मैं और रोहिंग्या - इंसानियत की मां की मौत

अपनी देहलीज पर पड़ा-पड़ा 
मैं तोड़ता था एक बूढ़े की तरह  
अपने बाप की कमाई 
और मेरा देश भी ऐसे ही बूढ़े की तरह
बनता  जाता था
एक देर रात मैं एक चौराहे से गुजरा 
सुनी अचानक एक अंधेरे कोने से अनचाही बात
ज़ोर-ज़ोर से बोलता था एक आदमी 
मैं गया और वह शख्स बोलने लगा,
‘रोहिंग्या हैं अातंकी,
खाते हैं इंसानों का मांस 
आज नहीं खदेड़ा उनको 
तो 
कल वह आपके बच्चों को भी खा सकते हैं‘

मेरे खून में उबाल आ गया 
उनके साथ मैं भी 
एक हाथ में लाठी और दूसरे में ले कर पत्थर 
पहुंचा रिफ्यूजी कैम्प पर, 
श्मशान सी पूरी बस्ती,
हमारे नारों और शोर ने अंधेरे में मातम मचा डाला 
मैं खड़ा था एक अधेड़ रोहिंग्या के सामने
मैं जोर से चिल्लाया, 'तुम अातंकवादी हो',
वह धीरे से बोला,'साहेब बहुत भूख लगी है‘
मेरा सवाल था,
'तुम इन्सान का मांस खाते हो?,
जवाब में वह बोला,
'साहेबजी बीवी, बच्चे और बूढ़ी मां को भी मार डाला है'
मेरा दिल हिल गया 
मैंने उसे पकड़ रोने लगा तो पाया कि
उसका पेट पीठ को चिपका था 
और वह रोने से ज्यादा कराह रहा था
 
अजीब हालात थे, 
ऐसा कहूं कि उसकी मां के साथ-साथ
इन्सानियत की मां भी मर गई थी,
नंगी भीड़ हालात पर सवार थी, 
उस अंधेरे ने
मझे जब तक इन्सान बनाया 
तब तक वो बस्ती शोलों में तब्दील हो चुकी थी

                            
-अकबर शेख
(अकबर शेख, महाराष्ट्र के एक किसान हैं, मूलतः मराठी में कविताएं लिखते हैं। ये उनकी चुनिंदा लिखी गई, हिंदी कविताओं में से एक है।)