Himanshu Pandya
मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग की प्रोफ़ेसर सुधा चौधरी ने अपने विभाग में विस्तार व्याख्यान हेतु दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अशोक वोरा को आमंत्रित किया था। प्रो. वोरा के व्याख्यान के कुछ अंश रिकॉर्ड किये गए, सन्दर्भ से काटकर सोशल मीडिया पर प्रसारित किये गए, स्थानीय अखबारों में भड़काऊ ख़बरें छपीं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के 'रणबांकुरों'ने दोनों दार्शनिकों के पुतले जलाए और Sudha Choudhary की बर्खास्तगी से लेकर गिरफ्तारी की मांग रखी।
'कौव्वा कान ले गया' की तर्ज पर भड़कने से पहले यह जानना जरूरी है कि प्रो. वोरा ने आखिर कहा क्या था? उनका व्याख्यान लिखित था जिसकी स्कैंड इमेज मेरे पास है. वह मैं साथ में जोड़ रहा हूँ, आप चाहें तो डाउनलोड कर हर्फ़-ब-हर्फ़ पढ़ सकते हैं। मैं पहले इस व्याख्यान को अपनी समझ से सूत्ररूप में यहाँ आपकी सुविधा के लिए रख रहा हूँ।
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सामी परम्पराओं में विशिष्ट उपासना पद्धति,संस्थापक, मान्य ग्रन्थ-इनमें पूर्ण आस्था अनुयायी हेतु अनिवार्य है। जो इनमें आस्था नहीं रखता या इनके प्रति आलोचनात्मक रवैया रखता है, वह 'बाहरी' या 'इतर' है। सामी परम्परा के अनुयाइयों में कट्टरता होती है, जो अपने धर्म को ही श्रेष्ठ मानने से उपजती है। निरपेक्ष अध्ययन करने वाले अथवा वैज्ञानिक अध्येता या कोई भी आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखनेवाला व्यक्ति उन्हें अपना विरोधी ही लगता है।( यहाँ संकेत इस्लाम और ईसाइयत के लिए है।)
हिन्दू धर्म इन सभी धर्मों से अलग और विशिष्ट है। अपने सर्व समावेशी गुण के कारण, हिन्दू धर्म में किसी को भी 'धर्म बाह्रय' या 'धर्मेतर' नहीं माना जाता। इसका मुख्य कारण यह है कि उसका किसी एक सिद्धांत या ग्रन्थ से सरोकार नहीं है, किसी विशिष्ट प्रकार का विधि निषेध नहीं है, कोई पूर्वनिर्धारित विशिष्ट आग्रह या रूढ़ियाँ नहीं है।
यद्यपि हिन्दू धर्म की संरचना में ही 'इतर' की संभावना नहीं है किन्तु फिर भी यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति या व्यक्ति समूह, जिसे हिन्दू धर्म से कोई सरोकार नहीं है, जिसकी हिन्दू धर्म की मान्यताओं, उसके सिद्धांतों, पूजा पद्धतियों को समझने में कोई रूचि नहीं है, और जो मात्र खंडन के लिए या हिन्दू धर्म को अन्य धर्मों से निकृष्ट दिखाने के लिए बिना समझे बूझे ही आलोचना करता है ,उसे हम ‘इतर’ कह सकते हैं। ऐतिहासिक रूप से ऐसी तीन कोटियाँ हैं – ‘म्लेच्छ’,’तुर्क’ और ‘यवन’.
इतर के प्रति भी आदर, प्रेम और रागात्मकता होनी चाहिए किन्तु व्यवहार में एक प्रकार की शंका बनी रहती है। उदाहरणार्थ ईसाइयत में बाइबल, यहूदी में तोरह और इस्लाम में कुरआन में आस्था न रखने वालों के लिए ‘पैगन/काफिर’ जैसी अपमानजनक शब्दावली का प्रयोग किया गया है। ये धर्म-सम्प्रदाय अक्सर xenophobia ( इतर धर्मावलम्बी के लिए विद्वेष ) से ग्रसित हैं और बहुधा धर्मांतरण इनका केन्द्रीय विचार बन जाता है। यहाँ फिर हिन्दू धर्म विशिष्ट है इसलिए उसमें ( दयानंद सरस्वती के अपवाद को छोड़कर) धर्मांतरण का विचार ही नहीं है।
हिन्दू धर्म ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ और ‘तत्वंअसि’ महावाक्यों का कट्टर समर्थक है. सम्पूर्ण सृष्टि को आत्मामय या ब्रह्ममय स्वीकार करके भारतीय ऋषियों ने सृष्टि की समस्त रचनाओं में एकत्व की घोषणा की है। अनेक उदाहरण देकर प्रो. वोरा ने यह बताया है कि भिन्नताएं ऊपरी हैं और भिन्न पूजा पद्धतियों, सिद्धांतों को स्वीकृति भी इसलिए है क्योंकि परम सत्ता एक ही है। इसीलिये हिन्दू धर्म में अपने आलोचकों के लिए भी जगह है. यहाँ तक कि भविष्य पुराण में तो ‘म्लेच्छों’ की उत्पत्ति भी हिन्दू धर्म की शाखा के रूप में दिखाई गयी है।
हिन्दू धर्म से इतर धर्मों में ( जहां आतंरिक और बाह्रय की अवधारणा है) चार प्रकार के संवाद संभव हैं : 1. आतंरिक-आंतरिक 2. आंतरिक-बाह्य 3. बाह्य-आंतरिक 4. बाह्य-बाह्य. आतंरिक-आंतरिक सम्वाद में जब सम्वाद टूट जाए तो कोहराम मच जाता है, भिन्न सम्प्रदाय इसकी परिणति के रूप में देखने में आते हैं उदाहरणार्थ कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट, शिया-सुन्नी, हीनयान-महायान, दिगंबर-श्वेताम्बर, आर्थोडोक्स-कंजर्वेटिव, वैष्णव-शैव-शाक्त आदि. आनारिक और बाह्रय का सम्वाद यदि बिना राग-द्वेष और बिना पूर्व निर्धारित मान्यताओं के किया जाए तो वह दोनों मतावलंबियों के लिए लाभप्रद हो सकता है किन्तु यदि उसका उद्देश्य दूसरे मत को नीचा दिखाना हो तो इसके परिणाम भयावह ही होंग।. सर्वाधिक हास्यास्पद स्थिति तब उत्पन्न होती है जब दो बाहरी व्यक्ति बिना एक धर्म विशेष की संस्कृति, परम्परा और विशिष्टताओं को समझे, अपनी परिचित मान्यताओं और परम्पराओं के सन्दर्भ में उसे व्य्ख्यायित करने लगते हैं। हिन्दू मदिरों, मूर्तियों और पूजा पद्धतियों का विदेशियों – विशेषतः यूरोपियों, ईसाइयों द्वारा ऐसा गलत पाठ खूब किया गया है। प्रो. वोरा ने सोलहवीं शताब्दी से लेकर अब तक के कई विचारकों की व्याख्याओं को उद्धृत करते हुए इसके लिए उनके ‘इतर’ के प्रति घृणा के संस्कारों को मुख्य कारण माना है।
ऐसी एक प्रचलित गलतफहमी पर प्रो. वोरा ने सविस्तार चर्चा की है- मूर्तिपूजा. उनके अनुसार मूर्ति की पूजा करने के बावजूद हिन्दू उस विशिष्ट मूर्ति का उपासक नहीं है बल्कि उस शक्ति का उपासक है जिसका प्रतिनिधित्त्व वह मूर्ति करती है. मूर्ति स्मृति बोध में सहायक मात्र है और वह भी प्राणप्रतिष्ठा के बाद ही। इसी प्रकार अनेक देवी देवताओं की उपासना के बावजूद आखिर में वह नामरूप रहित ‘एकोमेवाद्वितीय’ ब्रह्म की उपासना ही है. ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ – एक सत्य को ही विभिन्न लोग विभिन्न रूपों में देखते-समझते हैं। पश्चिमी दृष्टि न तो इन भिन्नताओं को समझ पाती है और न मिथकों-लोकगाथाओं के प्रतीकार्थों को। यहाँ वे पॉल कोर्टराईट और वेंडी डोनीगर की व्याक्याओं का सप्रमाण खंडन करते हैं और सोदाहरण दिखाते हैं कि जब वे लोग फ्रायडीय विश्लेषण कर रहे हैं तो दरसल वे ‘अपनी सभ्यता के मूल्यों’ को हमारी सभ्यता पर लागू कर रहे हैं। इन पश्चिमी विचारकों ने मां-पुत्र और गुरु-शिष्य के पवित्र-आध्यात्मिक सम्बन्ध को भी विकृत करके देखा है।
अंत में प्रो. वोरा कहते हैं कि हो सकता है कि इन ईसाई, इस्लाम और यहूदी धर्मों की भी बाह्य व्यक्तियों द्वारा बिना इनके रीति रिवाजों और मान्यताओं को जाने गलत व्याख्याएं की गयीं हों। जो भी हो, इस प्रकार का सतही, एकांगी और पक्षपाती दृष्टिकोण अनैतिक, भ्रामक और गैरजिम्मेदाराना ही कहा जाएगा। बाह्य व्यक्तियों की एकांगी सोच इन्द्रधनुषी-बहुरंगी समाज को बदरंग ही करती है। सम्वाद के लिए सहिष्णुता, दूसरों के रीति रिवाजों,मूल्यों, प्रतीकों और सिद्धांतों की पूर्ण जानकारी और उसकी उदार व्याख्या में अभिरुचि आवश्यक है। अहंकार से मुक्ति और विनम्रता का भाव सबसे जरूरी है।
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अब मेरी बात :
1. मैंने ऊपर प्रो. वोरा के व्याख्यान को पढ़कर यथासंभव वस्तुनिष्ठ ढंग से उसका सार लिखने की कोशिश की है. मुझे इस व्याख्यान से अनेकानेक असहमतियां हैं। यहाँ इसके प्रस्तुतीकरण का एक ही उद्देश्य है – इस दुष्प्रचार का खंडन करना कि यह व्याख्यान हिन्दू विरोधी था। इसके ठीक उलट मेरी विनम्र राय में यह व्याख्यान हिन्दू श्रेष्ठताबोध से ओतप्रोत था। अपनी तमाम असहमतियों को मैं किसी और दिन के लिए स्थगित कर रहा हूँ क्योंकि फिलहाल स्थिति यह है कि डॉ. सुधा चौधरी के वामपंथी विचारक होने की ख्याति के कारण उनके अतिथि पर हिन्दू विरोधी होने की तोहमत थोप दी गयी है, जो कि वे किसी भी सूरत में नहीं हैं।
2. मेरा प्रस्तुतीकरण भी भ्रामक और पूर्वाग्रही हो सकता है। आप में से जो दिलचस्पी लें, वे पूरा व्याख्यान डाउनलोड कर खुद पढ़ें, पर इतना जरूर याद रखें कि डॉ. सुधा चौधरी - एक वामपंथी में इतनी अकादमिक परिपक्वता है कि अपने विपक्षी विद्वान को आमंत्रित कर बहस को जन्म दें, जो निश्चय ही आगे जायेगी और जितना मैं डॉ. सुधा चौधरी को जानता हूँ, वे खुद इसे आगे लेकर जायेंगी। विचारों की लड़ाई, विचारों से लड़ी जाती है. पर यह बात उन कूढ़मगजों के समझ में नहीं आ सकती जो संदर्भरहित वाक्यों को सुनकर अपने ही पक्ष की बात रखनेवाले अध्येता के खिलाफ तलवार लेकर कूद पड़े हैं
मोहनलाल सुखाडिया विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग की प्रोफ़ेसर सुधा चौधरी ने अपने विभाग में विस्तार व्याख्यान हेतु दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर अशोक वोरा को आमंत्रित किया था। प्रो. वोरा के व्याख्यान के कुछ अंश रिकॉर्ड किये गए, सन्दर्भ से काटकर सोशल मीडिया पर प्रसारित किये गए, स्थानीय अखबारों में भड़काऊ ख़बरें छपीं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के 'रणबांकुरों'ने दोनों दार्शनिकों के पुतले जलाए और Sudha Choudhary की बर्खास्तगी से लेकर गिरफ्तारी की मांग रखी।
'कौव्वा कान ले गया' की तर्ज पर भड़कने से पहले यह जानना जरूरी है कि प्रो. वोरा ने आखिर कहा क्या था? उनका व्याख्यान लिखित था जिसकी स्कैंड इमेज मेरे पास है. वह मैं साथ में जोड़ रहा हूँ, आप चाहें तो डाउनलोड कर हर्फ़-ब-हर्फ़ पढ़ सकते हैं। मैं पहले इस व्याख्यान को अपनी समझ से सूत्ररूप में यहाँ आपकी सुविधा के लिए रख रहा हूँ।
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सामी परम्पराओं में विशिष्ट उपासना पद्धति,संस्थापक, मान्य ग्रन्थ-इनमें पूर्ण आस्था अनुयायी हेतु अनिवार्य है। जो इनमें आस्था नहीं रखता या इनके प्रति आलोचनात्मक रवैया रखता है, वह 'बाहरी' या 'इतर' है। सामी परम्परा के अनुयाइयों में कट्टरता होती है, जो अपने धर्म को ही श्रेष्ठ मानने से उपजती है। निरपेक्ष अध्ययन करने वाले अथवा वैज्ञानिक अध्येता या कोई भी आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखनेवाला व्यक्ति उन्हें अपना विरोधी ही लगता है।( यहाँ संकेत इस्लाम और ईसाइयत के लिए है।)
हिन्दू धर्म इन सभी धर्मों से अलग और विशिष्ट है। अपने सर्व समावेशी गुण के कारण, हिन्दू धर्म में किसी को भी 'धर्म बाह्रय' या 'धर्मेतर' नहीं माना जाता। इसका मुख्य कारण यह है कि उसका किसी एक सिद्धांत या ग्रन्थ से सरोकार नहीं है, किसी विशिष्ट प्रकार का विधि निषेध नहीं है, कोई पूर्वनिर्धारित विशिष्ट आग्रह या रूढ़ियाँ नहीं है।
यद्यपि हिन्दू धर्म की संरचना में ही 'इतर' की संभावना नहीं है किन्तु फिर भी यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति या व्यक्ति समूह, जिसे हिन्दू धर्म से कोई सरोकार नहीं है, जिसकी हिन्दू धर्म की मान्यताओं, उसके सिद्धांतों, पूजा पद्धतियों को समझने में कोई रूचि नहीं है, और जो मात्र खंडन के लिए या हिन्दू धर्म को अन्य धर्मों से निकृष्ट दिखाने के लिए बिना समझे बूझे ही आलोचना करता है ,उसे हम ‘इतर’ कह सकते हैं। ऐतिहासिक रूप से ऐसी तीन कोटियाँ हैं – ‘म्लेच्छ’,’तुर्क’ और ‘यवन’.
इतर के प्रति भी आदर, प्रेम और रागात्मकता होनी चाहिए किन्तु व्यवहार में एक प्रकार की शंका बनी रहती है। उदाहरणार्थ ईसाइयत में बाइबल, यहूदी में तोरह और इस्लाम में कुरआन में आस्था न रखने वालों के लिए ‘पैगन/काफिर’ जैसी अपमानजनक शब्दावली का प्रयोग किया गया है। ये धर्म-सम्प्रदाय अक्सर xenophobia ( इतर धर्मावलम्बी के लिए विद्वेष ) से ग्रसित हैं और बहुधा धर्मांतरण इनका केन्द्रीय विचार बन जाता है। यहाँ फिर हिन्दू धर्म विशिष्ट है इसलिए उसमें ( दयानंद सरस्वती के अपवाद को छोड़कर) धर्मांतरण का विचार ही नहीं है।
हिन्दू धर्म ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ और ‘तत्वंअसि’ महावाक्यों का कट्टर समर्थक है. सम्पूर्ण सृष्टि को आत्मामय या ब्रह्ममय स्वीकार करके भारतीय ऋषियों ने सृष्टि की समस्त रचनाओं में एकत्व की घोषणा की है। अनेक उदाहरण देकर प्रो. वोरा ने यह बताया है कि भिन्नताएं ऊपरी हैं और भिन्न पूजा पद्धतियों, सिद्धांतों को स्वीकृति भी इसलिए है क्योंकि परम सत्ता एक ही है। इसीलिये हिन्दू धर्म में अपने आलोचकों के लिए भी जगह है. यहाँ तक कि भविष्य पुराण में तो ‘म्लेच्छों’ की उत्पत्ति भी हिन्दू धर्म की शाखा के रूप में दिखाई गयी है।
हिन्दू धर्म से इतर धर्मों में ( जहां आतंरिक और बाह्रय की अवधारणा है) चार प्रकार के संवाद संभव हैं : 1. आतंरिक-आंतरिक 2. आंतरिक-बाह्य 3. बाह्य-आंतरिक 4. बाह्य-बाह्य. आतंरिक-आंतरिक सम्वाद में जब सम्वाद टूट जाए तो कोहराम मच जाता है, भिन्न सम्प्रदाय इसकी परिणति के रूप में देखने में आते हैं उदाहरणार्थ कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट, शिया-सुन्नी, हीनयान-महायान, दिगंबर-श्वेताम्बर, आर्थोडोक्स-कंजर्वेटिव, वैष्णव-शैव-शाक्त आदि. आनारिक और बाह्रय का सम्वाद यदि बिना राग-द्वेष और बिना पूर्व निर्धारित मान्यताओं के किया जाए तो वह दोनों मतावलंबियों के लिए लाभप्रद हो सकता है किन्तु यदि उसका उद्देश्य दूसरे मत को नीचा दिखाना हो तो इसके परिणाम भयावह ही होंग।. सर्वाधिक हास्यास्पद स्थिति तब उत्पन्न होती है जब दो बाहरी व्यक्ति बिना एक धर्म विशेष की संस्कृति, परम्परा और विशिष्टताओं को समझे, अपनी परिचित मान्यताओं और परम्पराओं के सन्दर्भ में उसे व्य्ख्यायित करने लगते हैं। हिन्दू मदिरों, मूर्तियों और पूजा पद्धतियों का विदेशियों – विशेषतः यूरोपियों, ईसाइयों द्वारा ऐसा गलत पाठ खूब किया गया है। प्रो. वोरा ने सोलहवीं शताब्दी से लेकर अब तक के कई विचारकों की व्याख्याओं को उद्धृत करते हुए इसके लिए उनके ‘इतर’ के प्रति घृणा के संस्कारों को मुख्य कारण माना है।
ऐसी एक प्रचलित गलतफहमी पर प्रो. वोरा ने सविस्तार चर्चा की है- मूर्तिपूजा. उनके अनुसार मूर्ति की पूजा करने के बावजूद हिन्दू उस विशिष्ट मूर्ति का उपासक नहीं है बल्कि उस शक्ति का उपासक है जिसका प्रतिनिधित्त्व वह मूर्ति करती है. मूर्ति स्मृति बोध में सहायक मात्र है और वह भी प्राणप्रतिष्ठा के बाद ही। इसी प्रकार अनेक देवी देवताओं की उपासना के बावजूद आखिर में वह नामरूप रहित ‘एकोमेवाद्वितीय’ ब्रह्म की उपासना ही है. ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ – एक सत्य को ही विभिन्न लोग विभिन्न रूपों में देखते-समझते हैं। पश्चिमी दृष्टि न तो इन भिन्नताओं को समझ पाती है और न मिथकों-लोकगाथाओं के प्रतीकार्थों को। यहाँ वे पॉल कोर्टराईट और वेंडी डोनीगर की व्याक्याओं का सप्रमाण खंडन करते हैं और सोदाहरण दिखाते हैं कि जब वे लोग फ्रायडीय विश्लेषण कर रहे हैं तो दरसल वे ‘अपनी सभ्यता के मूल्यों’ को हमारी सभ्यता पर लागू कर रहे हैं। इन पश्चिमी विचारकों ने मां-पुत्र और गुरु-शिष्य के पवित्र-आध्यात्मिक सम्बन्ध को भी विकृत करके देखा है।
अंत में प्रो. वोरा कहते हैं कि हो सकता है कि इन ईसाई, इस्लाम और यहूदी धर्मों की भी बाह्य व्यक्तियों द्वारा बिना इनके रीति रिवाजों और मान्यताओं को जाने गलत व्याख्याएं की गयीं हों। जो भी हो, इस प्रकार का सतही, एकांगी और पक्षपाती दृष्टिकोण अनैतिक, भ्रामक और गैरजिम्मेदाराना ही कहा जाएगा। बाह्य व्यक्तियों की एकांगी सोच इन्द्रधनुषी-बहुरंगी समाज को बदरंग ही करती है। सम्वाद के लिए सहिष्णुता, दूसरों के रीति रिवाजों,मूल्यों, प्रतीकों और सिद्धांतों की पूर्ण जानकारी और उसकी उदार व्याख्या में अभिरुचि आवश्यक है। अहंकार से मुक्ति और विनम्रता का भाव सबसे जरूरी है।
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अब मेरी बात :
1. मैंने ऊपर प्रो. वोरा के व्याख्यान को पढ़कर यथासंभव वस्तुनिष्ठ ढंग से उसका सार लिखने की कोशिश की है. मुझे इस व्याख्यान से अनेकानेक असहमतियां हैं। यहाँ इसके प्रस्तुतीकरण का एक ही उद्देश्य है – इस दुष्प्रचार का खंडन करना कि यह व्याख्यान हिन्दू विरोधी था। इसके ठीक उलट मेरी विनम्र राय में यह व्याख्यान हिन्दू श्रेष्ठताबोध से ओतप्रोत था। अपनी तमाम असहमतियों को मैं किसी और दिन के लिए स्थगित कर रहा हूँ क्योंकि फिलहाल स्थिति यह है कि डॉ. सुधा चौधरी के वामपंथी विचारक होने की ख्याति के कारण उनके अतिथि पर हिन्दू विरोधी होने की तोहमत थोप दी गयी है, जो कि वे किसी भी सूरत में नहीं हैं।
2. मेरा प्रस्तुतीकरण भी भ्रामक और पूर्वाग्रही हो सकता है। आप में से जो दिलचस्पी लें, वे पूरा व्याख्यान डाउनलोड कर खुद पढ़ें, पर इतना जरूर याद रखें कि डॉ. सुधा चौधरी - एक वामपंथी में इतनी अकादमिक परिपक्वता है कि अपने विपक्षी विद्वान को आमंत्रित कर बहस को जन्म दें, जो निश्चय ही आगे जायेगी और जितना मैं डॉ. सुधा चौधरी को जानता हूँ, वे खुद इसे आगे लेकर जायेंगी। विचारों की लड़ाई, विचारों से लड़ी जाती है. पर यह बात उन कूढ़मगजों के समझ में नहीं आ सकती जो संदर्भरहित वाक्यों को सुनकर अपने ही पक्ष की बात रखनेवाले अध्येता के खिलाफ तलवार लेकर कूद पड़े हैं