इंटरव्यू

सरोकारों से विमुख होती पत्रकारिता - ओम थानवी

Date: 
March 27, 2017
Courtesy: 
Newsclick
साम्प्रदायिकता से मुक़ाबला करने के लिए सब सह-अस्तित्व के मुक़ाम की ओर बढ़ें। 

Interview with ओम थानवी



न्यूज़क्लिक और कम्युनलिज़म कॉम्बैट ने वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी से ख़ास मुलाक़ात की।  इस बातचीत में ओम थानवी ने पत्रकारिता, समाज और साहित्य जगत के मौजूदा हालात पर प्रकाश डाला। साथ ही, इन क्षेत्रों के आपसी संबंधों पर अपने विचार रखे।  उनके मुताबिक मौजूदा मीडिया अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों और सरोकारों की ओर से विमुख हो चुका है।  ओम थानवी ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि देश की समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों में यह ज़रूरी है कि विभिन्न विचारधाराएं साम्प्रदायिकता से मुक़ाबला करने के लिए सह-अस्तित्व के मुक़ाम की ओर बढ़ें।   

 

TRANSCRIPT

सोनाली:-      नमस्कार न्यूज़क्लिक और कम्युनलिज़म कॉम्बैट के इस खास पेशकश में आप सभी का स्वागत है।  आज हमारे साथ मौजूद है वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी जी और हम इनसे बात करेंगे। भारत के मौजूदा हालात के बारे में हमारे स्टूडियो में आपका स्वागत है। आप साहित्य समाज और राजनीति इन तीनों क्षेत्रों से जुड़े रहे है। तो इन तीनों दुनिया के बारे में आज के भारत के संदर्भ में आप क्या देखते है,क्या चल रहा है।

ओम थानवी:-      अभी जो दौर है, उस दौर में मेरा यह मानना है। कि जिस तरीक़े से इमरजेंसी एक ऐतिहासिक जरूरत साहित्य में अपेक्षा के रूप में खड़ी हुई कि लोग जो है वो जो एक अँधेरा दौर था उसके बारे में अपनी बात प्रतिरोध की  जाहिर करें।  लोगों ने जाहिर की आज का दौर मेरा मानना है कि उस दौर से भी ज्यादा ख़तरनाक है।  ख़तरनाक इस मायने में है कि हम नहीं जानते है कि इस देश में कोई इमरजेंसी आयत है। लोगों में एक भय एक दहशत जो है वो कायम है, उसकी वज़ह यह है कि जो हमारे यहाँ साम्प्रदायिक ताकतें है उनमें जो उगरिता आ गयी है। उससे देश में वो तबक़े जो अल्पसंख्यक माने जाते है उनमें भय है इतना ही नहीं जो बहुसंख्यक लोग है उनमें भी भय है, तो ऐसे दौर में साहित्य से समाज अपेक्षा करता है, कि चाहे कितना ही कागजायी सरोकार साहित्य का हो, लेकिन तात्कालिक चीज़ें भी कई बार कागजायी रचनाएँ दे सकती है।  मेरा  मानना ये है कि अभी जो हमारा साहित्य इस दौर से गुज़र रहा है। उसमें इस दौर की छाया नज़र नहीं आती है। या हो सकता है,कि हमें दिखाई नहीं देती है, और कभी  बहुत बाद में लोग कहें कि हम लोग तो कुछ लिख रहे थे,सिर्फ एक पुरुस्कार वापसी की घटना जो है काफ़ी नहीं है।  मेरा मानना यह है कि रचना के क्षेत्र में जो प्रतिरोध है उसको भी जरूर सामने आना चाहिए। समाज जो है उसमें भी एक विरोध का जज़्बा होना चाहिए।  समाज हमारे यहाँ बरदाश्त  बहुत करता है। और वो जो बर्दाश्त्गी है।  उन ताकतों को ज्यादा मज़बूत बनाती है, जो आतताई ताकतें होती है।  इस समाज के बारे में मेरा कहना है। और तीसरा जो राजनीति के  बारे में आपने कहा, उसके बारे में तो दुनिया मानती है कि हमारी जो राजनीति है वो राजनीति काफ़ी ऐसे तत्वों से ओत -प्रोत हो गई है कि बहुत हिसंक स्वभाव के है और जो अल्पसंख्यक समुदाय जो हमारे देश में है एक बहुतावादी समाज हमारे देश में बनाने की जो कोशिशें है वो उनसे खुश नहीं है।

सोनाली:-    आप पत्रकार रहे, उसके बाद आपने दर्शकों तक सम्पादन किया है, तो आपके हिसाब से भारत में आज पत्रकारिता की दशा क्या है।  किस दौर से गुजर रही है।

ओम थानवी:-        मैं यह मानता हूँ कि अब जो पत्रकारिता है। वो पत्रकारिता उसमें आज़ादी जो है वो बहुत कम हुई है।  और जो पूँजी  है। जो पहले भी थी, क्योंकि बगैर पूँजी  के अख़बार नहीं निकल सकता। पहले टी.वी तो था नहीं।  लेकिन उसके बाद टी. वी  भी दुनिया में आ गया। देखते -देखते ज़्यादा वो असरदार साबित हुआ। इसलिए ज़्यादा असरदार साबित हुआ कि टी.वी के लिए पढ़ा लिखा होना जरूरी नहीं है। अख़बार के लिए पढ़ा लिखा होना जरूरी है। टी. वी की पहुँच रेडियो की पहुँच भी उस समाज तक भी चली जाती है, जिसको हम लोग निरक्षर समाज कहते है। हालाँकि वो शिक्षित समाज होता है।  उस तक उसकी पहुँच है उन लोगों तक पहुँच चुकी है,तो जो राजनीतिज्ञ है। उनको ये लगता है किस तरीके से इस चीज़ का फायदा अब वो लोग उठायें ,तो कोई दौर था जब राजनीतिक दल अपने अख़बार निकालते थे।  अपने चैनल भी चलाते थे।  अब वो लोग ये काम नहीं करते है।  अब उनके लिए पूंजीपति ये काम करते है। वो जो पूँजी पहले जब मैंने कहा पहले भी आती थी, अख़बारों में या मीडिया में, वो जो पूँजी थी उस पूँजी का जो है वो एक सरोकार सामाजिक भी था। अब वो लोग जो कोई दूसरा काम कर रहे है।  चाहे वो टूथपेस्ट बना रहे हो चाहे वो घी का बाज़ार कर रहे हो, वो तेल का काम कर रहे हो , उनकी उनके साथ चूँकि उनके पास बड़ी पूँजी है तो हाशिये पर राजनेताओं की ख़ुशी के लिए कुछ पैसा मीडिया में लगाते है।

सोनाली:-    आपने किताब लिखी मोहन जोदारो पर , वो किताब बहुत चर्चित रही, आप इस क़िताब के बारे में हमें कुछ बता सकेंगे।

ओम थानवी:-     देखिये बस छोटी सी किताब है, और उसकी चर्चा बहुत हो गयी यह संयोग की बात है, और शायद इसलिए हुई कि हमारे यहाँ बंटवारे के बाद पाकिस्तान जाना बहुत मुश्किल था। मोहन जोदारो जो कि पाकिस्तान में है आप जानते है तक्षशिला भी वहीँ पर है, हड़प्पा भी वहीँ पर है, तो लोगों को सुविधा वहां जाने की नही मिलती थी, मुझको सुविधा शायद मिल गयी। इसलिए उस किताब को वहाँ जाकर देखा, अपनी आँख से एक जगह देख ली जो हमारी संस्कृति का आदिम तीर्थ कहना चाहिए। वो है और अब तक जो चीज़ें सामने आती थी वो बहुत पुरातात्विक या इतिहास के जानकार लोग तो किताबें लिख चुके है। लेकिन आम सरल भाषा में और थोड़ी सी रोचक ढंग से शायद किताबें आयी ही नही सामने। यह यात्रा संस्मरणीय है दिलचस्प था, लोगों को पसन्द आया पर मेरा मानना था कि सिर्फ यात्रा संस्मरण नही है, उसमें जितनी यात्रा मैंने अपने पांव से की है उतनी उसमें मानसिक यात्रा भी है। यानि जो मैंने पढ़ा है। हम सब लोग बचपन से सिन्धु सभ्यता के बारे में पढते है और हम सब मानते है कि हमारा आदम प्रीत वो है हरिद्वार या वृन्दावन नही हो सकता है मोहनजोदारो हो सकता है,हड़प्पा हो सकता है। लेकिन हम लोगों को जाने का मौका वहाँ पर नही मिलता है। लेकिन कुछ लोगों की फितरत भी शायद ऐसी हो कि वो धार्मिक तीर्थ स्थलों की तरफ ज्यादा ध्यान देते है। मेरा मानना यह है कि जो सांस्कृतिक तीर्थ स्थल है उनकी ओर हमें कदम बढाने चाहिए । तो वो जो मैं वहाँ जाकर आया उसमें मैंने जो देखा,वो तो एक चीज़ है लेकिन उसके साथ-साथ जो मैंने पड़ा और उसके बाद मेरी एक समझ बनी सिन्धु सभ्यता के बारे में, वो मैंने उस किताब में उसको रूपायित किया।

सोनाली:-    एक दूसरी किताब जो कि ची गूवेरा के भारत दौर पर आपने लिखी थी । उस किताब के लिए आपने एक तरह से जो उस किताब के जरिये जब आपने  भारत को हुई एक तरीके से दूसरी बार खोजने की कोशिश की तो उसका अनुभव आपका कैसा रहा।

ओम थानवी:-  ची गूवेरा जो भारत आये, उसमें मैंने शोध किया और उस पर मैंने लेखों की श्रृंखला लिखी थी किताब के रूप में अब आएगी। उसमें और बल्कि उसके लिए मैं हवाना एक यात्रा में गया था। तो इसमें मैंने काफी समय वहाँ दिया ची गूवेरा का घर जो अब एक संग्रहालय बन चुका है मैं वहाँ भी गया। और उनके बेटे जो उस दिन अर्जेंटीना निकलने वाले थे। उनके सौजन्य से मुझको एक ऐसी चीज़ मिल गयी। जो भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। जब ची गूवेरा 1959 में भारत आये तो उस वक़त चीन और रूस दो जगह जो साम्यवाद था वो दो साम्यवाद अपने आप में दो अलग धाराओं में था जो हमारे यहाँ साम्यवाद है वो रूस से प्रभावित था और जो ची गूवेरा थे वो चीन के साम्यवाद से प्रभावित थे। तो भारत में भारत के साम्यवादियों में और यह अजीब बात है लेकिन ऐसा होता है इतिहास में । उन्होंने ची गूवेरा की उस यात्रा को कोई तवज्जुब नही दिया। भारत सरकार ने दिया, नेहरु जी ने दी। नेहरू जी ने उनको घर बुलाया। सारे जो सरकारी दफ़्तर यहाँ दिल्ली में है।    कई दफ्तरों में उनका जो दल है ची गूवेरा का वो गया वो बाज़ार भी गये, वो यहाँ से कोलकत्ता गये, और ची गूवेरा ने जो तस्वीरें खींची वो भी उपलब्ध है जो उन्होंने कलकत्ता वगेरेह में ली थी। अब तो जो कि सब जगह वो चीज़े आयी। तो जब मैंने उन पर यहाँ कुछ जानना चाहा,तो बहुत कम चीजें मिली, बल्कि मैं यहाँ पर सरकारी दफ़्तर में भी गया और मैंने कहा, ची गूवेरा यहाँ आये थे तो उन्होंने कहा ऐसा तो हमने सुना ही नही कभी, जबकि रिमेशन की जो जीवनी है उसमें जिक्र है अशोका होटल में ची गूवेरा जहाँ ठहरे, मैंने उस महिला से जिन्होंने ची गूवेरा से आल इंडिया रेडियो के लिए इंटरव्यू किया था K.P Bhanumati उनसे मैं मिला, उनके घर से दो तस्वीरें लगी हुई थी जिसमें वो बातचीत कर रही है आल इंडिया रेडियो का माइक वहाँ सामने पड़ा है तो मैं c. g.o  कॉम्प्लेक्स में सरकारी फोटोग्राफिक विभाग में खुद गया। और जाके उनके निर्देशक से मिला यह सारा हवाला दिया। और उनको मैंने कनविंस तो किया, मैंने उस चिठ्ठी का भी हवाला दिया। जो मौजूद है जो अशोक होटल से उन्होंने अपनी माँ को लिखी थी दिल्ली से, इतनी चीज़ें सुनकर उनको लगा कि हाँ ये बात तो ठीक लगती है फिर एक रोज़ उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे कुछ तस्वीरें मिल गयी है। इस तरह की जो चीज़ें थी लेकिन वो जो रिपोर्ट वहाँ से मैं लाया, उस रिपोर्ट की खासयित यह थी, मैं मानता हूँ कि बड़ी बात यह थी कि ची गूवेरा का एक ऐसा व्यक्तित्व उससे सामने आता है कि जो उनकी एक हिसंक छवि है वो उसमें एक उदारता का पुट भी हमारे सामने रखता है। ची गूवेरा उसमें गाँधी जी की तारीफ करते है और भारत में जिस तरीके से बगेर हथियारों के लड़ाई लड़ी गयी उसकी चर्चा भी करते है   K.P Bhanumati के साथ जो भी बातचीत हुई उसमें भी उन्हीने ये बात कही है कि हमारे लिए ये बिल्कुल नई चीज़ है हमने कभी सुना भी नही कि हथियारों के अलावा भी कोई लड़ाई का तरीका हो सकता है, यानि आप  पर कोई हमला करता है तो खून का बदला खून हो सकता है लेकिन भारत आने के बाद उन्होंने पाया कि लड़ाई के दुसरे तरीके भी हो सकते है जो कि अहिंसक है, यानि अहिंसक लड़ाई के बारे में उन्होंने कोई उसको नकार का भाव नही व्यक्त किया बल्कि आदर का भाव व्यक्त किया तो मुझे लोग कहते है कि आप जो गाँधी विचार को मानते है और आप ची गूवेरा के बारे में इतनी भाग दौड क्यों कर सकते है तो इसलिए कर सकते है ची गूवेरा अगर गाँधी को समझने की चेष्टा कर सकते है तो हम को भी ची गूवेरा को ज्यादा उदार ढंग से समझने की कोशिश करनी चाहिए।

सोनाली:-    आपने गाँधी और ची गूवेरा की बात की। तो आपके लेखों में आपने कोशिश की।कि गाँधी और ची गूवेरा में एक समानता है खोजने की। तो इसकी क्या प्रासंगिता है आज के ज़माने में।

ओम थानवी:-  देखिये, समानता खोजने की कोशिश की,ऐसा कहना तो ठीक ही नही होगा लेकिन ये जरुर मैंने कहा कि गांधीवाद लोग जो साम्यवाद है उसके बारे में एक अजीब किस्म का घृणा का भाव रखते है और जो साम्यवादी है उनको गाँधी को समझने  में मुश्किल पेश आती है, मेरा मानना ये है कि दोनों तरफ से जो है वो दोनों तरफ़ से हाथ आगे बढने चाहिए,मिलने चाहिए, आपके काम करने के तरीके जुदा हो सकते है लेकिन आपके सरोकार अलग नही है तो ये चीज़ जो है जहाँ पर ची गूवेरा जैसा व्यक्ति क्रांतिकारी वो गाँधी को समझने की कोशिश कर सकता है तो अगर वो कोशिश कर सकता है तो हमको भी यानि की जो लोग गाँधी विचार को मानते है उनको ची गूवेरा या और लोग जो क्रांतिकारी है उनको समझने की कोशिश करनी चाहिए,और इसलिए इस दौर में खास तर जो साम्प्रदायिकता से लड़ने की बात है। उसमें मैं नही मानता हूँ कि कहीं पर भी साम्यवादियों में या गाँधी विचार में या गाँधी विचार के जो अनुयायी है उनमें कोई भी बुनियादी फर्क हो सकता है।