यह पहली बार नहीं है, कि दिल्ली पुलिस इस प्रकार से हिंसा कर के दहशत फैला रही है, मगर गोली लाठियों के साथ सांप्रदायिक भाषा का प्रयोग कर के आखिर कहना क्या चाहती है? जब देश के बड़े पदों पर बैठे हुए लोग ऐसी घटनाओं पर टिप्पणी में प्रदर्शनकारियों के कपड़ों से पहचानने की बातें करते हैं, तो पुलिस को और भी साम्प्रदायिक गैर क़ानूनी हिंसा करने की प्रेरणा मिलती है. पिछले तीस पैंतीस वर्षों में जस्टिस श्रीकृष्णा, आईपीएस ऑफ़िसर जुलिओ रिबेरो साहब, सतीश शाहनी साहब, के. एफ़. रुस्तमजी, पदम रोषा जी इत्यादि लोगों ने ये बात मानी और हुकूमत से पुलिस प्रशासन में सुधार के लिए आग्रह भी किया, मगर आज भी सरकार इस बात को मानने से इन्कार कर रही है, कि पुलिस प्रशासन का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो चुका है. तीस्ता सेतलवाड इस विषय पर अपने कई दशकों के अनुभव को साझा कर रही हैं.