उड़ीसा सरकार को पॉस्को परियोजना क्षेत्र में वन अधिकार के दावों को नजर अंदाज नहीं करना चाहिए|

Amnesty International
 
उड़ीसा सरकार को पॉस्को परियोजना के लिए प्राप्त की गयी जमीन को भूमि बैंक को स्थानांतरित करने के बजाय, उस जमीन पर के व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकारों के दावों पर तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने आज कहा | अधिकारियों को भूमि के चारों ओर दीवार का निर्माण भी तुरंत बंद कर देना चाहिए और समुदायों को उन सामान्य भूमि तक पहुंचने की अनुमति देनी चाहिए, जिस पर वे पारंपरिक रूप से अपनी आजीविका के लिए निर्भर रहे हैं।

भूमि का अधिग्रहण दक्षिण कोरियाई इस्पात महाकाय पॉस्को (पूर्व में पोहांग आयरन एंड स्टील कंपनी) द्वारा संचालित एक एकीकृत स्टील और बंधक पावर प्लांट के लिए किया गया था। इस साल की शुरुआत में, पॉस्को के परियोजना से बाहर निकलने के बाद, उड़ीसा के उद्योग मंत्री ने घोषणा की कि परियोजना के लिए अर्जित भूमि उड़ीसा औद्योगिक इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास निगम (आईडीसीओ), जो एक सरकारी अभिकरण है, को स्थानांतरित कर दी जाएगी। अधिकारियों ने ‘अवैध अतिक्रमण’ को रोकने के लिए परियोजना स्थल के चारों ओर दीवार का निर्माण शुरू कर दिया है।

२०११ और २०१३ के बीच परियोजना के लिए अधिग्रहित की गई ज्यादातर भूमि सामान्य भूमि थी - गांव की संपत्ति जो स्थानीय निकायों के अधिकार में आती है, और ग्रामीणों द्वारा खेती के लिए इस्तेमाल की जा रही थी। कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकारी अधिकारी अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम (एफआरए) के तहत वनों पर स्थानीय समुदायों के व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों को मान्यता देने में लगातार असफल रहें है। कई ग्रामवासियों ने कहा कि उन्होंने स्थानीय अधिकारियों को वन अधिकार के दावे जमा किये थे लेकिन इन दावों पर कार्रवाई नहीं की गई है। २०१० में, केंद्र सरकार द्वारा गठित दो समितियों ने सिफारिश की थी कि अधिकारियों को पोस्को को जमीन सौंपने से पहले समुदायों के वन अधिकारों के दावों पर कार्रवाई करनी चाहिए।

“कई परिवार परंपरागत रूप से इस भूमि पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर रहे हैं और एफआरए क़ानून के तहत उन्हें व्यक्तिगत या सामुदायिक अधिकार के दावों को दर्ज कराने का अधिकार है”, निहारिका बेतकेरूर, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया में प्रचारक, (व्यापार और मानव अधिकार), ने कहा | “जमीन के इच्छित उपयोग के प्रासंगिक नहीं रहने के बाद भी, समुदायों के इस जमीन पर दावों को मान्यता देने से निरंतर इनकार करना, इन अधिकारों का गंभीर उल्लंघन होगा।

अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासियों की भूमि के अधिग्रहण से पहले क पारदर्शी परामर्शी प्रक्रिया के ज़रिये उनकी स्वतंत्र, पूर्व और पूर्ण सूचना के साथ दी गयी सहमति प्राप्त करने के लिए अधिकारी बाध्य हैं। भारतीय कानून के तहत औद्योगिक उद्देश्यों के लिए वन भूमि के परिवर्तन से पहले संबंधित ग्राम सभाओं की सहमति लेने के लिए सरकार भी बाध्य है। हालांकि परियोजना को अस्वीकार करने वाले ग्राम सभा के प्रस्तावों को नियमित रूप से नजरअंदाज किया जाता रहा है।

आईडीसीओ द्वारा जमीन के इर्द-गिर्द बाड़ लगाना अनुचित और अवैध है क्योंकि अधिकारियों ने इस भूमि पर के वन अधिकार दावों का अभी तक निपटारा नहीं किया है। यहाँ के ग्रामवासी कई पीढ़ियों से पान की बेलों की खेती में लगे हैं और उन्होंने ग्राम सभा में प्रस्तावों को पारित कर दृढ़तापूर्वक अपने अधिकारों का दावा ठोका है । वे इस भूमि पर फिर से कब्जा करने और अपने बागों के पुनर्निर्माण के लिए दृढ़ संकल्पित हैं “, प्रशांत पैकरे ने कहा, जो पॉस्को प्रतिरोध संग्राम समिति (पीपीएसएस) -परियोजना के खिलाफ विरोध संघर्ष का नेतृत्व कर रही एक स्थानीय आंदोलन- के प्रवक्ता हैं।

अपनी जमीन में प्रवेश और उसका उपयोग करने के आदिवासीयों के अधिकार का सम्मान करने में विफलता, न केवल अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन है, बल्कि भूमि और वन अधिकारों से सम्बंधित भारत के घरेलू कानूनों का भी उल्लंघन है। उड़ीसा सरकार को चाहिए कि उन समुदायों के वन अधिकारों को मान्यता दे जो इस भूमि पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर हैं और भूमि का, औद्योगिक उपयोग के लिए अधिग्रहण करने से पहले, संबंधित ग्राम सभाओं से स्वतंत्र, पूर्व और पूर्ण जानकारी के साथ सहमति ले।

पृष्ठभूमि
२२ जून २००५ को, पॉस्को ने ओडिशा के जगत्सिंगपुर जिले में एक परियोजना में निवेश करने के लिए उड़ीसा सरकार के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए जिसमें लौह अयस्क खदानें, एक एकीकृत इस्पात संयंत्र और एक बन्धक बंदरगाह शामिल थे।

पीपीएसएस के मुताबिक, २०११ में सरकार ने नुआगांव और गदकजुंगा पंचायतों के अंतर्गत आने वाली २००० एकड़ सामुदायिक वन भूमि पर जबरन कब्जा कर लिया था। २०१३ में, धिनकीआ पंचायत की ७०० एकड़ सामुदायिक वन भूमि का अधिग्रहण किया गया था। हालांकि अधिकारीयों ने दावा किया था कि इस क्षेत्र के सभी किसानों से परामर्श किया गया था और अधिग्रहित भूमि के एवज़ में मुआवजा दिया गया था - एक बार का निश्चित नकद भुगतान - और किसानों ने “स्वेच्छा” से अपनी पान की बेलों को नष्ट किया था, लेकिन स्थानीय कार्यकर्ताओं का कहना है कि न तो निवासियों से परामर्श ही किया गया था और न ही उन्हें पर्याप्त नोटिस दिया गया था, और जिन लोगों ने मुआवज़ा लेने से इनकार किया उनकी जमीन उनकी सहमति के बिना शारीरिक दबाव के ज़रिये जब्त की गई थी।

परियोजना के लिए ओडिशा सरकार द्वारा कुल २७०० एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया था, जिसमें २००० एकड़ को पॉस्को को सौंप दिया गया था। अगर यह परियोजना योजनानुसार आगे बढ़ती तो तीन ग्राम पंचायतों - धिनकीआ, नुआगांव और गदकजुंगा - के लगभग ४००० परिवार और २२,००० लोग अपनी पारंपरिक भूमि से प्रभावी रूप से विस्थापित हो जाते। जब से समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए गए थे, तब से इस परियोजना को स्थानीय समुदायों की और से कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था और साथ ही साथ इसके सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों पर मानव अधिकारों और पर्यावरण समूहों के गंभीर प्रश्न भी सामने आ रहे थे।

३० मार्च २०१२ को, राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) - एक समर्पित पर्यावरणीय न्यायालय - ने मूल पर्यावरणीय प्रभाव आकलन के संबंध में चिंताओं के चलते परियोजना को दी गयी पर्यावरणीय मंजूरी को निलंबित कर दिया था और एक नई समीक्षा की मांग की थी। स्थानीय कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया था कि निलंबन के बावजूद करीब २००,००० पेड़ गिराए गए थे। मई २०१३ में, एनजीटी ने परियोजना को पर्यावरणीय मंजूरीहोने की बात को दोहराया और पॉस्को को पेड़ गिराना बंद करने का आदेश दिया। मार्च २०१७ में, पॉस्को ने एलान किया कि वह परियोजना में अपनी भूमिका रद्द कर रही है और उड़ीसा सरकार से कंपनी को हस्तांतरित की गयी भूमि वापस लेने का अनुरोध किया
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स्मृति सिंह



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