हर युग में हबीब जालिब विरोध करता रहेगा

Published on: September 1, 2018

ताकि लोकतंत्र के प्रेशर कूकर में विस्फोट न हो.

Habib jalil
लाहौर,12 फ़रवरी 1983, विरोध रैली में कविता सुनते हुए हबीब जालिब. चित्र का श्रेय: मैमूना शिराज़ी के ट्विटर पोस्ट से.

भारत में आज जिस प्रकार से संविधान के सिपाहियों पर शिकंजे लगाए जा रहे हैं, और देश भर के बुद्धिजीवियों, लेखकों, कवियों, वकीलों तथा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर बेबुनियाद इलज़ाम लगा कर गिरफ़्तार किया जा रहा है. ऐसे में हबीब जालिब जैसे निर्भीक कवि याद आ ही जाते हैं.

हबीब जालिब उन लोगों में से हैं जिन्होंने ज़ुल्म के आगे कभी भी घुटने नहीं टेके, तानाशाहों की आँखों से आँखें मिला कर उन्हें लोकतंत्र की बुनियाद याद दिलाते रहे.

1928 में अविभाजित भारत के होशियारपुर में जन्मे हबीब जालिब, भारत के विभाजन को राजनैतिक दुखद घटना मानते थे और विश्व में मानव द्वारा बनाई गई किसी भी कृत्रिम सीमारेखा के खिलाफ थे. और मरते दम तक (1993 तक) मानवता और मानवाधिकार ही उनकी रचना का केंद्र रहा.

1959 में पाकिस्तान में लोकतंत्र को समाप्त कर के वहां की फ़ौज के जनरल अय्यूब ख़ान ने  मार्शल लॉ लगा दिया था. तानाशाही का भय ऐसा था कि उस समय पाकिस्तान के सारे मीडिया, लेखक, रेडिओ और अखबार केवल "मन की बात" चला रहे थे. यदि कोई उपन्यासकार उपन्यास लिख भी रहा था तो "हाफ गर्लफ्रेंड" जैसी, या कवि सम्मलेन भी होता तो "बाग़ों में बहार है" जैसी "पॉजिटिव" कवितायेँ सुनाई जा रही थीं, उस भय और सरकारी आतंक के माहौल में रावलपिंडी रेडियो से एक लाइव कवि सम्मलेन का प्रसारण हुआ. कविगण भी "मेरा धर्म महान, राष्ट्र के गुणगान, और रास-लीला की बखान" सुना रहे थे. फिर युवा कवि हबीब जालिब की बारी आई और इस युवा ने रेडिओ अधिकारीयों द्वारा दिए गए दिशानिर्देश को अनदेखा करते हुए एक आज़ाद कवि का फ़र्ज़ अदा कर डाला, उस समय पकिस्तान में हो रहे अन्याय, गरीबों की दुर्दशा, लोकतंत्र की हत्या और देश भर में दहशत के माहौल पर कविता सुना डाली.

रेडिओ स्टेशन के  चाटुकार अफसरों ने हड़बड़ा के उस कवि सम्मलेन को बीच में ही रोक दिया. मगर तब तक आम जनता तक, जन-कवि की आवाज़ पहुच चुकी थी.
“कहीं गैस का धुआं है, कहीं गोलियों की बारिश
शब-ए-अहद-ए-कमनिगाही तुझे किस तरह सुनाएं”


तानाशाही सत्ता इस "अर्बन नक्सल" की कविता से बौखला उठी, रेडिओ स्टेशन के कर्ता-धर्ता को सज़ा हो गई. युवा कवि हबीब जालिब को "देश-द्रोह" के आरोप में जेल भेज दिया गया. उस समय के कथाकथित "देशभक्त" मीडिया ने हबीब जालिब के विरुद्ध सबूत भी इकट्ठे कर लिए, अख़बारों में सबसे बड़े "आतंकी" के रूप में उन्हें पेश किया गया.

हुकूमतें बदलती गईं, हबीब जालिब जेल आते-जाते रहे, परन्तु उनकी क़लम केवल सत्य ही लिखती रही, उन्होंने न दल बदला न दिल. दबाव में आकर कई लेखक और कवि "प्रसून जोशी" बन गए मगर हबीब जालिब हमेशा हबीब जालिब ही रहा.

वक़्त के साथ हुकूमतें बदल सकती हैं, लाखों "गोस्वामी" धूल में मिल जाते हैं परन्तु न सत्य मिटता है, न ही सत्य को दर्शाते कवि.
हबीब जालिब आज भी जिंदा है, और कल भी उसकी आवाज़ तानाशाही सत्ता की कुर्सियों को झिंझोड़ती रहेगी.

पूंजीवादी सरकार पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने लिखा था

“बीस घराने हैं आबाद
और करोड़ों हैं नाशाद
सद्र अय्यूब ज़िंदाबाद"


हबीब जालिब ने पाकिस्तान के अलग-अलग शासनकाल में अलग-अलग सरकारों द्वारा तानाशाही, पूंजीवाद, कठमुल्लापन और अन्याय के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की, चाहे वे याह्या खान हों, अय्यूब खान हों, ज़िया-उल-हक़ हों, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो हों या बेनजीर भुट्टो. इसलिए लगभग हर शासनकाल में उन्हें जेल जाना पड़ा.

1964 में हबीब जालिब ने फ़ातिमा जिन्नाह का राष्ट्रपति पद के लिए याह्या खान के विरुद्ध खुल कर समर्थन किया था, क्योंकि फ़ातिमा जिन्नाह पाकिस्तान को "इस्लामिक रिपब्लिक" नहीं बनने देना चाहती थीं, वे क़ायद-ए-आज़म की तरह सभी धर्म और पंथ को समान अधिकार देने वाला धर्मनिरपेक्ष पकिस्तान देखना चाहती थीं. उनकी रैली में भीड़ इकट्टा तो हुई मगर वे चुनाव जीत नहीं सकीं.

जब पूंजीपतियों ने क़ायद-ए-आज़म जिन्नाह के धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरपंथियों से धार्मिक नारे लगवा कर लोगों को "राम मंदिर या हिन्दू-राष्ट्र" जैसे मुद्दों से बहकाने के लिए "पाकिस्तान का मतलब क्या, ला-इलाहा-इल्लल्लाह" का नारा लगवाना शुरू किया, तो हबीब जालिब ने पूंजीपतियों द्वारा बनाय गए "मुस्लिम ह्रदय सम्राट" के नारों पर नीडरता से पूजीपतियों और धर्म के ठेकेदारों के विरुद्ध कविता लिख डाली.  

"खेत वडेरों से ले लो  
मिलें लुटेरों से ले लो
मुल्क अंधेरों से ले लो
रहे न कोई आलीजाह
पाकिस्तान का मतलब क्या ?
ला इल्लाह इल्ललाह..."


एक बार रावलपिंडी जिले के मरी में मुशायरा हुआ, वहां पाकिस्तान की सभी नामी-गिरामी हस्तियाँ मौजूद थीं, तानाशाह फ़ौजी जनरल का लोगों में इतना डर था कि सरकार के विरुद्ध एक शब्द भी कोई कह नहीं सकता था, ऐसे में उस मुशायरे में हबीब जालिब अपने अंदाज़ में शुरू हो गए, उनकी कविता की पहली पंक्ति थी "दीप जिसका महल्लात ही में जले..." जैसे ही उन्होंने कविता सुनानी शुरू की, उनके साथ बैठे साथी ने उनका पजामा खींच कर चुप रहने का इशारा किया, मगर हबीब जालिब चुप कैसे रहते, सुना डाली पूरी कविता जिसने पूंजीवाद और तानाशाही सरकार की धज्जियाँ उधेड़ दीं. इस कविता (दस्तूर ) को पूरा पढ़िए और सोचिये कि यह आज के भारत के तानाशाही माहौल पर कितनी सटीक है.


दस्तूर 

दीप जिस का महल्लात ही में जले (महल्लात - महलों )
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से (तख़्ता-ए-दार - फाँसी का तख़्ता)
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से (जिन्दाँ - जेल)
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को

मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ
चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता


इस कविता को हबीब जालिब साहब की आवाज़ में सुनने का आनंद कुछ और ही है.



आज यदि हबीब जालिब होते तो इमरान खान की उस बात का विरोध ज़रूर करते जिसमे इमरान खान बार-बार पैग़म्बर मुहम्मद (स०) साहब के 1400 साल पुराने मदीना वाले शासन को आदर्श शासन कह कर पाकिस्तान के 2018 वाले लोकतंत्र को धार्मिक चोला पहना रहे हैं, ये बिलकुल आधुनिक भारत में राम-राज लाने वाले बहुसंख्यक-वाद वाले छलावे हैं. सत्ता में आते ही रोटी-कपड़ा-मकान-रोज़गार-सामाजिक न्याय इत्यादि भूल कर इमरान खान पाकिस्तान के लोगों का ध्यान वहां से हज़ारों मील दूर नीदरलैंड में हो रहे कार्टून विवाद पर ले जा रहे हैं.

धूर्त नेता धर्म को हमेशा कवच के रूप में या असली मुद्दे से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए इस्तेमाल करते हैं, चाहे वो किसी कार्टून के विरुद्ध हंगामा खड़ा करना हो, मुग़लसराय स्टेशन का नाम बदलना हो, या गौ-रक्षा के नाम पर हिंसा भड़काना हो.

हर युग में हबीब जालिब आडम्बर और अन्याय का विरोध करता रहेगा. ताकि लोकतंत्र के प्रेशर कूकर में विस्फोट न हो.

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