श्री वासुदेव देवनानी के नाम खुला पत्र
दिनांक: 8 मई 2016
श्री वासुदेव देवनानी,
मंत्री, शिक्षा विभाग,
राजस्थान सरकार, जयपुर।
विषय: राजस्थान में कक्षा 1 से 8 तक की पाठ्यपुस्तकों को बदलने के संदर्भ में।
महोदय,
अखबारों से जानकारी मिली है कि इस सत्र से (शैक्षिक सत्र 2016-17) राजस्थान के सरकारी स्कूलों में कक्षा 1 से 8 तक की पाठ्यपुस्तकें फिर से बदल दी गई हैं।
हम हैरान हैं कि सन् 2012 से 2015 के बीच लाई गई नई पाठ्यपुस्तकों को अभी पूरे 5 साल भी नहीं हुए थे कि इस सत्र से फिर से नई पाठ्यपुस्तकें बनाकर लागू कर दी गई हैं।
हम जानना चाहते हैं कि इतनी कम अवधि में इन पाठ्यपुस्तकों को फिर से बदलने की वजह क्या रही? और जो पिछली किताबें छप चुकी हैं उन्हें बनाने व छापने में जो समय व सार्वजनिक धन लग चुका है उसकी आपूर्ति किस तरह की जा सकेगी? कृपया बताएं कि उनका अब क्या किया जाएगा? क्या वे सब रद्दी में बदल जाएंगी?
क्या पिछली किताबों को जो कि सन् 2012 से 2015 के बीच बनकर तैयार हुई थी उन्हें बदलने के सुझाव किसी ’रिव्यु कमेटी’ ने दिया था? अगर ऐसा है तो उन्हें सार्वजनिक किया जाए व वैब साइट पर डाला जाए।
सरकार व एसआईईआरटी द्वारा बिल्कुल भी पारदर्शिता नहीं अपनाई गई इसलिए नई किताबों को लेकर हमारे निम्न सवाल व चिंताएं हैं-
अभी एनसीएफ / राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 भी नहीं बदली है फिर नई किताबें लाने की वजह क्या रही?
इन किताबों को बनाने में किन लोगों व संस्थाओं की भूमिकाएं रहीं व उनका चयन किस प्रकार किया गया?
पिछले सालों में किताबो को बनाने में राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से आधुनिक शिक्षाशास्त्रीय नजरिए का उपयोग किया जाने लगा था इन किताबों में शिक्षाशास्त्र के लिहाज से फिर से सालों पीछे चले गए हैं।
किताबों को लेकर बहुत ही गोपनीयता बरती गई है। उन्हें अभी तक किन्हीं प्रशिक्षणकर्ताओं को भी उपलब्ध नहीं करवाया गया है।
किताबें बनने के बाद विभिन्न संस्थाओं व विशेषज्ञों द्वारा कोई समीक्षा नहीं की गई। यह जानकारी हमें मिली है।
ऐसा लगता है कि इन किताबों को राज्य में राजनैतिक रूप से हुए सत्ता परिवर्तन की वजह से बदला गया है। और इस प्रक्रिया में पारदर्शिता व जवाबदेही के सभी नियमों व परंपराओं को ताक पर रख कर राजनैतिक मकसद से बदला गया है।
अखबारों से मिली जानकारी के अनुसार इन नई किताबों में जवाहर लाल नेहरू, सरोजनी नायडू, मदनमोहन मालवीय जैसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले आन्दोलकारियों के नामों का जिक्र तक नहीं किया गया है। यहां तक कि 2 अक्टूबर 1959 को जवाहर लाल नेहरू ने जब राजस्थान के नागौर जिले से देशभर के लिए पंचायती राज की उद्घोषणा की थी तो इस संदर्भ में भी नेहरू का जिक्र नहीं किया गया है। और महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे पर चुप्पी साध ली गई है। यहां तक कि सीनियर सैकंडरी स्तर पर हार्डी, शेक्सपियर जैसे लेखकों को विदेशी के नाम पर हटा दिया गया है।
भारत के पहले राष्ट्रपति के तौर पर डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद का जिक्र तो मिलता है किन्तु भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के तौर पर जवाहर लाल नेहरू का जिक्र किताबों में नहीं किया गया है।
अगर पाठ्यपुस्तक लेखकों के उपरोक्त निर्णय राजनैतिक रूप से व आरएसएस विचारधारा से प्रेरित नहीं हैं तो ये किस आधार पर किए गए हैं?
हमारी मांग है कि-
हाल ही में बनाई इन पाठ्यपुस्तकों को लागू नहीं किया जाए क्योंकि उनकी अभी तक विशेषाज्ञों की समिति से किसी प्रकार की समीक्षा भी नहीं की गई है अतः वर्तमान में सन् 2012 से 2015 के बीच बनी पिछली पाठ्यपुस्तकों को ही जारी रखा जाए।
हमारी यह भी मांग हैं कि इन नई बनी पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा राष्ट्रीय स्तर के विशेषज्ञों की एक समिति बनाकर करवाई जानी चाहिए। उस समिति से पारित होने के बाद ही इन्हें लागू किया जाए। समीक्षा करने के लिए गठित की जाने वाली समिति में शामिल विशेषज्ञों की जानकारी वैब साइट पर डाली जाए व समीक्षा की प्रक्रिया को पूर्णरूप से पारदर्शी बनाया जाए।
यह भी बताया जाए कि किन परिस्थितियों में इन किताबों को बदला गया?
शिक्षा के अभियान की ओर से -
कविता श्रीवास्तव (पीयूसीएल), अनंत भटनागर (पीयूसीएल), कोमल श्रीवास्तव (बीजीवीएस), प्रमोद पाठक (दिगंतर), ममता जेटली (विविधा), राजाराम भादू (समान्तर ), प्रो.राजीव गुप्ता , समाजशास्त्र विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय), प्रो. के.एल. शर्मा (अर्थशास्त्र विभाग), प्रो . के. वी. गर्ग (राजस्थान विश्वविद्यालय), प्रो. एम. हसन (एचसीएम रीपा), अशोक खंडेलवाल, शिव, विश्वंभर, वीरेन्द्र, देवयानी भारद्वाज, प्रो. लाड़ कुमारी जैन (राजस्थान विश्वविद्याल), निशात हुसैन, निशा सिद्धू, रेनुका पामेचा।