उत्तराखंड में वन अधिकार कानून लागू तो हुआ लेकिन खुद वन विभाग के कारिंदे नहीं करते इसका पालन

Written by sabrang india | Published on: August 8, 2020
देहरादून। उत्तराखंड में साठ प्रतिशत से अधिक भू-भाग वनों से आच्छादित है। यहां 6 नेशनल पार्क हैं। वनों के संरक्षण अधिनियम के कानूनों का कड़ाई से पालन भी किया जाता है। लेकिन इन कानूनों की आड़ में वन विभाग की मनमानी की खबरें भी आम हैं। 



उत्तराखंड गजेटियर की रिपोर्ट के मुताबिक, पीढ़ियों से जंगलों में निवास करते आ रहे अलग-अलग समुदाय के लोगों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार ने साल 2016 में 'अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवास (वन अधिकारों को मान्यता) कानून 2006' पारित किया था, जो वन अधिकार कानून के नाम से प्रचलित है। 

ऐसे लोग जिनका जीवन पीढ़ियों से वनों पर आधारित है, यह कानून उन्हें कई विशेष अधिकार देता है, जिससे वो बिना किसी कानूनी जंजाल में फंसे अपनी रोजी-रोटी चला सकें। 

यह कानून कहता है कि इन लोगों को जंगलों और वन्य जीवों के संरक्षण के नाम पर अनावश्यक प्रताड़ित ना किया जाए और उनके अधिकार जंगलों पर बने रहें। मगर प्रदेश में वन अधिकार कानून लागू तो किया गया लेकिन आधा अधूरा।

नैनीताल जिले के रामनगर में मालधन चौड़ से सटे कॉर्बेट नेशनल पार्क के तौमड़िया खत्ते के जंगल में रहने वाले शफी अपनी आपबीति बताते हैं, 'हम पीढ़ियों से इन जंगलों में रह रहे हैं। वन कानून लागू होने के बाद आज भी वन विभाग हमें परेशान करता है। कई दफा हमारे डेरों को उजाड़ दिया जाता है। महिलाओं के साथ वन विभाग वाले मारपीट करते हैं।'

ऐसा ही कुछ देहरादून में राजाजी नेशनल पार्क के रामगढ़ रेंज की आशारोड़ी बीट के जंगल में रहने वाले मस्तू चोपड़ा भी बताते हैं। मस्तू चोपड़ा हाल ही में जमानत पर छूटकर लौटे हैं। 

उनका कहना है कि बीती 17 जून को वन विभाग की टीम ने अतिक्रमण हटाने के नाम पर उनसे मारपीट की। मस्तू चोपड़ा का आरोप है कि कुछ 7 लोगों के साथ पुलिस कस्टडी में मारपीट की गई जिनमें दो महिलाएं भी शामिल थीं।

इस घटना के सामने आने के बाद उत्तराखंड के वन मंत्री हरक सिंह रावत ने इस पूरे मामले की जांच के आदेश दिए। ये दोनों घटनाएं बताती हैं कि प्रदेश में वन अधिकार कानून लागू तो किया गया लेकिन इसका पालन खुद वन विभाग के कारिंदे ही नहीं कर रहे हैं। 

वन कानून के मुताबिक जो लोग तीन पीढ़ियों से जंगलों में रह रहे हैं या किसी भी तरह जंगलों पर निर्भर हैं वे लोग जंगलों में रह सकते हैं और खेती कर सकते हैं। खेती से हुए उत्पादन का व्यापार भी वे लोग कर सकते हैं। इसके लिए उन्हें दावा पेश करना होता है।  


इसके लिए वन गूजरों को ब्लॉक स्तर की समिति में दावा पेश करना होता है। ब्लॉक स्तर की समिति से दावा पास होने पर यह जिला स्तर की कमेटी में जाता है। जिलादिकारी की अगुवाई वाली इस कमेटी को इस एक्ट में सबसे ज्यादा अधिकार दिए गए  हैं। 

जिलाधिकारी इसमें निर्णय लेने के लिए पूरी तरह से अधिकृत होते हैं। जंगल पर आश्रित लोगों को अपनी तीन  पीढ़ियों के प्रमाण इस समिति के सामने प्रस्तुत करने होते हैं।  जैसे चराई के लिए परमिट, एक बुजुर्ग की गवाई, ऐतिहासिक दस्तावेजों में जिक्र, वन विभाग द्वारा किए चालान की रसीद आदि। 

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