इंटरव्यू

हिंन्दुत्ववादियों को रोकना एक सच्चे हिन्दू का कर्तव्य है : आर.बी. श्रीकुमार

Date: 
May 20, 2016

 
आर.बी. श्रीकुमार
गुजरात में 2002 के दंगों के दौरान वहां अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक के पद पर कार्यरत थे, वे 9 अप्रैल से 18 सितंबर 2002 तक एडिशनल डीजीपी (इंटेलिजेंस) के पद पर नियुक्त थे. उस दौरान किसी भी दबाव में ना आने और अपने निष्पक्ष स्टैंड की वजह से वे खासे चर्चित रहे,बतौर अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (इंटेलीजेंस) उन्होंने रिपोर्ट दी थी किदंगों के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अपने बयानों से पहले से ही तनावपूर्ण सांप्रदायिक माहौल में आग लगाने का काम कर रहे हैं’. नानावती और मेहता कमीशन के सामने उन्होंने  कई एफिडेविट फाइल किए थे जिसमें उन्होंने सरकारी एजेंसी और दंगाइयों के बीच मिलीभगत का आरोप लगाया था.

इन सबका उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ा, गुजरात सरकार ने उन्हें चार सालों तक बिना किसी काम के एक कमरे में बैठा दिया था और उनकी पुलिस महानिदेशक के पद पर पदोन्नत भी रोक दी गयी, इसके लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा और अंततः सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से उनकी पुलिस महानिदेशक के पद पर पदोन्नति हुई. 2007 में वे रिटायर हुए, 2015 में उनकी एक किताब “गुजरात बिहाइन्ड कर्टेन” (गुजरात पर्दे के पीछे) प्रकाशित हुई है जिसमें उन्होंने 2002 में हुए दंगे के पूर्व और बाद की स्थिति पर विस्तार से  प्रकाश डाला है. इस किताब में वे बताते हैं कि किस तरह से दंगों में हुई हिंसा को राजनीति और पुलिस-प्रशासन का संरक्षण प्राप्त था.अपनी इस बात को साबित करने के लिए वे कई अनेक सबूत भी पेश करते हैं. पिछले दिनों वे अपने इसी किताब के लोकार्पण के सिलसले में भोपाल आये थे. प्रस्तुत है जावेद अनीस से हुई उनकी बातचीत के अंश.

आप अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे बताये ?
मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुआ, मेरे दादाजी गाँधी जी के विचारों से प्रभावित थे और केरल के कांग्रेस पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. वो मीडिल स्कूल में शिक्षक थे, उनकी सामाजिक मुद्दों पर रूचि रहती थी, उन्होंने दलितों के लिए उस जमाने में काफी काम किया, उन्होंने दलितों के मंदिरों में प्रवेश के लिए आवाज उठाई किया और उनके स्कूल में दलित बच्चों के साथ समानता का व्यवहार हो इसके लिए संघर्ष किया. मेरे ऊपर उनका काफी प्रभाव रहा है, वो मेरे राजनीतिक गुरु की तरह हैं. उस समय प्रगतिशील और वामपंथी विचारों का युवाओं पर काफी प्रभाव रहता था, मैं भी इसके प्रभाव में आया. इन सब से मेरी सोच उदार और लोकतंत्रवादी बनी. मेरे लिए उदारता का मतलब यह है कि मेरा धर्म मेरे लिए अच्छा है लेकिन ये जरुरी नहीं की सभी लोग उसे ही मानें, किसी को दूसरा धर्म अच्छा लग सकता है और मुझे उसका सम्मान करना चाहिए.
 
मेरे पिता जी सेना में थे. मैंने 1969 में इतिहास में एम.ए. पूरा किया जिसमें मेरा पूरे राज्य में पहला स्थान रहा. इसके बाद 2 साल तक मैं एक कालेज में लेक्चरर था. 1971 में मेरा भारतीय पुलिस सेवा के लिए चयन हो गया. सर्विस में आने के बाद मैंने एल.एल.बी और एल.एल.एम. किया. सर्विस के आखिरी 4 सालों में मोदी साहब ने मुझे कोई काम नहीं दिया गया था, उस दौरान मेरे पास कोई फाईल नहीं भेजी जाती थी, बस मुझे एक रूम में बैठा दिया गया था और एक चपरासी दे दिया गया था, मुझे वहाँ आकर सुबह से शाम तक खाली बैठे रहना पड़ता था इसलिए उस दौरान मैंने अंग्रेजी साहित्य और गाँधी विचारधारा में दो और एम.ए. कर लिए. इसको लेकर मैं अपनी पत्नी से मजाक में कहता रहता हूं कि इन दोनों डिग्रियों के लिए मुझे आपका नहीं मोदी साहब का शुक्रगुजार होना चाहिए.
पुलिस सेवा में आप किन प्रमुख पदों पर रहे हैं ?

प्रशिक्षण के बाद मुझे गुजरात कॉडर मिला, वहाँ मैं 7 जिलों में एस.पी. रहा, स्थानिय नेता और एमएलए लोग मुझे किसी भी जिले में 10 माह से ज्यादा बर्दास्त नहीं कर पाते थे. पहले के राजनेता थोड़े बेहतर थे और कई बार मुख्यमंत्री तबादला करने से पहले मुझे बुला कर कहते थे कि मैं आपके काम से खुश हूँ लेकिन आप स्थानीय विधायक से सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं,मुझे उनकी बात भी सुननी पड़ेगी, इसलिए आपको कहीं और भेजना पड़ेगा. बहरहाल साल 1979 से 84 तक कुल 5 साल के लिए मैं केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल प्रतिनियुक्ति पर रहा, वहां से वापस आकर मैं गुजरात इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में रहा, उसके बाद आई.बी. में 13 साल के लिए प्रतिनियुक्ति पर चला गया जिसमें मैंने 5 साल दिल्ली में और 8 साल केरल में आई.बी. इंचार्ज के तौर पर काम किया. 2000 में फिर वापस गुजरात आया और मुझे एडिशनल डी.जी.पी.(आर्म्ड यूनिट) बनाया गया, इस पद पर 8 अप्रैल 2002 तक रहा. इसके बाद 9 अप्रैल से 18 सितंबर 2002 तक मैं एडिशनल डीजीपी (इंटेलिजेंस) के पद पर नियुक्त था.

आप लम्बे समय तक पुलिस में रहे हैं, इस दौरान वहां क्या बदलाव देखते हैं ?
पहले के मुकाबले परिस्थितियों में बदलाव आया है, यह बदलाव इमरजेंसी के बाद स्पष्ट देखा जा सकता है जिसके बाद से पोलिटिकल ब्यूरोक्रेसी (मंत्री) की तरफ से सिविल ब्यूरोक्रेसी (पुलिस-प्रशासन) को ये सन्देश आने लगे कि आपको क्या और कैसे करना है, इस तरह से पुलिस और प्रशासन के लोग दबाव में काम करने को मजबूर किये जाने लगे लेकिन फिर भी उस समय अगर कोई अधिकारी दबाव में कोई काम करने से मना कर देता था तो राजनेताओं की तरफ से उन पर ज्यादा दबाव नहीं डाला जाता था. अब तो पुलिस का राजनीतिकरण कर दिया गया है, राजनेता चाहते हैं कि पुलिस उनके मन और विचार के अनुसार ही काम करे, नेताओं के इस स्वभाव को मैं ऐन्टिसपटोरी साइको-फेनसी (Anticipatory psycho fancy ) कहता हूँ. पुलिस भी जो लोग सत्ता में होते हैं उनके कहने के अनुसार काम करने लगी है, अब उसका मकसद सत्ताधारी नेताओं और पार्टी को खुश करना हो गया है इसकी वजह से आज हम देखते हैं कि कई पुलिस अधिकारी राजनेताओं को खुश करने के लिए इनकाउंटर तक कर रहे है. पुलिस में बहुत गिरावट आई है. सी.आर.पी.सी. में कॉस्टेबल से लेकर डी.जी.तक के अधिकारों का उल्लेख है,विधायिका ने उन्हें सीधे तौर पर शक्ति दी है लेकिन वे अपने इन शक्तियों के उपयोग की जगह राजनेताओं के दबाव में काम करने लगे हैं.

2002 दंगों के दौरान आपके क्या अनुभव रहे?
दंगों के दौरान हालात बहुत खराब थे, उस समय मैं ऑफिस के लिए अहमदाबाद से गाँधीनगर आता था, मैंने खुद देखा है कि किस तरह से पुलिस की टुकड़ी खड़ी हुई है और दंगाई लोगों को मार रहे हैं, दूकानें जला रहे हैं. दंगे की तैयारी बहुत पहले से की गई थी क्योंकि मुस्लिम मल्कियत वाले दुकानों और घरों को चिन्हित करके जलाया गया इसके कई उदाहरण आपके सामने पेश कर सकता हूँ, एक बार देखा कि एक बाटा का दुकान जलाया गया है, मैंने अपने सहयोगी पुलिसकर्मी से पूछा कि इन लोगों ने बाटा की दुकान को क्यों जलाया तो उसने बताया कि इसमें मेमन लोगों का 50 प्रतिशत शेयर है, इसी तरह से मेट्रो शुज के दूकानों को निशाना बनाया गया क्योंकि इनके ओनरशिप में भी मुस्लिम समुदाय के लोग थे, इससे स्पष्ट है कि दंगे की तैयारी बहुत पहले से की गई थी और बाकायदा अध्यन किया गया था कि कौन सी दुकान हिंदुओं की थी और कौन सी मुसलमानों की. यहाँ तक कि कई हिन्दू नाम वाले होटलों पर भी हमले हुए क्योंकि उसे मुस्लिम चला रहे थे. ऐसा लगता है उनका इरादा मुसलमान समुदाय को आर्थिक रूप से भी तोड़ देना था.

गुजरात में 2002 में जो हुआ उसमें आप राजनीति, पुलिस-प्रशासन और समाज की क्या भूमिका देखते हैं?
गुजरात में 2002 में हुई घटनायें सुनियोजित थीं और इसके लिए पहले से योजनाएं बनाई जा रही थी. फरवरी और मार्च के महीने में गुजरात के 11 जिलों में बिना किसी रोकटोक के हिंसा होती रही क्योंकि इसे संरक्षण प्राप्त था, उस दौरान पुलिस-प्रशासन की भूमिका मूकदर्शक की बनी रही. मैंने जांच के दौरान पाया कि हिंदुतत्ववादी संगठनों के लोगों ने गुजरात हिंसा को अंजाम दिया और इसमें उन्हें मोदी सरकार का संरक्षण प्राप्त था, मोदी सरकार की तरफ से हिंदुओं को उनके गुस्से को व्यक्त करने का पूरा अवसर दिया गया. प्रशासन ने जिन स्थानों पर  दंगाइयों को मदद किया या मौन रही वही पर ही बड़ी घटनायें हुई हैं. इन हिंसक घटनाओं के प्रति समाज का रवैया भी संवेदनहीन था जो थोड़ी बहुत प्रतिक्रियाएं हुर्इं भी वे भी कुछ शहरों और कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित थीं. लेकिन ये सब अचानक नहीं हुआ था इसकी एक पृष्ठभूमि है गुजराती समाज के साम्प्रदायिकरण के लिए लम्बी प्रक्रिया चलायी गयी थी जिसमें हिन्दुओं का भगवाकरण किया गया. गुजरात में ऐसा जनमानस बना दिया गया था कि लोग हिन्दू और मुसलमानों को अलग-अलग स्पीशीज़ की तरह मानने लगे थे. ऐसा लगता था मानो लोगों में एक दूसरे के प्रति नफरत और घृणा की भावना “बोन मैरो” तक इंजेक्ट कर दी गयी हो. इन सबमें कांग्रेस की भी भूमिका है क्योंकि वह धर्मनिरपेक्षता का दिखावा ही करती रही और उन्होंने जमीनी स्तर पर इस प्रक्रिया के जवाब में कुछ नहीं किया. इसी तरह से मुसलमानों के “अरबीकरन” की प्रक्रिया भी चलायी गयी.

गुजरात में आप जैसे कुछ अधिकारी थे जो अपना काम ईमानदारी से करना चाहते थे ऐसा करने में आपने किन चुनोतियों का सामना किया?
ऐसा नहीं है कि गुजरात में पुलिस की भूमिका सिर्फ नकारात्मक रही है बल्कि गुजरात पुलिस ने कई राज्यों के मुकाबले में इस मामले में बेहतर भूमिका निभाई है. गुजरात में दंगो के दौरान 30 पुलिस प्रशासनिक जिले थे,जिसमें से केवल 11 जिलों में ही गंभीर हिंसा की घटनाये हुईं अन्य 11 जिलों में कोई भी बड़ी घटना नहीं हुई और ना ही कोई हत्या हुई, बाकि जिलों में भी छुटपुट घटनायें ही देखने को मिली थीं. इसलिए यह व्यवस्था की असफलता नहीं थी बल्कि यह कई अधिकारियों की व्यक्तिगत असफलता थी. ज्यादातर जिलों में व्यवस्था बनी रही तो इसका श्रेय व्यवस्था और प्रतिबध्द अधिकारियों को जाता है इसके बाद जिन लोगों ने दंगे रोकने का प्रयास किया या चार्जशीट में दर्ज 'आधिकारिक' बयान पर असहमति जताई थी उन्हें अनेक तरीकों से दंडित किया गया जिसमें मैं भी शामिल हूँ. सांप्रदायिक परिस्थितियों में किस तरह का एक्शन लेना है इसके लिए पुलिस मैन्युअल में एस.ओ.पी. (Standard Operating Procedures Manual) है, जिसे घटनाओं के समय कार्यान्वित करना जरुरी है लेकिन ज्यादातर अधिकारीयों ने गलत ऐफिडेविट दिया जो कि मोदी साहब द्वारा बनाया गया था और सरकार के सपोर्ट में था, केवल मैंने और राहुल शर्मा ने अपना ऐफिडेविट बनाया था. इसका हमें खामियाजा भी भुगतना पड़ा. गुजरात सरकार ने मेरे खिलाफ गुपचुप तरीके से ‘सीक्रेट डायरी’ बनाने और सरकार के गोपनीय दस्तावेज जांच पैनल को मुहैया कराने के आरोप लगाये. मुझे धमकी दी गई थी कि अगर मैंने  सच बोला तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. मुझे कोई काम ही नहीं दिया गया और मेरी पदोन्नति भी रोक दी गयी.
 
नरेंद्र मोदी आपसे नाराज क्यों हो गए थे ?
9 अप्रैल 2002 को जब मुझे एडिशनल डी.जी.पी.(इंटेलीजेंस) के तौर पर पोस्ट किया गया तो मैंने डी.जी. साहब को साफ कहा था कि मैं सच रिपोर्ट करूगां, मेरे पास फिल्ड से हेड कांस्टेबल, इंस्पेक्टर जो रिपोर्ट भेजते थे मैंने उनपर एक्शन लेना शुरू कर दिया जो की ज्यादातर संघ परिवार के खिलाफ थे. यह सब मोदी साहेब को अच्छा नहीं लगा होगा, उस समय मेरे बड़े अधिकारियों ने मुझ से यहाँ तक कहा कि आप हिन्दुओं के खिलाफ काम कर रहे हैं.

अपनी किताब “गुजरात बिहाइन्ड कर्टेन” के बारे में बताईयें?
यह किताब 2015 में प्रकाशित हुआ था लेकिन इसका लोकार्पण नहीं हो सका था इसके लिए ना तो प्रकाशक और ना ही किसी अन्य ने हिम्मत दिखाई क्योंकि लोगों को एक तरह का डर है.  अभी भोपाल में वरिष्ठ पत्रकार एल.एस.हरदेनिया के पहल पर इसका लोकार्पण हुआ है अब वे इस किताब का हिंदी में अनुवाद कराने के लिए भी प्रयास कर रहे हैं. इस किताब में मूल रूप से वही बातें हैं जो मैंने अपने ऐफिडेविट में दिया था,यह सारा रिकार्ड मेरे वेबसाईट पर उपलब्ध था लेकिन उसकी पहुँच ज्यादा नहीं थी, फिर मैंने इसे व्यवस्थित तरीके से व्यापक पहुँचाने के लिए पुस्तक का रूप देने के बारे में सोचा क्योंकि मुझे लगा कि पुस्तक के रूप में इसे ज्यादा लोग पढ़ेगे लेकिन इससे पहले 2008 में मलयालम मनोरमा के ओडम विशेषांक में मेरा 35 पेज का एक विस्तृत साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था,जिसको काफी लोगों ने पढ़ा था, बाद में इसे उन्होंने मलयालम भाषा में एक पुस्तिका के रूप में भी प्रकाशित किया था. इसके बाद उन लोगों ने भी सुझाव दिया कि इसे पुस्तक का रूप देते हुए अंग्रेजी में प्रकाशित किया जाये. इस तरह से ये किताब “गुजरात बिहाइन्ड कर्टेन” सामने आई जिसका उद्देश्य सच्चाई को सामने लाना है. किताब तैयार होने के बाद कोई भी प्रकाशक इसे प्रकाशित करने को तैयार नहीं हो रहा था. एक प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशक ने तो इसे चार महीने अपने अपने पास रखने के बाद यह कहते हुए वापस कर दिया कि इसमें खतरनाक बातें है.जब मैंने उनसे कहा कि इस किताब में जो भी लिखा है उसके सपोर्टिंग दस्तावेज मेरे पास हैं और सारी जवाबदेही मेरी होगी, लेकिन उनका कहना था कि हम एक कंपनी हैं और कोई रिस्क नहीं ले सकते हैं.

240 पृष्ठ की इस किताब में कुल 14 अध्याय हैं, पहले अध्याय में 2002 के नरसंहार का संदर्भ बताया गया है. दूसरे अध्याय में उस समय व्याप्त वातावरण का विवरण है. तीसरे में इस बात का उल्लेख है कि कैसे मैंने एक पुलिस आफिसर के तौर पर अपने कर्तव्यों का पालन किया. चौथे अध्याय में है कि कैसे सत्य की विजय हुई. पांचवे में मैंने लिखा है कि कैसे अपना काम ईमानदारी से करने की वजह से मुझे दंडित किया गया और मैंने इसके खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी. छठवें अध्याय में जांच आयोग की उदासीनता का विवरण है. सातवें अध्याय में जांच टीम के द्वारा की गयी लापरवाही के बारे में है.आठवें अध्याय में यह विवरण है कि कैसे मैंने गलत आदेशों को नहीं माना. नौवें चैप्टर में मैंने उन अधिकारियों के बारे में बताया है जिन्होंने दंगों में सहयोग किया था और इसी अध्याय में उन अधिकारियों के बारे में भी बताया गया है जिन्होंने कानून के अनुसार कार्य करते हुए हिंसा नहीं होने दी. दसवां अध्याय कांग्रेस व समाजवादी पार्टी के फर्जी धर्मनिरपेक्षता को लेकर है. ग्यारवें अध्याय दंगे और राज धर्म का उल्लेख किया गया है, बारहवें अध्याय में यह बताया गया है कि गुजरात 2002 के दंगे से हम क्या सबक सीख सकते हैं, तेरहवें अध्याय में राजनीति के अपराधीकरण होते जाने का का विवरण है और अंतिम अध्याय में मेरे वे पत्र शामिल हैं जो मैंने प्रधानमंत्री, तत्कालीन गृहमंत्री अडवाणी, केरल के मुख्यमंत्री एवं केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री को लिखे हैं.

आप एक निष्ठावान हिन्दू हैं, अपनी किताब के हर अध्याय की शुरुआत भी आप धर्म ग्रंथों से उद्धरण करते हैं, एक तरफ वो हिन्दू धर्म है जिसपर आप विश्वास करते हैं लेकिन दूसरी तरफ हिंदुत्व के ही नाम पर अलग तरह के समाज और देश बनाने की कोशिश की जा रही है,आप इन दोनों में क्या फर्क देखते है ?
दोनों में बहुत फर्क है, हिंदुत्व का आन्दोलन हिन्दू धर्म के मूल आदर्शो के खिलाफ है, मेरा जिस हिन्दू दर्शन में विश्वास है वो गाँधी जी की तरह है जो भगवत गीता में विश्वास करते थे जबकि उन लोगों का जो हिन्दू धर्म में विश्वास है वो गोडसे की तरह का है, अजीब बात है कि अपनी पुस्तक ”मैंने गाँधी को क्यों मारा” में गोडसे ने लिखा है कि उसने गाँधी जी की हत्या भगवत गीता से प्रेरणा लेकर की है, यहाँ हम देखते है कि गाँधी और गोडसे दोनों की प्रेरणा भगवत गीता ही हैं. ठीक इसी तरह से जिन लोगों ने हजारों गरीब और निर्दोष मुसलमानों को मार डाला है अगर उनका प्रेरणा स्रोत भगवत गीता है तो मुझे भी गीता से ही प्रेरणा मिलती है. मैं मानता हूँ कि जिस तरह से “दायिश” और “अलकायदा” का राजनितिक इस्लाम इस्लाम धर्म के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है उसी तरह से संघ परिवार और दूसरे हिन्दुतात्वादी संगठनों की विचारधारा भी हिन्दू धर्म के खिलाफ है. हिन्दू धर्म तो इतना विविध है कि एक ही परिवार में एक भाई नशा करके मांस खा कर काली की आराधना कर सकता है वही दूसरा भाई बिना प्याज लहसुन खाए विष्णु की पूजा करता है. मैंने लाल कृष्ण अडवाणी को भेजे गये अपने पत्र में उनसे पूछा था कि अगर आप मुझे हिन्दू धर्म के मूल पुस्तकों में एक भी ऐसा श्लोक दिखा दें जो मस्जिद तोड़ने को जायज ठहरता हो तो मैं आपका सपोर्ट करने को तैयार हो जाऊंगा. इबादतगाहों को तोड़ना किसी भी ग्रन्थ में नहीं लिखा है और जिन लोगों ने ऐसा किया है उन्होंने हिन्दू धर्म के खिलाफ काम किया है, इस्लामिक इस्टेट ने जितना इस्लाम का नुकसान किया है उतना किसी और का नहीं किया है, इसने सबसे ज्यादा मुसलमानों को ही मारा है. इसी तरह से हिन्दुत्वादी भी हिन्दू धर्म के लिए खतरनाक हैं और इनको रोकना सच्चे हिन्दू का कर्तव्य है.

मौजूदा दौर में जिस तरह की गहमा-गहमी है और खुलेआम भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात की जा रही है उससे आप देश का क्या भविष्य देखते हैं ?
मैं ये मानता हूँ कि अभी भी बहुसंख्यक भारतीय सर्वधर्म सद्भावना में विश्वास करते हैं, आज भी आप दरगाहों,मजारों पर बड़ी संख्या में हिन्दुओं को देख सकते हैं. सबरीमाला भगदड़ में जितने लोग मरे हैं उसमें 4 मुस्लिम भी थे. हमारे देश की सबसे बड़ी खासियत यही है कि लोग भले ही अपने धर्म को ज्यादा पसंद करते हों लेकिन इसी के साथ वे दूसरों के धार्मिक भावनाओं को भी इज्जत देते है. हमारे इसी ताकत को तोड़ने की कोशिश की जा रही है और इसके बदले संघ परिवार देश और समाज पर हिन्दुतत्ववादी व्यवस्था को थोपने की कोशिश कर रहा है जो कि मूल रूप से ब्राहमणवादी विचारधारा है.वर्तमान में इसके खतरे बढ़ गये हैं लेकिन हमारे देश और समाज की जिस तरह से बनावट है उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं होने वाला है. मुझे विश्वास है कि आने वाले दिनों में इसके खिलाफ प्रतिरोध की और आवाजें उठेंगीं.

आपकी भविष्य की क्या योजनायें है ?
जब मेरा केस चल रहा था तो पेशी के दिन बड़ी संख्या में दंगा पीड़ित मेरे लिए रोजा रखते थे,कई लोग मेरे पास आकर कहते थे हम गरीब आदमी है और तो कुछ कर नहीं सकते इसलिए हम रोजा रख कर आपके लिए दुआ मांग रहे हैं. इन लोगों का मेरे ऊपर इतना विश्वास था कि ये लोग कहते थे कि अगर आप खुद भी कहेंगें कि आपने मोदी के साथ हाथ मिला लिया है तब भी हम विश्वास नहीं करेंगे. एक बार 88 साल के बुजुर्ग मुस्लिम मेरे पास आये और कहने लगे कि आप असली जेहादी हैं क्योंकि जो शख्स किसी ताकतवर शासक के सामने सच बोलने की हिम्मत करता है वही जिहादी है. मैंने जीवन भर यही कमाया है और यही मेरी पूँजी है. अथर्वेद का एक श्लोक है “मनुष्य को अपने देश की रक्षा करते हुए अपने व्यक्तिगत हितों की बलि चढ़ाने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए” मैंने हमेशा यही कोशिश की है और आगे भी करता रहूँगा.


(जावेद अनीस रिसर्च स्कॉलर और एक्टिविस्ट हैं, वे भोपाल में रहते हैं उनसे javed4media@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है)

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