वही शांता, वही हाजरा

Written by एच आई पाशा | Published on: July 16, 2018
आप शांता के बारे में जानते हैं ? नहीं जानते तो हैरानी की बात नहीं. बहुत ही कम लोग जानते हैं.


 
शांता राजा दशरथ की पहली संतान और राम चन्द्र जी की बड़ी बहन थीं. पहली संतान एक बेटी के रूप में पाकर दशरथ खुश नहीं हुए. उन्होंने उनको राजा लोमपद को दे दिया. उसके बाद बहुत सारे साल बीत गए और दशरथ के यहाँ कोई दूसरा बच्चा नहीं हुआ. 

शान्ता लोमपद के यहाँ परवरिश पाकर बड़ी हुईं. लोमपद के राज्य में सूखा पड़ा. इंसान एक एक बूँद पानी के लिए तरस ने लगा. सुना गया कि यह सूखा केवल ऋषि रिस्य सृंग ही अपने ख़ास यज्ञ के द्वारा दूर कर सकते हैं. उनको राज़ी करना आसान नहीं था. शान्ता ने त्याग करने का फैसला लिया. अपने मुह्बोले पिता और उसकी प्रजा के लिए उन्होंने ऋषि से ब्याह रचा लिया. रिस्य सृंग खुश हुए. तब उन्होंने वह ख़ास यज्ञ  किया और बरसात हुई . शांता राज महल के ऐश आराम त्याग कर पति के साथ जंगल में रहने लगीं.

उधर राजा दशरथ बेटे का मुंह देखने के लिए अब तक तरस रहे थे जो उनके बाद उनका राज पाठ संभालता. शांता का मन अब तक वास्तविक पिता के बर्ताव से दुखी था जिन्होंने महज़ इस लिए उनको त्यागा था कि वह बेटी थीं. उन्होंने अपना दुःख भूल कर पिता का दुःख दूर करना चाहा. उनके कहने पर ऋषि सृंग ने यज्ञ  किया और नतीजे में राजा दशरथ के यहाँ एक नहीं बल्कि एक के बाद चार बेटे पैदा हुए जिनके बारे में हम सब जानते हैं. 


राम चन्द्र जी पिता के हुक्म से 14 साल के लिए वनवास में गए, शान्ता ने जीवन भर के लिए वनवास अपना लिया. उनके त्याग का ज़िक्र बस कभी कभी कहीं कहीं हो जाता है. वह बेटी थीं. औरत थीं. बेटियों के साथ यही होता है. 

हाजरा उर्फ़ हज्जर बीवी थीं, माँ थीं, औरत थीं. हज़रत इब्राहीम अपनी बीवी और दूधमुंहे बच्चे इस्माइल ऐसे रेगिस्तान में छोड़कर चले गए जहाँ न खाना था न पानी था. क़यामत की गर्मी में जब बेटा पानी के लिए तड़पने लगा तो माँ का दिल उससे भी ज़्यादा तडपा. वह पानी की तलाश में इधर से उधर भागने लगीं. माँ की बौखलाहट शायद ऊपर वाले से भी देखि न गयी इसीलिए उसने बच्चे के क़दमों में एक सोता फोड़ दिया. इधर से उधर उछलतेे पानी की धार को रोकने की हताशा भरी कोशिश में वह चिल्लाने लगीं, ' ज़म जम मुबारका.' ( रुक रुक अच्छे पानी ) 

अन्त्हीन रेगिस्तान में जहां पानी निकला वहाँ बस्ती बसने लगी. काबा के बारे में तो सभी जानते हैं कि इसे इब्राहीम और बेटे इस्माइल ने बनाया मगर काबा जिस शहर मक्का में है वह जिस शख्सियत की वजह से बसा उसे इब्राहीम के मकाबले में कुछ कम ही जाना जाता है. इब्राहीम के सूरज के सामने इस चिराग को भला कौन अहमियत दे. उसका दर्द, क़दम क़दम पर जूझते हुए उसका उस बेटे को बड़ा करना जो उससे पुरुष शक्ति के हाथों सदा के लिए छीन लिया जाए, उसका जीवन भर का संघर्ष और बलिदान ....कौन उन बातों में अपना सर खपाए ? 

कह सकते हैं की हाजरा और शान्ता ने वही किया जो हर औरत को करना चाहिए. इस में बड़ी बात क्या है? त्याग, बलिदान और वंचना का सिलसिला जो हज़ारों और सैकड़ों साल पहले चल रहा था वाही तो आज भी चल रहा है. नया क्या है! 

आज भी पुरुष दुनिया में होने वाली हर बड़ी बात का सेहरा अपने सिर बाँध लेना चाहता है. गाँधी की महानता के आगे कस्तूर्बा का त्याग फीका पड़ जाता है. अपनी चालाकी और अपने बाहु के बल पर मर्द मान्ता है कि दुनिया की सारी नियामते उस के लिये हैं. औरत कुछ कहती भी तो नहीं. शिकायत करने के लिए कुद्र्त ने उसे बनाया ही नहीं है.

जब माँ बाप बड़े बड़े सपनों के साथ बेटे पर अपना प्यार दुलार और धन दौलत लुटा रहे होते हैं तब उपेक्षित सी बेटी अपनी प्यार भरी मेहनत से चुपचाप उनके संसार को सजा सवार रही होती होती है. वह प्यार करती रहती है और डरती रहती है. और जो बात उसे बुरी लगती है उसे माफ़ करती रहती है , शांता और हाजरा की तरह.जब उसे जन्मजात और इंसानी अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है तब भी न उसका प्यार कम होता है, न डरना ख़त्म होता है. माइके से ससुराल तक बस उसे यही डर लगा रहता है कि वोह लोग जो उसके लिए इतने अहम् हैं कहीं वे उसकी किसी मांग से रूठ न जाएं. और इस डर का फ़ाएदा उठाने वाले उठाते रहते हैं.

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