भोपाल में आतंकवादी गतिविधियों के आरोप में जेल में बंद आठ विचाराधीन कैदियों को कथित मुठभेड़ में मार गिराने की घटना इस तरह की फर्जी मुठभेड़ों के लंबे इतिहास का एक और नया और ताजा उदाहरण है। यह घटना इसलिए भी ज्यादा परेशान करती है कि राज्य सरकार और इसके मुख्य कर्ता-धर्ताओं की दिलचस्पी इस बात का दावा करने में नहीं है कि यह मुठभेड़ असली है। बल्कि वे इस बात पर गर्व करने में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं उनकी पुलिस ने सही काम किया है। भले ही इसके लिए कानून और गवर्नेंस की कितनी भी अनदेखी क्यों न की गई हो।
इस कथित मुठभेड़ के बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है। इसके वीडियो और दूसरे सबूत पब्लिक डोमेन में आ चुके हैं और इसके बारे में ज्यादा टिप्पणी की जरूरत नहीं है। हालांकि इस घटना के बारे में राज्य सरकार के रवैये के बारे में काफी कुछ कहने की जरूरत है। मुठभेड़ के बारे में पुलिस जो कह रही है उस गंभीर सवाल उठ रहे थे। शक को पुख्ता करने के पर्याप्त सबूत थे। लेकिन राज्य सरकार ने ऐलान कर दिया कि मुठभेड़ की जांच की जरूरत नहीं है। पुलिस ने बहुत अच्छा काम किया है और आतंकी गतिविधियों के आरोपियों ( या आरोपी, जैसा कि राज्य सरकार और मीडिया के एक बड़े वर्ग ने पहले ही उन्हें यह नाम दे दिया था।) को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए। जेल में उन्हें रख कर चिकन बिरयानी ही तो खिलाई जा रही थी। राज्य सरकार और मुख्यमंत्री इस मामले में राजनीतिक जिम्मेदारी दिखाने के बजाय राजनीतिक लंपटता दिखा रहे हैं। दुर्भाग्य से इस तरह की घटनाएं सामान्य होती जा रही हैं।
पिछले सप्ताह मध्य प्रदेश सरकार ने जो किया, वह मौकापरस्ती से भी आगे की चीज है। पहले तो उसने इस घटना की जांच से ही इनकार कर दिया। उसने घटना की सीआईडी जांच के तुरंत आदेश नहीं दिए। साथ ही कथित मुठभेड़ को अंजाम देने वालों पुलिस अधिकारियों को तुरंत इनाम देने का भी ऐलान कर दिया।
ऐसा करना सुप्रीम कोर्ट के उस निर्देश का साफ उल्लंघन था, जिनमें इस तरह की मुठभेड़ों में उठाए जाने वाले जरूरी कदमों का जिक्र है। पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी मुठभेड़ों के मामले में ईनाम-इकराम घोषित करने के संबंध में विस्तृत दिशा निर्देश दिए थे। इनमें साफ कहा गया था ऐसी मुठभेड़ों के संबंध में शासन को क्या करना चाहिए।
कोर्ट के मुताबिक इन कदमों को कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। साथ ही शासन को यह देखना होगा कि पुलिस मुठभेड़ों में इस तरह की हर मौत और गंभीर तौर पर घायल होने के मामले में भारत के संविधान की धारा 141 का पालन किया गया है या नहीं। पीयूसीएल की याचिका पर इस तरह की मुठभेड़ों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए थे। कुछ मुख्य निर्देश इस तरह हैं-
सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कुल साफ कर दिया है कि ये निर्देश बाध्यकारी हैं और उन्हें हर राज्य को लागू करना होगा। मगर भोपाल कांड में इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन किया गया।
निर्देश में साफ है कि अगर जांच टाली गई या मुठभेड़ में शामिल पुलिस वालों के लिए तुरंत पुरस्कार की घोषणा की गई तो यह कोर्ट की अवमानना होगी।
हालांकि इस तरह के निर्देशों का उल्लंघन कोर्ट की अवमानना होगी या नहीं है, यह सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के इन निर्देशों को देखें तो पता चलता है कि ऐसे मामलों में राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्रियों को इस आदेश के उल्लंघन की थोड़ी सी भी इजाजत नहीं है। लेकिन भोपाल के कथित मुठभेड़ कांड में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना हुई उससे साफ है कि शिवराज सरकार ने भारतीय संविधान की अवहेलना की।
सरीम नवेद वकील हैं और दिल्ली में रहते हैं।
इस कथित मुठभेड़ के बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है। इसके वीडियो और दूसरे सबूत पब्लिक डोमेन में आ चुके हैं और इसके बारे में ज्यादा टिप्पणी की जरूरत नहीं है। हालांकि इस घटना के बारे में राज्य सरकार के रवैये के बारे में काफी कुछ कहने की जरूरत है। मुठभेड़ के बारे में पुलिस जो कह रही है उस गंभीर सवाल उठ रहे थे। शक को पुख्ता करने के पर्याप्त सबूत थे। लेकिन राज्य सरकार ने ऐलान कर दिया कि मुठभेड़ की जांच की जरूरत नहीं है। पुलिस ने बहुत अच्छा काम किया है और आतंकी गतिविधियों के आरोपियों ( या आरोपी, जैसा कि राज्य सरकार और मीडिया के एक बड़े वर्ग ने पहले ही उन्हें यह नाम दे दिया था।) को ज्यादा तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए। जेल में उन्हें रख कर चिकन बिरयानी ही तो खिलाई जा रही थी। राज्य सरकार और मुख्यमंत्री इस मामले में राजनीतिक जिम्मेदारी दिखाने के बजाय राजनीतिक लंपटता दिखा रहे हैं। दुर्भाग्य से इस तरह की घटनाएं सामान्य होती जा रही हैं।
पिछले सप्ताह मध्य प्रदेश सरकार ने जो किया, वह मौकापरस्ती से भी आगे की चीज है। पहले तो उसने इस घटना की जांच से ही इनकार कर दिया। उसने घटना की सीआईडी जांच के तुरंत आदेश नहीं दिए। साथ ही कथित मुठभेड़ को अंजाम देने वालों पुलिस अधिकारियों को तुरंत इनाम देने का भी ऐलान कर दिया।
ऐसा करना सुप्रीम कोर्ट के उस निर्देश का साफ उल्लंघन था, जिनमें इस तरह की मुठभेड़ों में उठाए जाने वाले जरूरी कदमों का जिक्र है। पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी मुठभेड़ों के मामले में ईनाम-इकराम घोषित करने के संबंध में विस्तृत दिशा निर्देश दिए थे। इनमें साफ कहा गया था ऐसी मुठभेड़ों के संबंध में शासन को क्या करना चाहिए।
कोर्ट के मुताबिक इन कदमों को कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए। साथ ही शासन को यह देखना होगा कि पुलिस मुठभेड़ों में इस तरह की हर मौत और गंभीर तौर पर घायल होने के मामले में भारत के संविधान की धारा 141 का पालन किया गया है या नहीं। पीयूसीएल की याचिका पर इस तरह की मुठभेड़ों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए थे। कुछ मुख्य निर्देश इस तरह हैं-
- अगर आतंकवाद या इससे जुड़ी घटनाओं के बारे में कोई गुप्त सूचना या जानकारी मिलती है तो उसे पुलिस डायरी में दर्ज किया जाना चाहिए ताकि मुठभेड़ के बारे में सच्चाई या सूचना के दावे की पुष्टि की जा सके। अचानक हुई मुठभेड़ के मामले के बारे में यह जानकारी नहीं मिल पाती है कि इस निर्देश का पालन हुआ है नहीं।
- इस तरह की हत्याएं, जो ‘मुठभेड़’ करार दी जाती हैं, उनके बारे में सुप्रीम कोर्ट का निर्देश साफ है। इसमें कहा गया है कि अगर पुलिस ने इन मुठभेड़ों में पिस्तौल का इस्तेमाल किया है और इसकी वजह से मौतें हुई है तो तुरंत एक एफआईआर दर्ज हो और इसे तुरंत धारा 157 के तहत अदालत को भेजी जाए। राज्य की सीआईडी इस एफआईआर की जांच करे। या इसकी जांच दूसरे पुलिस थाने के अधिकारी करें। साथ ही वह मुठभेड़ में शामिल पुलिस दल के सदस्यों से भी पूछताछ करे और हालातों की जांच करे। लेकिन भोपाल मुठभेड़ कांड में इस निर्देश का बिल्कुल पालन नहीं हुआ।
- सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के मुताबिक जांच के लिए मुठभेड़ में इस्तेमाल हथियार जमा करने जरूरी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, मुठभेड़ में हिस्सा लेने वाले पुलिस अफसरों को अपने हथियार जमा करना होगा ताकि उनका बैलेस्टिक एनालिसिस हो सके। संविधान के अनुच्छेद 20 के अधीन मिले अधिकारों के तहत इन हथियारों और पुलिस जांच टीम की ओर से मांगी गई 31 चीजों को भी सौंपना जरूरी होगा। चूंकि भोपाल मुठभेड़ कांड में जांच की कोई घोषणा नहीं हुई थी इसलिए इन चीजों को भी जमा करने की कोई जरूरत नहीं समझी गई।
- मुठभेड़ के तुरंत बाद बहादुरी पुरस्कार या आउट ऑफ टर्न प्रमोशन का ऐलान नहीं किया जाएगा। मुठभेड़ में शामिल पुलिस कर्मियों या अफसरों के लिए इस तरह का कोई भी पुरस्कार या प्रमोशन तभी घोषित किया जाए, जब उनकी बेदाग छवि पूरी तरह स्थापित हो जाए। लेकिन भोपाल कांड में बगैर इस प्रक्रिया के पहले ही पुलिस दल में शामिल अफसरों और कर्मियों के लिए पुरस्कार की घोषणा हो चुकी है।
- मुठभेड़ में मारे गए लोगों की लाशों के पोस्मार्टम की वीडियोग्राफी जरूरी होगी। इसे दो डॉक्टर करेंगे। भोपाल मुठभेड़ के मामले में ऐसा कुछ हुआ है, इसकी जानकारी नहीं है।
- ऐसे मुठभेड़ों की मजिस्ट्रेटी जांच जरूरी है और जांच की निष्पक्षता पर अगर कोई संदेह है तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को शामिल करना होगा। लेकिन भोपाल में हुई कथित मुठभेड़ में न्यायिक जांच की घोषणा में काफी देर हुई। हालांकि न्यायिक जांच में यह स्थापित नहीं हो पाया है कि जांच के दौरान सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन किया गया है नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कुल साफ कर दिया है कि ये निर्देश बाध्यकारी हैं और उन्हें हर राज्य को लागू करना होगा। मगर भोपाल कांड में इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का उल्लंघन किया गया।
निर्देश में साफ है कि अगर जांच टाली गई या मुठभेड़ में शामिल पुलिस वालों के लिए तुरंत पुरस्कार की घोषणा की गई तो यह कोर्ट की अवमानना होगी।
हालांकि इस तरह के निर्देशों का उल्लंघन कोर्ट की अवमानना होगी या नहीं है, यह सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के इन निर्देशों को देखें तो पता चलता है कि ऐसे मामलों में राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्रियों को इस आदेश के उल्लंघन की थोड़ी सी भी इजाजत नहीं है। लेकिन भोपाल के कथित मुठभेड़ कांड में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना हुई उससे साफ है कि शिवराज सरकार ने भारतीय संविधान की अवहेलना की।
सरीम नवेद वकील हैं और दिल्ली में रहते हैं।