बदला - आनंद पटवद्र्धन

बदला
आनंद पटवद्र्धन 


 
दलितों ने गुजरात में हिंदुत्व के अत्याचारों का जिस जबरदस्त अंदाज में जवाब दिया है, उसे इस देश में जाति का खात्मा चाहने वाले हर शख्स का भारी समर्थन मिला है। दलितों के प्रतिरोध की यह प्रेरणा अगर पूरे देश में फैल जाए तो पूरी जाति-व्यवस्था सिरे के बल खड़ी हो जाएगी । अगर लोगों की गंदगी साफ करने के लिए निर्धारित कर दी जातियों ने इस काम से इनकार कर दिया तो बाजार को इसका हल सोचने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है। इससे ऐसे कामों से जुड़े कामकाजी माहौल में सुधार भी होगा और इनका मेहनताना भी बढ़ेगा। तब ऐसे काम सामान्य आबादी के लोगों को भी अपनी ओर खींच सकते हैं। बाजार अगर यह बदलाव कर सके  तो यही असली लोकतांत्रिक क्रांति होगी।

आज से कई साल पहले (1972 से 1974 तक) मैंने मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में चल रहे ग्रामीण विकास और शिक्षा के एक प्रोजेक्ट किशोर भारती में कार्यकर्ता के तौर पर काम किया था।

दलितों के साथ पिछले दिनों जो कुछ हुआ, उसने मुझे 42 साल पहले लिखी अपनी एक कविता की याद दिला दी-
 
बदला
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सडक़ किनारे
रात गए     
उन हाथों ने
ला धरा है चुपचाप
कोई मरा हुआ जानवर।
वही हाथ जिन्हें रोक दिया जाता
है इन कुओं से पानी लेने से।
मूक  लोग
ढो रहे
उनका बोझ ।
पवित्र जानवर, लेकिन
मर गए जब वे
तो बेच दिए गए
उन लोगों के हाथ
जिन पर पहले से ही
लाद दिए गए हैं उनके पाप ।
काले-कलूटे लोग
कड़वाहट और बदले
की आग में झुलसते हुए
कर रहे हैं इंतजार।
कोई नपुंसक क्रोध
अंदर ही अंदर भडक़ रहा है।
लो अब
फेंक दिया है उनकी गंदगी
उन्हीं के दरवाजे पर
करें वे खुद अपनी गंदगी साफ।
बड़ा सुकून मिलेगा
जब असह्य दुर्गंध
फैल जाएगी
इनके चारों ओर।
वही दुर्गंध जिसमें
बसते आए हैं
आज तक हम
बसती आई है
हमारी कई पीढिय़ां।
अच्छा रहेगा
जब मरा हुआ मवेशी
पड़ा रहेगा इनके आसपास
और कसमसाते रहेंगे लोग।
अच्छा रहेगा
जब पड़ा रहेगा
कई दिनों तक
यहां यह अछूत।
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