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मोदीनामा: हिंदुत्व का उन्माद- पुस्तक समीक्षा

Published Date: 
Tuesday 15th October 2019 Asia/Kolkata
Summary: 
मोदीनामा : हिंदुत्व का उन्माद

लेखक :  सुभाष गाताडे

प्रकाशक : लेफ़्टवर्ड बुक्स, 2254/2 ए, शादी खामपुर, न्यू रंजीतनगर, नई दिल्ली – 110008

ISBN 978-81-940778-5-5

क़ीमत : 195 रुपये



`मोदीनामा` के लेखक सुभाष गाताडे के मुताबिक,`यह किताब प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी के पिछले पांच वर्षों की यात्रा को देखते हुए आने वाले पांच वर्षों के लिए एक चेतावनी है।` मोदी के नये कार्यकाल की शुरुआत और इस किताब के प्रकाशन को बहुत मामूली समय ही हुआ है लेकिन यह `चेतावनी` सही साबित होती दिखाई दे ही रही है। जाहिर है कि इस `चेतावनी` का आधार मोदी के पिछले पांच सालों के कार्यकाल जो `किसी भी द्वंद्व के परे है`, की समीक्षा है। किताब की भूमिका में ही लेखक इस सवाल से दो-चार होता है कि मोदी और भाजपा की सत्ता के लीवर पर ज़ोरदार पकड़ की वजह क्या है। आरएसएस का नेटवर्क, मीडिया का आत्मसमर्पण, सोशल मीडिया का दुरुपयोग, पैसे का अंधाधुंध इस्तेमाल, कॉरपोरेट और फ़ासिज़्म में गठजोड़, विपक्ष के आधे-अधूरे गठबंधन आदि वजहों को गिनाते हुए भी लेखक के लिए गुत्थी है कि आख़िर `जीवन और आजीविका जैसी आधारभूत बातें इन चुनावों में मुद्दा क्यों नहीं बन पाईं। ऐसा क्यों है कि सामान्य और सभ्य लोगों के लिए भी हिन्दुत्व के ठगों और ठेकेदारों की कट्टरता और क्रूरता बेमानी हो गई है? आज आक्रामक और मर्दवादी कट्टरवाद हमारे समाज के लिए एक सामान्य सी बात क्यों हो गई है?` इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश करते हुए लेखक इस महत्वपूर्ण बात को रेखांकित करता है - ``असल में मोदी और भाजपा ने सिर्फ चुनावी नक्शों को नहीं बदला है बल्कि सामाजिक मानदंड़ों की तोड़-फोड़ की भी शुरुआत कर दी है।``

`आक्रामक और मर्दवादी कट्टरवाद का हमारे समाज के लिए एक सामान्य सी बात हो जाना` और `सामाजिक मानदंड़ों की तोड़-फोड़`, ऐसे चिंताजनक पहलू हैं जिनमें मोदी (भाजपा/आरएसएस) की अभूतपूर्व क़ामयाबी व भविष्य की अपार संभावनाओं के सूत्र हैं तो मनुष्यता और समावेशी व विविधतापूर्ण देश-समाज में विश्वास रखने वालों की विडंबनापूर्ण विफलता और मुश्किल चुनौतियों के भी। आरएसएस और उसके सहयोगी संगठनों के लंबे समय से चले आ रहे नफ़रत फैलाने वाले साम्प्रदायिक अभियान पिछले पांच वर्षों में राज्य सत्ता की बदौलत टिड्डी दल की तरह छा गए। मनुष्यता को शर्मसार करने वाली भयानक से भयानक बर्बर कारगुज़ारियों को सत्ता का समर्थन हासिल होता दिखाई देता रहा तो समाज (बहुसंख्यक तबका) में भी उन्हें स्वीकार्यता हासिल हुई। धर्म की बहुत सारी उदार धाराएं, तलछट की जनता और `पढ़े-लिखे-सुसंस्कृत` कहे जाने वाले तबके इसी संड़ाध से होते हुए मोदी के इस `न्यू इंडिया` के साथ खड़े दिखाई दिए। शत्रु घोषित कर दिए गए `धार्मिक अल्पसंख्यकों और राजनीतिक विरोधियों` की हत्याओं व महिलाओं के साथ अपराधों पर अट्टाहास और `न्यू इंडिया` के नायकों की निकृष्टतम कारगुजारियों के सार्वजिनक होने पर बेपरवाह ख़ामोशी या समर्थन असल में `आक्रामक और मर्दवादी कट्टरवाद का हमारे समाज के लिए एक सामान्य सी बात हो जाना` और `सामाजिक मानदंड़ों की तोड़-फोड़` ही तो है। जैसे मनुष्य में पूरी तरह नये आनुवांशिक बदलाव पैदा कर दिए गए हों। जैसे कि इंसानियत कभी कोई मूल्य रहा ही न हो। न्याय और बराबरी, प्रेम और बंधुत्व के सारे सवाल हमेशा इसी इंसानियत की जगह से तो संबोधित किए जाते रहे। क्या यह जगह, मनुष्य की यह मनुष्यता फिर हासिल की जा सकती है? यहां इसी किताब में उद्धृत किया गया 20वीं सदी के महान लेखक जेम्स बॉल्डविन का यह कथन पढ़ा जा सकता है - `जिन चीज़ों से हमारा सामना होता है, वे बदली नहीं जा सकतीं लेकिन बिना उनका सामना किए कुछ बदल नहीं सकता।`

इस बात में भी कोई शक नहीं है कि इन नयी बर्बरताओं की जड़ें हमारे समाज और संस्कृति में पुरानी हैं जिनसे जूझते हुए ही मनुष्य की बराबरी की आकांक्षा वाला आधुनिक धर्मनिरपेक्ष संविधान संभव हो सका जो इन दिनों `धर्मनिरपेक्ष अतीत` की तरह नज़र आ रहा है।  हालांकि, ख़राबे की जड़ों को कभी मिटाया नहीं जा सका था। `यहां तक कि धर्मनिरपेक्ष अतीत में भी सामाजिक पदानुक्रम और धार्मिक असहिष्णुता के बीज थे, मोदी जिनका विस्तार करने में सक्षम थे।` आरएसएस का घोषित एजेंडा ही मनुस्मृति से संचालित `हिन्दू राष्ट्र` स्थापित करना रहा है। हैरानी नहीं है कि आधुनिक संविधान के रास्ते से होकर ही राज्य सत्ता पर काबिज हुई यह ताक़त संवैधानिक मूल्यों के ऊपर मनुष्यों के एक बड़े तबके को `तुच्छ` बनाने वाली मनुस्मृति जैसी किताबों को तरजीह देती है। आरएसएस के प्रचारक मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद किस तरह संसद की दहलीज़ पर माथा टिकाते हैं और किस तरह `संविधान के निर्माणकर्ताओं के द्वारा बनाए गए संस्थागत नियंत्रण और संतुलन को उलट-पलट देने में भी उन्हें हिचक नहीं है`, यह विश्लेषण करते हुए सुभाष गाताडे पीछे मनुस्मृति तक भी जाते हैं और अंबेडकर जैसे प्रखर आधुनिक व्यक्तियों की मनमानी छवि पेश करने की संघ की कोशिशों का भी पर्दाफाश करते हैं। प्रतिबद्ध लेखक और एक्टिविस्ट सुभाष गाताडे के लिए यूं भी ये मसले लम्बे समय से अध्ययन और शिक्षण का विषय रहे हैं।

सुभाष बुद्धिजीवियों के इस प्रिय और व्यर्थ के शग़्ल में नहीं पड़ते कि भाजपा में मोदी या मोदी-शाह का उरूज अपने पितृ संगठन आरएसएस के लिए कोई ख़तरा है। जब वे मोदी की बात करते हैं तो आरएसएस की बात भी कर रहे होते हैं। उन्होंने किताब को भूमिका (मोदी 2) के अलावा पांच अन्य अध्यायों (`विचार ही अपराध`, `पवित्र किताब की छाया में`, `लिंचिस्तान`, `पवित्र गायें`, `जाति उत्पीड़न पर मौन` और `मनु का सम्मोहन`) में बांटा है जिन्हें लम्बे स्वतंत्र लेखों की तरह भी पढ़ा जा सकता है। `विचार ही अपराध` अध्याय में सुभाष कहते हैं -  सियासत में धर्म के विस्फोट के इस वक़्त ने लेखकों, तर्कवादियों और संस्कृतिकर्मियों की सुनियोजित हत्याओं और उनके ख़िलाफ़ एक संगठित हिंसा को जन्म दिया है।` वे पाकिस्तान और बांग्लादेश की उन घटनाओं का भी ज़िक्र करते हैं जिनमें तर्कशील शख़्सियतों को ईश निंदा के नाम पर मार दिया गया। वे अफ़सोस जताते हैं कि दक्षिण एशिया ऐसी हिंसा का केंद्र दिखाई देता है। `दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र` भारत अपने पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश से इस तरह अलग है कि वहां कई मामलों में हत्यारों को पकड़ा गया और उन्हें सज़ा दिलाई गई पर भारत में राज्य सत्ता ज़्यादातर मामलों में हिन्दू अतिवादियों के साथ खड़ी दिखाई देती रही। नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे, गौरी लंकेश जैसी जानी-मानी शख़्सियतों के अलावा भी अनेक लोगों को निशाना बनाया गया। सुभाष की इस बात को हम सभी वे लोग जो इस बदलते वक़्त के गवाह रहे हैं, शिद्दत के साथ महसूस कर सकते हैं- `बीत गए वे दिन जब आप खुलकर अपनी असहमति प्रकट करते थे या किसी स्वस्थ सार्वजनिक बहस के लिए तैयार रहते थे।` वे आंकड़ों के साथ कहते हैं कि इन दिनों वर्चस्वशाली तबकों का ज़ोर इस बात पर है कि किस तरह असहमति की आवाज़ों का अपराधीकरण किया जाए। असहमति रखने वाला कोई ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता हो, एक्टिविस्ट, संपादक पत्रकार, प्रोफ़ेसर या कोई भी हो, उसे मार भी नहीं दिया जाए तो उसे किसी भी आपराधिक आरोप में जेलों में वर्षों तक सड़ते रहने के लिए भेजा जा सकता है। आरोप के तौर पर `आहत भावनाएं` तो हमेशा उपलब्ध हैं ही।

सुभाष गाताडे नरेंद्र मोदी के संसद में अपने पहले प्रवेश के मौके पर किए गए चर्चित ऐलान कि संसद `जनतंत्र का मंदिर` और संविधान `पवित्र किताब` है, का प्रतिवाद करते हैं। वे कहते हैं, ``संविधान कोई पवित्र किताब नहीं है। वह `आस्था, इतिहास और आचारों या दैवी प्रेरणाओं का बयान` नहीं है। उसे लोगों ने गढ़ा है और उसे इसी तरह देखा जाना चाहिए।`` यह लिखते हुए कि संविधान की आत्मा अधिकतर पवित्र किताबों के सारतत्व के हिसाब से नहीं होती, वे याद दिलाते हैं कि भारत का संविधान न्याय, आज़ादी, समानता और बंधुत्व पर ज़ोर देता है। पवित्र कहे जाने वाले प्राचीन ग्रंथों में यह ढूंढना असंगत और कालदोषयुक्त होगा। सदन में ही दिए गए मोदी के भाषण का उल्लेख करते हुए सुभाष बताते हैं कि प्रधानमंत्री ने किस तरह आरएसएस के उस नज़रिये को दोहराया जो मुसलमान को इस देश के लिए पराये और अजनबी और `हम` पर हजार साल तक हुकूमत करने वाले के रूप में देखता है।

मुसलमानों और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के हाशियाकरण की प्रक्रिय़ा का उल्लेख करते हुए सुभाष गाताडे कहते हैं - `जनतंत्र का निर्माण साझे आदर्शों और लक्ष्यों पर आधारित होता है, न कि साझी नफ़रतों और अलगाव पर।` वे डीयू के अध्यापक सतीश देशपांडे के 2015 के एक कथन को उद्धृत करते हैं कि उत्पीड़न की अधिक स्थायी प्रणाली विकसित करने की कोशिश की जा रही है जिसमें मुसलमान खुद अपने अधीनीकरण की प्रक्रिया के स्थायी साझीदार बनने के लिए तैयार हो जाए। आज 2019 में हम नागरिकों के अनागरिक हो जाने की स्थिति से रूबरू हैं। मुसलमानों के नरसंहार के गवाह रह चुके असम में डिटेंशन सेंटर तैयार हैं और एनआरसी की प्रक्रिया को पूरे देश में लागू करने की बातें की जा रही हैं। देश अपने धर्मनिरपेक्ष संविधान के मूल्यों को ताक़ पर रखकर तैयार किए गए नागरिक संशोधन विधेयक से भी वाबस्ता है। एक राज्य कश्मीर जेल में तब्दील है। जनतंत्र को नागरिक अधिकारों को नियंत्रित कर किस-किस तरह मुट्ठी में लिया जा रहा है, इस पर किताब विस्तार से बात करती है। अन्ना हजारे के गांव जैसी कथित सहमति की पंचायतों के जरिये भी वर्चस्वशाली तबका वंचितों का मताधिकार छीन मनमाने फैसले लेता है।

एक देश किस तरह लिंचिस्तान में तब्दील किया जा रहा है जहां सत्ता से जुड़े संगठनों द्वारा संचालित-नियंत्रित भीड़ें ख़ासकर अल्पसंख्यकों को सार्वजनिक रूप से निशाना बना रही हैं। सुभाष गाताडे के मुताबिक, भारत में साम्प्रदायिक आधार पर इस तरह की हत्याओं के इस सिलसिले की सबसे पहली घटना मोदी सरकार (पहली) के शपथ ग्रहण के बामुश्किल 15 दिनों के अंदर दिखाई दी थी। 4 जून 2014 को धनंजय देसाई की अगुआई में हिन्दू राष्ट्र सेना के साथ जुड़े गिरोह ने आईटी मैनेजर मोहसिन मोहम्मद शेख (28) को हॉकी स्टिक्स से पीट-पीट कर मार डाला था। सुभाष `मॉब लिंचिंग` की एक के बाद एक कई वारदातों का जिक्र करते हैं तो दिल सिहर उठता है कि किस तरह यह भीषण अपराध सामान्य बात होता जा रहा है। 23 जून 2017 को रेल से दिल्ली से मथुरा जाते वक़्त फरीदाबाद में मार दिए गए जुनैद की याद हो या अख़लाक़ की या इस तरह मार डाले गए दूसरे निर्दोषों की, इस बारे में पढ़ना मन को ग्लानि से भर देता है। हत्यारों की राजनीतिक पृष्ठभूमि, उनका खुद ही हत्या के वीडियो बनाकर उन्हें प्रचारित करना, जनता का रवैया, सरकारी मशीनरी की भूमिका, सत्ता का संरक्षण और अदालत के रुख़ के ब्यौरे जनतंत्र और जनता को लेकर दुख और निराशा पैदा करने वाले हैं। अल्पसंख्यकों की लिंचिंग का यह सिलसिला इंस्पेक्टर सुबोध सिंह की हत्या तक भी पहुंचता है जो साम्प्रदायिक हिंसा की हिंदुत्ववादियों की साजिश को नाकाम करने की सज़ा भुगतते हैं। सुभाष बताते हैं कि `लिंचिग` (`यानी बिना किसी वैध निर्णय के मार डालना`)  शब्द 1877 से 1950 के बीच अमेरिका में सरकार और पुलिस की तरफ़ से निरापद श्वेत वर्चस्वादी गिरोहों के हाथों लगभग 4000 अफ्रीकी अमेरिकियों की इसी तरह की गईं हत्याओं की याद दिलाता है। इस बारे में जेम्स बॉल्डविन के कथन में हम अपने यहां की हत्यारी भीड़ों के चेहरे भी आसानी से देख सकते हैं। बॉल्डविन के मुताबिक, `भीड़ कभी स्वायत्त नहीं होती। वह सत्ता में बैठे लोगों की वास्तविक इच्छा को पूरा करती है।` सुभाष गाताडे लिखते हैं,`भाजपा का नया इंडिया दरअसल नफ़रत और धर्मांधता का सामान्य हो जाना है। य़ह नया सामान्य एक तरह से कॉर्पोरेट हितों और हिंदुत्व के कट्टरपंथियों के बीच का एक पवित्र गठबंधन है। वह कानून के राज को उलट देने, संस्थाओं को अंदर से नाकाम करने और डर के माहौल के निर्माण से परिभाषित होता है।`

गाय के नाम पर खूनी सियासत और संघ-भाजपा के अंतर्विरोधों, आरएसएस के ही आयकन सावरकर और उसके पोस्टरों के प्रमुख चेहरे विवेकानंद के गौमांस को लेकर चौंकाने वाले विचारों से लेकर मनुस्मृति की पुनर्स्थापना की कोशिशों, जाति उत्पीड़न को लेकर आरएसएस-भाजपा के रवैये और स्वच्छता अभियान के प्रचार पर बेइंतिहा पैसा फूंकने के बावजूद कुछ जातियों के लोगों को सफाई के कामों के लिए और सीवरों-सैप्टिक टैंकों में मरने के लिए मज़बूर करने की नीति पर चलते जाने के ब्यौरे और आंकड़े इस किताब में विस्तार से दिए गए हैं। हालांकि, स्वच्छता अभियान खासकर खुले में शौच रोकने के नाम पर देशभर में हुई हिंसक वारदातों पर सुभाष जाने क्यों सरसरी सी ही निगाह डाल पाए हैं।

इस किताब में डॉ. आंबेडकर के हवाले से मनुस्मृति से लेकर फ्रेडरिक नीत्शे तक, नीत्शे से लेकर नात्शियों तक एक सीधे सिलसिले का उल्लेख दिलचस्प औऱ चौंकाने वाला है। इस किताब के मुताबिक, अपनी अप्रकाशित पांडुलिपि `फ़िलॉसफ़ी ऑफ हिंदुइज़्म` में आंबेडकर लिखते हैं- `नात्शी अपनी वंशावली नीत्शे से रेखांकित करते हैं और उसे ही अपना आध्यात्मिक गुरु मानते हैं।` आंबेडकर के मुताबिक, `नीत्शे की सुपरमैन की संकल्पना हिटलर को बेहद पसंद थी, वह सीधे मनुस्मृति से निकली थी। अपनी रचना ऐंटी क्राइस्ट (1888) में नीत्शे बेहद आत्मीयता से मनु की विधि की किताब को ल़ॉ बुक ऑफ मनु लिखते हैं।` आंबेडकर के मुताबिक, दस स्पेक जरथ्रुष्ट्र, मनुस्मृति का ही नया संस्करण लगता है।

(सुभाष गाताडे की यह किताब हिन्दी और अंग्रेजी में एक साथ प्रकाशित हुई है। धीरेश सैनी द्वारा की गई समीक्षा यहां प्रकाशित की गई है।)