इंटरव्यू
देश के सामने एक साफ़ चुनौती, भारतीय संविधान चाहिए या मनुस्मृति: जिग्नेश मेवानी
Date:
May 26, 2017
Courtesy:
Newsclick
First Published on: May 26, 2017
भूमि सबसे अहम् सवाल है। ज़मींदार कौन होगा और भूमिहींन कौन रहेगा, समाज का मेल कौन साफ करेगा , यह जातिवाद पर कायम हुई व्यवस्था तय करती है. जब ज़मीन का " री -डिस्ट्रीब्यूशन " होगा तो जाति निर्मूलन की तरफ एक और कदम हम बढ़ेंगे।
ऊना आंदोलन के बाद हमारे संघर्ष ने 300 एकर्स ज़मीन हक़ से वापस लिया। vibrant गुजरात summit के खिलाफ आंदोलन छेड़ने की धमकी दे कर हम सफल रहें।
१९५३ में डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने महाराष्ट्र में, दादासाहेब गायकवाड़ के नेतृत्व में गांव के दलितों के लिए ज़मीन का आंदोलन खानदेश और दूसरे इलाकों में चलाया था। ३,६०,००० कार्यकर्ता जेल गए थे. ४९ लाख ज़मीन के titles दलितों के नाम हुए थे। यह ज़मीन को लेकर आंदोलन बहुत देर से शुरू हो रहा हैं, जब ज़मीन खेतियर और किसान के हाथ से कंपनियों को मुफ्त में दी जा रही है।
जब हक़ और अधिकार की लड़ाई तेज होती है , तो अत्याचार भी बढ़ते है।
ऊना आंदोलन के नौ -दस महीने का असर यह है कि बहुत सारे गाँवों में मृत पशुओं को उठाने का काम दलितों ने छोड़ दिया है।
आज देश के सामने यह साफ़ चुनौती है कि आप को भारतीय संविधान चाहिए या मनुस्मृति।
मोदी प्रधान मंत्री बनने के बाद, और योगी मुख्य मंत्री बनने के बाद, संघ के हज़ारों कार्यकर्ताओं पर चर्बी चढ़ी है।
आप सहारनपुर की हिंसा और हमले देख ले, शब्बीरपुर गाँव पर हमले करने का कोई मसला नहीं था : आंबेडकर मुर्दाबाद के नारे क्यों लगे? बाबासाहेब आंबेडकर का पुतला ना लगा देने की हिम्मत कहाँ से आयी ?
राजनैतिक स्तर पर कठिन सवाल पूछना बहुत ज़रूरी है : २ करोड़ नौकरियां जिसका वादा मोदी ने किया था , वह कहाँ है ?
२०१९ के चुनाव के लिए सब non RSS पार्टीयों को साथ में आना ज़रूरी है।
दलित आंदोलन को डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के विचार, राष्ट्रीयकरण को लेकर , चाहें वह बैंकों के हो या उधोग के, याद करना चाहिए।
आज पुरोगामी ताकतों को, दलित आंदोलनों को देश पर हावी हुई राजनीति के सामने आवाज़ उठाना पड़ेगा, संघटित होना पड़ेगा।
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4.The Dalit Revolt in Hindutva’s Successful Laboratory: Gujarat
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१९५३ में डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने महाराष्ट्र में, दादासाहेब गायकवाड़ के नेतृत्व में गांव के दलितों के लिए ज़मीन का आंदोलन खानदेश और दूसरे इलाकों में चलाया था। ३,६०,००० कार्यकर्ता जेल गए थे. ४९ लाख ज़मीन के titles दलितों के नाम हुए थे। यह ज़मीन को लेकर आंदोलन बहुत देर से शुरू हो रहा हैं, जब ज़मीन खेतियर और किसान के हाथ से कंपनियों को मुफ्त में दी जा रही है।
जब हक़ और अधिकार की लड़ाई तेज होती है , तो अत्याचार भी बढ़ते है।
ऊना आंदोलन के नौ -दस महीने का असर यह है कि बहुत सारे गाँवों में मृत पशुओं को उठाने का काम दलितों ने छोड़ दिया है।
आज देश के सामने यह साफ़ चुनौती है कि आप को भारतीय संविधान चाहिए या मनुस्मृति।
मोदी प्रधान मंत्री बनने के बाद, और योगी मुख्य मंत्री बनने के बाद, संघ के हज़ारों कार्यकर्ताओं पर चर्बी चढ़ी है।
आप सहारनपुर की हिंसा और हमले देख ले, शब्बीरपुर गाँव पर हमले करने का कोई मसला नहीं था : आंबेडकर मुर्दाबाद के नारे क्यों लगे? बाबासाहेब आंबेडकर का पुतला ना लगा देने की हिम्मत कहाँ से आयी ?
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दलित आंदोलन को डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के विचार, राष्ट्रीयकरण को लेकर , चाहें वह बैंकों के हो या उधोग के, याद करना चाहिए।
आज पुरोगामी ताकतों को, दलित आंदोलनों को देश पर हावी हुई राजनीति के सामने आवाज़ उठाना पड़ेगा, संघटित होना पड़ेगा।
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