हजारों परिवारेां को डूब के बाहर और पुनर्वास के लिए अपात्र बताकर विस्थापितों की संख्या में हेरफेर: NBA

सर्वोच्च अदालत में प्रस्तुत की विस्थापितों की संख्या लेकिन सूचियां तैयार नहीं। बिना सूची आकड़े कोर्ट में प्रस्तुत कैसे?


 
बडवानी,:- सरदार सरोवर पर सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश की खण्डपीठ के समक्ष इस साल (2017) में चली याचिका 328/2002 में सुनवाई के दौरान विस्थापितों /प्रभावितों की संख्या कम से कम दिखाने की पूरी कोशिश म. प्र. शासन ने की। साथ ही उन्होंने यह भी कोर्ट को बताना चाहा कि मात्र 4998 लोगों को ही भूमि के साथ पुनर्वास का अधिकार था और उसमें से 4778 लोगों ने नगद राशि-विशेष पुनर्वास अनुदान स्वीकार किया। उनके अलावा, मात्र 200 से कुछ अधिक लोग ही अब जमीन लेने के लिए बचे हैं। 386 की संख्या ऐसे विस्थापित परिवारों की बतायी गयी जिन्होंने नगद अनुदान राशि की एक किश्त (50 प्रतिशत) रकम ही स्वीकारी किन्तु उस 2.79 लाख रू में या पूरी 5.58 लाख रू की राशि में भी 5 एकड़ जमीन पाना नामुनकिन है, यह समझने पर दूसरी किश्त स्वीकार नहीं की और शासन से जमीन की ही मांग जारी रखी। लेकिन सैकडों को शासन-प्रशासन, शिकायत निवारण प्राधिकरण के दबाव से ही दूसरी किश्त मजबूरन स्वीकारनी पडी, यह बात अदालत के सामने शासन के अधिवक्ताओं ने रखते हुए किसी को भी अधिक या बाकी पुनर्वास लाभ लेना ही नामंजूर किया। फर्जी रजिस्ट्रियों में फंसाये गये परिवारेां की संख्या 1358 बतायी जबकि वह भी अधिक है। आंदोलन ने कोर्ट में भी जब शासन के आकड़े एवम् शपथपत्रों को कड़ा जवाब दिया तब न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि हमारे आकड़़े अंदाजित है और किसी अन्य व्यक्तियों को पात्रता हो तो वह शिकायत निवारण प्राधिकरण जाकर प्रथम स्वयं की पात्रता साबित करें और फिर लाभ का दावा करें।

इन लाभार्थी माने गये परिवारेां की सूची सूचना अधिकार कानून की धारा 7 में मांगने पर नर्मदा घाटी विकास प्रधिकरण से जवाब मिला है कि सूची अभी तैयार नहीं, तैयार हो रही है। सूची बनाये बिना सर्वोच्च अदालत में आकडे कैसे पेश किये गये? यह हमारा सवाल है।
 
सच्चाई यह भी है कि महाराष्ट्र और गुजरात में 14  हजार से अधिक परिवारेां को जमीन मिली है,वह नगद राशि अनुदान (एसआरपी) के आधार पर नहीं तो जमीन की ही मांग करने से यह आकड़ा तो शासन ने कभी कोर्ट में पेश ही नहीं किया। म.प्र. में मात्र 53 लोगों को जमीन दी गई, यह बताया लेकिन उनमें से भी अधिकतर परिवारों को घरप्लाट नही मिला, पुनर्वास स्थल नहीं मिला, जैसे चिखल्दा (पिपल्या) रामपुरा, बागोदा, गरडावद इत्यादि धार जिले की, खलखर्द (खरगोन) की बसाहटों में बसाये परिवारों  को।
 
परिवारेां की संख्या फैक्ट शीट के रूप में म.प्र. शासन और महाराष्ट्र, गुजरात तथा केन्द्र सरकार (नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण) भी बारबार पेश करती आयी है। इस पर नर्मदा बचाओ आंदोलन द्वारा  उठाया विरोध, धरातल पर, गांव गांव में किये सर्वेक्षण के आधार पर ही नहीं तो शासन के ही विविध रिपोर्टो में दिये गये आकड़़ो के,उनमें दिखाये परस्पर विरोध और विसंगतियों के आधार पर भी रहा है। आंदोलन ने उठाये सवालों से 2005 के सर्वोच्च अदालत के फैसले तक “संख्या का खेल” प्रस्तुत हुआ और फैसले का एक हिस्सा बनकर शासन की पोलखोल हुई।
 
फिर भी 2008 में फिर से नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण/ म.प्र.शासन ने एक नया जानलेवा खेल शुरू किया और पहले 4374, मुख्यतः महिला खातेदार और फिर बैंकवाटर लेवल बदलकर 15946 परिवारेां को डूब के बाहर और पुनर्वास के लिए अपात्र बताकर विस्थापितों की संख्या ही कम दिखाना शुरू किया। इस सबके चलते डूब में संपति होकर और सालों पहले उसका भूअर्जन होकर, नर्मदा प्राधिकरण के नाम नामांतरितत होकर भी उन्हें संपूर्ण पुनर्वास से भी वंचित रखा गया है जबकि इन हजारों परिवारों के मकान बड़ी बाढ़़ आने पर डूब में आ सकते हैं और उनकी संपत्ति छीनी गयी है।
 
इस पूरी हकीकत का अर्थ यही है कि सर्वोच्च अदालत के एक ही नहीं अनेक फैसलों के बावजूद न.घा.वि.प्रा./म.प्र. शासन, संघर्ष के बिना कोई हक आसानी से देना नहीं चाहती है। गुजरात से पुनर्वास का पूरा खर्च उठाना है और म.प्र. को जलाशय के एक बूद पानी पर अधिकार मिलना नहीं है, तो भी अपने नागरिकों को, आदिवासियेां को पुनर्वास के बिना न डूबाने का संकल्प राज्य शासन नहीं ले रही है। मात्र नमामि देवी नर्मदा यात्रा के बाद अब ग्लोबल इन्वेस्टर्स मीट (वैश्विक पूँजीपति सम्मेलन) अक्टूबर 2017 मे राज्य और केन्द्र मिलकर नर्मदा का पानी और क्या- क्या कार्पोरेट्स के आंचल में डालेंगे, यही देखना है।
 
 
(कमला यादव)         (मुकेश भगोरिया)       (राहुल यादव)       (मेधा पाटकर)