इंटरव्यू
Don’t narrow your band width to a bitter and hate ridden version of Hinduism as appropriated by the RSS, Mahesh Bhatt
Date:
November 3, 2014
TRANSCRIPT
तीस्ता सेतलवाड़:- महेश जी आपका स्वागत है। सिनेमा में हिन्दुस्तानी सिनेमा में सबसे बड़ी जो कहानी है वो सिनेमा की, वो क्या है ?
महेश भट:- देखिये हमारी जो ये मिलीजुली तहज़ीब, हमारी ये diversity जिसको आप कहते है इतने तरह के रंग है हमारे, हमारे इतने cultures है, जो मिल मिलाकर एक रंग में convert हो जाते है, इसमें से अगर कोई भी एक रंग को निकाले तो कहीं का वो जो रंग है, जो हमारा फीका हो जाता है। यही सोच है जिस पर हिंदुस्तानी सिनेमा ने अपना एक सफर शुरू किया था और हमको हमारे पुरखों से ये देन मिली है, हमारे जो राष्ट्रपिता है, जो बार-बार हमारे जो एक secular create की बात दोहराई थी, जिसको नेहरू जी ने रोज़मर्रा जिंदगी में जिया था, वो गंगोतरी है जहाँ से हिंदुस्तानी सिनेमा।
तीस्ता सेतलवाड़:- आज तो secularism को बड़ी गालियाँ पड़ती है।
महेश भट:- हाँ, वो होता है एक अँधेरी रात आती है, लगता है कि बस सुबह होगी ही नहीं और मगर यकीनन सुबह होगी, और ये जो दौर है ये हिंदुस्तानी जो स्वभाव है उसके विपरीत है मैं कलकत्ता जब गया था पिछले साल, दुर्गा पूजा के दौरान तो वहां पर मुझे बंबा देवी नाम की एक देवी है जो मुस्लमानो ने जिसका एक कल्पना करके उसका एक form create किया है जो दुर्गा माँ का ही एक रूप है तो दुर्गा की पूजा में मुस्लमान भी शामिल होता है उसे बंबा देवी बोलता है और ये काली माँ बोलते है दुर्गा माँ बोलते है तो मैंने कहा कि जिस मुल्क में ये तहज़ीब सालों से जिंदा है, वो मुल्क तो सुरक्षित है ।
तीस्ता सेतलवाड़:- और पंडित मुल्लाओं को दोनों को नहीं पसंद होगी ये ?
महेश भट:- बिल्कुल है, क्योंकि वो तो आपको एक ही रंग में रंगना चाहते है, और जीवन का अगर ये सत्य होता तो बागीचे में सिर्फ केवल एक ही रंग के फूल होते ये कुदरत की चीख चीखकर हर पल आपको ये कहती है, मेरा कोई एक रंग नहीं है। ये सारे रंग मेरे है, और ये ही हिंदुस्तान के जो हमारे बड़ों ने हमें ये शिक्षा दी थी।
तीस्ता सेतलवाड़:- सबसे कठिन आपके लिए कौन सी फिल्म थी, बनाने के लिए ?
महेश भट:- जख़्म ! जो मेरे आप बीती पर बनाई थी, मेरी माँ एक शिया मुस्लमान थी और मेरे पिता एक नागर ब्राह्मण थे, उनका विवाह नहीं हुआ था, क्योंकि उनके जो बड़े थे मेरे पिता के उन्होंने इस रिश्ते को जायज़ नहीं समझा था ,के किसी पराई से उनका एक संबंध हो गया।
जख़्म मूवी dialogue :
बेटा:- डैडी आप से इसलिए शादी नहीं कर सके ना क्यों कि आप एक मुस्लमान है क्या हिन्दू की शादी मुस्लमान से नहीं हो सकती?
माँ:- हूँ! हो सकती है बेटे, पर तेरी दादी जैसे कुछ लोगों के लिए ये मंज़ूर नहीं है तेरे डैडी ने अपनी माँ को समझाने की बहुत कोशिश की, पर हम दोनों का प्यार उनकी नफरत के सामने बहुत कम पड़ गया बेटे।
महेश भट:- तो हमने बचपन में वो तकलीफ झेली थी, हमने बाहर रह कर वो तकलीफ को पूरी तरह महसूस किया था। तो हमने जब 1992 के बाद जब बाबरी मस्जिद को demolish करने के बाद हमारे मुंबई में और हमारे मुल्क में जो आग लगी थी उसको हमने एक फ्रेम बनाकर अपनी पर्सनल कहानी कही थी और फिर वो सपना, फिर हमने जो हमारे बड़े अपने जो सालों से देखते आये है, उसको दोबारा हमने articulate किया।
तीस्ता सेतलवाड़:- मगर उस दौर में आपको कुछ ना कुछ काटना pपड़ा था फिर?
महेश भट:- हाँ ! मुझे वो 98 में NDA की सरकार थी और मुझे याद है, कि Home ministry के साथ interact करना पड़ा था, हालांकि sensor board के जो members थे वो independent body है, उन्होंने picture को बिल्कुल बिना किसी cut के clear की थी। मगर हमारी जो state chair person थी वो डर गयी थी, वो आशा पारीख जी थी उन्होंने उस phase में Home ministry को refer की थी। Home ministry ने वो एक सीन था जहाँ पर वो भगवा कपड़े पहने, सर पर जो बैंड लगा कर वो जो crowd आता है, हल्ला मचाने के लिए हॉस्पिटल में, उन्होंने कहा इसका रंग जो है आप बदलिये, मैंने कहा ,ये तो हमने जब बाबरी मस्जिद की जब आप तोड़ा गया था, तो ये इसके ऊपर गुंबद पर खड़े थे वो ,तो ये इतिहास से कैसे निकालेंगे आप, मेरी फिल्म ही निकाल देंगे आप, तो उन्होंने जवाब नहीं दिया था मगर उनको बात समझ आ गयी थी अगर ये कहानी तो सालों साल रहेंगी ज़ख्म, 98 के बाद में आज 2014 भी इस फिल्म का आज भी ज़िक्र होता है। आज भी टीवी पर दिखायी जाती है । मगर उस पर उन्होंने वो निकाल दिया था।
Dialogue: हम सब का ये नारा है, भारत देश हमारा है। हम सब का ये नारा है, भारत देश हमारा है, भारत देश हमारा है
महेश भट:- तो शायद ये into grant ideology जो होती है ,वो कहानी कहने वालो से डरते है और उनकी आवाज़ को हमेशा रोकने की कोशिश करते है।
तीस्ता सेतलवाड़:- बाबरी मस्जिद को गिराने के पीछे जो सोच थी, वो एक तरह से आप देखे, तो हिंदुस्तान पर राज कर रही है, तो ये हम अवाम, संविधान ये कैसे negotiate करे ?
महेश भट:- देखिये, इसमें बहुत सुकून हम को इस बात से प्राप्त करना चाहिए, कि एक तबका है जिसने मौजूदा सरकार को चुना है,31% या 32% है बाकि बहुत बड़ी संख्या है जिन्होंने इनको नहीं चुना है ये तो आने वाला वक़्त ही इनको ही सिद्ध कर देगा ,कि देखिए ये जो इस मोड़ पर सत्ता इनके हाथ में आयी है,वो इनके हाथ में रहेंगी ही नहीं, अगर ये ज़्यादा दिन इस political ideology को assert करते रहेंगे, क्योंकि ये हमारे बिल्कुल स्वभाव के विपरीत है,हिंदुस्तान की आवाम जो है, उसके स्वभाव का इस सोच से कोई तालमेल ही नहीं है ये मेरा यकीन है, हाँ! क्योंकि वो पिछली सरकार की नीतियों से बहुत खफा थी, तो उन्होंने इस तरह से अपना आक्रोश उनके खिलाफ दिखाया है, इन के पक्ष में ऐसा किया है, ये कोई clear indication नहीं है।
तीस्ता सेतलवाड़:- भारतीय सिनेमा को अभी किस तरह की चुनौती आएगी है? आगे वाले दिनों में।
महेश भट:- देखिये ,हमारे नौजवानों के अंदर एक बात बैठा दी गयी है Post liberalisation 92 के बाद कि profit से बड़ी कोई चीज नहीं है, profit above values जो है, ये सोच को re-examine करना होगा क्योंकि ये संभव है ,कि आप values को बरकरार रखते हुए या profit,एक profitable vehicle बनाये, क्या मुग़ले-आजम profitable vehicle नहीं था मगर जो values थे, उसमें ज़िंदा थे , कि क्या mother-India में values नहीं थी या profit उसने नहीं कमाई, बिल्कुल थी तो हम जब तक ये नहीं सोचेंगे, कि एक value से हमारी connected film हो जो profit, profitable भी हो सकती है तब तक हम ये ऐसी फिल्म बनायेंगे नहीं।
तीस्ता सेतलवाड़:- महेश भट्ट के लिए सब से influential, inspirational figure कौन है सिनेमा में ?
महेश भट:- हिंदुस्तानी सिनेमा में दिलीप साहब है क्योंकि युसूफ खान जिस ने अपने आपको दिलीप कुमार कह कर identify करना ज़रूरी समझा आजादी के बाद में, उसने अपनी जो निजी ज़िंदगी में और अपने काम के ज़रिये बार-बार इस मिली जुली तहज़ीब की ही बात की है, उसको जीया है, और मझे लगता है, कि ऐसे जो गहने है इनको इनकी कदर अगर हम नहीं करते है, तो हम अपने साथ ही नाइंसाफ़ी करते है,कई हम ही गरीब हो जाएंगे।
तीस्ता सेतलवाड़:- दिलीप कुमार के ऊपर कभी फिल्म बनेंगी ?
महेश भट:- मुझे लगता है, कि ऐसे लोग जब हमारे बीच से गुजरते है तो उनकी खुशबू हमारे जहन में सालों साल रहती है,यकीनन आज नहीं कल उनकी ज़िन्दगी पर फिल्म कोई ना कोई बनायेगा ज़रूर।
तीस्ता सेतलवाड़:- महेश भट फिल्म भी बनाते है, राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर बोलते भी है और धरने पर भी उतरते है। इसको लेकर कभी कुछ टेंशन आप महसूस करते है या कुछ दबाव ?
महेश भट:- अकेलापन घेरता है, जैसे पिछले कुछ दिनों में हमने जो देखा है, जो मुल्क की फ़िज़ाओं में जो politics खेली जा रही है, जिसको सुनकर के, treatment दी जा रही है minority के लोगों को, सब को, तो हमने जब सड़क पर खड़े रह कर आवाज उठाई तो हम को अपने अकेलेपन का ऐहसास हुआ ,मगर उस तन्हाई में भी एक शान थी हमारी, हम शायद बातों की सोच को जी रहे है, और हमारे को ऊर्जा,हमको शक्ति इसी से मिलती है और मुझे लगता है, हाँ! दुकानदारी में लोग कहते है, कि साहब देखो ! ज़्यादा power center से झूंझना सही नहीं है मगर फिल्म मेकर को तो हर मौसम में अपनी ही दिल की बात कहनी चाहिए, हम ने 98 में अपनी बात कहीं थी और तब भी डरे नहीं थे, तो अब क्या डरेंगे ।
तीस्ता सेतलवाड़:- इतिहास को पुर्नलेखन की कोशिश की जा रही है, आज़ादी व अवाज़ को दबाने की कोशिश ,क्या हमारे creative जो fraternity है? वो ये चुनौती के लिए ऊपर उठेंगे या दब जायेंगे?
महेश भट:- ये है अंधेरी रात है, बहुत ही काली एक रात है, इसमें जब तक जो creative जो लोग है, independent जो thinkers है, जहाँ वो है अपने तरफ से प्रयास करके एक छोटा सा दीया नहीं जलायेंगे,तो ये अँधेरा यक़ीनन और गहरा हो जायेगा। और जैसे Bertolt Brecht कहते थे In dark times write about dark times और 98 में जो हम ने फिल्म बनाई थी ज़ख्म! तो उसमें वो dark time का ज़िक्र किया था,हर सूरत में फिल्म-मेकर का कर्तव्य है वो reality और अत्याचार को बेझिझकpresent करे पर्दे पर, या अपने माध्यम से, ये करना बहुत ज़रूरी है, मगर लगता है, कि ये रास्ता कठिन है, क्योंकि लोग कहते है, या तो आप को co-opt किया जायेगा या आप compromise खुद करेंगे, या आपको डरा कर खामोश कर दिया जाएगा। मगर जितना आप एक आजाद पसंद मुल्क की आवाज़ को दबाने की कोशिश करते है, उतनी ही शिद्दत से वो एक चीख बन कर आप के सामने अपना नया रूप दिखाती है ,और ये यक़ीनन होगा, क्योंकि ये होता रहेगा, हुआ है, ये होता रहेगा।
तीस्ता सेतलवाड़:- आखरी सवाल! बाबरी मस्जिद को जानबूझ के गिराने में और बामियान बुद्धा को गिराने में 92 और 2001 क्या फर्क है क्या ? ।
महेश भट:- कोई फर्क नहीं है ये जो extremist extremist सोच है वो किसी एक मुल्क की जागीर नहीं है, किसी एक मज़हब की जागीर नहीं है,ये हर मज़हब में ये intolerant fractions होते है जिन के खिलाफ, उसी मज़हब के लोगो का कर्तव्य है, कि वो ही लड़े उस के खिलाफ, जब तक हम ये नहीं करते, तब तक अमन या एक normal सी का एहसास आप को दूर-दूर तक नहीं होगा।
तीस्ता सेतलवाड़:- बहुत-बहुत शुक्रिया ! महेश सर आपका
महेश भट:- Thank you, thank you !
महेश भट:- देखिये हमारी जो ये मिलीजुली तहज़ीब, हमारी ये diversity जिसको आप कहते है इतने तरह के रंग है हमारे, हमारे इतने cultures है, जो मिल मिलाकर एक रंग में convert हो जाते है, इसमें से अगर कोई भी एक रंग को निकाले तो कहीं का वो जो रंग है, जो हमारा फीका हो जाता है। यही सोच है जिस पर हिंदुस्तानी सिनेमा ने अपना एक सफर शुरू किया था और हमको हमारे पुरखों से ये देन मिली है, हमारे जो राष्ट्रपिता है, जो बार-बार हमारे जो एक secular create की बात दोहराई थी, जिसको नेहरू जी ने रोज़मर्रा जिंदगी में जिया था, वो गंगोतरी है जहाँ से हिंदुस्तानी सिनेमा।
तीस्ता सेतलवाड़:- आज तो secularism को बड़ी गालियाँ पड़ती है।
महेश भट:- हाँ, वो होता है एक अँधेरी रात आती है, लगता है कि बस सुबह होगी ही नहीं और मगर यकीनन सुबह होगी, और ये जो दौर है ये हिंदुस्तानी जो स्वभाव है उसके विपरीत है मैं कलकत्ता जब गया था पिछले साल, दुर्गा पूजा के दौरान तो वहां पर मुझे बंबा देवी नाम की एक देवी है जो मुस्लमानो ने जिसका एक कल्पना करके उसका एक form create किया है जो दुर्गा माँ का ही एक रूप है तो दुर्गा की पूजा में मुस्लमान भी शामिल होता है उसे बंबा देवी बोलता है और ये काली माँ बोलते है दुर्गा माँ बोलते है तो मैंने कहा कि जिस मुल्क में ये तहज़ीब सालों से जिंदा है, वो मुल्क तो सुरक्षित है ।
तीस्ता सेतलवाड़:- और पंडित मुल्लाओं को दोनों को नहीं पसंद होगी ये ?
महेश भट:- बिल्कुल है, क्योंकि वो तो आपको एक ही रंग में रंगना चाहते है, और जीवन का अगर ये सत्य होता तो बागीचे में सिर्फ केवल एक ही रंग के फूल होते ये कुदरत की चीख चीखकर हर पल आपको ये कहती है, मेरा कोई एक रंग नहीं है। ये सारे रंग मेरे है, और ये ही हिंदुस्तान के जो हमारे बड़ों ने हमें ये शिक्षा दी थी।
तीस्ता सेतलवाड़:- सबसे कठिन आपके लिए कौन सी फिल्म थी, बनाने के लिए ?
महेश भट:- जख़्म ! जो मेरे आप बीती पर बनाई थी, मेरी माँ एक शिया मुस्लमान थी और मेरे पिता एक नागर ब्राह्मण थे, उनका विवाह नहीं हुआ था, क्योंकि उनके जो बड़े थे मेरे पिता के उन्होंने इस रिश्ते को जायज़ नहीं समझा था ,के किसी पराई से उनका एक संबंध हो गया।
जख़्म मूवी dialogue :
बेटा:- डैडी आप से इसलिए शादी नहीं कर सके ना क्यों कि आप एक मुस्लमान है क्या हिन्दू की शादी मुस्लमान से नहीं हो सकती?
माँ:- हूँ! हो सकती है बेटे, पर तेरी दादी जैसे कुछ लोगों के लिए ये मंज़ूर नहीं है तेरे डैडी ने अपनी माँ को समझाने की बहुत कोशिश की, पर हम दोनों का प्यार उनकी नफरत के सामने बहुत कम पड़ गया बेटे।
महेश भट:- तो हमने बचपन में वो तकलीफ झेली थी, हमने बाहर रह कर वो तकलीफ को पूरी तरह महसूस किया था। तो हमने जब 1992 के बाद जब बाबरी मस्जिद को demolish करने के बाद हमारे मुंबई में और हमारे मुल्क में जो आग लगी थी उसको हमने एक फ्रेम बनाकर अपनी पर्सनल कहानी कही थी और फिर वो सपना, फिर हमने जो हमारे बड़े अपने जो सालों से देखते आये है, उसको दोबारा हमने articulate किया।
तीस्ता सेतलवाड़:- मगर उस दौर में आपको कुछ ना कुछ काटना pपड़ा था फिर?
महेश भट:- हाँ ! मुझे वो 98 में NDA की सरकार थी और मुझे याद है, कि Home ministry के साथ interact करना पड़ा था, हालांकि sensor board के जो members थे वो independent body है, उन्होंने picture को बिल्कुल बिना किसी cut के clear की थी। मगर हमारी जो state chair person थी वो डर गयी थी, वो आशा पारीख जी थी उन्होंने उस phase में Home ministry को refer की थी। Home ministry ने वो एक सीन था जहाँ पर वो भगवा कपड़े पहने, सर पर जो बैंड लगा कर वो जो crowd आता है, हल्ला मचाने के लिए हॉस्पिटल में, उन्होंने कहा इसका रंग जो है आप बदलिये, मैंने कहा ,ये तो हमने जब बाबरी मस्जिद की जब आप तोड़ा गया था, तो ये इसके ऊपर गुंबद पर खड़े थे वो ,तो ये इतिहास से कैसे निकालेंगे आप, मेरी फिल्म ही निकाल देंगे आप, तो उन्होंने जवाब नहीं दिया था मगर उनको बात समझ आ गयी थी अगर ये कहानी तो सालों साल रहेंगी ज़ख्म, 98 के बाद में आज 2014 भी इस फिल्म का आज भी ज़िक्र होता है। आज भी टीवी पर दिखायी जाती है । मगर उस पर उन्होंने वो निकाल दिया था।
Dialogue: हम सब का ये नारा है, भारत देश हमारा है। हम सब का ये नारा है, भारत देश हमारा है, भारत देश हमारा है
महेश भट:- तो शायद ये into grant ideology जो होती है ,वो कहानी कहने वालो से डरते है और उनकी आवाज़ को हमेशा रोकने की कोशिश करते है।
तीस्ता सेतलवाड़:- बाबरी मस्जिद को गिराने के पीछे जो सोच थी, वो एक तरह से आप देखे, तो हिंदुस्तान पर राज कर रही है, तो ये हम अवाम, संविधान ये कैसे negotiate करे ?
महेश भट:- देखिये, इसमें बहुत सुकून हम को इस बात से प्राप्त करना चाहिए, कि एक तबका है जिसने मौजूदा सरकार को चुना है,31% या 32% है बाकि बहुत बड़ी संख्या है जिन्होंने इनको नहीं चुना है ये तो आने वाला वक़्त ही इनको ही सिद्ध कर देगा ,कि देखिए ये जो इस मोड़ पर सत्ता इनके हाथ में आयी है,वो इनके हाथ में रहेंगी ही नहीं, अगर ये ज़्यादा दिन इस political ideology को assert करते रहेंगे, क्योंकि ये हमारे बिल्कुल स्वभाव के विपरीत है,हिंदुस्तान की आवाम जो है, उसके स्वभाव का इस सोच से कोई तालमेल ही नहीं है ये मेरा यकीन है, हाँ! क्योंकि वो पिछली सरकार की नीतियों से बहुत खफा थी, तो उन्होंने इस तरह से अपना आक्रोश उनके खिलाफ दिखाया है, इन के पक्ष में ऐसा किया है, ये कोई clear indication नहीं है।
तीस्ता सेतलवाड़:- भारतीय सिनेमा को अभी किस तरह की चुनौती आएगी है? आगे वाले दिनों में।
महेश भट:- देखिये ,हमारे नौजवानों के अंदर एक बात बैठा दी गयी है Post liberalisation 92 के बाद कि profit से बड़ी कोई चीज नहीं है, profit above values जो है, ये सोच को re-examine करना होगा क्योंकि ये संभव है ,कि आप values को बरकरार रखते हुए या profit,एक profitable vehicle बनाये, क्या मुग़ले-आजम profitable vehicle नहीं था मगर जो values थे, उसमें ज़िंदा थे , कि क्या mother-India में values नहीं थी या profit उसने नहीं कमाई, बिल्कुल थी तो हम जब तक ये नहीं सोचेंगे, कि एक value से हमारी connected film हो जो profit, profitable भी हो सकती है तब तक हम ये ऐसी फिल्म बनायेंगे नहीं।
तीस्ता सेतलवाड़:- महेश भट्ट के लिए सब से influential, inspirational figure कौन है सिनेमा में ?
महेश भट:- हिंदुस्तानी सिनेमा में दिलीप साहब है क्योंकि युसूफ खान जिस ने अपने आपको दिलीप कुमार कह कर identify करना ज़रूरी समझा आजादी के बाद में, उसने अपनी जो निजी ज़िंदगी में और अपने काम के ज़रिये बार-बार इस मिली जुली तहज़ीब की ही बात की है, उसको जीया है, और मझे लगता है, कि ऐसे जो गहने है इनको इनकी कदर अगर हम नहीं करते है, तो हम अपने साथ ही नाइंसाफ़ी करते है,कई हम ही गरीब हो जाएंगे।
तीस्ता सेतलवाड़:- दिलीप कुमार के ऊपर कभी फिल्म बनेंगी ?
महेश भट:- मुझे लगता है, कि ऐसे लोग जब हमारे बीच से गुजरते है तो उनकी खुशबू हमारे जहन में सालों साल रहती है,यकीनन आज नहीं कल उनकी ज़िन्दगी पर फिल्म कोई ना कोई बनायेगा ज़रूर।
तीस्ता सेतलवाड़:- महेश भट फिल्म भी बनाते है, राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर बोलते भी है और धरने पर भी उतरते है। इसको लेकर कभी कुछ टेंशन आप महसूस करते है या कुछ दबाव ?
महेश भट:- अकेलापन घेरता है, जैसे पिछले कुछ दिनों में हमने जो देखा है, जो मुल्क की फ़िज़ाओं में जो politics खेली जा रही है, जिसको सुनकर के, treatment दी जा रही है minority के लोगों को, सब को, तो हमने जब सड़क पर खड़े रह कर आवाज उठाई तो हम को अपने अकेलेपन का ऐहसास हुआ ,मगर उस तन्हाई में भी एक शान थी हमारी, हम शायद बातों की सोच को जी रहे है, और हमारे को ऊर्जा,हमको शक्ति इसी से मिलती है और मुझे लगता है, हाँ! दुकानदारी में लोग कहते है, कि साहब देखो ! ज़्यादा power center से झूंझना सही नहीं है मगर फिल्म मेकर को तो हर मौसम में अपनी ही दिल की बात कहनी चाहिए, हम ने 98 में अपनी बात कहीं थी और तब भी डरे नहीं थे, तो अब क्या डरेंगे ।
तीस्ता सेतलवाड़:- इतिहास को पुर्नलेखन की कोशिश की जा रही है, आज़ादी व अवाज़ को दबाने की कोशिश ,क्या हमारे creative जो fraternity है? वो ये चुनौती के लिए ऊपर उठेंगे या दब जायेंगे?
महेश भट:- ये है अंधेरी रात है, बहुत ही काली एक रात है, इसमें जब तक जो creative जो लोग है, independent जो thinkers है, जहाँ वो है अपने तरफ से प्रयास करके एक छोटा सा दीया नहीं जलायेंगे,तो ये अँधेरा यक़ीनन और गहरा हो जायेगा। और जैसे Bertolt Brecht कहते थे In dark times write about dark times और 98 में जो हम ने फिल्म बनाई थी ज़ख्म! तो उसमें वो dark time का ज़िक्र किया था,हर सूरत में फिल्म-मेकर का कर्तव्य है वो reality और अत्याचार को बेझिझकpresent करे पर्दे पर, या अपने माध्यम से, ये करना बहुत ज़रूरी है, मगर लगता है, कि ये रास्ता कठिन है, क्योंकि लोग कहते है, या तो आप को co-opt किया जायेगा या आप compromise खुद करेंगे, या आपको डरा कर खामोश कर दिया जाएगा। मगर जितना आप एक आजाद पसंद मुल्क की आवाज़ को दबाने की कोशिश करते है, उतनी ही शिद्दत से वो एक चीख बन कर आप के सामने अपना नया रूप दिखाती है ,और ये यक़ीनन होगा, क्योंकि ये होता रहेगा, हुआ है, ये होता रहेगा।
तीस्ता सेतलवाड़:- आखरी सवाल! बाबरी मस्जिद को जानबूझ के गिराने में और बामियान बुद्धा को गिराने में 92 और 2001 क्या फर्क है क्या ? ।
महेश भट:- कोई फर्क नहीं है ये जो extremist extremist सोच है वो किसी एक मुल्क की जागीर नहीं है, किसी एक मज़हब की जागीर नहीं है,ये हर मज़हब में ये intolerant fractions होते है जिन के खिलाफ, उसी मज़हब के लोगो का कर्तव्य है, कि वो ही लड़े उस के खिलाफ, जब तक हम ये नहीं करते, तब तक अमन या एक normal सी का एहसास आप को दूर-दूर तक नहीं होगा।
तीस्ता सेतलवाड़:- बहुत-बहुत शुक्रिया ! महेश सर आपका
महेश भट:- Thank you, thank you !