे और मध्यावधि चुनाव की आशंका को देखते हुए जनता दल के जनाधार को और ठोस विस्तार देने की आकांक्षा पाले वी.पी. सिंह की सरकार ने अंततः 7 अगस्त 1990 को सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए 27% आरक्षण लागू करने की घोषणा की। 9 अगस्त को उपप्रधानमंत्री देवीलाल ने वीपी सिंह के मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था।
चाहे जो भी हो, पर उपेक्षित समाज विश्वनाथ प्रताप सिंह के इस साहस और दृष्टि को कभी भुला नहीं सकेगा।
10 अगस्त को आयोग की सिफारिशों के तहत सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था करने के ख़िलाफ़ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन आरंभ हो गया। 13 अगस्त 90 को मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने की अधिसूचना जारी हुई। 14 अगस्त को अखिल भारतीय आरक्षण विरोधी मोर्चे के अध्यक्ष उज्ज्वल सिंह ने आरक्षण व्यवस्था के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। 19 सितम्बर को दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र एसएस चौहान ने आरक्षण के विरोध में आत्मदाह किया और एक अन्य छात्र राजीव गोस्वामी बुरी तरह झुलस गए। 17 जनवरी 1991 को केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्गों की सूची तैयार की। 8 अगस्त 91 को रामविलास पासवान ने केंद्र सरकार पर आयोग की सिफ़ारिशों को पूर्ण रूप से लागू करने में विफलता का आरोप लगाते हुए जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया और वे गिरफ़्तार किर लिए गए। 25 सितंबर 91 को नरसिंहा राव सरकार ने सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान की। आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 59.5 प्रतिशत करने का निर्णय लिया जिसमें ऊँची जातियों के अति पिछड़ों को भी आरक्षण देने का प्रावधान किया गया। 1 अक्टूबर 91 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से आरक्षण के आर्थिक आधार का ब्यौरा माँगा।
जब मामला कोर्ट में अटका, तो लालू प्रसाद ने सबसे आगे बढ़ कर इस लड़ाई को थामा, रामजेठमलानी जैसे तेज़तर्रार वकील को न्यायालय में मज़बूती से मंडल का पक्ष रखने के लिए मनाया और लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया। 30 अक्टूबर 91 को मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के ख़िलाफ़ दायर याचिका की सुनवाई कर रहे उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने मामला नौ न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया। 16 नवंबर 1992 को इंदिरा साहनी मामले में उच्चतम न्यायालय ने क्रीमी लेयर की बाधा के साथ आंशिक रूप से मंडल कमीशन की सिफ़ारिश को लागू करने का निर्णय सुनाया। साथ ही, पीवी नरसिम्हा राव की तत्कालीन सरकार द्वारा आर्थिक रूप से विपन्न अगड़ी जातियों के लिए 10 % आरक्षण के नोटिफिकेशन को सिरे से खारिज़ किया, और कहा कि पिछड़ेपन का पैमाना महज आर्थिक नहीं हो सकता। इस मामले में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन सर्वप्रमुख क्राइटेरिया है। फ़ैसले में यह भी कहा गया कि एससी, एसटी और ओबीसी मिलाकर आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी के पार नहीं जानी चाहिए।
8 सितम्बर 1993 को केंद्र सरकार ने नौकरियों में पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण देने की अधिसूचना जारी की। 20 फरवरी 1994 को मंडल आयोग की रिफ़ारिशों के तहत वी. राजशेखर आरक्षण के जरिए नौकरी पाने वाले पहले अभ्यर्थी बने जिन्हें समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने नियुक्ति पत्र सौंपा। 1 मई 94 को गुजरात में राज्य सरकार की नौकरियों में मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के तहत आरक्षण व्यवस्था लागू करने का फ़ैसला हुआ। 11 नवंबर 94 को उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार की नौकरियों में कर्नाटक सरकार द्वारा 73 फीसदी आरक्षण के निर्णय पर रोक लगाई।
वर्षों धूल फांकने के बाद मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर सामाजिक न्यायपसंद नेताओं द्वारा सदन के अंदर लगातार धारदार बहस और सड़क पर लालू जैसे अदम्य उत्साही लड़ाकाओं के सतत संघर्ष के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री व पिछड़ों के उन्नायक श्री वी पी सिंह ने अपनी जातीय सीमा खारिज़ करते हुए, बुद्ध की परम्परा का निर्वहन करते हुए इस देश के अंदर लगातार बढ़ती जा रही विषमता की खाई को पाटने हेतु कमीशन की रपट को लागू करने का साहसिक, ऐतिहासिक व सराहनीय क़दम उठाकर यह स्पष्ट संदेश दिया कि इच्छाशक्ति हो व नीयत में कोई खोट न हो, तो मिली-जुली सरकार भी क़ुर्बानी की क़ीमत पर बड़े फ़ैसले ले सकती है।
वी.पी. सिंह ने जिस मंत्रालय के ज़िम्मे कमीशन की सिफारिश को अंतिम रूप देने का काम सौंपा था, उसकी लेटलतीफी देखते हुए उन्होंने उसे रामविलास पासवान के श्रम व कल्याण मंत्रालय में डाल दिया। उस समय यह मंत्रालय काफी बड़ा हुआ करता था और अल्पसंख्यक मामले,आदिवासी मामले, सामाजिक न्याय व अधिकारिता, श्रम, कल्याण सहित आज के छह मंत्रालयों को मिलाकर एक ही मंत्रालय होता था। श्री पासवान की स्वीकारोक्ति है कि तत्कालीन सचिव पी.एस. कृष्णन, जो दक्षिण भारतीय ब्राह्मण थे; ने इतने मनोयोग से प्रमुदित होकर काम किया कि दो महीने के अंदर मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को अंतिम रूप दे दिया गया।
दुनिया में आरक्षण से बढ़कर ऐसी कोई कल्याणकारी व्यवस्था नहीं बनी, जिसने इतने कम समय में अहिंसक क्रान्ति के ज़रिये समाज के इतने बड़े तबके को गौरवपूर्ण व गरिमापूर्ण जीवन जीने में इससे ज़्यादा लाभ पहुँचायी हो, जिससे इतनी बड़ी जमात के लोगों के जीवन-स्तर में क़ाबिले-ज़िक्र तब्दीली आई हो। सरकार की क़ुर्बानी देकर आने वाली पीढ़ियों की परवाह करने वाले जननेता वी.पी., शरद, लालू जैसी शख़्सियतों के बारे में ही राजनीतिक चिंतक जे. एफ. क्लार्क कह गये : “एक नेता अगले चुनाव के बारे में सोचता है, जबकि एक राजनेता अगली पीढ़ी के बारे में।”
वी.पी. सिंह ने साबित किया कि यदि दूरदृष्टि, सत्यनिष्ठा व इंटेग्रिटी हो, तो अल्पमत की गठबंधन सरकार भी समाजहित व देशहित में ऐतिहासिक व ज़रूरी फ़ैसले ले सकती है। जो काम उनके पहले के प्रधानमंत्री अपने पाँच साल के कार्यालय में भी नहीं कर पाये, उसे उन्होंने 8 महीने में कर दिखाया। उस वक़्त सत्ता व समानांतर सत्ता का सुख भोगने को आदी हो चुके जातिवादी नेताओं ने परिवर्तन की जनाकांक्षाओं को नकारते हुए उल्टे मंडल कमीशन को लागू कराने की मुहिम में जुटे नेताओं को जातिवादी कहना शुरू कर दिया।
मंडल आंदोलन के समय पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा ने कहा था, “जिस तरह से देश की आजादी के पूर्व मुस्लिम लीग और जिन्ना ने साम्प्रदायिकता फैलाया उसी तरह वी. पी सिंह ने जातिवाद फैलाया। दोनों समाज के लिए जानलेवा है।” वामपंथी दलों के एक धड़े ने इसे ‘मंदिर-मंडल फ्रेंज़ी’ कहकर मंडल और कमंडल दोनों को ही एक ही तराज़ू पर तोल दिया। पर, भाकपा-माकपा ने इस लड़ाई को अपना नैतिक समर्थन दिया था, अपनी सामर्थ्य के मुताबिक़ ऊर्जा जोड़ी थी। हालांकि, कुछ ‘अगर-मगर’ पर कभी अलग से विस्तारपूर्वक चर्चा की जाएगी।
तब तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने गरजते हुए कहा था, “चाहे जमीन आसमान में लटक जाए, चाहे आसमान जमीन पर गिर जाए, मगर मंडल कमीशन लागू होकर रहेगा। इस पर कोई समझौता नहीं होगा”। इसके पहले 90 में मंडल के पक्ष में माहौल बनाते हुए अलौली में लालू जी का कार्यक्रम था मिश्री सदा कालिज में। कर्पूरी जी को याद करते हुए उन्होंने कहा, “जब कर्पूरी जी आरक्षण की बात करते थे, तो लोग उन्हें मां-बहन-बेटी की गाली देते थे। और, जब मैं रिज़रवेशन की बात करता हूं, तो लोग गाली देने के पहले अगल-बगल देख लेते हैं कि कहीं कोई पिछड़ा-दलित-आदिवासी सुन तो नहीं रहा है। ज़ादे भचर-भचर किये तो कुटैबो करेंगे। ये बदलाव इसलिए संभव हुआ कि कर्पूरी जी ने जो ताक़त हमको दी, उस पर आप सबने भरोसा किया है।” किसी दलित-पिछड़े मुख्यमंत्री को बिहार में कार्यकाल पूरा करने नहीं दिया जाता था। श्रीकृष्ण सिंह के बाद सफलतापूर्वक अपना कार्यकाल पूरा करने वाले लालू प्रसाद पहले मुख्यमंत्री थे।
कपड़ा मंत्री शरद यादव, श्रम-कल्याण-रोज़गार मंत्री रामविलास पासवान, उद्योग मंत्री चौधरी अजीत सिंह, रेल मंत्री जॉर्ज फर्णांडिस, गृह राज्यमंत्री सुबोधकांत सहाय; सबने एक सुर से जातिवादियों और कमंडलधारियों को निशाने पर लिया।
रामविलास पासवान ने कहा, “वी पी सिंह ने इतिहास बदल दिया है। यह 90 % शोषितों और शेष 10 % लोगों के बीच की लड़ाई है। जगजीवन राम का ख़ुशामदी दौर बीत चुका है और रामविलास पासवान का उग्र प्रतिरोधी ज़माना सामने है”।
अजित सिंह ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा, “सिर्फ़ चंद अख़बार, कुछ राजनीतिक नेता और कुछ अंग्रेज़ीदा लोग मंडल कमीशन का विरोध कर रहे हैं जो कहते हैं कि मंडल मेरिट को फिनिश कर देगा। आपको मंडल की सिफ़ारिशों के लिए क़ुर्बानी तक के लिए तैयार रहना चाहिए”।
सुबोधकांत सहाय ने बड़ा उग्र होकर कहा था, "मंडल का चक्का बढ़ चुका है, जो भी जनता के इस चक्र के आगे आएगा, कुचल कर रख दिया जाएगा"
उस ऐतिहासिक सद्भावना रैली में वी पी सिंह ने कालजयी भाषण दिया था, “हमने तो आरक्षण लागू कर दिया। अब, वंचित-शोषित तबका तदबीर से अपनी तक़दीर बदल डाले, या अपने भाग्य को कोसे।” उन्होंने कहा, “बीए और एमए के पीछे भागने की बजाय युवाओं को ग़रीबों के दु:ख-दर्द का अध्ययन करना चाहिए। लोकसभा और राज्यसभा की 40 फ़ीसदी सीटें ग़रीबों के लिए आरक्षित कर देनी चाहिए। विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के पास जमा गैस और खाद एजेंसियों को ग़रीबों के बीच बांट देना चाहिए।” आगे वो बेफ़िक्र होकर कहते हैं, “मैं जानता हूँ कि मुझे प्रधानमंत्री के पद से हटाया जा सकता है, मेरी सरकार गिरायी जा सकती है। वे मुझे दिल्ली से हटा सकते हैं, मगर ग़रीबों के दरवाजे पर से नहीं।” एक कविता "लिफाफा" में वीपी सिंह ने लिखा:
पैगाम तुम्हारा
और पता उनका
दोनों के बीच
फाड़ा मैं ही जाऊँगा।
तमाम बदनामियाँ वीपी सिंह के सर आईं। लोगों ने यहाँ तक जुमला मारा, "राजा साहब ठीक आदमी थे। उनको अहिरा (शरद यादव) और दुसधा (रामविलास पासवान) ने बिगाड़ दिया"। सरकार गिरने और चंद्रशेखर द्वारा जनता दल को तोड़ कर कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बन जाने पर मर्यादा की सारी सीमाएं तार-तार करके ज्ञानियों-ध्यानियों ने फ़ब्तियाँ कसी:
अहिरे बुद्धि ठकुरे बल
अंग विशेष में मिल गया जनता दल।
वीपी सिंह ने एक वक़्त के बाद कहीं शांत किसी कोने में जाकर
सियासत के कोलाहल से ख़ुद को विलग कर लिया। अपनी क्षणिका "झाड़न" में वो अपने अहसास व्यक्त करते हैं:
पड़ा रहने दो मुझे
झटको मत
धूल बटोर रखी है
वह भी उड़ जाएगी।
ज़ाहिर है कि मंडल की सद्भावना रैली, पटना में वीपी सिंह के आह्वान के बाद पसमांदा समाज ने अपनी तक़दीर ख़ुद गढ़ना गवारा किया, और नतीजे सामने हैं। हाँ, सामाजिक बराबरी व स्वीकार्यता के लिए अभी और लम्बी तथा दुश्वार राहें तय करनी हैं, बहुत से रास्ते हमवार करने हैं। पर अफ़सोस कि मंडल आयोग को सिर्फ़ आरक्षण तक महदूद कर दिया गया, जबकि बी पी मंडल ने भूमिसुधार को भी ग़ैरबराबरी ख़त्म करने की दिशा में महत्वपूर्ण कारक माना था। स्वाधीनता के बाद भी संपत्ति का बंटवारा तो हुआ नहीं। जो ग़रीब, उपेक्षित, वंचित थे, वो आज़ादी के बाद भी ग़रीब और शोषित ही रहे। उनकी ज़िंदगी में कोई आमूलचूल बदलाव नहीं आया। अभी तो आरक्षण ठीक से लागू भी नहीं हुआ है, और इसे समाप्त करने की बात अभिजात्य वर्ग की तरफ से उठने लगी है।
96 में जब संयुक्त मोर्चा की सरकार बन रही थी तो ज्योति बसु, लालू प्रसाद समेत तब के सभी प्रमुख सियासतदां वीपी सिंह के पास प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव लेकर गए। लोग उनके घर पर बैठकर इंतज़ार करते रहे। वो रिंग रोड घूमने निकल गए और पद स्वीकार करने से मना कर दिया। सत्तालोलुपता व "एकात्म कुर्सीवाद" के इस दौर में यह एक नायाब मिसाल है। वीपी सिंह का जीवन दर्शन उनकी कविता "मुफ़लिस" से समझा जा सकता है:
मुफ़लिस से
अब चोर बन रहा हूँ मैं
पर
इस भरे बाज़ार से
चुराऊँ क्या
यहाँ वही चीजें सजी हैं
जिन्हे लुटाकर
मैं मुफ़लिस बन चुका हूँ।
वीपी सिंह एक बेहद संज़ीदा इंसान थे जो सियासत के ऊबड़खाबड़ रास्ते को हमवार करने के लिए साहित्य की सोहबत में ख़ुद को ले जाते थे और स्वानत: सुखाय कविताएँ भी लिखते थे। उनकी चुनिन्दा कविताओं के साथ एक बानगी:
मैं दुश्मन की छाया से लड़ रहा था
कैसे भी वार करूं
उसका सर धड़ से अलग नहीं
होता था
धरती खोद डाली
पर वह दफन नहीं होता था
उसके पास जाऊं
तो मेरे ही ऊपर सवार हो जाता था
खिसिया कर दांत कांटू
तो मुंह मिट्टी से भर जाता था
उसके शरीर में लहू नहीं था
वार करते करते मैं हांफने लगा
पर उसने उफ नहीं की
तभी एकाएक पीछे से
एक अट्ठहास हुआ
मुड़ कर देखा, तब पता चला
कि अब तक मैं
अपने दुश्मन से नहीं,
उसकी छाया से लड़ रहा था
वह दुश्मन, जिसे अभी तक
मैंने अपना दोस्त मान रखा था।
मैं अपने दोस्त का सर कांटू
या उसकी छाया को
दियासलाई से जला दूं।
(यह कविता पटना में 5 जनवरी 1987 को खादीग्राम जाते हुए रास्ते में लिखी, यह वही वक़्त था जब वे कांग्रेस के अंदर रहकर अपनी लड़ाई लड रहे थे और बोफ़ोर्स का मुद्दा मुंह बाए था जिस पर मुखर होकर उन्होंने 89 के चुनाव में मिस्टर क्लीन की छवि की धज्जियाँ उड़ा कर रख दीं। ये और बात है कि बाद में मृत्योपरांत राजीव गांधी बरी हो गए।)
पूर्व प्रधानमंत्री आइ. के. गुजराल ने अपनी आत्मकथा मैटर्स अॉफ़ डिस्क्रीशन में तत्कालीन प्रधानमंत्री एच. डी. देवेगौड़ा, अविभाजित जनता दल के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद और कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी के बीच चल रही खींचतान के दौरान युनाइटेड फ़्रंट गवर्नमेंट को बचा लेने और बलवाई भाजपा को सत्ता से दूर रखने के डायलिसिस की हालत में बेड पर लाचार पड़े वीपी सिंह के जतन का तफ़्सील से उल्लेख किया है। वीपी सिंह अपनी एक कविता "इश्तेहार" में लिखते हैं:
उसने उसकी गली नहीं छोड़ी
अब भी वहीं चिपका है
फटे इश्तेहार की तरह
अच्छा हुआ मैं पहले
निकल आया
नहीं तो मेरा भी वही हाल होता।
सरकार आख़िरकार गिर गई और बड़े ही नाटकीय तरीक़े से विदेश मंत्री गुजराल को कुछ की असहमतियों के साथ बाक़ी सब ने मिल कर प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया। वीपी सिंह की एक कविता है "मैं और वक़्त":
मैं और वक़्त
काफ़िले के आगे-आगे चले
चौराहे पर …
मैं एक ओर मुड़ा
बाकी वक़्त के साथ चले गये।
मौजूदा नस्ल को हर वक़्त सचेत रहने की ज़रूरत है कि लोकतंत्र को कभी भी फॉर ग्रांटिड नहीं लिया जा सकता। हर दिन यह अपने नागरिकों से सतर्कता व प्रतिबद्धता की अपेक्षा रखती है। यह खु़द के प्रति छलावा होगा कि जम्हूरियत अपनी हिफ़ाज़त ख़ुद कर लेगी। लोकतंत्र की आयु के लिहाज़ से 70 साल कोई दीर्घ अवधि नहीं होती। हिन्दुस्तानी जम्हूरियत अभी किशोरावस्था से निकली ही है। पर, इतनी कम उम्र में इसने इतने सारे रोग पाल लिए हैं कि बड़ी चिंता होती है। कुपोषण के शिकार दुनिया के सबसे बड़े व कमोबेश क़ामयाब, गाँधी, अम्बेडकर, जयप्रकाश, नंबूदरीपाद, लोहिया, फूले, सावित्री, झलकारी, फ़ातिमा, पेरियार, सहजानंद, आदि सियासी शख़्सियतों की आजीवन पूँजी व चिरटिकाऊ होने के सदिच्छाओं से अनुप्राणित इस बाहर से बुलन्द व अंदर से खोखले होते जा रहे लोकतंत्र को समय रहते इलाज़ की दरकार है।
आरक्षण, आरक्षण की ज़रूरत समाप्त करने के लिए लागू हुआ था। पर, क्या कीजै कि बड़ी सूक्ष्मता से इस देश में आरक्षण को डायल्युट किया जा रहा है और मानसिकता वही है कि हम तुम्हें सिस्टम में नहीं आने देंगे। पिछडों के उभार के प्रति ये असहिष्णुता दूरदर्शिता के लिहाज़ से ठीक नहीं है। केंद्र सरकार का डेटा है कि आज भी केंद्र सरकार की नौकरियों में वही 12 फ़ीसदी के आसपास पिछड़े हैं, जो कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के पहले भी अमूमन इतनी ही संख्या में थे। आख़िर कौन शेष 15 % आरक्षित सीटों पर कुंडली मार कर इतने दिनों से बैठा हुआ है? यही रवैया रहा तो लिख कर ले लीजिए कि इस मुल्क से क़यामत तक आरक्षण समाप्त नहीं हो सकता।
एक चर्चा को भाजपा और ब्राह्मणवादी लोग बड़े जोर शोर से उछाल रहे हैं कि पिछड़ों का हक़ पिछड़े ही मार रहे हैं। पिछड़ों का प्रतिनिधित्व जब आज भी केंद्र सरकार की नौकरियों में सारे ग्रुप्स मिलाकर 12% ही है, तो कौन किसकी हक़मारी कर रहा है? जबकि आरक्षण तो इस वर्ग के लिए 27% है। तो लड़ाई तो इस बात के लिए हो कि शेष 15 % पर कौन लोग नुमाइंदगी को रोक रहे हैं? पिछड़े-अतिपिछड़े के रूप में लेयरीफिकेशन (स्तरीकरण) बिल्कुल हो, किसी को एतराज़ क्यों हो! पर, उसका स्वरूप ऐसा न हो कि सीटें खाली चली जाएं जैसा मनुवादी ताक़तें चाहती हैं। एक फ़ार्मुला यह हो सकता है जिससे पत्रकार जितेन्द्र कुमार पूरी तरह इत्तेफाक़ रखते हैं कि जो सीटें अतिपिछड़े से नहीं भरी जा सके, उन्हें पिछड़ों से भरी जाए और जो पिछड़ों से भी खाली रह जाए, उन्हें क्रीमी लेयर से भरा जाए ताकि मूलतः पसमांदा वर्ग का कम-से-कम 27% प्रतिनिधित्व हो सके। पिछले साल युपीएससी ने सौ से ज़्यादा सफल अभ्यर्थियों को क्रीमी लेयर में फर्ज़ी तरीक़े से उलझा कर उन्हें कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगवा दिया। अभी भी राहत की ख़बर नहीं है।
जिसकी जितनी संख्या भारी/ उसकी उतनी हिस्सेदारी के प्रस्ताव को मानने में किनको दिक्कतें हैं? वो कौन लोग थे जिन्होंने संसद की सहमति के बावजूद जाति जनगणना में रोड़े अटकाए? प्रणव मुखर्जी व चिदंबरम ने इस कदर धोखाधड़ी की कि जाति जनगणना हुई ही नहीं। यह भी हास्यास्पद ही है कि एक सर्वे को जाति जनगणना मान कर उसके आंकड़े जारी करने की जिद हमारे नेता पालने लगे। जब उन्हें समझ में आई बात कि भारत सरकार के जनगणना आयोग द्वारा तो कभी कास्ट सेंसस कराया ही नहीं गया तो लोग ठगा हुआ महसूस कर रहे थे। देश की जनता के 4800 करोड़ रुपये भी खर्च हुए और उनके साथ छलावा भी हुआ।
आने वाले लोकसभा चुनाव में इस बात को जो दल अपने घोषणापत्र में शामिल करेंगे कि वो जनगणना आयोग द्वारा 2021 में कराई जाने वाली जनगणना में जाति गणना को शामिल करेंगे, वही इस देश की उत्पीड़ित जनता के सही मायने में हितैषी होंगे।
जाति जनगणना की जो बात करेगा
वही देश पर राज करेगा।
इस देश में गृहगणना हो जाती है, पशु गणना हो जाती है, मगर जाति जनगणना नहीं होती। भेड़-बकरी-गाय-भैंस-गदहा-सुअर की तो निनती होती है, पर आपकी गिनती नहीं होती। इसके पीछे के डर और साज़िश को समझिए। जैसे ही सही आबादी सामने आएगी, दलितों-आदिवासियों का राजनैतिक प्रतिनिधित्व बढ़ाना पड़ेगा। वो अक्लियतों की सही जनसंख्या सामने नहीं आने देना चाहते।
70 के दशक में हमारे देश की आबादी लगभग 60 करोड़ थी और केंद्र सरकार की नौकरियों में वो 4 लाख दलित-आदिवासी थे। आज देश की आबादी 125 करोड़ के आसपास है, मगर इन वर्गों की नुमाइंदगी करने वाले मात्र 1.5 लाख है। जब मंडल लगा, उसी समय उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की आंधी कांग्रेस ने चलाई और सराकारी नौकरियाँ उस सुनामी में उड़ गईं।
इतना ही नहीं, जिस नीट की सीट 28 हज़ार है, वहाँ ओबीसी के मात्र 68 लोग आ पाये हैं इस बार। क्या तमाशा बना के रखा है देश को!
आरक्षण ख़त्म करने की दिशा में पहला क़दम सरकार उठा चुकी है। संयुक्त सचिव स्तर के दस अधिकारियों की यह बिना परीक्षा लिए सीधी भर्ती करेगी। दिलीप मंडल विस्तार से बताते हैं कि ऐसा करके सरकार संविधान के कई अनुच्छेदों का सीधा उल्लंघन कर रही है। अनुच्छेद 15 (4) का यह सीधा उल्लंघन है, जिसमें प्रावधान है कि सरकार वंचितों के लिए विशेष प्रावधान करेगी। अनुच्छेद 16 (4) में लिखा है कि सरकार के किसी भी स्तर पर अगर वंचित समुदायों के लोग पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, तो उन्हें आरक्षण दिया जाएगा। ज्वांयट सेक्रेटरी लेबल पर चूंकि SC, ST, OBC के लोग पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, इसलिए उनकी नियुक्ति में आरक्षण न देने का आज का विज्ञापन 16(4) का स्पष्ट उल्लंघन है।
अनुच्छेद 15 और 16 मूल अधिकार हैं। यानी भारत सरकार नागरिकों के मूल अधिकारों के हनन की अपराधी है।
इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 315 से 323 में यह बताया गया कि केंद्रीय लोक सेवा आयोग यानी UPSC होगा, जो केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारियों को नियुक्त करेगा।
अनुच्छेद 320 क्या कहता है? Functions of Public Service Commissions का ज़िक्र है:
It shall be the duty of the Union and the State Public Service Commissions to conduct examinations for appointments to the services of the Union and the services of the State respectively.
ऐसे में सरकार UPSC को बाइपास करके और बगैर किसी परीक्षा और आरक्षण के अफसरों को सीधे नीतिगत पदों पर नियुक्त कैसे कर सकती है?
इसलिए, इस बेहया सरकार की ईंट से ईंट बजा देने का समय है, शालीनता-शिष्टाचार-संसदीय मर्यादा, वगैरह इसके सामने वक़्त ज़ाया करने के सामान हैं, इन्हें झटक दो, सर से पटक दो। जो लोग निष्पक्षता का उपदेश झाड़े, उसे झाड़ के रख दो। अभी जो बुज़ुर्ग महिलाएं इनके कपड़े फाड़ रही हैं, वो आगे चलके इनके मुंह ईंट से थकुचेंगी। और, हम-आप क्या करेंगे, यह अब भी न तय किये तो कब करेंगे? एड हॉक का लोभ है, मत कीजिए। बोलिए, लिखिए, जाइए लोगों को बताइए कि कितनी बदमाश और अपराधी सरकार है जो आपके मौलिक अधिकारों को कुचल रही है।
अमेरिका में भी दबे-कुचले समुदाय के लोगों की ज़िन्दगी संवारने व उन्हें मुख्यधारा में लाने हेतु अफरमेटिव एक्शन का प्रावधान है और वहाँ इसके प्रतिरोध में कभी कुतर्क नहीं गढ़े जाते। मुझे अमेरिकी कवयित्री एला व्हीलर विलकॉक्स याद आती हैं :
In India’s land one listens aghast
To the people who scream and bawl;
For each caste yells at a lower caste,
And the Britisher yells at them all.
(“In India’s Dreamy Land”)
अर्थात ,
भारतवर्ष में लोग बात सुनते
उन्हीं की जो चीखते व चिल्लाते ;
क्योंकि हर जाति दुर्बलतर जाति पर धौंस जमाती,
और, ब्रिटिशजन उन सब को हिकारत भरी नज़र से देखते.
(भारत की स्वप्निल ज़मीं पर)
जेएनयू जैसी जगह में भी आप पीएच.डी तो कर लेंगे, पर अध्यापन हेतु साक्षात्कार के बाद “नोट फाउंड सुटेबल” करार दे दिये जाएँगे। पर, ये भी थोड़ा संतोष देता था कि अब आप अपने जीवट, लगन, जुझारूपन व अध्यवसाय से पढ़ ले पा रहे थे। ये सदियों के विचित्र समाज की कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी। मगर, इस साल से तो युजीसी ग़ज़ट की आड़ में उपेक्षितों-शोषितों की कोई खेप निकट भविष्य में शोध के ज़रिए अपने समाज के क्रॉनिक बीमारियों को समझने व दूर करने के लिए विश्वविद्यालय की देहरी लांघ ही नहीं पाएंगे। हर जगह, हर छोटे-बड़े विभाग बंद कर दिए गए हैं। जेएनयू में पिछले साल एम.फिल.-पी.एचडी. के इंटीग्रेटेड प्रोग्राम में हुए एडमिशन की तुलना में 83% की भारी सीट कट के साथ मात्र 2017 में सिर्फ़ 102 सीटों पर दाखिले हुए। अर्जुन सिंह ने 2006 में उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर मंडल को जो विस्तार दिया था, उसमें पलीता लगा दिया गया है।
विनाशकारी युजीसी ग़ज़ट का हवाला देकर विश्वविद्यालयों में भारी सीट कट का फरमान सुनाया गया। तत्कालीन शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह के सद्प्रयास से उच्च शैक्षणिक संस्थानों में अभी तो पिछड़ों-पसमांदाओं के लिए इस आरक्षण को लागू हुए बमुश्किल 10 साल हुए हैं, और और अभी से कुछ लोगों की भृकुटि तनने लगी है।
इस साल 62 संस्थानों को 'स्वायत्त' घोषित कर उन्हें आर्थिक रूप से पंगु और कमज़ोर वर्गों के लिए शोषणकारी बना दिया गया। यह धीरे-धीरे संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को निजी हाथों में सौंप देने की साज़िश है। प्रफ़ेसर्स की बहाली के लिए जो पहले 200 प्वाइंट्स रोस्टर सिस्टम लागू था, उसे 13 प्वाइंट्स रोस्टर सिस्टम में तब्दील कर दिया गया। विश्वविद्यालय को इकाई न मान कर विभाग को इकाई माना जा रहा है और इस तरह हर वो तरीक़े ईजाद किये जा रहे हैं जिससे आरक्षण लागू न होने पाए जबकि संविधान की मूल भावना यह है कि हर वो तरीक़ा अपनाना है, ढूंढना है जिससे अफ़र्मेटिव एक्शन लागू किया जा सके। अब अगर किसी विभाग में एक साथ 7 लोगों की बहाली न हो तो दलित का नंबर ही नहीं आएगा, 14 पोस्ट एडवर्टाइज़ न हो तो आदिवासी की बारी ही नहीं आएगी और एक मुश्त 4 पोस्ट विज्ञापित न हों तो कोई पिछड़ा प्रफ़ेसर साहब नहीं बन पाएगा। यानी एक तरह से इंडियन एज्युकेशन सिस्टम का कंप्लीट गलगोटियाइज़ेशन, लवलियाइज़ेशन, अशोकाइजेशन, अमिटियाइज़ेशन और नाडराइजेशन हो गया है।
ऐसे में 26 नवंबर 69 को राज्यसभा में दिया गया भूपेंद्र बाबू का वक्तव्य याद आना लाज़मी है, “आज यह कहा जाता है कि विश्वविद्यालयों में जाने से साधारण छात्रों को रोकना चाहिए, अधिक संख्या में उनको नहीं जाने देना चाहिए। तो मेरा यह निश्चित मत है कि सरकार के या किसी भी आदमी के दिमाग़ में अगर यह हो कि देश के साधारण लड़कों को उच्च शिक्षा में जाने से रोका जाए, क्योंकि वह मेधावी नहीं है तो इस देश के लिए बहुत अनर्थकारी सिद्ध होगा, क्योंकि यह ऐसा देश है जिसका एक बहुत बड़ा वर्ग हज़ारों वर्षों से गुलामी में रह चुका है। साधारण स्तर का रहने पर भी वि.वि. जाने से उनको नहीं रोकना चाहिए। ... जी हां, उनको पढ़ने का मौक़ा मिले। उनको काम नहीं तो कम-से-कम पढ़ा कर तो छोड़ दीजिए, फिर चाहे वह सरकार को उलटकर या किसी भी तरह से जो कोई उपाय होगा, वह करेंगे। लेकिन, पढ़ने से किसी को नहीं रोकिए”।
पैरवीतंत्र पर हमला करते हुए उन्होंने 26 नवंबर 69 को कहा था, “बिहार में विश्वविद्यालय सेवा आयोग भी क़ायम हुआ है। मेरा कहना है कि इसमें बेकार का खर्च क्यों करते हो। वह सब करने की कोई ज़रूरत नहीं है। ... वह सेवा आयोग तो तिकड़मबाजी का अखाड़ा हो जाता है। उससे कोई योग्यता के आधार पर बहाली होती हो, ऐसी बात नहीं है। जिनकी पहुंच हो जाती है औऱ जो बड़े पैसे वाले लोग हैं, उनकी ज़ल्दी पहुंच हो जाती है और जो छोटी जाति के लोग हैं, उनकी सिफ़ारिश करने वाला कोई नहीं रहता है”।
नुमाइंदगी के मसले पर बोलते हुए 8 अप्रैल 69 को उन्होंने कहा, “हमारा संविधान कहता है कि लोकतांत्रिक ढंग से यहां की सरकार चलेगी। जो बालिग मताधिकार है, उसके आधार पर चुनाव होगा। बालिग मताधिकार के आधार पर संसद को बनाने और जनतंत्र को चलाने की बात है, उसके क्रियान्वयन के लिए यह जनप्रतिनिधित्व क़ानून बना है। लेकिन अब तक जो अनुभव हुआ है, उसके आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस देश की जनसंख्या की जो बनावट है चाहे जाति, धर्म, अर्थ या अन्य समुदाय है...उनका सरकार में या सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व होना चाहिए, वह अब तक नहींहो पाया है। इसलिए, हिंदुस्तान का जनतंत्र ठीक से नहीं चल रहा है”।
अगर बीएन मंडल, बी. पी. मंडल, कर्पूरी ठाकुर, जगदेव बाबू, वी. पी. सिंह, अर्जुन सिंह एवं उस वक़्त के संघर्ष के अपने जांबाज योद्धाओं को सच्चे अर्थों में हम याद करना व रखना चाहते हैं, तो हमें निकलना ही होगा सड़कों पर, तेज़ करने होंगे व बदलने भी पड़ेंगे प्रतिरोध के अपने औजार। आज जब बड़ी बारीकी, चतुराई व चालाकी से आरक्षण को डायल्युट किया जा रहा है, तो क्या आरक्षण बचाने के लिए लालू प्रसाद सरीखे नेता को फिर किसी रामजेठमलानी को वकील करना पड़ेगा या योद्धा सड़क पर उतरें!
20 अप्रैल को संविधान बचाओ मुहिम के तहत डीयू गेट पर हुए सामाजिक न्याय युवा सम्मेलन और एमएचआरडी पर धरना के समर्थन में बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने बहुत संज़ीदा संदेश भेजा जिसे सम्मेलन में मैंने पढ़ा। संदेश कुछ यूं है:
इस मुल्क में सामाजिक न्याय और समानता के दस्तावेज संविधान के निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने कहा था "शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो"। ये इस देश की त्रासदी ही है कि जिस RSS ने ये कहा था कि हम संविधान को नहीं मानते क्योंकि इसे एक अछूत (अम्बेडकर) ने बनाया है, वो लोग आज सत्ता में है और संविधान के जरिए बाबा साहब द्वारा दिए गए आरक्षण को नागपुर के संघ मुख्यालय से चलने वाली ये सरकार विश्विद्यालयों और पूरी उच्च शिक्षा से खत्म करने पर तुली हुई है। 1990 के बाद जब इस देश के वंचितों और शोषितों के पढ़ने का वक़्त आया, तब कमंडल की राजनीति करने वालों ने इस मुल्क में शिक्षा के सवाल को हटाकर देश और समाज को धर्म की आग में झोंकने की कोशिश की क्योंकि वो संघी सोच वाले लोग चाहते ही नहीं थे कि ग़रीब पढ़ पाएं।
5 मार्च को अस्सिस्टेंट प्रफ़ेसर की बहाली को लेकर UGC का आदेश तो विरोध को नापने का संघी तरीका है, असल साज़िश तो पूरी आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने की है।।
यहाँ मैं आप सबों को याद दिला दूं कि जब अक्टूबर 2015 में बिहार में चुनाव हो रहे थे, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक और मोदी सरकार के आका मोहन भागवत ने बयान दिया था कि "आरक्षण पर पुनर्विचार करना है, यानी कि इस मुल्क के ग़रीबों और वंचितों का आरक्षण समाप्त करना है"। तब बिहार की जनता और लालू जी ने संघ और भाजपा को ऐसा सबक सिखाया और ग़रीबों की आवाज़ बने कि पूरे बिहार से इन संघियों का राजनीतिक खात्मा हो गया। उसके बाद ही ग़रीबों की लड़ाई को मज़बूती से लड़ने की वजह से लालू जी को क़ैद में दमनकारी तरीक़े से रखा जा रहा है। सरकार में बैठे लोग ये नहीं चाहते है कि ग़रीब पढ़े क्योंकि वो पढ़कर अपना हक़ मांगेगे, ये सरकार वंचितों को उनका मौलिक हक़ तो नहीं ही देगी और साथ ही उनके हक़ की आवाज़ बुलंद करने वालों का हाल लालू जी की तरह करेगी। बिहार से लेकर गुजरात तक और JNU से लेकर HCU तक एक ही चीज समान है, वो है- सही की बात करने वालों का दमन ।
नेहरू कहते थे कि "University should be the place for adventure of Ideas", लेकिन ये बहुत दुख की बात है कि विश्विद्यालय में विचारों को दक्षिणपंथी फ़ासीवादियों द्वारा विश्विद्यालय प्रशासन के जरिये क़ैद किया जा रहा है। आज वक़्त की जरूरत है कि हम सब अपने छोटे-मोटे मतभेद दरकिनार कर उच्च शिक्षा को नेस्तनाबूद करने की साजिश करने वाली सरकार को वैसा जवाब दें जैसा 2015 में लालू जी ने दिया था। इसके लिए हम सब अमनपसंद और गैरबराबरी के ख़िलाफ़ संघर्ष को प्रतिबद्ध लोगों को एक साथ आना होगा।
हमलोगों में कोई वामपंथी हो सकता है, कोई अम्बेडकरवादी, कोई समाजवादी, कोई नेहरूवादी और कोई लोहियावादी, लेकिन हम सब नागपुर के संघी फासीवाद के विरोधी हैं और याद रखिए कि एकता में बल है और हम सब को इस मुल्क के अस्तित्व पर आए संकट से मिलकर ही निपटना होगा।।
जय भीम, जय बहुजन!
जय मंडल, जय हिंद!
मुझे हैरत होती है गोल-गोल घुमाने वाले मित्रों की ज़हनियत पर।मालूम हो कि अमेरिकी मीडिया हायली कॉरपोरेटाइज़्ड है, मगर वहाँ अफ़र्मेटिव एक्शन का प्रावधान फोर्थ इस्टेट तक में है ताकि न्यूज़रूम डायवर्सिटी बनी रहे। आप यहाँ उपदेश देते रहिए। कुछ भी चर्चा कीजिए तो एक ही राग कि सारे सवर्ण एक जैसे नहीं हैं। अरे भैया, कौन कह रहा है कि सब धन बाइस पसेरी है! मैं ख़ुद वहाँ नहीं होता जहाँ आज हूँ, अगर जीपी दूबे, युएन मल्लिक, डीटीके दत्ता, मसऊद अहमद, आलोक चौबे, केके झा, आरसी घोष, अंजनी राय, अखिलेश्वर ठाकुर, विजयकांत दास, राजीव मल्लिक, मिथिलेश सिन्हा, पीके वर्मा, एके श्रीवास्तव, पीएस मिश्रा, गौतम चंद्रा, युके सिन्हा, डॉ. राजीव, प्रो. आनंद शंकर सहाय, प्रो. कामाख्या प्रसाद, डॉ. नीलिमा, शीरीं ज़बां ख़ानम, डॉ. मनोज, आशुतोष राजेश, फ़ारुख़ अली, केसी मिश्रा, श्रीमती केतकी, आनंद प्रधान, प्रो. राघवाचारी, सुनीत टंडन, हेमंत जोशी, कैरन गैब्रियल, पीके विजयन, अमितसेन गुप्ता, डॉ. वंदना पांडेय, राकेश बटबयाल, दीपक कुमार, आदि की सोहबत में नहीं पलता और उनका असीम स्नेह व उत्साहवर्धन नहीं मिलता। पर, चर्चा आप किसी मुद्दे पर कीजिए और लोग डायवर्ट करके कहीं और लेके चले जाते हैं। उस पर तुर्रा ये कि जातपात से ऊपर उठने की नसीहत दे डालते हैं।
और जो लोग ये तर्क देते हैं कि दबे-कुचलों की बात करने के चलते उनका अगड़ा समाज भी उन्हें दुत्कार देता है, वो न इधर के रह पाते हैं न उधर के; तो मानिए कि यह बस आपके साथ नहीं होता। सौहार्दपूर्ण सहअस्तित्व की बात करने वाले उपेक्षितों को भी उनका 'समाज' बैलाने को उद्यत रहता है क्योंकि वो बार-बार धोखा नहीं खाना चाहता। उनके आक्रोश को समझने के बजाय हुथियाड़िएगा, तो उनके क्रोध की आग और भड़केगी। प्रेम और विश्वास से ही समाज आगे बढ़ेगा, चालाकी-धूर्तता-तिकड़म-उकसावे के सहारे किसी का भरोसा नहीं जीता जा सकता। और अव्वल तो ये कि चिकनी चुपड़ी बातें करके समस्या को ढकने के बजाय आप क्या कर रहे हैं अपने स्तर से, यही देखा जाएगा। एक शख़्स के बारे में पता चला कि अपने चैनल में चुन-चुन के सजातीय और बाक़ी 'अगड़े' लोगों को भर दिया, और आप बात करते हैं नैरेटिव की। कौन क्या कर रहा है बंद कमरे में, लोगों को पता नहीं चलता क्या। पर, जो ही बचीखुची आवाज़ें हैं, उन्हीं में से कुछ बात बनेगी।
इन्हीं ज़र्रों से होंगे कल नये कुछ कारवाँ पैदा
जो ज़र्रे आज उड़ते हैं गुबारे-कारवाँ होकर।
ज्ञानियों-ध्यानियों द्वारा जातिवादी कहलाने के भय से मुक्त होकर उनसे बगैर किसी सर्टिफिकेट की आकांक्षा के आज मुंहामुंही ही नहीं, भिड़ाभिड़ी करने का वक़्त है। किसी को जातिवादी करार देने से पहले आईने में वो अपनी सूरत देख लें या नोयडा की मंडी में घूम आएं। एक सर्वे यहाँ रख रहा हूँ और हां, ये सर्वे कोई मेरा नहीं, बल्कि अनिल चमाड़िया, जितेन्द्र कुमार और योगेन्द्र यादव का है, जिसके पीछे दिमाग़ उर्मिलेश जी का भी उतना ही था। तो, मुझे लेबल करने के पूर्व अपने क्षेत्र के इन दिग्गजों के काम पर भी एक नज़र डालने की जहमत कर ली जाए।
जिसे आप मेनस्ट्रीम मीडिया कहते हैं, वह दरअसल मनुस्ट्रीम मीडिया है। रोबिन जॉफ़री ने भारतीय पत्रकारों के ऊपर सर्वे में पाया कि "अधिकांश पेशेवर पत्रकार 'ऊंची जातियों' से आते हैं। यह अकारण नहीं है कि ग़रीबों और दलितों के हित पब्लिक डिस्कशन के एजेंडे में कभी-कभार ही रहते हैं"। जून 2006 में योगेन्द्र यादव, अनिल चमाड़िया और जितेंद्र कुमार द्वारा किया गया रिसर्च इस बात की ताक़ीद करता है कि किस कदर समाचारकक्ष विविधता (न्युज़रूम डायवर्सिटी) का घनघोर अभाव है। Newsroom Employment Diversity Survey (Newsroom Employment Census) एक बार हो जाए क़ायदे से, तो आप चकरा जाएंगे। 37 अंग्रेजी और हिंदी के अख़बार व टीवी चैनल्स के 315 पत्रकारों के सर्वे में पाया गया कि ऊंची जातियां जिनकी आबादी इस देश में अनुमानतः 16 % है; के पत्रकार राष्ट्रीय मीडिया के डिसीजन मेकिंग में कुल 88 %(ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य, खत्री - 86 %; मराठा, जाट, रेड्डी - 2 %) हैं, जिनमें सिर्फ़ ब्राह्मण (भूमिहार, त्यागी को मिलाकर) 49 फ़ीसदी है।
एससी, एसटी समुदाय का एक भी पत्रकार इस डिसीजन मेकिंग का हिस्सा नहीं है। 43 % आबादी वाले ओबीसी का प्रतिनिधित्व मात्र 4 % है। 13.4 फ़ीसदी मुसलमानों की नुमाइंदगी 4 % है। 2.3 प्रतिशत आबादी वाले क्रिश्चियन नेशनल मीडिया में 4 % हैं। महिलाएं 17 प्रतिशत हैं निर्णय लेने की प्रक्रिया में, और इंग्लिश मीडिया में वे 32 प्रतिशत हैं।
A comprehensive survey and analysis of Indian journalists in terms of caste-representation
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A/C to Robin Jeffrey's survey of Indian journalists, most professional journalists in India belong to the higher castes. This is perhaps why the interests of the poor and the dalits are rarely on the agenda of public discussion. Jeffrey's conclusion gets strength by a survey of 315 senior journalists working for 37 English and Hindi dailies and television news channels (survey on National Media Devoid of Social Diversity, by Yogendra Yadav, Anil Chamaria and Jitendra Kumar, conducted in June 2006, UNI Report in Maharashtra Herald, Pune).
The survey found that India's national media lacks social diversity and does not reflect the country's social profile... Hindu upper-caste men dominate the media. They are about 8 % of the population but among the key decision makers of the national media; their share is as high as 71 %. Twice-born Hindus ('dwijas'' comprising Brahmins, Rajputas, Vaishyas and Khatris) account for about 16 % of the population but are 86 % among key decision-makers. Brahmins (including Bhumihars and Tyagis) alone constitute 49 % of the key media personnel; if non-dwija forward castes like Marathas, Patels, Jats and Reddys are also added to this list, the total share of the upper-castes would be 88 %.
Dalits and adivasis are conspicuous by their absence among the decision makers : not even one of the sample of 315 journalists belonged to the SCs or STs. The proportion of the OBCs is abysmally low : only 4% compared to their population of around 43% in the country.
Muslims comprise 13.4% of the population but have a share of only 4% in top media posts. However, the share of Christians who make up 2.3 % of the population is 4%. And women make up 17% of key decision makers in the media, 32% women are in English media.
तो यह है हमारे लोकतंत्र की प्रहरी ख़बरपालिका के अंदर का समाजी सच जिस पर बात शुरू हो तो संभ्रांत लोग ऐसे नाक पर रूमाल रखते हैं मानो वो गंदी गली से गुज़र रहे हों और हमने कर दी हो कोई गंदी-घिनौनी बात। मीडिया की मंडी सचमुच घिनौना रूप अख़्तियार कर रही है जहाँ भाई-भतीजावाद और जातिवाद सर चढ़ कर बोलता है। दूसरी बात यह बिकाऊ कतई नहीं है। इसे कोई दलित-आदिवासी-पिछड़ा-पसमांदा-अक्लियत दुनिया की किसी टकसाल से नहीं ख़रीद सकता। ब्रह्ममीडिया को सिर्फ़ मनुवादी लोग संचालित-निर्देशित-नियंत्रित करते हैं।
जो लोग रात-दिन आरक्षण के ख़िलाफ़ आग उगलते हों, जिन्हें इस अखंड देश के पाखंड से भरे खंड-खंड समाज की रत्ती भर समझ न हो, उनसे मगजमारी करके अपना बेशक़ीमती वक़्त क्यों ज़ाया किया जाये ? ऐसे लोगों की सोची-समझी, शातिराना बेवकूफ़ी व धूर्तता की अनदेखी करें। न वो ख़ुद को बदलने को तैयार हैं, न ही हो रहे बदलाव को क़ुबूल करने को राज़ी। इसलिए, जो भी समय पढ़ाई के बाद बचेगा, उसे वंचित समाज की जागरूकता, बेहतरी, उसकी शिक्षा व उसके उन्नयन के लिए लगाएं, तभी "पे बैक टू सोसायटी" की संकल्पना पूरी होगी। यही असली सुकून व संतोष देगा।
- जयन्त जिज्ञासु
(लेखक संप्रति जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ में शोधार्थी हैं)
90 के दशक में पटना के गाँधी मैदान की सद्भावना रैली में देश के सभी बड़े नेताओं की मौजूदगी में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद जनसैलाब के बीच जोशोखरोश के साथ वी पी सिंह का अभिनंदन कर रहे थे :
राजा नहीं फ़कीर है
भारत की तक़दीर है।
7 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने की थी। शरद यादव, रामविलास पासवान, अजित सिंह, जार्ज फ़र्णांडिस, मधु दंडवते, सुबोधकांत सहाय, आदि की सदन के अंदर धारदार बहसों व सड़क पर लालू प्रसाद जैसे नेताओं के संघर्षों की परिणति वीपी सिंह द्वारा पिछड़ोत्थान के लिए ऐतिहासिक, साहसिक व अविस्मरणीय फ़ैसले के रूप में हुई।
वीपी सिंह का कालजयी वक्तव्य जनमानस पर आज भी अंकित है-
"मण्डल से राजनीति का ग्रैमर बदल गया और एक चेतना डिप्राइव्ड सेक्शन में आई, जो पावर स्ट्रक्चर में नहीं थे, उनको एक कॉन्सशनेस आयी । हम समझते हैं, ये कॉन्सशनेस
इंडिविजुअल पार्टी या इंडिविजुअल लीडर से से बड़ी चीज़ आई। हो सकता है, कोई एक पिछड़े वर्ग का नेता इलेक्शन हारे या जीते, लेकिन उस पर यह आरोप नहीं लगाना चाहिए कि मंडल सफल हुआ या विफल क्योंकि पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक का सोशल कंपोजिशन देखें तो वह बदल रहा है। पार्टी कोई भी हो, डिप्राइव्ड सेक्शन के लोग ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में आ रहे हैं जिससे डिसीज़न मेकिंग बॉडीज़ का सोशल कंपोजिशन बदल गया है।"
कहां तक पहुंचा आरक्षण का सफ़र, एक नज़र:
29 जनवरी 1953 को प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग साहित्यकार
दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर की अध्यक्षता में गठित हुआ। कालेलकर ने अपनी रिपोर्ट 30 मार्च 1955 को केंद्र सरकार को सौंपी थी। अपनी अनुशंसाओं में 1961 की जनगणना जातिगत आधार पर कराने, सम्पूर्ण स्त्री को पिछड़ा मानते हुए मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि में 70%, सभी सरकारी व स्वायत्तशासी संस्थाओं में प्रथम श्रेणी में 25%, द्वितीय श्रेणी में 33.33% तथा तृतीय व चतुर्थ श्रेणी में 40% आरक्षण की सिफ़ारिश कालेलकर ने की थी। यह रिपोर्ट अपने आप में अद्भुत इसलिए है कि तमाम विसंगतियों और ग़ैर बराबरी का ज़िक्र करने के बाद रिपोर्ट बनाने वाला ही आख़िर में नोट लिखता है कि इसे फिलहाल लागू नहीं किया जाए। कहते हैं कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित नेहरू ने पंडित कालेलकर की सिफारिशें ख़ारिज कर दी थी और रिपोर्ट पर कालेलकर से जबरन लिखवा लिया था कि इसे लागू करने से सामाजिक सद्भाव बिगड़ जायेगा, अतः इसे लागू न किया जाय।
392 पृष्ठ की मंडल कमीशन की रिपोर्ट देश को सामाजिक-आर्थिक विषमता से निबटने का एक तरह से मुकम्मल दर्शन देती है जिसे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व सांसद बी.पी. मंडल ने अपने साथियों के साथ बड़ी लगन से तैयार किया था। 20 दिसंबर 1978 को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अनुच्छेद 340 के तहत 6 सदस्यीय नए पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की घोषणा सदन में की जिसके अध्यक्ष बीपी मंडल व सचिव गिल साहब थे। आयोग की विज्ञप्ति 1 जनवरी, 1979 को जारी की गई, जिसकी रिपोर्ट आयोग ने 31 दिसंबर 1980 को गृहमंत्री ज्ञानी जेल सिंह को सौंपी, राष्ट्रपति ने अनुमोदित किया। 30 अप्रैल 1982 में इसे सदन के पटल पर रखा गया, जो 10 वर्ष तक फिर ठंडे बस्ते में रहा। इसे न इंदिरा गांधी ने लागू किया न राजीव गांधी ने। बीपी मंडल ने 3000 से ज़्यादा जातियों को एक जमात के रूप में सामने लाया और उनकी संख्या 52 % सामने आई। इस रपट की अहम सिफ़ारिशें कुछ यूं थीं:
पिछड़ों को सरकारी सेवाओं में 27% आरक्षण, प्रोन्नति में पिछड़ों को आरक्षण, पिछड़ों का क़ोटा न भरने पर तीन साल तक खाली रखने की संस्तुति, SC/ST की तरह ही आयु सीमा में OBC को छूट देना, SC/ST की तरह ही पदों के प्रत्येक वर्ग के लिए सम्बन्धित पदाधिकारियों द्वारा रोस्टर प्रणाली अपनाने का प्रावधान, वित्तीय सहायता प्राप्त निजी क्षेत्र में पिछड़ों का आरक्षण बाध्यकारी बनाने की सिफारिश, कॉलेज, युनिवर्सिटीज़ में आरक्षण योजना लागू करने की सिफ़ारिश, पिछड़े वर्ग को फ़ीस राहत, छात्रवृत्ति, छात्रावास, मुफ़्त भोजन, किताब, कपड़ा उपलब्ध कराने की सिफ़ारिश, वैज्ञानिक, तकनीकी व व्यावसायिक संस्थानों में पिछड़ों को 27% आरक्षण देने की सिफ़ारिश, पिछड़े वर्ग के छात्रों को विशेष कोचिंग का इंतजाम करने की सिफ़ारिश, पिछड़े वर्ग के भूमिहीन मजदूरों को भूमि देने की सिफ़ारिश, पिछड़ों की तरक्की के लिए पिछड़ा वर्ग विकास निगम बनाने की सिफ़ारिश, राज्य व केंद्र स्तर पर पिछड़ा वर्ग का अलग मंत्रालय बनाने की सिफ़ारिश एवं
पिछड़ा वर्ग आयोग बनाने की सिफ़ारिश।
बोफ़ोर्स विवाद को लेकर वीपी सिंह ने जांच के लिए फाइल आगे बढ़ा दी थी, राजीव गांधी से मनमुटाव के बाद इस्तीफ़ा देकर उन्होंने अरुण नेहरू और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान के साथ मिलकर जनमोर्चा का गठन किया। जब जनता दल बना तो उसने 89 के लोकसभा चुनाव में मंडल की सिफारिशें लागू करने की बात घोषणापत्र में शामिल किया।
मंडल कमीशन लागू होने की दास्तान भी कोई कम दिलचस्प नहीं है। हरियाणा में मेहम कांड और कुछ अन्य बिंदुओं पर ताऊ देवीलाल से वीपी सिंह की खटपट कुछ इस कदर बढ़ गई थी कि मंत्रिमंडल से उन्हें ड्रॉप करने तक की बात हो गई। देवीलाल अपना शक्ति-प्रदर्शन करने के लिए एक विशाल रैली करने जा रहे थे। बस यहीं पर शरद यादव ने वीपी सिंह के सामने एक शर्त रख दी कि या तो रैली से पहले मंडल लगाइए, नहीं तो हम देवीलाल जी के साथ अपनी पुरानी यारी निभाएंगे। लगातार सरकार पर मंडराते ख़तरे और मध्यावधि चुनाव की आशंका को देखते हुए जनता दल के जनाधार को और ठोस विस्तार देने की आकांक्षा पाले वी.पी. सिंह की सरकार ने अंततः 7 अगस्त 1990 को सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए 27% आरक्षण लागू करने की घोषणा की। 9 अगस्त को उपप्रधानमंत्री देवीलाल ने वीपी सिंह के मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था।
चाहे जो भी हो, पर उपेक्षित समाज विश्वनाथ प्रताप सिंह के इस साहस और दृष्टि को कभी भुला नहीं सकेगा।
10 अगस्त को आयोग की सिफारिशों के तहत सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था करने के ख़िलाफ़ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन आरंभ हो गया। 13 अगस्त 90 को मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने की अधिसूचना जारी हुई। 14 अगस्त को अखिल भारतीय आरक्षण विरोधी मोर्चे के अध्यक्ष उज्ज्वल सिंह ने आरक्षण व्यवस्था के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। 19 सितम्बर को दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र एसएस चौहान ने आरक्षण के विरोध में आत्मदाह किया और एक अन्य छात्र राजीव गोस्वामी बुरी तरह झुलस गए। 17 जनवरी 1991 को केंद्र सरकार ने पिछड़े वर्गों की सूची तैयार की। 8 अगस्त 91 को रामविलास पासवान ने केंद्र सरकार पर आयोग की सिफ़ारिशों को पूर्ण रूप से लागू करने में विफलता का आरोप लगाते हुए जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया और वे गिरफ़्तार किर लिए गए। 25 सितंबर 91 को नरसिंहा राव सरकार ने सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान की। आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 59.5 प्रतिशत करने का निर्णय लिया जिसमें ऊँची जातियों के अति पिछड़ों को भी आरक्षण देने का प्रावधान किया गया। 1 अक्टूबर 91 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से आरक्षण के आर्थिक आधार का ब्यौरा माँगा।
जब मामला कोर्ट में अटका, तो लालू प्रसाद ने सबसे आगे बढ़ कर इस लड़ाई को थामा, रामजेठमलानी जैसे तेज़तर्रार वकील को न्यायालय में मज़बूती से मंडल का पक्ष रखने के लिए मनाया और लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया। 30 अक्टूबर 91 को मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के ख़िलाफ़ दायर याचिका की सुनवाई कर रहे उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने मामला नौ न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया। 16 नवंबर 1992 को इंदिरा साहनी मामले में उच्चतम न्यायालय ने क्रीमी लेयर की बाधा के साथ आंशिक रूप से मंडल कमीशन की सिफ़ारिश को लागू करने का निर्णय सुनाया। साथ ही, पीवी नरसिम्हा राव की तत्कालीन सरकार द्वारा आर्थिक रूप से विपन्न अगड़ी जातियों के लिए 10 % आरक्षण के नोटिफिकेशन को सिरे से खारिज़ किया, और कहा कि पिछड़ेपन का पैमाना महज आर्थिक नहीं हो सकता। इस मामले में सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन सर्वप्रमुख क्राइटेरिया है। फ़ैसले में यह भी कहा गया कि एससी, एसटी और ओबीसी मिलाकर आरक्षण की सीमा 50 फ़ीसदी के पार नहीं जानी चाहिए।
8 सितम्बर 1993 को केंद्र सरकार ने नौकरियों में पिछड़े वर्गों को 27 फीसदी आरक्षण देने की अधिसूचना जारी की। 20 फरवरी 1994 को मंडल आयोग की रिफ़ारिशों के तहत वी. राजशेखर आरक्षण के जरिए नौकरी पाने वाले पहले अभ्यर्थी बने जिन्हें समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने नियुक्ति पत्र सौंपा। 1 मई 94 को गुजरात में राज्य सरकार की नौकरियों में मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के तहत आरक्षण व्यवस्था लागू करने का फ़ैसला हुआ। 11 नवंबर 94 को उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार की नौकरियों में कर्नाटक सरकार द्वारा 73 फीसदी आरक्षण के निर्णय पर रोक लगाई।
वर्षों धूल फांकने के बाद मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर सामाजिक न्यायपसंद नेताओं द्वारा सदन के अंदर लगातार धारदार बहस और सड़क पर लालू जैसे अदम्य उत्साही लड़ाकाओं के सतत संघर्ष के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री व पिछड़ों के उन्नायक श्री वी पी सिंह ने अपनी जातीय सीमा खारिज़ करते हुए, बुद्ध की परम्परा का निर्वहन करते हुए इस देश के अंदर लगातार बढ़ती जा रही विषमता की खाई को पाटने हेतु कमीशन की रपट को लागू करने का साहसिक, ऐतिहासिक व सराहनीय क़दम उठाकर यह स्पष्ट संदेश दिया कि इच्छाशक्ति हो व नीयत में कोई खोट न हो, तो मिली-जुली सरकार भी क़ुर्बानी की क़ीमत पर बड़े फ़ैसले ले सकती है।
वी.पी. सिंह ने जिस मंत्रालय के ज़िम्मे कमीशन की सिफारिश को अंतिम रूप देने का काम सौंपा था, उसकी लेटलतीफी देखते हुए उन्होंने उसे रामविलास पासवान के श्रम व कल्याण मंत्रालय में डाल दिया। उस समय यह मंत्रालय काफी बड़ा हुआ करता था और अल्पसंख्यक मामले,आदिवासी मामले, सामाजिक न्याय व अधिकारिता, श्रम, कल्याण सहित आज के छह मंत्रालयों को मिलाकर एक ही मंत्रालय होता था। श्री पासवान की स्वीकारोक्ति है कि तत्कालीन सचिव पी.एस. कृष्णन, जो दक्षिण भारतीय ब्राह्मण थे; ने इतने मनोयोग से प्रमुदित होकर काम किया कि दो महीने के अंदर मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को अंतिम रूप दे दिया गया।
दुनिया में आरक्षण से बढ़कर ऐसी कोई कल्याणकारी व्यवस्था नहीं बनी, जिसने इतने कम समय में अहिंसक क्रान्ति के ज़रिये समाज के इतने बड़े तबके को गौरवपूर्ण व गरिमापूर्ण जीवन जीने में इससे ज़्यादा लाभ पहुँचायी हो, जिससे इतनी बड़ी जमात के लोगों के जीवन-स्तर में क़ाबिले-ज़िक्र तब्दीली आई हो। सरकार की क़ुर्बानी देकर आने वाली पीढ़ियों की परवाह करने वाले जननेता वी.पी., शरद, लालू जैसी शख़्सियतों के बारे में ही राजनीतिक चिंतक जे. एफ. क्लार्क कह गये : “एक नेता अगले चुनाव के बारे में सोचता है, जबकि एक राजनेता अगली पीढ़ी के बारे में।”
वी.पी. सिंह ने साबित किया कि यदि दूरदृष्टि, सत्यनिष्ठा व इंटेग्रिटी हो, तो अल्पमत की गठबंधन सरकार भी समाजहित व देशहित में ऐतिहासिक व ज़रूरी फ़ैसले ले सकती है। जो काम उनके पहले के प्रधानमंत्री अपने पाँच साल के कार्यालय में भी नहीं कर पाये, उसे उन्होंने 8 महीने में कर दिखाया। उस वक़्त सत्ता व समानांतर सत्ता का सुख भोगने को आदी हो चुके जातिवादी नेताओं ने परिवर्तन की जनाकांक्षाओं को नकारते हुए उल्टे मंडल कमीशन को लागू कराने की मुहिम में जुटे नेताओं को जातिवादी कहना शुरू कर दिया।
मंडल आंदोलन के समय पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा ने कहा था, “जिस तरह से देश की आजादी के पूर्व मुस्लिम लीग और जिन्ना ने साम्प्रदायिकता फैलाया उसी तरह वी. पी सिंह ने जातिवाद फैलाया। दोनों समाज के लिए जानलेवा है।” वामपंथी दलों के एक धड़े ने इसे ‘मंदिर-मंडल फ्रेंज़ी’ कहकर मंडल और कमंडल दोनों को ही एक ही तराज़ू पर तोल दिया। पर, भाकपा-माकपा ने इस लड़ाई को अपना नैतिक समर्थन दिया था, अपनी सामर्थ्य के मुताबिक़ ऊर्जा जोड़ी थी। हालांकि, कुछ ‘अगर-मगर’ पर कभी अलग से विस्तारपूर्वक चर्चा की जाएगी।
तब तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने गरजते हुए कहा था, “चाहे जमीन आसमान में लटक जाए, चाहे आसमान जमीन पर गिर जाए, मगर मंडल कमीशन लागू होकर रहेगा। इस पर कोई समझौता नहीं होगा”। इसके पहले 90 में मंडल के पक्ष में माहौल बनाते हुए अलौली में लालू जी का कार्यक्रम था मिश्री सदा कालिज में। कर्पूरी जी को याद करते हुए उन्होंने कहा, “जब कर्पूरी जी आरक्षण की बात करते थे, तो लोग उन्हें मां-बहन-बेटी की गाली देते थे। और, जब मैं रिज़रवेशन की बात करता हूं, तो लोग गाली देने के पहले अगल-बगल देख लेते हैं कि कहीं कोई पिछड़ा-दलित-आदिवासी सुन तो नहीं रहा है। ज़ादे भचर-भचर किये तो कुटैबो करेंगे। ये बदलाव इसलिए संभव हुआ कि कर्पूरी जी ने जो ताक़त हमको दी, उस पर आप सबने भरोसा किया है।” किसी दलित-पिछड़े मुख्यमंत्री को बिहार में कार्यकाल पूरा करने नहीं दिया जाता था। श्रीकृष्ण सिंह के बाद सफलतापूर्वक अपना कार्यकाल पूरा करने वाले लालू प्रसाद पहले मुख्यमंत्री थे।
कपड़ा मंत्री शरद यादव, श्रम-कल्याण-रोज़गार मंत्री रामविलास पासवान, उद्योग मंत्री चौधरी अजीत सिंह, रेल मंत्री जॉर्ज फर्णांडिस, गृह राज्यमंत्री सुबोधकांत सहाय; सबने एक सुर से जातिवादियों और कमंडलधारियों को निशाने पर लिया।
रामविलास पासवान ने कहा, “वी पी सिंह ने इतिहास बदल दिया है। यह 90 % शोषितों और शेष 10 % लोगों के बीच की लड़ाई है। जगजीवन राम का ख़ुशामदी दौर बीत चुका है और रामविलास पासवान का उग्र प्रतिरोधी ज़माना सामने है”।
अजित सिंह ने अपने विचार प्रकट करते हुए कहा, “सिर्फ़ चंद अख़बार, कुछ राजनीतिक नेता और कुछ अंग्रेज़ीदा लोग मंडल कमीशन का विरोध कर रहे हैं जो कहते हैं कि मंडल मेरिट को फिनिश कर देगा। आपको मंडल की सिफ़ारिशों के लिए क़ुर्बानी तक के लिए तैयार रहना चाहिए”।
सुबोधकांत सहाय ने बड़ा उग्र होकर कहा था, "मंडल का चक्का बढ़ चुका है, जो भी जनता के इस चक्र के आगे आएगा, कुचल कर रख दिया जाएगा"
उस ऐतिहासिक सद्भावना रैली में वी पी सिंह ने कालजयी भाषण दिया था, “हमने तो आरक्षण लागू कर दिया। अब, वंचित-शोषित तबका तदबीर से अपनी तक़दीर बदल डाले, या अपने भाग्य को कोसे।” उन्होंने कहा, “बीए और एमए के पीछे भागने की बजाय युवाओं को ग़रीबों के दु:ख-दर्द का अध्ययन करना चाहिए। लोकसभा और राज्यसभा की 40 फ़ीसदी सीटें ग़रीबों के लिए आरक्षित कर देनी चाहिए। विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के पास जमा गैस और खाद एजेंसियों को ग़रीबों के बीच बांट देना चाहिए।” आगे वो बेफ़िक्र होकर कहते हैं, “मैं जानता हूँ कि मुझे प्रधानमंत्री के पद से हटाया जा सकता है, मेरी सरकार गिरायी जा सकती है। वे मुझे दिल्ली से हटा सकते हैं, मगर ग़रीबों के दरवाजे पर से नहीं।” एक कविता "लिफाफा" में वीपी सिंह ने लिखा:
पैगाम तुम्हारा
और पता उनका
दोनों के बीच
फाड़ा मैं ही जाऊँगा।
तमाम बदनामियाँ वीपी सिंह के सर आईं। लोगों ने यहाँ तक जुमला मारा, "राजा साहब ठीक आदमी थे। उनको अहिरा (शरद यादव) और दुसधा (रामविलास पासवान) ने बिगाड़ दिया"। सरकार गिरने और चंद्रशेखर द्वारा जनता दल को तोड़ कर कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बन जाने पर मर्यादा की सारी सीमाएं तार-तार करके ज्ञानियों-ध्यानियों ने फ़ब्तियाँ कसी:
अहिरे बुद्धि ठकुरे बल
अंग विशेष में मिल गया जनता दल।
वीपी सिंह ने एक वक़्त के बाद कहीं शांत किसी कोने में जाकर
सियासत के कोलाहल से ख़ुद को विलग कर लिया। अपनी क्षणिका "झाड़न" में वो अपने अहसास व्यक्त करते हैं:
पड़ा रहने दो मुझे
झटको मत
धूल बटोर रखी है
वह भी उड़ जाएगी।
ज़ाहिर है कि मंडल की सद्भावना रैली, पटना में वीपी सिंह के आह्वान के बाद पसमांदा समाज ने अपनी तक़दीर ख़ुद गढ़ना गवारा किया, और नतीजे सामने हैं। हाँ, सामाजिक बराबरी व स्वीकार्यता के लिए अभी और लम्बी तथा दुश्वार राहें तय करनी हैं, बहुत से रास्ते हमवार करने हैं। पर अफ़सोस कि मंडल आयोग को सिर्फ़ आरक्षण तक महदूद कर दिया गया, जबकि बी पी मंडल ने भूमिसुधार को भी ग़ैरबराबरी ख़त्म करने की दिशा में महत्वपूर्ण कारक माना था। स्वाधीनता के बाद भी संपत्ति का बंटवारा तो हुआ नहीं। जो ग़रीब, उपेक्षित, वंचित थे, वो आज़ादी के बाद भी ग़रीब और शोषित ही रहे। उनकी ज़िंदगी में कोई आमूलचूल बदलाव नहीं आया। अभी तो आरक्षण ठीक से लागू भी नहीं हुआ है, और इसे समाप्त करने की बात अभिजात्य वर्ग की तरफ से उठने लगी है।
96 में जब संयुक्त मोर्चा की सरकार बन रही थी तो ज्योति बसु, लालू प्रसाद समेत तब के सभी प्रमुख सियासतदां वीपी सिंह के पास प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव लेकर गए। लोग उनके घर पर बैठकर इंतज़ार करते रहे। वो रिंग रोड घूमने निकल गए और पद स्वीकार करने से मना कर दिया। सत्तालोलुपता व "एकात्म कुर्सीवाद" के इस दौर में यह एक नायाब मिसाल है। वीपी सिंह का जीवन दर्शन उनकी कविता "मुफ़लिस" से समझा जा सकता है:
मुफ़लिस से
अब चोर बन रहा हूँ मैं
पर
इस भरे बाज़ार से
चुराऊँ क्या
यहाँ वही चीजें सजी हैं
जिन्हे लुटाकर
मैं मुफ़लिस बन चुका हूँ।
वीपी सिंह एक बेहद संज़ीदा इंसान थे जो सियासत के ऊबड़खाबड़ रास्ते को हमवार करने के लिए साहित्य की सोहबत में ख़ुद को ले जाते थे और स्वानत: सुखाय कविताएँ भी लिखते थे। उनकी चुनिन्दा कविताओं के साथ एक बानगी:
मैं दुश्मन की छाया से लड़ रहा था
कैसे भी वार करूं
उसका सर धड़ से अलग नहीं
होता था
धरती खोद डाली
पर वह दफन नहीं होता था
उसके पास जाऊं
तो मेरे ही ऊपर सवार हो जाता था
खिसिया कर दांत कांटू
तो मुंह मिट्टी से भर जाता था
उसके शरीर में लहू नहीं था
वार करते करते मैं हांफने लगा
पर उसने उफ नहीं की
तभी एकाएक पीछे से
एक अट्ठहास हुआ
मुड़ कर देखा, तब पता चला
कि अब तक मैं
अपने दुश्मन से नहीं,
उसकी छाया से लड़ रहा था
वह दुश्मन, जिसे अभी तक
मैंने अपना दोस्त मान रखा था।
मैं अपने दोस्त का सर कांटू
या उसकी छाया को
दियासलाई से जला दूं।
(यह कविता पटना में 5 जनवरी 1987 को खादीग्राम जाते हुए रास्ते में लिखी, यह वही वक़्त था जब वे कांग्रेस के अंदर रहकर अपनी लड़ाई लड रहे थे और बोफ़ोर्स का मुद्दा मुंह बाए था जिस पर मुखर होकर उन्होंने 89 के चुनाव में मिस्टर क्लीन की छवि की धज्जियाँ उड़ा कर रख दीं। ये और बात है कि बाद में मृत्योपरांत राजीव गांधी बरी हो गए।)
पूर्व प्रधानमंत्री आइ. के. गुजराल ने अपनी आत्मकथा मैटर्स अॉफ़ डिस्क्रीशन में तत्कालीन प्रधानमंत्री एच. डी. देवेगौड़ा, अविभाजित जनता दल के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद और कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी के बीच चल रही खींचतान के दौरान युनाइटेड फ़्रंट गवर्नमेंट को बचा लेने और बलवाई भाजपा को सत्ता से दूर रखने के डायलिसिस की हालत में बेड पर लाचार पड़े वीपी सिंह के जतन का तफ़्सील से उल्लेख किया है। वीपी सिंह अपनी एक कविता "इश्तेहार" में लिखते हैं:
उसने उसकी गली नहीं छोड़ी
अब भी वहीं चिपका है
फटे इश्तेहार की तरह
अच्छा हुआ मैं पहले
निकल आया
नहीं तो मेरा भी वही हाल होता।
सरकार आख़िरकार गिर गई और बड़े ही नाटकीय तरीक़े से विदेश मंत्री गुजराल को कुछ की असहमतियों के साथ बाक़ी सब ने मिल कर प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया। वीपी सिंह की एक कविता है "मैं और वक़्त":
मैं और वक़्त
काफ़िले के आगे-आगे चले
चौराहे पर …
मैं एक ओर मुड़ा
बाकी वक़्त के साथ चले गये।
मौजूदा नस्ल को हर वक़्त सचेत रहने की ज़रूरत है कि लोकतंत्र को कभी भी फॉर ग्रांटिड नहीं लिया जा सकता। हर दिन यह अपने नागरिकों से सतर्कता व प्रतिबद्धता की अपेक्षा रखती है। यह खु़द के प्रति छलावा होगा कि जम्हूरियत अपनी हिफ़ाज़त ख़ुद कर लेगी। लोकतंत्र की आयु के लिहाज़ से 70 साल कोई दीर्घ अवधि नहीं होती। हिन्दुस्तानी जम्हूरियत अभी किशोरावस्था से निकली ही है। पर, इतनी कम उम्र में इसने इतने सारे रोग पाल लिए हैं कि बड़ी चिंता होती है। कुपोषण के शिकार दुनिया के सबसे बड़े व कमोबेश क़ामयाब, गाँधी, अम्बेडकर, जयप्रकाश, नंबूदरीपाद, लोहिया, फूले, सावित्री, झलकारी, फ़ातिमा, पेरियार, सहजानंद, आदि सियासी शख़्सियतों की आजीवन पूँजी व चिरटिकाऊ होने के सदिच्छाओं से अनुप्राणित इस बाहर से बुलन्द व अंदर से खोखले होते जा रहे लोकतंत्र को समय रहते इलाज़ की दरकार है।
आरक्षण, आरक्षण की ज़रूरत समाप्त करने के लिए लागू हुआ था। पर, क्या कीजै कि बड़ी सूक्ष्मता से इस देश में आरक्षण को डायल्युट किया जा रहा है और मानसिकता वही है कि हम तुम्हें सिस्टम में नहीं आने देंगे। पिछडों के उभार के प्रति ये असहिष्णुता दूरदर्शिता के लिहाज़ से ठीक नहीं है। केंद्र सरकार का डेटा है कि आज भी केंद्र सरकार की नौकरियों में वही 12 फ़ीसदी के आसपास पिछड़े हैं, जो कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के पहले भी अमूमन इतनी ही संख्या में थे। आख़िर कौन शेष 15 % आरक्षित सीटों पर कुंडली मार कर इतने दिनों से बैठा हुआ है? यही रवैया रहा तो लिख कर ले लीजिए कि इस मुल्क से क़यामत तक आरक्षण समाप्त नहीं हो सकता।
एक चर्चा को भाजपा और ब्राह्मणवादी लोग बड़े जोर शोर से उछाल रहे हैं कि पिछड़ों का हक़ पिछड़े ही मार रहे हैं। पिछड़ों का प्रतिनिधित्व जब आज भी केंद्र सरकार की नौकरियों में सारे ग्रुप्स मिलाकर 12% ही है, तो कौन किसकी हक़मारी कर रहा है? जबकि आरक्षण तो इस वर्ग के लिए 27% है। तो लड़ाई तो इस बात के लिए हो कि शेष 15 % पर कौन लोग नुमाइंदगी को रोक रहे हैं? पिछड़े-अतिपिछड़े के रूप में लेयरीफिकेशन (स्तरीकरण) बिल्कुल हो, किसी को एतराज़ क्यों हो! पर, उसका स्वरूप ऐसा न हो कि सीटें खाली चली जाएं जैसा मनुवादी ताक़तें चाहती हैं। एक फ़ार्मुला यह हो सकता है जिससे पत्रकार जितेन्द्र कुमार पूरी तरह इत्तेफाक़ रखते हैं कि जो सीटें अतिपिछड़े से नहीं भरी जा सके, उन्हें पिछड़ों से भरी जाए और जो पिछड़ों से भी खाली रह जाए, उन्हें क्रीमी लेयर से भरा जाए ताकि मूलतः पसमांदा वर्ग का कम-से-कम 27% प्रतिनिधित्व हो सके। पिछले साल युपीएससी ने सौ से ज़्यादा सफल अभ्यर्थियों को क्रीमी लेयर में फर्ज़ी तरीक़े से उलझा कर उन्हें कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगवा दिया। अभी भी राहत की ख़बर नहीं है।
जिसकी जितनी संख्या भारी/ उसकी उतनी हिस्सेदारी के प्रस्ताव को मानने में किनको दिक्कतें हैं? वो कौन लोग थे जिन्होंने संसद की सहमति के बावजूद जाति जनगणना में रोड़े अटकाए? प्रणव मुखर्जी व चिदंबरम ने इस कदर धोखाधड़ी की कि जाति जनगणना हुई ही नहीं। यह भी हास्यास्पद ही है कि एक सर्वे को जाति जनगणना मान कर उसके आंकड़े जारी करने की जिद हमारे नेता पालने लगे। जब उन्हें समझ में आई बात कि भारत सरकार के जनगणना आयोग द्वारा तो कभी कास्ट सेंसस कराया ही नहीं गया तो लोग ठगा हुआ महसूस कर रहे थे। देश की जनता के 4800 करोड़ रुपये भी खर्च हुए और उनके साथ छलावा भी हुआ।
आने वाले लोकसभा चुनाव में इस बात को जो दल अपने घोषणापत्र में शामिल करेंगे कि वो जनगणना आयोग द्वारा 2021 में कराई जाने वाली जनगणना में जाति गणना को शामिल करेंगे, वही इस देश की उत्पीड़ित जनता के सही मायने में हितैषी होंगे।
जाति जनगणना की जो बात करेगा
वही देश पर राज करेगा।
इस देश में गृहगणना हो जाती है, पशु गणना हो जाती है, मगर जाति जनगणना नहीं होती। भेड़-बकरी-गाय-भैंस-गदहा-सुअर की तो निनती होती है, पर आपकी गिनती नहीं होती। इसके पीछे के डर और साज़िश को समझिए। जैसे ही सही आबादी सामने आएगी, दलितों-आदिवासियों का राजनैतिक प्रतिनिधित्व बढ़ाना पड़ेगा। वो अक्लियतों की सही जनसंख्या सामने नहीं आने देना चाहते।
70 के दशक में हमारे देश की आबादी लगभग 60 करोड़ थी और केंद्र सरकार की नौकरियों में वो 4 लाख दलित-आदिवासी थे। आज देश की आबादी 125 करोड़ के आसपास है, मगर इन वर्गों की नुमाइंदगी करने वाले मात्र 1.5 लाख है। जब मंडल लगा, उसी समय उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की आंधी कांग्रेस ने चलाई और सराकारी नौकरियाँ उस सुनामी में उड़ गईं।
इतना ही नहीं, जिस नीट की सीट 28 हज़ार है, वहाँ ओबीसी के मात्र 68 लोग आ पाये हैं इस बार। क्या तमाशा बना के रखा है देश को!
आरक्षण ख़त्म करने की दिशा में पहला क़दम सरकार उठा चुकी है। संयुक्त सचिव स्तर के दस अधिकारियों की यह बिना परीक्षा लिए सीधी भर्ती करेगी। दिलीप मंडल विस्तार से बताते हैं कि ऐसा करके सरकार संविधान के कई अनुच्छेदों का सीधा उल्लंघन कर रही है। अनुच्छेद 15 (4) का यह सीधा उल्लंघन है, जिसमें प्रावधान है कि सरकार वंचितों के लिए विशेष प्रावधान करेगी। अनुच्छेद 16 (4) में लिखा है कि सरकार के किसी भी स्तर पर अगर वंचित समुदायों के लोग पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, तो उन्हें आरक्षण दिया जाएगा। ज्वांयट सेक्रेटरी लेबल पर चूंकि SC, ST, OBC के लोग पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, इसलिए उनकी नियुक्ति में आरक्षण न देने का आज का विज्ञापन 16(4) का स्पष्ट उल्लंघन है।
अनुच्छेद 15 और 16 मूल अधिकार हैं। यानी भारत सरकार नागरिकों के मूल अधिकारों के हनन की अपराधी है।
इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 315 से 323 में यह बताया गया कि केंद्रीय लोक सेवा आयोग यानी UPSC होगा, जो केंद्र और राज्य सरकार के अधिकारियों को नियुक्त करेगा।
अनुच्छेद 320 क्या कहता है? Functions of Public Service Commissions का ज़िक्र है:
It shall be the duty of the Union and the State Public Service Commissions to conduct examinations for appointments to the services of the Union and the services of the State respectively.
ऐसे में सरकार UPSC को बाइपास करके और बगैर किसी परीक्षा और आरक्षण के अफसरों को सीधे नीतिगत पदों पर नियुक्त कैसे कर सकती है?
इसलिए, इस बेहया सरकार की ईंट से ईंट बजा देने का समय है, शालीनता-शिष्टाचार-संसदीय मर्यादा, वगैरह इसके सामने वक़्त ज़ाया करने के सामान हैं, इन्हें झटक दो, सर से पटक दो। जो लोग निष्पक्षता का उपदेश झाड़े, उसे झाड़ के रख दो। अभी जो बुज़ुर्ग महिलाएं इनके कपड़े फाड़ रही हैं, वो आगे चलके इनके मुंह ईंट से थकुचेंगी। और, हम-आप क्या करेंगे, यह अब भी न तय किये तो कब करेंगे? एड हॉक का लोभ है, मत कीजिए। बोलिए, लिखिए, जाइए लोगों को बताइए कि कितनी बदमाश और अपराधी सरकार है जो आपके मौलिक अधिकारों को कुचल रही है।
अमेरिका में भी दबे-कुचले समुदाय के लोगों की ज़िन्दगी संवारने व उन्हें मुख्यधारा में लाने हेतु अफरमेटिव एक्शन का प्रावधान है और वहाँ इसके प्रतिरोध में कभी कुतर्क नहीं गढ़े जाते। मुझे अमेरिकी कवयित्री एला व्हीलर विलकॉक्स याद आती हैं :
In India’s land one listens aghast
To the people who scream and bawl;
For each caste yells at a lower caste,
And the Britisher yells at them all.
(“In India’s Dreamy Land”)
अर्थात ,
भारतवर्ष में लोग बात सुनते
उन्हीं की जो चीखते व चिल्लाते ;
क्योंकि हर जाति दुर्बलतर जाति पर धौंस जमाती,
और, ब्रिटिशजन उन सब को हिकारत भरी नज़र से देखते.
(भारत की स्वप्निल ज़मीं पर)
जेएनयू जैसी जगह में भी आप पीएच.डी तो कर लेंगे, पर अध्यापन हेतु साक्षात्कार के बाद “नोट फाउंड सुटेबल” करार दे दिये जाएँगे। पर, ये भी थोड़ा संतोष देता था कि अब आप अपने जीवट, लगन, जुझारूपन व अध्यवसाय से पढ़ ले पा रहे थे। ये सदियों के विचित्र समाज की कम बड़ी उपलब्धि नहीं थी। मगर, इस साल से तो युजीसी ग़ज़ट की आड़ में उपेक्षितों-शोषितों की कोई खेप निकट भविष्य में शोध के ज़रिए अपने समाज के क्रॉनिक बीमारियों को समझने व दूर करने के लिए विश्वविद्यालय की देहरी लांघ ही नहीं पाएंगे। हर जगह, हर छोटे-बड़े विभाग बंद कर दिए गए हैं। जेएनयू में पिछले साल एम.फिल.-पी.एचडी. के इंटीग्रेटेड प्रोग्राम में हुए एडमिशन की तुलना में 83% की भारी सीट कट के साथ मात्र 2017 में सिर्फ़ 102 सीटों पर दाखिले हुए। अर्जुन सिंह ने 2006 में उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर मंडल को जो विस्तार दिया था, उसमें पलीता लगा दिया गया है।
विनाशकारी युजीसी ग़ज़ट का हवाला देकर विश्वविद्यालयों में भारी सीट कट का फरमान सुनाया गया। तत्कालीन शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह के सद्प्रयास से उच्च शैक्षणिक संस्थानों में अभी तो पिछड़ों-पसमांदाओं के लिए इस आरक्षण को लागू हुए बमुश्किल 10 साल हुए हैं, और और अभी से कुछ लोगों की भृकुटि तनने लगी है।
इस साल 62 संस्थानों को 'स्वायत्त' घोषित कर उन्हें आर्थिक रूप से पंगु और कमज़ोर वर्गों के लिए शोषणकारी बना दिया गया। यह धीरे-धीरे संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को निजी हाथों में सौंप देने की साज़िश है। प्रफ़ेसर्स की बहाली के लिए जो पहले 200 प्वाइंट्स रोस्टर सिस्टम लागू था, उसे 13 प्वाइंट्स रोस्टर सिस्टम में तब्दील कर दिया गया। विश्वविद्यालय को इकाई न मान कर विभाग को इकाई माना जा रहा है और इस तरह हर वो तरीक़े ईजाद किये जा रहे हैं जिससे आरक्षण लागू न होने पाए जबकि संविधान की मूल भावना यह है कि हर वो तरीक़ा अपनाना है, ढूंढना है जिससे अफ़र्मेटिव एक्शन लागू किया जा सके। अब अगर किसी विभाग में एक साथ 7 लोगों की बहाली न हो तो दलित का नंबर ही नहीं आएगा, 14 पोस्ट एडवर्टाइज़ न हो तो आदिवासी की बारी ही नहीं आएगी और एक मुश्त 4 पोस्ट विज्ञापित न हों तो कोई पिछड़ा प्रफ़ेसर साहब नहीं बन पाएगा। यानी एक तरह से इंडियन एज्युकेशन सिस्टम का कंप्लीट गलगोटियाइज़ेशन, लवलियाइज़ेशन, अशोकाइजेशन, अमिटियाइज़ेशन और नाडराइजेशन हो गया है।
ऐसे में 26 नवंबर 69 को राज्यसभा में दिया गया भूपेंद्र बाबू का वक्तव्य याद आना लाज़मी है, “आज यह कहा जाता है कि विश्वविद्यालयों में जाने से साधारण छात्रों को रोकना चाहिए, अधिक संख्या में उनको नहीं जाने देना चाहिए। तो मेरा यह निश्चित मत है कि सरकार के या किसी भी आदमी के दिमाग़ में अगर यह हो कि देश के साधारण लड़कों को उच्च शिक्षा में जाने से रोका जाए, क्योंकि वह मेधावी नहीं है तो इस देश के लिए बहुत अनर्थकारी सिद्ध होगा, क्योंकि यह ऐसा देश है जिसका एक बहुत बड़ा वर्ग हज़ारों वर्षों से गुलामी में रह चुका है। साधारण स्तर का रहने पर भी वि.वि. जाने से उनको नहीं रोकना चाहिए। ... जी हां, उनको पढ़ने का मौक़ा मिले। उनको काम नहीं तो कम-से-कम पढ़ा कर तो छोड़ दीजिए, फिर चाहे वह सरकार को उलटकर या किसी भी तरह से जो कोई उपाय होगा, वह करेंगे। लेकिन, पढ़ने से किसी को नहीं रोकिए”।
पैरवीतंत्र पर हमला करते हुए उन्होंने 26 नवंबर 69 को कहा था, “बिहार में विश्वविद्यालय सेवा आयोग भी क़ायम हुआ है। मेरा कहना है कि इसमें बेकार का खर्च क्यों करते हो। वह सब करने की कोई ज़रूरत नहीं है। ... वह सेवा आयोग तो तिकड़मबाजी का अखाड़ा हो जाता है। उससे कोई योग्यता के आधार पर बहाली होती हो, ऐसी बात नहीं है। जिनकी पहुंच हो जाती है औऱ जो बड़े पैसे वाले लोग हैं, उनकी ज़ल्दी पहुंच हो जाती है और जो छोटी जाति के लोग हैं, उनकी सिफ़ारिश करने वाला कोई नहीं रहता है”।
नुमाइंदगी के मसले पर बोलते हुए 8 अप्रैल 69 को उन्होंने कहा, “हमारा संविधान कहता है कि लोकतांत्रिक ढंग से यहां की सरकार चलेगी। जो बालिग मताधिकार है, उसके आधार पर चुनाव होगा। बालिग मताधिकार के आधार पर संसद को बनाने और जनतंत्र को चलाने की बात है, उसके क्रियान्वयन के लिए यह जनप्रतिनिधित्व क़ानून बना है। लेकिन अब तक जो अनुभव हुआ है, उसके आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस देश की जनसंख्या की जो बनावट है चाहे जाति, धर्म, अर्थ या अन्य समुदाय है...उनका सरकार में या सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व होना चाहिए, वह अब तक नहींहो पाया है। इसलिए, हिंदुस्तान का जनतंत्र ठीक से नहीं चल रहा है”।
अगर बीएन मंडल, बी. पी. मंडल, कर्पूरी ठाकुर, जगदेव बाबू, वी. पी. सिंह, अर्जुन सिंह एवं उस वक़्त के संघर्ष के अपने जांबाज योद्धाओं को सच्चे अर्थों में हम याद करना व रखना चाहते हैं, तो हमें निकलना ही होगा सड़कों पर, तेज़ करने होंगे व बदलने भी पड़ेंगे प्रतिरोध के अपने औजार। आज जब बड़ी बारीकी, चतुराई व चालाकी से आरक्षण को डायल्युट किया जा रहा है, तो क्या आरक्षण बचाने के लिए लालू प्रसाद सरीखे नेता को फिर किसी रामजेठमलानी को वकील करना पड़ेगा या योद्धा सड़क पर उतरें!
20 अप्रैल को संविधान बचाओ मुहिम के तहत डीयू गेट पर हुए सामाजिक न्याय युवा सम्मेलन और एमएचआरडी पर धरना के समर्थन में बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने बहुत संज़ीदा संदेश भेजा जिसे सम्मेलन में मैंने पढ़ा। संदेश कुछ यूं है:
इस मुल्क में सामाजिक न्याय और समानता के दस्तावेज संविधान के निर्माता बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने कहा था "शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो"। ये इस देश की त्रासदी ही है कि जिस RSS ने ये कहा था कि हम संविधान को नहीं मानते क्योंकि इसे एक अछूत (अम्बेडकर) ने बनाया है, वो लोग आज सत्ता में है और संविधान के जरिए बाबा साहब द्वारा दिए गए आरक्षण को नागपुर के संघ मुख्यालय से चलने वाली ये सरकार विश्विद्यालयों और पूरी उच्च शिक्षा से खत्म करने पर तुली हुई है। 1990 के बाद जब इस देश के वंचितों और शोषितों के पढ़ने का वक़्त आया, तब कमंडल की राजनीति करने वालों ने इस मुल्क में शिक्षा के सवाल को हटाकर देश और समाज को धर्म की आग में झोंकने की कोशिश की क्योंकि वो संघी सोच वाले लोग चाहते ही नहीं थे कि ग़रीब पढ़ पाएं।
5 मार्च को अस्सिस्टेंट प्रफ़ेसर की बहाली को लेकर UGC का आदेश तो विरोध को नापने का संघी तरीका है, असल साज़िश तो पूरी आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने की है।।
यहाँ मैं आप सबों को याद दिला दूं कि जब अक्टूबर 2015 में बिहार में चुनाव हो रहे थे, तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक और मोदी सरकार के आका मोहन भागवत ने बयान दिया था कि "आरक्षण पर पुनर्विचार करना है, यानी कि इस मुल्क के ग़रीबों और वंचितों का आरक्षण समाप्त करना है"। तब बिहार की जनता और लालू जी ने संघ और भाजपा को ऐसा सबक सिखाया और ग़रीबों की आवाज़ बने कि पूरे बिहार से इन संघियों का राजनीतिक खात्मा हो गया। उसके बाद ही ग़रीबों की लड़ाई को मज़बूती से लड़ने की वजह से लालू जी को क़ैद में दमनकारी तरीक़े से रखा जा रहा है। सरकार में बैठे लोग ये नहीं चाहते है कि ग़रीब पढ़े क्योंकि वो पढ़कर अपना हक़ मांगेगे, ये सरकार वंचितों को उनका मौलिक हक़ तो नहीं ही देगी और साथ ही उनके हक़ की आवाज़ बुलंद करने वालों का हाल लालू जी की तरह करेगी। बिहार से लेकर गुजरात तक और JNU से लेकर HCU तक एक ही चीज समान है, वो है- सही की बात करने वालों का दमन ।
नेहरू कहते थे कि "University should be the place for adventure of Ideas", लेकिन ये बहुत दुख की बात है कि विश्विद्यालय में विचारों को दक्षिणपंथी फ़ासीवादियों द्वारा विश्विद्यालय प्रशासन के जरिये क़ैद किया जा रहा है। आज वक़्त की जरूरत है कि हम सब अपने छोटे-मोटे मतभेद दरकिनार कर उच्च शिक्षा को नेस्तनाबूद करने की साजिश करने वाली सरकार को वैसा जवाब दें जैसा 2015 में लालू जी ने दिया था। इसके लिए हम सब अमनपसंद और गैरबराबरी के ख़िलाफ़ संघर्ष को प्रतिबद्ध लोगों को एक साथ आना होगा।
हमलोगों में कोई वामपंथी हो सकता है, कोई अम्बेडकरवादी, कोई समाजवादी, कोई नेहरूवादी और कोई लोहियावादी, लेकिन हम सब नागपुर के संघी फासीवाद के विरोधी हैं और याद रखिए कि एकता में बल है और हम सब को इस मुल्क के अस्तित्व पर आए संकट से मिलकर ही निपटना होगा।।
जय भीम, जय बहुजन!
जय मंडल, जय हिंद!
मुझे हैरत होती है गोल-गोल घुमाने वाले मित्रों की ज़हनियत पर।मालूम हो कि अमेरिकी मीडिया हायली कॉरपोरेटाइज़्ड है, मगर वहाँ अफ़र्मेटिव एक्शन का प्रावधान फोर्थ इस्टेट तक में है ताकि न्यूज़रूम डायवर्सिटी बनी रहे। आप यहाँ उपदेश देते रहिए। कुछ भी चर्चा कीजिए तो एक ही राग कि सारे सवर्ण एक जैसे नहीं हैं। अरे भैया, कौन कह रहा है कि सब धन बाइस पसेरी है! मैं ख़ुद वहाँ नहीं होता जहाँ आज हूँ, अगर जीपी दूबे, युएन मल्लिक, डीटीके दत्ता, मसऊद अहमद, आलोक चौबे, केके झा, आरसी घोष, अंजनी राय, अखिलेश्वर ठाकुर, विजयकांत दास, राजीव मल्लिक, मिथिलेश सिन्हा, पीके वर्मा, एके श्रीवास्तव, पीएस मिश्रा, गौतम चंद्रा, युके सिन्हा, डॉ. राजीव, प्रो. आनंद शंकर सहाय, प्रो. कामाख्या प्रसाद, डॉ. नीलिमा, शीरीं ज़बां ख़ानम, डॉ. मनोज, आशुतोष राजेश, फ़ारुख़ अली, केसी मिश्रा, श्रीमती केतकी, आनंद प्रधान, प्रो. राघवाचारी, सुनीत टंडन, हेमंत जोशी, कैरन गैब्रियल, पीके विजयन, अमितसेन गुप्ता, डॉ. वंदना पांडेय, राकेश बटबयाल, दीपक कुमार, आदि की सोहबत में नहीं पलता और उनका असीम स्नेह व उत्साहवर्धन नहीं मिलता। पर, चर्चा आप किसी मुद्दे पर कीजिए और लोग डायवर्ट करके कहीं और लेके चले जाते हैं। उस पर तुर्रा ये कि जातपात से ऊपर उठने की नसीहत दे डालते हैं।
और जो लोग ये तर्क देते हैं कि दबे-कुचलों की बात करने के चलते उनका अगड़ा समाज भी उन्हें दुत्कार देता है, वो न इधर के रह पाते हैं न उधर के; तो मानिए कि यह बस आपके साथ नहीं होता। सौहार्दपूर्ण सहअस्तित्व की बात करने वाले उपेक्षितों को भी उनका 'समाज' बैलाने को उद्यत रहता है क्योंकि वो बार-बार धोखा नहीं खाना चाहता। उनके आक्रोश को समझने के बजाय हुथियाड़िएगा, तो उनके क्रोध की आग और भड़केगी। प्रेम और विश्वास से ही समाज आगे बढ़ेगा, चालाकी-धूर्तता-तिकड़म-उकसावे के सहारे किसी का भरोसा नहीं जीता जा सकता। और अव्वल तो ये कि चिकनी चुपड़ी बातें करके समस्या को ढकने के बजाय आप क्या कर रहे हैं अपने स्तर से, यही देखा जाएगा। एक शख़्स के बारे में पता चला कि अपने चैनल में चुन-चुन के सजातीय और बाक़ी 'अगड़े' लोगों को भर दिया, और आप बात करते हैं नैरेटिव की। कौन क्या कर रहा है बंद कमरे में, लोगों को पता नहीं चलता क्या। पर, जो ही बचीखुची आवाज़ें हैं, उन्हीं में से कुछ बात बनेगी।
इन्हीं ज़र्रों से होंगे कल नये कुछ कारवाँ पैदा
जो ज़र्रे आज उड़ते हैं गुबारे-कारवाँ होकर।
ज्ञानियों-ध्यानियों द्वारा जातिवादी कहलाने के भय से मुक्त होकर उनसे बगैर किसी सर्टिफिकेट की आकांक्षा के आज मुंहामुंही ही नहीं, भिड़ाभिड़ी करने का वक़्त है। किसी को जातिवादी करार देने से पहले आईने में वो अपनी सूरत देख लें या नोयडा की मंडी में घूम आएं। एक सर्वे यहाँ रख रहा हूँ और हां, ये सर्वे कोई मेरा नहीं, बल्कि अनिल चमाड़िया, जितेन्द्र कुमार और योगेन्द्र यादव का है, जिसके पीछे दिमाग़ उर्मिलेश जी का भी उतना ही था। तो, मुझे लेबल करने के पूर्व अपने क्षेत्र के इन दिग्गजों के काम पर भी एक नज़र डालने की जहमत कर ली जाए।
जिसे आप मेनस्ट्रीम मीडिया कहते हैं, वह दरअसल मनुस्ट्रीम मीडिया है। रोबिन जॉफ़री ने भारतीय पत्रकारों के ऊपर सर्वे में पाया कि "अधिकांश पेशेवर पत्रकार 'ऊंची जातियों' से आते हैं। यह अकारण नहीं है कि ग़रीबों और दलितों के हित पब्लिक डिस्कशन के एजेंडे में कभी-कभार ही रहते हैं"। जून 2006 में योगेन्द्र यादव, अनिल चमाड़िया और जितेंद्र कुमार द्वारा किया गया रिसर्च इस बात की ताक़ीद करता है कि किस कदर समाचारकक्ष विविधता (न्युज़रूम डायवर्सिटी) का घनघोर अभाव है। Newsroom Employment Diversity Survey (Newsroom Employment Census) एक बार हो जाए क़ायदे से, तो आप चकरा जाएंगे। 37 अंग्रेजी और हिंदी के अख़बार व टीवी चैनल्स के 315 पत्रकारों के सर्वे में पाया गया कि ऊंची जातियां जिनकी आबादी इस देश में अनुमानतः 16 % है; के पत्रकार राष्ट्रीय मीडिया के डिसीजन मेकिंग में कुल 88 %(ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य, खत्री - 86 %; मराठा, जाट, रेड्डी - 2 %) हैं, जिनमें सिर्फ़ ब्राह्मण (भूमिहार, त्यागी को मिलाकर) 49 फ़ीसदी है।
एससी, एसटी समुदाय का एक भी पत्रकार इस डिसीजन मेकिंग का हिस्सा नहीं है। 43 % आबादी वाले ओबीसी का प्रतिनिधित्व मात्र 4 % है। 13.4 फ़ीसदी मुसलमानों की नुमाइंदगी 4 % है। 2.3 प्रतिशत आबादी वाले क्रिश्चियन नेशनल मीडिया में 4 % हैं। महिलाएं 17 प्रतिशत हैं निर्णय लेने की प्रक्रिया में, और इंग्लिश मीडिया में वे 32 प्रतिशत हैं।
A comprehensive survey and analysis of Indian journalists in terms of caste-representation
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A/C to Robin Jeffrey's survey of Indian journalists, most professional journalists in India belong to the higher castes. This is perhaps why the interests of the poor and the dalits are rarely on the agenda of public discussion. Jeffrey's conclusion gets strength by a survey of 315 senior journalists working for 37 English and Hindi dailies and television news channels (survey on National Media Devoid of Social Diversity, by Yogendra Yadav, Anil Chamaria and Jitendra Kumar, conducted in June 2006, UNI Report in Maharashtra Herald, Pune).
The survey found that India's national media lacks social diversity and does not reflect the country's social profile... Hindu upper-caste men dominate the media. They are about 8 % of the population but among the key decision makers of the national media; their share is as high as 71 %. Twice-born Hindus ('dwijas'' comprising Brahmins, Rajputas, Vaishyas and Khatris) account for about 16 % of the population but are 86 % among key decision-makers. Brahmins (including Bhumihars and Tyagis) alone constitute 49 % of the key media personnel; if non-dwija forward castes like Marathas, Patels, Jats and Reddys are also added to this list, the total share of the upper-castes would be 88 %.
Dalits and adivasis are conspicuous by their absence among the decision makers : not even one of the sample of 315 journalists belonged to the SCs or STs. The proportion of the OBCs is abysmally low : only 4% compared to their population of around 43% in the country.
Muslims comprise 13.4% of the population but have a share of only 4% in top media posts. However, the share of Christians who make up 2.3 % of the population is 4%. And women make up 17% of key decision makers in the media, 32% women are in English media.
तो यह है हमारे लोकतंत्र की प्रहरी ख़बरपालिका के अंदर का समाजी सच जिस पर बात शुरू हो तो संभ्रांत लोग ऐसे नाक पर रूमाल रखते हैं मानो वो गंदी गली से गुज़र रहे हों और हमने कर दी हो कोई गंदी-घिनौनी बात। मीडिया की मंडी सचमुच घिनौना रूप अख़्तियार कर रही है जहाँ भाई-भतीजावाद और जातिवाद सर चढ़ कर बोलता है। दूसरी बात यह बिकाऊ कतई नहीं है। इसे कोई दलित-आदिवासी-पिछड़ा-पसमांदा-अक्लियत दुनिया की किसी टकसाल से नहीं ख़रीद सकता। ब्रह्ममीडिया को सिर्फ़ मनुवादी लोग संचालित-निर्देशित-नियंत्रित करते हैं।
जो लोग रात-दिन आरक्षण के ख़िलाफ़ आग उगलते हों, जिन्हें इस अखंड देश के पाखंड से भरे खंड-खंड समाज की रत्ती भर समझ न हो, उनसे मगजमारी करके अपना बेशक़ीमती वक़्त क्यों ज़ाया किया जाये ? ऐसे लोगों की सोची-समझी, शातिराना बेवकूफ़ी व धूर्तता की अनदेखी करें। न वो ख़ुद को बदलने को तैयार हैं, न ही हो रहे बदलाव को क़ुबूल करने को राज़ी। इसलिए, जो भी समय पढ़ाई के बाद बचेगा, उसे वंचित समाज की जागरूकता, बेहतरी, उसकी शिक्षा व उसके उन्नयन के लिए लगाएं, तभी "पे बैक टू सोसायटी" की संकल्पना पूरी होगी। यही असली सुकून व संतोष देगा।
- जयन्त जिज्ञासु
(लेखक संप्रति जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ में शोधार्थी हैं)