आजादी के सत्तर साल और बीजेपी- कांग्रेस का अंतर

Written by एच आई पाशा | Published on: May 25, 2018
बीजेपी के लोग अक्सर यह सवाल करते हैं कि अगर हमने मुसलामानों के साथ अच्छा सुलूक नहीं किया तो कांग्रेस वालों नें कौन सी उन पर सचमुच की मेहरबानियाँ की हैं ? अगर बीते दशकों पर नज़र डालिए तो आप पाएंगे कि उनका सवाल कम से कम एक दम ग़लत तो नहीं है.



सातवीं क्लास की इतिहास की किताब में बताई गयीं एक बात अब तक मेरे ज़ेहन में नक्श है.  यह कि महमूद गज़नवी ने सोमनाथ मंदिर का विध्वंस करके हिन्दुओं के मन में मुसलामानों के लिए हमेशा के लिए नफरत भर दी. यानि वह नफरत उस वक़्त भी हमारे आस-पास मौजूद थी जब मास्टर साहब वह बात उसी ढंग से क्लास को समझा रहे थे. मेरे अगल-बगल बैठे साथियों ने जिस सवालिया नज़र से मुझे देखा था शायद उसी वजह से वह बात आधी सदी बीत चुकने के बाद भी मैं भूल नहीं पाया.

हमारी हिंदी भाषा की किताब में सत्रहवीं सदी के दरबारी कवि ( और शायद पहला हिन्दुत्ववादी )  भूषण की एक कविता में बताया गया था कि किस तरह उसके स्वामी राजा  ने अपने मुस्लिम दुश्मनों का ऐसा हाल बिगाड़ दिया है कि उनकी बीवियों के पास जिस्म ढंकने के लिए कपड़ा तक नहीं है और वे सर्दी में नंगी ठिठुर रही हैं : “ जो नगन जड़ाती थीं वे नगन( नग्न ) जड़ाती हैं. “ वह भारत की आज़ादी का पहला दशक था और जवाहर लाल नेहरु प्रधान मंत्री थे.  नए-नए धर्म निरपेक्ष घोषित देश में बच्चों को शिक्षा देने के नाम पर एक की नज़र में दूसरे को अपनानित और लज्जित करने का वह काम किसकी शह या मर्ज़ी से हो रहा था ? और इसका मक़सद क्या था ? यह अगर दो सम्प्रदायों के बीच नफरत फैलाना  नहीं तो और क्या था ?

नफरत का विष-बीज तो तभी बोया जाने लगा था जब अपने वक़्त के सबसे कद्दावर कांग्रेसी नेता बाल गंगा धर तिलक ने अपनी एक कविता में मुसलामानों से “ घर वापसी “ का आह्वान किया था, हिन्दू राजाओं को हीरो और उनसे लड़ने वाले मुस्लिम हुक्मरानों को खलनायक बनाया था और गणेश उत्सव जैसे निपट हिन्दू धार्मिक उत्सवों को आज़ादी के आन्दोलन से जोड़ा था. आज़ादी मिलते ही जो काम सबसे ज़रूरी माने गए थे उन्हीं में एक था सोमनाथ मंदिर और कृष्ण जन्म भूमि मंदिर का जीर्णोद्धार.

कहना ग़लत न होगा कि नफरत का विष-बीज जो तिलक और  उनके बाद पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे कांग्रेसियों ने बोया था उसके पेड़ के फल आज बीजेपी देश को खिला रही है. पकिस्तान की परिकल्पना करने वाले मुस्लिम लीग के लोगों ने इन परिस्तिथियों पर क्या गौर नहीं किया होगा ?

जवाहर लाल नेहरु और महात्मा गाँधी की धर्म निरपेक्ष सोच पर हम शक नहीं कर सकते लेकिन यह तो लगता है कि हिन्दू-मुस्लिम के बीच असहजता रखने के इरादों वाले अपने साथियों पर उनकी बहुत ज़्यादा चल नहीं पाई, बेशक उन्होंने कोशिशें की होंगी. बड़े-बड़े साम्प्रदायिक दंगे कांग्रेस के दौर में हुए जिनमें आम तौर पुलिस का पक्षपात पूर्ण रवैया एक दाम साफ़ रहा. इन दंगों के कितने दोषियों को सही सजा मिली, यह कोइ छुपा हुआ राज़ नहीं है. पुलिस और फ़ौज में  मुसलामानों की नाम मात्र की भर्ती ने सरकार की नीयत और इरादों को हमेशा साफ़ ज़ाहिर किया. यही हाल दूसरी सरकारी नौकरयों में रहा. देश तरक्की करता रहा और मुसलामानों को खोखली तसल्ली और झूठे वायदों के अलावा कुछ और बहुत कम ही मिला. यहाँ तक कि 80 प्रतिशत से भी ज़्यादा मुसलमान गरीबी रेखा से नीचे पहुँच गए. शाह बानों जैसे मामलों ने यह बात बड़ी अच्छी तरह ज़ाहिर कर दी कि मुसलमान कांग्रेस सरकार की नज़र में वोट बैंक के सिवाए कोई हैसियत नहीं रखते. उर्दू जो अंग्रेजों के वक़्त अंग्रेजी के बाद सबसे अहम ज़ुबान हुआ करती थी आज़ाद भारत में कुछ ख़ास pockets में सिमट कर रह गयी क्योंकि उसे मुसलामानों की ज़ुबान समझा जाने लगा. साम्प्रदायिक ताकतें खूब फलीं-फूलीं और कांग्रेस सरकारें और उनके नीति निर्धारक उनको दबाने में कुल मिला कर मजबूर ज़ाहिर हुए. बाबरी मस्जिद के विध्वंस और उसके बाद जो कुछ हुआ उसके पीछे यह मजबूरी ही तो थी.

बीजेपी और कांग्रेस में बस एक फर्क है और यह फर्क ऐसा है जो बेहद अहम है.

कांग्रेस ने साम्प्रदायिकता का ऐसा निर्लज और नंगा प्रदर्शन नहीं किया जो बीजेपी करती आ रही है. यह सही है कि कांग्रेस के वक्तों में मुसलामानों का कोई जी खुश करने वाला हाल नहीं रहा मगर किसी कांग्रेसी प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री ने कम से कम खुले तौर पर यह ज़ाहिर नहीं किया वह केवल देश के एक सम्प्रदाय का प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री है. शारीरिक हिंसा से कहीं ज़्यादा चोट पहुँचाने वाली भावनात्मक हिंसा होती है. जब आप किसी के शरीर पर चोट करते हैं तो वह चोट कभी न कभी भर जाती है लेकिन जब आप किसी की भावना को चोट पहुंचाते हैं तो उसका असर स्थायी होता है. ऐसी ही न भूलने वाली चोट नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्य मंत्री के तौर पर मुसलामानों को तब पहुंचाई जब उन्होंने गुजरात दंगों के वक़्त बाक़एदा टेलीविज़न पर कहा, हम इन ( शरणार्थी ) कैम्पों को नहीं रहने देंगे, हम इन्हें हम पांच, हमारे पचीस होने का अड्डा नहीं बनने देंगे. यह बात उन्हेंने कैम्पों में पनाह ले रहे उन लोगों के लिए कही थी जो दंगों में सब कुछ गँवा चुके थे.

उन्होंने दंगे कराए या नहीं कराए, यह बात विवादयुक्त हो सकती है क्योंकि वे बातें सार्वजनिक रूप से नहीं हुई थीं, लेकिन उनका यह ज़हरीला एलान तो सारी दुनिया ने देखा. इस एलान ने साफ़ कर दिया कि वह सिर्फ बहुसंख्यकों के मुख्य मंत्री हैं और अल्पसंख्यक उनसे किसी अच्छाई की उम्मीद न रक्खें. उनकी यही अभिव्यक्ति अपरोक्ष रूप से उस वक़्त थी जब उन्होंने मुज़फ्फर नगर दंगों के सबसे बड़े आरोपी को मंच पर बुला कर सार्वजनिक रूप से हार पहनाया. जो भी चुनाव बीजेपी ने लडे वे चाहे राज्यों के चुनाव रहे हों या केंद्र के, उसने हर चुनाव में  मुसलमानों के खिलाफ कुप्रचार करना अपनी चुनावी रणनीति का ख़ास हिस्सा बनाया. पाकिस्तान, मियां मुज़फ्फर, पटेल मियाँ... ये सारे नाम मोदी ने  हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लिए metaphor के तौर पर इस्तमाल किये. उन्होंने कभी इन मामलों में अपनी तरफ से सफाई देने की भी कोशिश नहीं की. जब मुसलामानों को ईद की बधाई देने के नाम पर योगी आदित्य नाथ कहते हैं कि वह हिन्दू हैं इसलिए ईद नहीं मनाएंगे तो इसका मतलब साफ़ तौर पर यही ज़ाहिर करना है कि वह केवल बहुसंख्यकों के मुख्य मंत्री हैं.

नेशनल टीवी चैनलों पर, अख़बारों में, सोशल मीडिया पर जब विनय कटियार, साक्षी महाराज और गिरिराज किशोर जैसे लोग अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा-प्रचार करते हैं और बीजेपी के खुद को ज़िम्मेदार ज़ाहिर करने वाले लोग इन्हें fringe element कह कर दामन झाड़ लेते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ये fringe element मुख्य धारा का हिस्सा हैं और उनका ज़हर उगलना सोची-समझी रणनीति में शामिल है.

जब भी आप गुजरात दंगों की बात करेंगे, बीजेपी दिल्ली के सिख विरोधी दंगों का रोना लेकर बैठ जाएगी और इस सवाल को हमेशा टाल जाएगी कि सिख विरोधी दंगों के लिए कांग्रेस तो साफ़ तौर पर माफ़ी मांग चुकी है, आप गुजरात के मामले में ऐसा क्यों नहीं करते ?

कांग्रेस ने मुसलमानों की अनेक मामलों में उपेक्षा भी की और उनके साथ अन्याय भी किया लेकिन मुसलमानों की इज्ज़त और सलामती की कीमत पर हिन्दू राष्ट्र बनाना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कभी उसका  एजेंडा नहीं हो सकता. बीजेपी का है और इसके लिए मुसलामानों के खिलाफ वह किसी भी हद तक जाने को तय्यार है. इस बात को छुपाने की वह कोई ख़ास कोशिश भी नहीं करती. हिन्दू राष्ट्र के अजेंडे को कुछ देर के लिए भुला भी दें तब भी यह तय है कि मुसलमानों के खिलाफ उसके बर्ताव में कोई फर्क नहीं आने वाला. वह उस मुस्लिम विरोधी विचारधारा की पार्टी है जिसकी बुनियाद 90 साल पहले रख दी गयी थी. वह जानती है कि जब उसके पास कहने या देने के लिए कुछ नहीं होगा तो आगे बढ़ने के लिए उसके सामने एक रास्ता हमेशा रहेगा: मुस्लिम-दुश्मनी का रास्ता. और अब तो इस रास्ते को वह बड़ी अच्छी तरह देख-परख चुकी है.

यही फर्क है कांग्रेस और बीजेपी में. आप कांग्रेस के किसी वायदे पर भरोसा न करें, इस एक अंतर की वजह से आपको आँख खुली रखनी है और अपने विवेक को बनाए रखना है. क्योंकि यह अंतहीन सागर की दूरी वाला अंतर है.  
  

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