इंटरव्यू
The divisive agenda of RSS is now Public - Hansal Mehta
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हंसल मेहता : खाना पकाने में मुझे सबसे ज्यादा दिलचस्पी हैं, फिल्म से भी ज्यादा। जैसे मैं ईश्वर के होने में इतना भरोसा नहीं रखता हूं लेकिन कही पर ईश्वर के साथ होने का एहसास मुझे खाना बनाने के वक़्त होता हैं।
तीस्ता सेतलवाड : किस तरह का खाना?
हंसल मेहता: हर तरह का, हर सीजन में एक अलग तरीके का खाना सीखने की कोशिश करता हूं और मुझे हिंदुस्तानी खाने से मोहब्बत है...
तीस्ता सेतलवाड : अच्छा?
हंसल मेहता : हिंदुस्तानी खाने में बहुत दिलचस्पी रखता हूं, तो फिलहाल अवधी पकवानों के पीछे लगा हूं।
तीस्ता सेतलवाड : तो रेसिपी आप खुद खोजते हैं या!
हंसल मेहता : बहुत खोजता हूं...मतलब मेरे घर में सबसे ज्यादा खाने की किताबें हैं।
तीस्ता सेतलवाड : आपकी फिल्मों के बारे में बात करें तो जो थीम आपकी फिल्मों में बार-बार आती है, वो शहरी थीम है, यानी कि जो बाहर से आकर शहर में बसते हैं यानी कि विस्थापित मजदूर। तो जो सवाल हैं माइग्रेंट लेबर के और आज का जो विकास का मुद्दा हैं, जिसके ऊपर नयी सरकार बनी हैं। तो ऐसे में किस तरह का विकास जरुरी हैं और किस तरह का विकास हो रहा हैं?
हंसल मेहता : एक तो जो मेरी फिल्में हैं, वो मुझे हमेशा अहसास था कि हमारे शहर में जो इनविज़िबल आदमी, जिसे हम देखते नहीं हैं लेकिन जो हमारे चारों तरफ है। हम उसके बारे में ना सोचते हैं, ना उसकी तरफ देखते हैं लेकिन उसके बलबूते पर हमारी ज़िन्दगी, हमारा शहर चलता है। उसके बारे में कोई सोचता नहीं है और उसी की वजह से आज जिसको हम विकास कहते हैं; तो वो विकास क्या सचमुच विकास हैं? तो मेरी फिल्में वो सवाल उठाती हैं कि भाई आप विकास किसको कहते हैं? सिर्फ पूंजीवाद या पैसों के जरिये आप विकास को माप सकते हैं या फिर इंसानियत के विकास के तौर पर भी?
तीस्ता सेतलवाड : तो क्या हमारी फिल्मे जो हैं, या कैमेरा या सिनेमा की जो पृष्ठभूमि कभी ग्रामीण इलाकों को देखती है...मतलब जैसे पहले देखती थी? मतलब एक पूरा जमाना था बीस तीस सालों का भारतीय सिनेमा का जब वो देखती थीं...और वो कहानियां फिर शहरों में आती थी और दिखायी जाती थी। चाहें वो दिलीप कुमार के ज़रिये हो या नर्गिस के ज़रिये...तो ग्रामीण इलाकों की ऐसी फिल्में आज क्यों नहीं बनती?
हंसल मेहता : ये क्या है कि वो यही है कि जिसको हम लिबरलिज़्म कहते हैं, लिबरॅलाइजेशन का जो एक दौर आया और इस वर्ड ने हमारे देश में ज़बर्दस्त ध्रुवीकरण कर दिया कि जो ग्रामीण इलाकों के लोग हैं, उनको हम ने ऑडियंस मानना बंद कर दिया। हम ने ये समझना बंद कर दिया कि ऐसे कुछ लोग भी देश में रहते हैं। क्योंकि ये फिल्म बनाते हैं वो शहरी लोग जिन्होंने कभी गांव का चेहरा तक नहीं देखा हैं। हम सोचते ही नहीं हैं उनके बारे में... तो वो फिफ्टीज़ और सिक्सटीज़ में एक दौर था जहां बिमल दा और ऐसे महान फिल्ममेकर्स थे जिनको न सिर्फ ग्रामीण इलाकों की कहानियों की परख थी, उनकी फिल्में भी बहुत कमाल की थी, जो गांव पर आधारित थी। साधना पहली फिल्म थी और ऐसी मतलब कितनी सारी फिल्मे थी...बंदिनी जैसी..तो उन्होंने उन मुद्दों को उठाया और व्यावसायिक रूप से उनको सफल भी किया। जो हमें आज लगता हैं कि चलेगा नहीं, कोई देखना नहीं चाहता है और किसी हद तक वो सच भी हैं। मतलब हम या तो उसको पल्प फिक्शन बना दें, जैसे गैंग ऑफ़ वासेपुर था तो ज्यादा लोग आकर देखते हैं क्योंकि उसमे खून-खराबा हैं और उसमे एक भाषा हैं जिसका ऑलमोस्ट मजाक उड़ाया गया। तो एक लहजा है,,,,
तीस्ता सेतलवाड : तो इसका मतलब है कि दर्शकों की जो क्षमता है, अलग अलग थीम्स देखने की...वो कम होती जा रही हैं।
हंसल मेहता : हम कम कर रहे हैं, क्योंकि आप तो देखिये…
तीस्ता सेतलवाड : तो ये बढ़नी नहीं चाहिए।
हंसल मेहता : बढ़नी चाहिए लेकिन उसके लिए भाई क्या हैं कि परम्परागत सवाल है कि उसमे कपैसे कौन देगा? आज मैंने सिटीलाइट्स बनाई है, स्टूडियो ने पहले से कह दिया कि इस में हम ज्यादा पब्लिसिटी नहीं करेंगे क्योंकि ये फिल्म इतनी ही चलेगी...इसमें इतना ही बाज़ारू दम है। तो हमने पहले से ही अपना सोचना सीमित रखा हैं। हमारी सोच सीमित हैं, तो हम लोगों तक कैसे पहुंच सकते हैं?
तीस्ता सेतलवाड : किस टाइम में ऐसी बहुत बहादुर फिल्में बनी जैसे कि बोल, खुदा के लिये पाकिस्तान में बनी, जो बहुसंख्यक फिरकापरस्ती के बारे में हक़ीक़त पेश करे...जैसे चाहे वह संघ के बारे में जो कैंप चलाये जाते हैं... नफ़रत फैलाई जाती है, उसके बारे में...जैसे तमस में एक दृश्य था जिसके ऊपर बहुत बड़ा विवाद हुआ था...तो इस तरह की बहुसंख्यक फिरकापरस्ती के बारे में फिल्में कम क्यों चलती हैं?
हंसल मेहता: नहीं…वही बात है कि अगर हम बहुसंख्या के बारे में कोई फिल्म बनाते हैं और उस में ऐसी कोई बात कहते हैं, जो बहुसंख्यकों को अच्छी नहीं लगती हैं तो वही होगा जो दिल पे मत ले यार के दौरान हुआ था...कि मेरे मुंह पे कलिख पोतेंगे और माफ़ी मंगवाएंगे ...कि माफ़ी मांग-माफ़ी मांगो और उसमें तो सिर्फ एक संवाद था। इतनी असहिष्णुता यदि पैदा होती है कि इतने सारे लोग मतलब दंगा पुलिस को बुलाना पड़ा...
तीस्ता सेतलवाड : ये कौन से साल में हुआ था दो हज़ार में?
हंसल मेहता: सन दो हज़ार में और ये सिर्फ बढ़ा है...
तीस्ता सेतलवाड : तो इसका मतलब है कि हमें लोकतंत्र में पैसठ सत्तर साल हो गये हैं और अब हम विकास की बात कर रहे हैं...चीन के मुकाबले में हमारी बात हो रही है...मगर फिर भी हममें क्षमता नहीं हैं कि हम इस तरह की अंदरुनी बातें सिनेमा के पर्दे पर रखें?
हंसल मेहता: हम विकास का मतलब सिर्फ आर्थिक रूप से गिनते रहते हैं तो हम आर्थिक रूप से जो हैं बहुत ही हो रहे हैं। हम आर्थिक तौर पर स्थिर हो रहे हैं लेकिन मुझे लग रह है कि अंदर से हम ख़त्म हो गये हैं, खोखले हो गए हैं...एक खोखली राजधानी जिसे कहते हैं वो...
तीस्ता सेतलवाड : ये जो फिल्में आप बनतें हैं चाहें वो विस्थापितों के मुद्दों पर हों या शाहिद जैसी फिल्म जिसे बनाने में भी आपको बहुत तकलीफ हुई होगी...बहादुरी लगी होगी उसमें...हंसल मेहता कितने रहे हैं...हंसल मेहता की ज़िन्दगी...हंसल मेहता की सोच...बायोग्राफी कितनी रहती हैं आत्मकथा के लिए?
हंसल मेहता: कुछ चीज़े होती है मतलब जो सिर्फ बायोग्राफी नहीं होती हैं, वह भी होता है कि आप जिस चीज़ का अहसास करते हों, जिस दर्द को आप महसूस करते हो, जिस दर्द को आप ने देखा है आप के इर्द-गिर्द...वो कहीं न कहीं आप का दर्द बन जाता हैं। अगर आप एक एम्पैथी के साथ दुनिया को देखते हैं तो वो दर्द मैं फिल्मों के ज़रिये कहीं न कहीं पेश करने की कोशिश करता हूँ। वही रिश्तों में भी होता हैं। ये जो माँ-बेटे का प्यार है, उसको भी हमने बनावटी बना दिया है। माँ हमेशा एक तरीके की निरुपा रॉय जैसी होती है और बेटा हमेशा विजय जैसा होता है, तो वो रिश्ते जो हैं, उसमें हम अपनी ज़िन्दगी नहीं देखते हैं, उसमें अपनी ज़िन्दगी का एक हिस्सा डालने की कोशिश नहीं करते। अब शाहिद और उसकी माँ का रिश्ता मैं कितनी हद तक देख सकता था? शाहिद तो ज़िंदा नहीं था...तो मैंने किसी हद तक मेरी माँ के साथ जो मेरा सम्बंध था, वो उस फिल्म में व्यक्त किया।
तीस्ता सेतलवाड : शाहिद को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला मगर जून -जुलाई महीने में उद्घाटन फिल्म के तौर पर नहीं दिखाया गया, उसके क्या मायने निकलते हैं कि सरकार बदलने की वजह से...?
हंसल मेहता: पहले मैं ऐसा मानता था लेकिन फिर मुझे ये भी अहसास हुआ कि नए प्रधान मंत्री और नए इनफार्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग मिनिस्टर के पास इतना वक़्त नहीं हैं कि वो एक फिल्म को रोकें लेकिन कहीं न कहीं जो रवैया जो अभी आया है, जो हमारी नई सरकार का एक एटीट्यूड है। जिसे शौवनिस्म कहते हैं वो कहीं न कहीं निचले स्तर पर भी चला गया है। तो उनको लगा की ये फिल्म नहीं दिखानी चाहिए क्यूंकि अभ हमारा देश हिन्दू हो गया है।
तीस्ता सेतलवाड : मगर शाहिद फिल्म से हिन्दू देश को क्यों खतरा?
हंसल मेहता: कोई खतरा नहीं है… मैंने भी यही सवाल किया भाई…क्या है…उन्होंने कहा कि नहीं- नहीं हमें लगता हैं ये देखने कोई आएगा नहीं। मैं बोला कि ये आप कैसे कह सकते हो कि देखने कोई आएगा नहीं? मैंने कहा दिल्ली में मराठी फिल्म देखने क्यों आएंगे लोग?
तीस्ता सेतलवाड : जो दिखाई गई थी?
हंसल मेहता: जो दिखाई गई थी...वो बोले नहीं उसके सारे लोग आये थे...मैने कहा कि मेरे भी सारे लोग आएंगे...मैं तो बीस लोग ले आता आप के पास फिल्म की ओपनिंग में...वो बहस वो कर नहीं पाये और सच कभी निकलेगा नहीं...या तो मैं आर टी आई फाइल करूँ और कोशिश करूं जानने की, लेकिन अब मुझे लगता हैं कि नई फिल्म बनाना ज़रूरी है।
तीस्ता सेतलवाड : कौन सी फिल्म होगी वो?
हंसल मेहता: वो तो देखिये कि अभी जिसके लिए सब से पहले पैसे मिलें लेकिन वो डॉ सिरास पर एक स्क्रिप्ट लिखी जा रही हैं। जिन्होंने २०१० में सुसाईड कमिट किया था।
तीस्ता सेतलवाड : अलीगढ में
हंसल मेहता: अलीगढ में...तो वह कहीं पर जो सोसाइटी का रवैया है...ऐसे पुराने संस्थान जो हैं जो हैं...इंस्टीटूशन्स ऑफ़ एक्सीलेंस माने जाते थे लेकिन वहां पर किस तरह का एक रवैया बनता हैं और कहीं न कहीं मतलब यही है। मुझे कई बार लोग कहते हैं कि मुस्लिम लवर हूं मगर एक सच्चाई है जो मैंने देखी है, मैंने महसूस की है...वो दिखाने की कोशिश कर रहा हूं।
तीस्ता सेतलवाड : तो मतलब ऐसा हुआ कि समानता की बात करने में आप किसी के लिए मुस्लिम लवर या दलित लवर बन गए...
हंसल मेहता: हाँ मुझे अभी कहेंगे कि गे लवर है...
तीस्ता सेतलवाड : इतिहास कितने महत्व का लगता है... आप का एक संवाद था...वो सक्सेना सर थे आर्थर रोड जेल में, शाहिद में उन्होंने इतिहास को लेकर बहुत अच्छी दो तीन बातें कही थी...
हंसल मेहता: वो मेरे ससुर हैं जो हिस्टोरियन रहे हैं। हिस्ट्री सिखाते थे तो उनको बहुत अच्छा लगता है...वो मेरे बच्चो को सिखाते हैं अभी हिस्ट्री और मुझे लगता है कि जो इतिहास हम पढ़ते हैं वो राजनैतिक इतिहास है...मतलब जो राज करता है वो इतिहास को अपने हिसाब से बताता है। महाराष्ट्र में रहकर शिवजी महाराज की मेरे सामने एक छवि है और अगर मैं गुजरात में पढता तो एक अलग छवि होती। तो ये जो विकृत इतिहास है जो हमें समझाया गया है, उससे कहीं न कहीं मुझे लगता है कि वो भी एक समस्या है जिससे हम जूझ रहे हैं। हम में सटीक इतिहास की कोई समझ नहीं है और उससे पहले का इतिहास वही है जो आज दोहराया जा रहा है।
तीस्ता सेतलवाड : तो सही इतिहास पढ़ना बहुत ज़रूरी है
हंसल मेहता: बहुत ज़रूरी है...मुझे लगता है कि सही इतिहास जानना ज़रूरी है...
तीस्ता सेतलवाड : फिल्म डायरेक्टर्स और फिल्म एक्टर्स को भारतीय सिनेमा के इतिहास के बारे में कितना पता होता है?
हंसल मेहता: बहुत कम-बहुत कम...आज खासकर नये युग में मुझे बहुत दुःख होता है कि जब वो कहते है कि दिलीप साहब की हमने कोई फिल्म नहीं देखी...हमने मधुमती नहीं देखी...देवदास नहीं देखी उन्होंने शाहरुख़ खान की देवदास और अनुराग कश्यप की देव डी देखी है लेकिन उन्होंने दिलीप साहब की वो अदाकारी नहीं देखी, जो मैं समझता हूँ हिंदी सिनेमा का सब से महान प्रदर्शन था।
तीस्ता सेतलवाड : वो क्यों?
हंसल मेहता: बस वो जो दिलीप साहब ने एक इंटरव्यू में कहा था कि एक्टिंग इस अबाउट नॉट डूइंग (अभिनय मतलब अभिनय न करना है) तो वही है...कुछ किये बिना उन्होंने बहुत कुछ कर दिया था...
तीस्ता सेतलवाड : क्या दिलीप कुमार की नैतिक ज़िन्दगी पर कभी फिल्म बनेगी?
हंसल मेहता: पहले उनकी फिल्में तो देखी जाये
तीस्ता सेतलवाड : लेकिन फिल्म बनाना भी तो बहुत ज़रूरी है न कि वो यूसुफ़ खान, जो दिलीप कुमार बनते हैं...
हंसल मेहता: मै समझता हूं कि उन पर डाक्यूमेंट्री बनना बहुत ज़रूरी है, जिसमे उनके बारे में उनका जो काम है वो कहीं पर प्रस्तुत किया जाये। मुझे पता नहीं कि इस दौर में कौन दिलीप कुमार बन सकता है। दिलीप कुमार का किरदार निभाना अपने आप में बहुत बड़ी...बहुत बड़ी चुनौती है और वो शायद राज कुमार किसी हद तक कर सकता है लेकिन उसके अलावा कोई एक्टर मुझे नहीं दिखता है, जो दिलीप कुमार बन सके।
तीस्ता सेतलवाड : सामाजिक सिनेमा, जिसको हम कहते हैं थीम्स इन सिनेमा या जो गाने होते थे जो सिनेमा में शुरू से होते थे...वो होना कब से कम हो गए...कौन सा दौर था वो?
हंसल मेहता: मुझे कहीं न कहीं लगता रहा है कि जो पलायनवाद था, उसके आने से...क्यूंकि जो एक पचास और साठ का दौर था...जो कमाल था...जिसमें सामाजिक सरोकारों का सिनेमा होता था, गानो का इस्तेमाल अच्छा होता था, कवि-शायर गीत लिखते थे और वो सारे कवि-शायर सेक्युलर थे। आप साहिर साहब के भोजपुरी लिरिक्स सुनिए, उनके भजन देखिये...साहिर साहब ने भजन लिखे...शैलेन्द्र ने ग़ज़ल लिखी...तो मतलब वो एक कमाल का दौर था, मतलब जहां एक सिख उर्दू में लिखता था गुलज़ार जो आज भी...वो एक ही आदमी है जो आज भी अपने दर्द को अच्छे से लिखते हैं। बाकी मुझे लग रहा है कि सत्तर के दशक में जो अमिताभ बच्चन का मनमोहन देसाई, प्रकाश महरा का सिनेमा था, जो पलायनवाद था, वो बढ़ता गया। शुरू में एक सामाजिक गुस्सा और बेरोज़गार युवा को दिखाना शुरू किया लेकिन धीरे धीरे लालच ने उस सिनेमा को बहुत खोखला बना दिया।
तीस्ता सेतलवाड : और धर्म निरपेक्षिता-सेकुलरिज्म के जो सिंबल सिनेमा में है, वो किस तरह ऊपर-नीचे हो गए?
हंसल मेहता: खोखले हो गए उसके बाद टोकेनिस्म हो गए।
तीस्ता सेतलवाड : पहले कभी मज़बूत-सब्सटेंशियल थे... क्या आप को लगता है?
हंसल मेहता: हां...मतलब मुझे लग रहा है कि बिमल दा की फिल्मों में बहुत था, मतलब खासतौर पर जो जाति व्यवस्था को लेकर उन्होंने देवदास बनाई...आज के दौर में जब हम ने बनाई तो जो उसमें एक ऊंच-नीच का जो एक भेद भाव था, जिसकी वजह से देवदास और पारो का मिलना मुमकिन नहीं था...आप ने वही निकाल दिया। तो देवदास से आप ने वर्ग भेद हटा दिया, तो वो देवदास कैसे रहेगी तो शरद चद्र की कहानी को आपने कैसे समझा?
तीस्ता सेतलवाड : तो मतलब आज की बम्बई, आज की दिल्ली, आज के कलकत्ता में जो नौजवान हैं...शहरी नौजवान हैं... उन में बिलकुल ये क्षमता और धीरज नहीं है कि इस तरह की असमानता को समझें और दिखाया जाये कि बात क्या हैं?
हंसल मेहता: मुझे लगता है कि क्षमता है... साहस करना ज़रूरी भी है। अगर हम हिम्मतवाला और हमशकल जैसी फिल्में बनाते है और वो चलती नहीं ह... फिर भी हम वैसी बनाते रहेंगे...अगर वैसा शोषण हम कर सकते है तो कुछ ऐसी फिल्में भी बनाइये, भले उसमें से दस में से छः नहीं चलेगी चार चल जाएगी। लेकिन क्या है कि उसकी मात्रा इतनी कम है कि हम बार-बार वो एक रूल बना देते हैं कि नहीं ये तो नहीं चलेगा...ये मत बनाओ।
तीस्ता सेतलवाड : तो ये कभी टूट सकता है ये ?
हंसल मेहता: पता नहीं टूट सकता है या नहीं लेकिन हम लोग कोशिश करते रहेंगे...
तीस्ता सेतलवाड : आप जैसे लोग तो करेंगे मगर एस ए रुल मतलब बाकि सिनेमा वाले लोग जो बनाने वाले हैं?
हंसल मेहता: फ़िलहाल तो मुझे मुश्किल लग रह है मुझे बहुत मुश्किल लग रह है क्योंकि एक अंडरस्टैंडिंग ऑफ़ द टारगेट ऑडियंस और जो एक यूथ सेंट्रिक जिसको कहते हैं...और युवाओं की समझ को, उनके इंटेलिजेंस को जितना हम अंडरएस्टीमेट करते हैं, वो चलता रहेंगे क्यूंकि वो सरल और सुविधाजनक है।
तीस्ता सेतलवाड : सरकार का फिल्म इंस्टिट्यूट को लेकर इंस्टिट्यूट ऑफ़ नेशनल इम्पोर्टेंस बनाने का फ़ैसला कितना महत्व का लगता है?
हंसल मेहता: मुझे पता नहीं...मुझे हंसी आ रहीं थी जब स्पीच में मैंने सुना...
तीस्ता सेतलवाड : मगर सईद मिर्ज़ा जैसे लोगो ने उसके लिए बहुत कोशिशें की हैं कि ऐसा ज़रूरी है... इस तरह से स्वायत्तता होगी तो फंड्स बढ़ेंगे?
हंसल मेहता: पता है कि इससे स्वायत्तता बढ़ेगी लेकिन फंड्स जारी कौन करेगा? फंड्स बजट में जारी होने चाहिए थे लेकिन कुछ एलॉकेट नहीं हुआ था। मैं कहता हूँ कि फिल्म इंस्टीट्यूट सरकारी होने के बावजूद अच्छे टेकनीशियंस पैदा करती है, हमें बहुत सारी प्रतिभा फिल्म इंस्टीट्यूट ने दी और इंस्टिट्यूट ऑफ़ एक्सीलेंस...मतलब SRFTI वहां से भी बहुत अच्छे लोग आ रहें हैं तो वो गवर्नमेंट के बावजूद आ रहे हैं, उनके न मदद करने के बावजूद मतलब वो इंस्टिट्यूट एक्सीलेंस पैदा कर रहे है और वो एक कहीं न कहीं मिसाल है।
तीस्ता सेतलवाड : फिल्म इंडस्ट्री और सरकार...फिल्म इंडस्ट्री और पॉलिटिक्स...इसका कितना प्रभाव होता है?
हंसल मेहता: कुछ नहीं...हम लोग तो मतलब फिल्म इंडस्ट्री तो मज़ाक है...मतलब हम इसको इंडस्ट्री कहते हैं...हम जाते हैं, कोई नया आता हैं। मंत्री लोग इस एसोसिएशन के मेंबर्स हैं...वो लोग जाके बैठते है और वी प्रोस्टेट ओउर्सेल्फ...एकदम साष्टांग प्रणाम कर देते हैं मिनिस्टर के सामने...और क्या मिलता हैं हमें ठेंगा?
तीस्ता सेतलवाड : तो मतलब इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता?
हंसल मेहता: हम क्या करते हैं? सर्विस टैक्स देते हैं...एंटरटेनमेंट टैक्स देते हैं...इनकम टैक्स देते हैं...हम में से कुछ सबसे बड़े करदाता हैं...
तीस्ता सेतलवाड : फिल्म इंडस्ट्री में?
हंसल मेहता: जी... फिल्म इंडस्ट्री में...हम सर्विस टैक्स देते हैं लेकिन जरा सी सर्विस टैक्स में ढील पड़ गई तो सब से पहले आप फिल्म इंडस्ट्री वालों को राउंडअप करोगे, न्यूज़ पेपर में फ्रंट पेज पे छापोगे कि फलाने ने सर्विस टैक्स नहीं भरा हैं। एंटरटेनमेंट टैक्स लेते हो...फ्रांस और ये सब कन्ट्रीज में आप अगर टैक्स लगाते हैं मनोरंजन पर तो इसलिए कि आप वो पैसे इंडस्ट्री में डालते हो...
तीस्ता सेतलवाड : वापस इन्वेस्ट करते हैं?
हंसल मेहता: कला और संस्कृति में निवेश करते हैं... वो रीइन्वेस्टमेंट यहां होता ही नहीं हैं। उन पैसों को आप सरकारी खर्च में डाल देते हैं।
तीस्ता सेतलवाड : और सेंसर बोर्ड और सेंसर बोर्ड के रवैये और सेंसरशिप एक्ट में क्या कुछ बदलाव लाने ज़रूरी हैं?
हंसल मेहता: नया सेंसर एक्ट...फिलहाल 1952 का सिनेमेटोग्राफ एक्ट चल रहा है!
तीस्ता सेतलवाड : तो कुछ रिविज़न की ज़रुरत है?
हंसल मेहता: रिविज़न नहीं नया एक्ट चाहिए!
तीस्ता सेतलवाड : अच्छा
हंसल मेहता: पूरी तरह से... उसको पूरी तरह से जला देना चाहिए
तीस्ता सेतलवाड : और उसमें क्या फर्क होना चाहिए…किस तरह का एप्रोच होना चाहिए?
हंसल मेहता: मुझे लगता है कि उसे एकदम नए और ताज़ा तरीके से फ्रेम करना ज़रूरी है। आज के ज़माने के हिसाब से वो ढांचा हो और उसमें सब से ज़रूरी ये है कि दूसरी मिनिस्ट्री उसमें हाथ न डाले। हेल्थ मिनिस्ट्री कहती है की आप की वजह से स्मोकिंग बढ़ गई है.. नहीं उसकी वजह से कम नहीं हुई है? अभी वो टिकर डाल दिया है...उससे न कम हुआ और न बढ़ा है। आप ने शुरू में वो एकदम बेबस फिल्म डाल दी मुकेश की...मुकेश की फिल्म से कुछ नहीं हुआ है...किसी को कुछ नहीं...मुकेश मुझे आराम नगर में रोल मांगते हुए दिखता है!
तीस्ता सेतलवाड : बहुत शुक्रिया
हंसल मेहता: शुक्रिया
तीस्ता सेतलवाड : बहुत बहुत शुक्रिया.