विशेष: वर्तमान भारतीय राजनीति और कर्पूरी ठाकुर

Written by जगन्नाथ कुमार यादव | Published on: January 25, 2024
जन्मशताब्दी वर्ष में कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिए जाने की घोषणा का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन इसके मायने तभी हैं जब उनकी जनवादी-समाजवादी नीतियों पर विचार किया जाए, अमल किया जाए। लेकिन केंद्र सरकार तो फिलहाल इसके उलट राह पर चलती दिखाई दे रही है।  



आज़ाद मुल्क की लड़ाई में भविष्य का भारत कैसा होगा, इसको लेकर एक सामूहिक स्वप्न देखा गया और इसे एक साझा कार्यक्रम के तहत मुकम्मल जामा पहनाया गया। आज जब वह ‘भारत का विचार’, जो हमें समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक तथा समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास आदि की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता देता है, को ख़तरे में महसूस किया जा रहा है; तो ऐसे समय में अनायास ही जननायक कर्पूरी ठाकुर की याद आती है। 

कर्पूरी जी का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। आज ही के दिन 24 जनवरी 1924 को बिहार के समस्तीपुर में उनका जन्म हुआ था। बेहद तंगहाल स्थिति में अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त करने से लेकर बिहार के शीर्ष नेतृत्व तक का सफर तय किया। कल ही भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न देने की घोषणा की। देर ही सही लेकिन भारत सरकार का यह अच्छा निर्णय है। लेकिन सही मायनों में यह निर्णय तभी और बेहतर होगा जब कर्पूरी ठाकुर की जनवादी-समाजवादी नीतियों पर विचार किया जाए, अमल किया जाए। लेकिन वर्तमान केंद्र सरकार तो फिलहाल इसके उलट राह पर चलती दिखाई दे रही है।  

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में पाठ्यक्रम बदलें जा रहे हैं और एक वैज्ञानिक मनोवृत्ति को बदल कर धार्मिक भाव पैदा करने की कोशिश की जा रही है। हालाँकि इसका यह कतई मतलब नहीं है कि धार्मिक शिक्षा नहीं होनी चाहिए। लेकिन यह तार्किक और वैज्ञानिकता की समाप्ति के शर्त पर नहीं हो सकता। डॉ अंबेडकर कहा करते थे कि हर इंसान को भौतिक सुख के साथ आध्यात्मिक भाव की ज़रूरत पड़ती ही है। 21 अगस्त 1984 को बिहार विधानसभा में कर्पूरी जी ने कहा था, बाबाधाम (देवघर के बैद्यनाथ धाम) जाने से बिहार की तरक़्क़ी नहीं हो जाएगी। मैं नहीं कहता कि पूजा नहीं की जाए, अध्यात्म की तरफ़ लोग नहीं जाए, लेकिन कोई बेटा-बेटी के लिए बाबाधाम जाए, चार गाय हो जाए, उसके लिए बाबाधम जाए तो उससे कुछ होना जाना नहीं है। कर्पूरी जी की उक्त वक्तव्य से स्पष्ट है कि वे धर्म के ख़िलाफ़ नहीं थे, लेकिन अगर आपको अपने दिनचर्या की समस्या से निजात पाना है तो उसके लिए भौतिक हल ही निकालना होगा। सिर्फ़ अध्यात्म के बदौलत समाधान नहीं होगा। लेकिन आज जब आम इंसान की तमाम प्राथमिक समस्याओं को भुला कर एक धार्मिक रंग में रंगने की क़वायद जारी है तो ऐसे समय में कर्पूरी जी की हाशिये केंद्रित, आम जन की दैनिक समस्याओं के समाधान केंद्रित राजनीति किसी आदर्श से कम नहीं है। 

कर्पूरी जी सरकार में रहें या विपक्ष में हमेशा सादगी में जीवन जीते रहें और आम जनता की आम समस्याओं को उन्होंने अपनी समस्या बनाया। उस समस्या के निर्माण या उसके समाधान में सरकार की भूमिका क्या हो सकती थी/है, पर खुल कर सड़क से लेकर सदन तक बात की है। उदाहरण के तौर पर सिंचाई व्यवस्था और अकाल की स्थिति से निपटने के लिए सरकार की भूमिका पर उनके सवाल को देखा जा सकता है। 5 जुलाई 1982 को विपक्ष में रहते हुए उन्होंने सवाल उठाया था कि आप (सरकार) सिंचाई पर खर्च ज़्यादा कीजिए। अगर सिंचाई की क्षमता कम सृजित की जाए तो अकाल का मुक़ाबला कैसे कर सकते हैं। …राज्य में सिंचाई का इंतज़ाम होना चाहिए, मगर वहाँ लूटपाट चल रही है। पैसे तो खर्च किए जाते हैं। अगर पानी और सिंचाई की व्यवस्था नहीं हो तो आप अकाल का मुक़ाबला कैसे कर सकेंगे? 

वर्तमान भारतीय राजनीति, विशेष तौर पर चुनावों में पूँजी का खेल एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। हालाँकि इसे समाधान के लिए किसी सरकार या नेताओं के पास कोई मंशा भी नहीं है, सिवाय साम्यवादी राजनीति के। लेकिन कर्पूरी जी पूँजी के खेल के के सख़्त ख़िलाफ़ रहे हैं। राजनीति में तीन ‘सी’ के ख़िलाफ़ कर्पूरी जी अक्सर बोलते थे। तीन ‘सी’ यानी कैश, कास्ट और क्राइम। वे सरकारों के पूँजीवादी चरित्र के भी मुखर विरोधी थे। 18 दिसंबर 1980 को उन्होंने बिहार विधानसभा में एक प्रस्ताव में कहा था कि देश की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को बुनियादी तौर पर बदल दें और इस अर्थव्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए जो सरकार पूँजीवाद में जन्मी है, जो मालदार लोगों को मालदार बनाना चाहती है, वैसी सरकार को मिटाना आवश्यक है। आगे वह  महँगाई के ज़िम्मेदार कारणों में इसी पूँजी अर्थव्यवस्था को मानते हुए कहते हैं कि …सभी जनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं के मूल्य में उत्तरोत्तर वृद्धि को रोकने एवं इन वस्तुओं के अभाव को दूर करने के लिए कोई उपाय निकालें और इसमें एक उपाय यह भी निकालें कि पूँजीवादी सरकार को ख़त्म करके नई अर्थव्यवस्था वाली सरकार को स्थापित करने का प्रयास कैसे किया जाए।

वहीं दूसरी ओर, वर्तमान भारतीय राजनीति का एक दूसरा मॉडल- बिहार मॉडल है। जिसका नींव कर्पूरी जी जैसे समाजवादियों ने डाली है। दावा तो यही है कि बिहार में पिछले साल भर से कम समय में लाखों लोगों को सरकारी नौकरी दी गई। रोज़गार के नए-नए अवसर प्रदान किए जा रहे है। साथ ही, जाति आधारित सर्वेक्षण करा कर बिहार के हर तबका को सामाजिक और आर्थिक न्याय देने की पहल शुरू की गई है। इस सर्वेक्षण के आधार पर बिहार में लगभग 94 लाख लोगों को ग़रीबी रेखा के नीचे चिह्नित किया गया हैं, जिनके परिवार की मासिक आय छह हज़ार से कम है। ऐसे परिवार को किसी भी तरह की रोज़गार के लिए सरकार ने दो-दो लाख राशि देने की पहल शुरू की है। 80-90 के दशक में कर्पूरी जी जैसे समाजवादी नारा दिया करते थे, ‘पिछड़ा पावें सौ साठ’। असल मायने में बिहार मॉडल ने इस नारे को चरितार्थ किया, जब उन्होंने जाति आधारित सर्वेक्षण के आधार पर आरक्षण का दायरा बढ़ा कर 75 फ़ीसदी किया।

बिहार में सर्वप्रथम कर्पूरी जी ने ही मुंगेरीलाल कमीशन के सुझाव पर सामाजिक, आर्थिक और लैंगिक रूप से पिछड़े समुदाय को शैक्षणिक और सरकारी नौकरी में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया था। उनका आरक्षण फॉर्मूला बहुत चर्चित रहा है। उन्होंने पिछड़ों आरक्षण को बायफरकेक किया था। उन्होंने अपने मुख्यमंत्री काल में 26 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया था; जिसमें 12 प्रतिशत अत्यंत पिछड़े, 8 प्रतिशन पिछड़े तथा 3-3 प्रतिशत आर्थिक रूप से पिछड़े एवं महिलाओं के लिए किया गया था।

आज जब सामाजिक न्याय को सोशल इंजीनियरिंग के मार्फ़त तहस नहस किया जा रहा है, समाजवाद जैसे संवैधानिक मूल्यों की सरेआम धज्जियाँ उड़ाई जा रही है, तो कर्पूरी जी की इमरजेंसी के खिलाफ लड़ी गई एक मजबूत और सशक्त लड़ाई वर्तमान दौर की समस्याओं से लड़ने में काफी मददगार साबित हो सकती है। 1974 में जब जयप्रकाश नारायण ने छात्रों के आंदोलन का नेतृत्व संभाला तो उन्होंने विपक्षी दलों (गैर-कांग्रेसी) से विधानसभा सदस्यों की सदस्यता से इस्तीफा देने की मांग किया। इस मांग के समर्थन में सबसे पहले खड़े होने वाले विधानसभा सदस्य थे कर्पूरी जी।  उन्होंने आगे आकर बिहार विधानसभा से त्यागपत्र दे दिया। 1975 में आपातकाल लागू होने तक वे इस आंदोलन में काफी सक्रिय रहे। उस दौरान जब गैर कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर जेल भेजा जाने लगा तो कर्पूरी जी ने भूमिगत होकर आंदोलन मजबूत करने की राह अपनाई। इस दौरान उन्होंने नेपाल में शरण ली लेकिन शांत नहीं बैठे। भेष बदल-बदल कर भारत के विभिन्न शहरों और विपक्षी दलों के  विभिन्न नेताओं से मुलाकात कर आपातकाल विरोधी आंदोलन को मजबूत किया। उसी का परिणाम था कि गैर कांग्रेसी विरोधी दल — जनसंघ, भारतीय लोक दल, समाजवादी तथा संगठन कांग्रेस— ने एक राजनीतिक दल बनाने की फैसला लिया, जिसे हम जनता पार्टी के नाम से जानते हैं।

आज जब भारत में भी अघोषित आपातकाल जैसी स्थिति महसूस की जा रही है तो कर्पूरी जी की प्रेरणा ही है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और अस्वस्थ हालात में भी राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव गैर-भाजपाई  गठबंधन बनाने की पहल करते हैं, जिसका परिणाम 'इंडिया' गठबंधन के रूप सामने आता है। इसलिए भारत के वर्तमान राजनीति में कर्पूरी जी के विचार आम समस्याओं के समाधान के साथ राजनीतिक विकल्प भी प्रदान करने में सक्षम है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

Courtesy: Newsclick

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