150 आदिवासी अधिकार समूहों ने जनजातीय मंत्रालय से ग्राम सभा की शक्तियों को कम करने वाले निर्देश रद्द करने की मांग की

Written by sabrang india | Published on: August 26, 2025
आदिवासी अधिकार समूहों और नागरिक समाज नेटवर्क ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय को पत्र लिखकर हालिया दिशानिर्देशों और एडवाइजरी को तत्काल वापस लेने की मांग की है। इन समूहों ने दावा किया कि पर्यावरण मंत्रालय के हस्तक्षेप वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत मान्यता प्राप्त और स्थापित सामुदायिक वन संसाधनों के शासन, प्रबंधन और संरक्षण के लोकतांत्रिक ढांचे को नष्ट कर रहे हैं।



आदिवासी अधिकार समूहों और नागरिक समाज नेटवर्क ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय को पत्र लिखकर हाल के जारी किए गए दिशानिर्देशों और सलाहकार निर्देशों को तुरंत वापस लेने की मांग की है। 150 से अधिक अधिकार समूहों और नागरिक समाज नेटवर्क का कहना है कि ये निर्देश वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत ग्राम सभाओं के अधिकारों को कमजोर करते हैं।

न्यूज एजेंसी पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, 21 अगस्त को प्रस्तुत एक संयुक्त ज्ञापन में हस्ताक्षरकर्ताओं ने दावा किया है कि पर्यावरण मंत्रालय का हस्तक्षेप वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत मान्यता प्राप्त और स्थापित सामुदायिक वन संसाधनों के शासन, प्रबंधन एवं संरक्षण के लोकतांत्रिक ढांचे को समाप्त कर रहा है।

उन्होंने आरोप लगाया कि इन कदमों से ‘सामुदायिक वन संसाधन प्रबंधन के लिए एक समानांतर संस्थागत व्यवस्था’ बन गई है, जिसमें ग्रामसभा की जगह ‘नौकरशाही’ ले लेती है, जो अंततः सभी शक्तियां वन विभाग और पर्यावरण मंत्रालय के अधीन कर देती है।

इन समूहों ने विशेष रूप से 12 सितंबर, 2023 को जारी ‘सामुदायिक वन संसाधनों के संरक्षण, प्रबंधन और सतत उपयोग के लिए दिशानिर्देश’ पर आपत्ति जताई।

उनके अनुसार, ये नए दिशानिर्देश 2015 के दिशानिर्देशों की जगह ले रहे हैं, जिनमें ग्रामसभा के अधिकारों को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया था। 2015 के दिशानिर्देशों ने ग्राम सभाओं को सामुदायिक वन संसाधनों के विकास, निर्णय और योजना बनाने एवं उन्हें स्वतंत्र एवं स्वायत्त रूप से लागू करने का अधिकार प्रदान किया था।

उन्होंने दावा किया कि 2023 के दिशानिर्देश ग्रामसभा के संस्थागत अधिकारों और उसके लोकतांत्रिक शासन ढांचे को कमजोर कर इस मूल सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं। उनकी सूचीबद्ध चिंताओं में पंचायत सचिव द्वारा ग्रामसभा की बैठकों का आयोजन करना, वन विभाग के साथ सीएफआर प्रबंधन समिति के समन्वय को अनिवार्य करना, एक अलग जिला स्तरीय सीएफआर निगरानी समिति का गठन करना और ग्राम सभाओं के बैंक खाते खोलने के लिए अधिकारियों को पत्र जारी करने का अधिकार देना शामिल हैं।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सीएफआर प्रबंधन एक ऐसी योजना बन कर रह गया है, जो नौकरशाही की निगरानी में संचालित हो रही है, जबकि वास्तव में इसे ग्राम सभा जैसी लोकतांत्रिक संस्था की देखरेख में चलाया जाना चाहिए।

संगठनों ने 14 मार्च, 2024 को जनजातीय कार्य मंत्रालय और पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी की गई संयुक्त एडवाइजरी का विरोध किया।

उन्होंने कहा कि परामर्श में 2023 के दिशा-निर्देशों को दोहराया गया है और ‘कार्य योजना संहिता 2023’ के अनुरूप आदर्श वैज्ञानिक सीएफआर प्रबंधन योजनाओं का प्रस्ताव दिया गया है, जिन्हें वन विभाग के सहयोग से तैयार किया जाना है।

परामर्श में कहा गया है कि इससे सामुदायिक वन संसाधनों के प्रबंधन और संरक्षण के मामलों में वन विभाग को व्यापक अधिकार मिल जाएंगे। यहां तक कि वन अधिकारियों को सीएफआर प्रबंधन समितियों में शामिल करने की सिफारिश भी की गई है, जबकि ये समितियां एफआरए के तहत ग्राम सभाओं द्वारा गठित पूर्णतः वैधानिक निकाय हैं।

हस्ताक्षरकर्ताओं के अनुसार, भारत सरकार के 1961 अधिनियम में 2006 में किए गए संशोधन के बाद जनजातीय कार्य मंत्रालय को वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के कार्यान्वयन के लिए नोडल मंत्रालय घोषित किया गया है और केवल इसी मंत्रालय को कानून के तहत दिशा-निर्देश और स्पष्टीकरण जारी करने का अधिकार प्राप्त है।

उन्होंने दावा किया कि एफआरए से संबंधित मामलों में 'संयुक्त जिम्मेदारी के सिद्धांत' की घोषणा और उसे अपनाकर जनजातीय कार्य मंत्रालय ने न केवल कानून का उल्लंघन किया है, बल्कि अपनी वैधानिक जिम्मेदारी से भी पल्ला झाड़ लिया है।

इसमें यह भी आरोप लगाया गया है कि पर्यावरण मंत्रालय और राज्य वन विभागों ने वनों और संरक्षित क्षेत्रों को अधिसूचित करते समय वन अधिकारों की मान्यता से संबंधित वन कानूनों का लगातार उल्लंघन किया है। इसके अलावा, वनों को गैर-वनीय उद्देश्यों के लिए परिवर्तित किया गया है, जिससे आदिवासी और वनवासियों के साथ लंबे समय से हो रहे ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के उद्देश्य से एफआरए को लागू करना जरूरी हो गया।

इसमें यह आरोप लगाया गया है कि जनजातीय कार्य मंत्रालय अब पर्यावरण मंत्रालय को अपने वैधानिक अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप करने की अनुमति दे रहा है।

प्रतिनिधिमंडल ने सितंबर 2024 में शुरू किए गए पीएम-जेयू जीयूए मिशन के तहत एफआरए गतिविधियों को शामिल करने का विरोध जताया और दावा किया कि इससे एफआरए की धारणा एक ‘लाभार्थी योजना’ में बदल गई है।

उन्होंने कहा कि पूरे मिशन ने वन अधिकार अधिनियम को एक नौकरशाही प्रक्रिया में बदल दिया है, जिसमें समानांतर संस्थागत संरचनाएं बनाकर ग्राम सभाओं की शक्तियों को नजरअंदाज किया गया है।

समूहों ने जनजातीय कार्य मंत्रालय के कार्यों को ‘गैर-जिम्मेदाराना, अविवेकपूर्ण और निराशाजनक’ करार देते हुए मांग की कि मंत्रालय तुरंत सितंबर 2023 के सीएफआर दिशानिर्देश और मार्च 2024 के संयुक्त परामर्श वापस ले और 2015 के उन दिशानिर्देशों को पुनः लागू करे जिनमें ग्राम सभा की प्राधिकरण बरकरार थी।

उन्होंने मंत्रालय से अनुरोध किया कि वह वन अधिकार अधिनियम के तहत अपनी नोडल शक्तियों का इस्तेमाल करे, यह निर्देश जारी करे कि वन अधिकारों से संबंधित सभी स्पष्टीकरण केवल जनजातीय कार्य मंत्रालय (MOTA) से ही जारी किए जाएं और साथ ही पर्यावरण मंत्रालय एवं उसकी संस्थाओं को किसी भी उल्लंघन के लिए जवाबदेह ठहराने का मामला तय करे।

समूहों ने सभी राज्य सरकारों और संबंधित प्राधिकारियों से आग्रह किया कि वे ग्राम सभा को ‘वन अधिकार अधिनियम के तहत वैधानिक प्राधिकारी और सामुदायिक वन संसाधन अधिकार क्षेत्र के शासन, प्रबंधन एवं संरक्षण के लिए सक्षम प्राधिकारी’ के रूप में मान्यता देने का निर्देश जारी करें।

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