वर्ण चेतना की फिल्मों से सेंसर बोर्ड और पूरे ब्राह्मणवादी ढाँचे को भारी दिक्कत है

Written by Sanjay Shraman Jothe | Published on: December 13, 2017
अस्सी के दशक की शुरुआत में भारत में कुली फिल्म आयी थी. उसमे अमिताभ बच्चन "वर्ग चेतना" को संगठित करते हुए पूंजीपतियों से लड़ाई लड़ते हैं. एक गरीब मुसलमान कुली की भूमिका में वे सभी गरीबों का प्रतिनिधित्व करते हुए एक वामपंथी आदर्शों से प्रेरित क्रान्ति का झंडा उठाते हैं. सबसे मजेदार बात ये कि फिल्म के अंतिम द्रश्यों में वे पूंजीपतियों से हथौड़ा और हंसिया लेकर युद्ध करते हैं.



ये हंसिया हथौड़ा साम्यवादी आदर्श से प्रेरित है. इस फिल्म को भारत में रिलीज होने में सेंसर बोर्ड को या भारत के समाज को कोई समस्या नहीं होती. ये फिल्म सुपर हिट रहती है, खूब कमाई करती है. वर्ग संघर्ष की चेतना की बात करने से भारत के ब्राह्मणवादी ढाँचे को कभी कोई समस्या नहीं रही. ये एक गौर करने वाली बात है.

वहीं बाबा साहेब अंबेडकर पर बनी फिल्मों में या जातीय शोषण या सामाजिक क्रान्ति पर बनी फिल्मों में जहां एक सामाजिक नैतिकता और धार्मिक नैतिकता पर सवाल उठाये जाते हैं, उन फिल्मों के निर्माण, प्रदर्शन और वितरण पर भारी रोक लगाई जाती है. जब्बार पटेल की फिल्म, जो बाबा साहेब अंबेडकर पर बनी उसे किस-किस तरह से रोका गया ये सब जानते हैं. वर्ण चेतना और वर्ण माफिया को उजागर करती हुई फिल्मों से भारत के सेंसर बोर्ड और पूरे ब्राह्मणवादी ढाँचे को भारी दिक्कत होती है. ऐसी फिल्मे भारत में नहीं चलने दी जाती.

"वर्ग चेतना" से भरी फिल्मों का बैंड बाजे और हार फूल से स्वागत होता रहा है वहीं "वर्ण चेतना" से जुडी फिल्मों पर प्रतिबन्ध लगता रहा है.

इसका मतलब समझिये.
शोषक सत्ता जिस चीज पर प्रतिबन्ध लगाती है उसी चीज में शोषण का असली इलाज छुपा होता है. इसका मतलब ये भी हुआ कि भारत के शोषक ब्राह्मणवाद को असली समस्या वर्ग चेतना से नहीं है बल्कि वर्ण चेतना से है. वर्ण माफिया को चुनौती देने वाली कोई भी फिल्म या पहल हो उसे तुरंत प्रतिबंधित कर दिया जाता है. ये प्रतिबंध साफ बताता है कि भारत में ब्राह्मणवाद किस बात से डरता है.

कूली जैसी फिल्मों की अपार सफलता यह भी बताती है कि “भारतीय वामपंथ स्टाइल” वर्ग चेतना से ब्राह्मणवाद को नुक्सान नहीं बल्कि फायदा होता है.

(लेखक टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में रिसर्च स्कॉलर हैं।)

बाकी ख़बरें