ग्राउंड रिपोर्टः NRC-CAA हिंसा में सड़क पर जान गंवाने वाले बनारस के मासूम सगीर के परिजनों के जख्म फिर ताजा हो गए...!

Written by विजय विनीत | Published on: March 13, 2024
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस के बजरडीहा में उस परिवार की आंखें अभी तक नम हैं जिनका 11 साल का बेटा सगीर अहमद नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) कानून को लेकर भड़की हिंसा में सड़क पर मारा गया था। सीएए कानून होने के बाद सगीर के परिजनों का जख्म फिर से ताजा हो गया है। 18वीं लोकसभा चुनाव की दुंदुभी बजने वाली है, लेकिन अपने बेटे को खोने वाला यह परिवार सालों से न्याय की आस लगाए बैठा है। न जाने कितने दिन गुजर गए, लेकिन पीड़ित परिवार की ओर से इस मामले में आज तक कोई रपट दर्ज नहीं हुई।


अपना दुख सुनाती सगीर की दादी फोटो- विजय विनीत

बनारसी साड़ियों के लिए मशहूर बजरडीहा सूबे के उन इलाकों में शामिल है, जहां नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों को पुलिस की लाठियां खानी पड़ी थीं। यह वाकया 20 दिसंबर 2019 का है। नाबालिग बच्चा सड़क पर कुचल गया और पुलिस की बर्बरता में दर्जनों लोग घायल हुए। लंबे इलाज के चलते कई लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए। कुछ ऐसे लोग भी थे जो आर्थिक रूप से बेहद कमजोर थे। इलाज के अभाव में वो नहीं बच सके और दुनिया से विदा हो गए। इस हादसे में तमाम नाबालिग बच्चों को फर्जी केस में जेल की हवा खानी पड़ी।

बनारस पुलिस के कथित फर्जी केस के चलते बजरडीहा में आज भी बड़ी तादाद में लोग परेशान हैं और कोर्ट कचहरी के चक्कर काट रहे हैं। सिर्फ बनारस ही नहीं यूपी के मेरठ, मुज़फ़्फ़रनगर बिजनौर, रामपुर, लखनऊ, कानपुर, फ़िरोज़ाबाद और संभल में नागरिकता संशोधन कानून के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों के दौरान हिंसा में 23 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। बनारस के सगीर अहमद की मौत के बाद उसके पिता वकील अहमद को पुलिस ने रात के अंधेरे में ही शव दफनाने के लिए मजबूर किया। वो सगे-संबंधियों को भी अपने बेटे के जनाज़े में शामिल नहीं करा सके।

बजरडीहा में एक तंग गली से निकलते ही जोल्हा मुहल्ले में सग़ीर का घर सामने ही दिख जाता है। एक छोटे से डिब्बेनुमा कमरे में ईंट की दीवारें प्लास्टर दीवार छोड़ रही हैं। घर के अंदर दाखिल होने पर कोई भी अचरज में पड़ सकता है कि आखिर एक छोटे से कमरे में परिवार के आधा दर्जन लोग कैसे रहते हैं? इकलौता यही कमरा सगीर के पिता वकील अहमद का ड्राइंग रूम है, किचेन है और बैठक है। इसी कमरे में एक छोटा था बाथरूम भी है। सब एक साथ जुड़े हैं।

वकील अहमद के मकान के बाहर कुछ बकरियां बंधी हुई हैं। कपड़ा सुखाने के लिए बार एक तार बांधा गया है, जो कपड़ा सुखाने के काम आता है। कमरे में कुछ टूटे-फूटे पुराने बक्शे हैं। कुछ कंबल और गर्म कपड़े खुली अल्मारी में ठूंसकर रखे गए हैं। इसी कमरे में रसोई गैस का सिलेंडर है और एक छोटा सा चूल्हा भी है। मृतक सगीर अहमद की 65 वर्षीया दादी शहनाज अख्तर की आंख का आपरेशन हुआ है। नागरिकता संशोधन कानून को लेकर बजरडीहा में हुए बर्बर पुलिस लाठीचार्ज में सड़क पर मारे गए उनके पोते का जिक्र आते ही वह सुबकने लगती हैं।


मृतक सगीर के घर का हाल
 
आंदोलन का हिस्सा नहीं था मेरा बच्चा
 
अपनी भीगी आंखों का कोर पोंछते हुए शहनाज अख्तर कहती हैं, "सगीर की मां नहीं है। उसे हमने ही पाला था। मेरा पोता कहता था कि दादी जब हम बड़े हो जाएंगे तो आपके लिए नए कपड़े लाएंगे। उस दिन वो नमाज पढ़ने निकला था। मेरा बच्चा उस ओर चला गया जहां पुलिस आंसू गैस के गोले दाग रही थी। पुलिस ने लाठीचार्ज किया तो वह भगदड़ में ही कुचल गया। अगर वो उधर नहीं गया होता तो वो मेरी आंखों के सामने होता। मुझे तो पता ही नहीं चला कि सगीर नमाज़ के लिए निकल रहा है तो वो कभी नहीं लौटेगा।"


मृतक सग़ीर के घर का बाथरूम

"मेरा पोता किसी आंदोलन-प्रदर्शन का हिस्सा नहीं था। वो खेल रहा था। कोई उसे नमाज पढ़ने के लिए अपने साथ ले गया। थोड़ी देर बाद लाठीचार्ज और भगदड़ की ख़बर आई। हम सग़ीर को देर तक खोजते रहे, लेकिन वो हमें कहीं नहीं मिला। देर रात पुलिस का फोन आया और हमें बीएचयू के ट्रामा सेंटर पहुंचने को कहा गया। पुलिस ने वहीं मेरे बच्चे की पहचान कराई और कहा कि जाओ अंदर लाश रखी है देख लो। मैंने देखा कि वो सग़ीर ही था। पोस्टमार्टम के बाद पुलिस ने रात में ही सगीर को दफन करा दिया। इस मामले में हमारी कोई शिकायत दर्ज नहीं की गई। साढ़े तीन बरस गुजर गए, लेकिन पुलिस ने हमारी शिकायत दर्ज नहीं की। हमें कोई मुआवजा भी नहीं मिला।"

मृतक सग़ीर की मामी चंदा बीबी भी वहीं मौजूद थीं। सीएए के खिलाफ निकाले गए जुलूस में सड़क पर जान गंवाने वाले अपने भांजे सगीर का जिक्र आते ही रुआंसी हो जाती हैं। वो कहती हैं, "मेरा भांजा सग़ीर खेलते हुए सड़क की तरफ गया था और वह नहीं लौटा। रात में आई तो लाश आई। हम अपने भांजे के जनाज़े को ठीक से देख भी नहीं पाए और बिना परिवार और ख़ानदान की मौजूदगी के उसे कब्रिस्तान के लिए विदा कर दिया।"


मृतक सगीर के चाचा चाची

इतना कहते हुए चंदा भावुक हो जाती हैं। कुछ देर रुकने के बाद वो कहती हैं, "पुलिस अपने साथ लाश लेकर आई थी तो वह जल्दी दफनाने के लिए हम पर दबाव बना रही थी। हमें किसी को बुलाने की न इजाजत दी और न ही कोई मोहलत। लाचारी में हमें रात के अंधेरे में अपने बच्चे की लाश दफन करनी पड़ी। हम गरीबों के लिए इंसाफ़ नहीं है। अभी तक एफ़आईआर ही नहीं हुई है। हमें दौलत नहीं, इंसाफ़ चाहिए।"
 
फिर ताजा हो गए हमारे जख्म
 
नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हुए प्रदर्शन में जान गंवाने वाले सगीर के पिता वकील अहमद पेशे से बावर्ची हैं। वह शादी ब्याह में खाना बनाने का काम करते हैं। इनकी पत्नी मैसर जहां कई साल पहले अपने मायके गई तो आज तक नहीं लौटी। बेटे की मौत की खबर भेजी गई, फिर भी वो नहीं आई। मृतक सग़ीर चार भाइयों में तीसरे नंबर का था। बड़ा भाई नसीर (22 साल) बनारसी साड़ियों की बुनाई करता है। इससे छोटा जहीर अहमद (18 साल) बंगलौर में बाबर्ची का काम करता है। सबसे छोटा बेटा तैदम (10 साल) एक मदरसे में पढ़ता है।

सगीर के पिता वकील अहमद ने डूबती आवाज़ में कहा, "कोई सुनवाई नहीं है हमारी। बनारस के भेलूपुर के तत्कालीन डिप्टी एसपी प्रवीण सिंह ने हमें सरकार से उचित मुआवज़ा और न्याय दिलाने का वादा किया था, लेकिन वो झूठ साबित हुआ। मेरा बेटा मर गया। उसकी जान का कोई क्या मुआवज़ा देगा? इतना जरूर है कि सीएए लागू होने से हमारे जख्म फिर से ताजा हो गए हैं। सालों गुजर गए सरकार की ओर से कोई हमारे यहां नहीं आया। सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून लागू कर दिया है। इसे लेकर अल्पसंख्यक समुदाय डरा हुआ है। हुकूमत के आगे आखिर हम कर भी क्या सकते हैं? अब तो हमारी इस योगी सरकार से यही गुजारिश है कि हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया जाए। हम तो बस दो वक्त की सुकून की रोटी चाहते हैं और कुछ नहीं। हम अपनों का आंसू और उनका खून बहते हुए नहीं देखना चाहते।"

कुछ साल पहले तक बजरडीहा को काला पानी माना जाता था। बारिश के दिनों में इस तरफ कोई भी आने-जाने से कतराता था। पार्षद श्याम आसरे मौर्य ने गलियों की स्थिति सुधारी है। वकील के छोटे भाई शकील ने कहा, "नागरिकता संशोधन कानून ऐसे समय लाया गया है जब लोकसभा चुनाव होने वाला है। डबल इंजन की सरकार कोई भी काम करती है तो अपने वोटबैंक के ताराजू पर नफा-नुकसान तौलती है। रमजान के दिन इस कानून को लागू करने का मतलब क्या है। आखिर वो हमारे जख्मों को क्यों किरोदना चाहते हैं। सबके सब जनता को मूर्ख बना रहे हैं।"

"यह भला कौन नहीं जानता कि सीएए सिर्फ वोट का खेल है। उन्हें वोट चाहिए, सत्ता चाहिए, चाहे कोई जिंदा रहे या मर जाए। वैसे भी सरकार इतनी निष्ठुर हो गई है कि वो किसी के मरने पर भी पूछने नहीं आती। महंगाई इतनी ज्यादा हो गई है कि कितने दिन जिंदा रहेंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। हमारे बच्चे जिन मदरसों में पढ़ रहे हैं सरकार उन्हें भी बंद कराने पर तुली है। अचरज की बात यह भी है कि करीब ढाई लाख की आबादी वाले बजरडीहा में कोई सरकारी स्कूल-कालेज नहीं है।"


अपने घर के दरवाजे पर खड़ी सगीर की दादी
 
‘हमारी देशभक्ति भी सवालों के घेरे में’
 

जोल्हा मुहल्ले में 65 वर्षीय अब्दुल कलाम के पिता फ्रीडम फाइटर थे। वो कहते हैं, "अब हमारे कुनबे की देशभक्ति भी सवालों के घेरे में आ गई है। हमारे परिवार ने देश को आजाद कराने में कुर्बानियां दी है और अब हमें शंका और संदेह की नजर से देखा जा रहा है। हम मुस्लिम हैं और इस देश के निजाम (सरकार) को मुस्लिम नहीं चाहिए इसलिए ऐसा किया जा रहा है ताकि हम मुल्क छोड़कर चले जाएं।"


जोल्हा मोहल्ले के निवासी अब्दुल कलाम

"इलेक्टोरल बॉन्ड के मुद्दे को ढांपने के लिए नागरिकता संशोधन कानून को आनन-फानन में लागू कराया है। बीजेपी सरकार कांग्रेस को कोसती है। जब कांग्रेस का राज था तो हम खुशहाल थे और अब खाने तक के लिए पैसे नहीं हैं। पहले मेरे पास हैंडलूम की 13 मशीनें थी, जिनमें सिर्फ दो ही बची हैं। यह तो बताएं कि रोजगार कहां है? हम तो कीड़े-मकोड़ों की तरह जी रहे हैं। कोई खुशहाल नहीं है। कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। हम साड़ियां बुन रहे हैं, लेकिन खरीददार नहीं हैं। हर कोई परेशान है और हर आदमी का चेहरा उदास है।"

अब्दुल कलाम के घर से बाहर निकलते ही हमें मिले उनके 32 वर्षीय बेटे मोहम्मद हयात। नागरिकता संशोधन कानून लागू किए जाने पर उन्होंने अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। सिर्फ इतना ही कहा, "गुजरात मॉडल ने हमारी जिंदगी में जहर घोल दिया है। बनारस के बुनकरों की कमाई खत्म होती जा रही है। हालात इतने ज्यादा खराब हैं कि बुनकरों के पास चटनी बनाने तक के लिए पैसे नहीं हैं। बनारस के बुनकर सूरत भाग रहे हैं। यहां न सुरक्षा है और न ही रोजगार। बुनकर प्रमाण-पत्र नहीं बन पा रहा है। नतीजा सस्ती बिजली नहीं मिल पा रही है। मोदी-योगी सरकार ने टेढ़ा कायदा-कानून बनाकर बुनकरों को उलझा दिया है।"
 

अब्दुल कलाम के बेटे मोहम्मद हयात

पुलिस का पहरा
 
नागरिकता संशोधन कानून लागू होने के बाद बनारस मुस्लिम बहुल इलाकों में पुलिस की गश्त बढ़ गई है। चहल-पहल वाले इलाकों में खाकी वर्दी का पहरा ज्यादा है। मस्जिद के आसपास पुलिस तैनात है। बजरडीहा इलाके के लमही, अहमदनगर, महफूजनगर, मकदूमनगर, गल्ला, आजादनगर, अंबा, धरहरा, मुर्गिया टोला, फारूखी नगर, जक्खा, कोल्हुआ में लोग दोपहर में रोजा खोलने के लिए सामानों की खरीददारी करते हुए देखे गए। शाम ढलते ही इन इलाकों में सन्नाटा छा गया।

बजरडीहा में गुलजार नामक नौजवान ने कहा, "नागरिकता संशोधन कानून लागू होने के बाद हम दहशत में हैं। पता नहीं, कब क्या हो जाएगा। डर के मारे अपने ही घर में कैदी की तरह रह रहे हैं। हमारे साथ पुलिस ने जो किया है उसे हम ज़िंदगी भर नहीं भूल पाएंगे। 20 दिसंबर 2019 को हुए लाठीचार्ज में हमारी पीठ पर भी पुलिस का एक डंडा लगा था, जिसके निशान अभी तक नहीं मिटे हैं। उस समय हम तो राशन खरीदने घर से निकले थे।"

"बनारस पुलिस ने बजरडीहा में कई स्थानों पर पोस्टर लगवाया, जिनमें हमारे कई परचितों के नाम थे। मैं जानता था कि सभी अच्छे लोग हैं। नमाज़ी और इबादत करने वाले लोग हैं। फिर भी पुलिस ने उन्हें पकड़ा, पीटा और जेल भी भेजा। पोस्टर में अपनी तस्वीर देखकर कई बेगुनाह लोग शहर छोड़कर चले गए। कुछ लोग सालों बाद लौटे और कुछ आज तक नहीं आए।"
 
हमारा भी है यह वतन
 
बजरडीहा इलाके के समाजवादी नेता अतहर जमाल लारी बीजेपी सरकार की नीतियों से काफी आहत हैं। वो कहते हैं, "हम चाहते हैं कि बनारस में अमन-चैन बरकरार रहे। अगर सरकार को दिक्कत है तो जान से ही मार दें। ऐसे हालात पैदा न करें कि हमसे देखा ही न जाए। अल्पसंख्यकों को बेवजह बदनाम न किया जाए। हमने बनारस में ही जन्म लिया तो दफन भी यहीं होंगे। यह वतन उनका ही नहीं, हमारा भी है। उनकी जुल्म ज्यादती बढ़ती जा रही है। चुनाव आने दीजिए, उन्हें भी पता चल जाएगा।


समाजवादी नेता अतहर जमाल लारी

अगर नागरिकता क़ानून के ज़रिए किसी भारतीय मूल के आदमी की नागरिकता जाती है तो किसी भी कीमत पर ऐसा नहीं होने दिया जाएगा। यह कानून एक धोखा है। मुसलमानों को न्याय तभी मिल सकता है जब यह सरकार बदलेगी। हम लोगों की कोशिश है कि सरकार हमारी बने। जांच सही हो और न्याय दिया जा सके।"

अतहर जमाल लारी ने इस क़ानून को लागू करने के वक्त पर सवाल उठाते हुए यह भी कहा कि, "यह कानून ऐसे समय में लागू किया गया है जब 18वीं लोकसभा चुनाव सिर पर हैं और इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर मोदी सरकार घिरती नजर आ रही है। शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग को 15 मार्च 2024 तक इलेक्टोरल बॉन्ड से संबंधित जानकारी अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक करने का भी निर्देश दिया है।"

"सबसे बड़ा सवाल यह है कि आख़िर इसे चुनाव से पहले क्यों लागू किया गया है? जाहिर है कि बीजेपी इसके जरिये चुनावी फ़ायदा उठाना चाहती है। बीजेपी ने धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के लिए चुनाव से पहले इस कानून को लागू करने का फैसला किया है। हम तो पहले से ही इस देश के नागरिक हैं। सीएए के तहत फार्म भरते ही लोगों का मौजूदा दर्जा खत्म हो जाएगा। इस मामले में सावधानी से कदम बढ़ाना जरूरी है।"

सीएए सिर्फ़ क़ानून में बदलाव नहीं है, बल्कि एक ऐसा क़ानून है जो भारतीय गणराज्य के चरित्र को बदलने का प्रयास करता है। भारतीय नागरिकता भारत के संविधान से आती है जो इसे मौलिक अधिकार के रूप में प्रदान करता है। कोई भी अधिकार धर्म, देश या मूल विशिष्ट नहीं हो सकता। सीएए, एनआरसी और एनपीआर एक-दूसरे के पूरक हैं। हमें लगता है कि सीएए शरणार्थियों को सहायता देने के लिए नहीं, इसकी आड़ में बीजेपी सरकार अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने की एक बदनीयत वाली कोशिश कर रही है।
 
सीएए कानून की शर्तें भी जानिए

 
नागरिका संशोधन कानून को लेकर बनारस समेत समूचे पूर्वांचल में तमाम भ्रांतियां भी हैं। नए क़ानून में नागरिकता दिए जाने के लिए ज़रूरी सालों की अवधि को 11 से घटाकर पांच कर दिया गया है। नागरिकता संशोधन नियम की अधिसूचना में केंद्र सरकार ने इन तीन देशों के अल्पसंख्यकों के लिए भारत की नागरिकता हासिल करने की शर्तों में कई तरह की छूट दी गई है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के हज़ारों ग़ैर-मुस्लिम जो भारत की नागरिकता चाहते हैं, उन्हें इसका फ़ायदा मिल सकता है। अब तक ये प्रवासी भारत में अवैध रूप से या लंबी अवधि के वीज़ा पर रह रहे थे।

नागरिकता संशोधन नियम में यह मानकर चला जा रहा है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के जो अल्पसंख्यक भारत में आए वो धार्मिक रूप से सताए जाने के कारण आए थे। 31 दिसंबर 2014 से पहले जो भी ग़ैर-मुस्लिम इन तीनों देशों से भारत आए थे, वे सीएए के तहत नागरिकता हासिल करने के योग्य हैं। नागरिकता दिए जाने के लिए पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफ़ग़ानिस्तान पासपोर्ट और भारत की ओर से जारी रिहाइशी परमिट की आवश्यकता को बदला गया है। इसके बजाय जन्म या शैक्षणिक संस्थानों के सर्टिफिकेट, लाइसेंस, सर्टिफिकेट, मकान होने या किराएदार होने के दस्तावेज़ पर्याप्त होंगे। ऐसे किसी दस्तावेज़ को सबूत माना जाएगा।सीएए में सिर्फ उन्हीं दस्तावेज़ों को भी मान्यता दी जाएगी, जिसमें माता-पिता या दादा-दादी के तीन में से एक देश के नागरिक होने की बात होगी। इन दस्तावेज़ों को स्वीकार किया जाएगा, फिर चाहे ये वैधता की अवधि को पार ही क्यों ना कर गई हों।

इससे पहले नागरिकता हासिल करने के लिए जिन चीज़ों की ज़रूरत होती थी, वो इस तरह थे-वैध विदेशी पासपोर्ट, रिहाइशी परमिट की वैध कॉपी, 1500 रुपये का बैंक चालान और सेल्फ़ एफिडेविट। सरकार ने उस नियम को भी हटा दिया है, जिसके तहत किसी शैक्षणिक संस्थान से संविधान की आठवीं सूची की भाषाओं में से एक का ज्ञान होने का दस्तावेज जमा करना होता था।

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, संशोधित नागरिकता क़ानून में ऐसे बदलाव किए गए हैं कि नागरिकता दिए जाने की प्रक्रिया में राज्य सरकारों की भूमिका कम होगी। इस बदलाव से राज्य सरकारों के इस क़ानून के विरोध करने से निपटा जा सकेगा। पहले नागरिकता हासिल करने का आवेदन ज़िलाधिकारी के पास देना होता था। ज़िलाधिकारी राज्य सरकार के अंतर्गत आते हैं। नए नियमों में इम्पावर्ड कमिटी और ज़िला स्तर पर केंद्र की ओर से ऐसी कमिटी बनाई जाएगी जो आवेदनों को लेगी और प्रक्रिया शुरू करेगी।

इम्पावर्ड कमिटी का एक निदेशक होगा, डिप्टी सेक्रेटरी होंगे, नेशनल इंफॉर्मेटिक्स सेंटर के स्टेट इंफॉर्मेटिक्स ऑफिसर, राज्य के पोस्टमास्टर जनरल बतौर सदस्य होंगे। इस कमिटी में प्रधान सचिव, एडिशनल चीफ सेक्रेटरी और रेलवे से भी अधिकारी होंगे। ज़िला स्तर की कमिटी के प्रमुख ज्यूरिसडिक्शनल सीनियर सुपरिटेंडेंट या सुपरिटेंडेंट होंगे। इस कमिटी में ज़िले के इंफॉर्मेटिक्स ऑफिसर और केंद्र सरकार की ओर से एक नामित अधिकारी होगा। इसमें दो और लोगों को जगह दी जाएगी, जो तहसीलदार या ज़िलाधिकारी के स्तर का होगा।

नए नियमों के तहत नए क़ानून के तहत रजिस्टर्ड हर भारतीय को एक डिजिटल सर्टिफिकेट दिया जाएगा, इस सर्टिफिकेट पर इम्पावर्ड कमिटी के अध्यक्ष के हस्ताक्षर होंगे। सभी दस्तावेज़ और तस्वीरें ऑनलाइन जमा करनी होंगी। इन दस्तावेज़ों की जांच सुरक्षा एजेंसी करेंगी और फिर इन्हें आगे बढ़ाया जाएगा। इन आवेदनों को एम्पावर्ड कमिटी परखेगी। नए क़ानून में छह समुदायों के लोगों को ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से भारत में घुसने या वीज़ा की अंतिम तिथि निकल जाने के बाद भी फॉरनर्स एक्ट 1946 और पासपोर्ट एक्ट 1920 के तहत दर्ज किसी आपराधिक केस से भी सज़ा से छूट मिलेगी।
 
ठीक नहीं सरकार की नीयत
 
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार असद रिजवी कहते हैं, "भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून का नोटिफिकेशन ऐसे समय में किया है जिससे उसकी नीयत पर सवाल उठाना लाजिमी है। इस कानून का नोटिफिकेशन ऐसे समय में किया गया है, जब देश लोकसभा चुनाव  2024 के लिए पूरी तरह तैयार है। देश की सर्वोच्च अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट आफ इंडिया इलेक्टोरल बांड के बारे में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को यह आदेश दे चुकी है कि चुनावी चंदे की सारी जानकारी को सार्वजनिक किया जाए।"

"अब सवाल यह उठता है कि 2019 में बने कानून का नोटिफिकेशन 2024 में आम चुनाव से पहले करने के पीछे क्या उद्देश्य है? क्या भगवा पार्टी चुनाव से पहले धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करके हिंदू बहुसंख्यकों का वोट हासिल करना चाहती है। या फिर बेरोजगारी महंगाई कृषि संकट आदि जैसे आवश्यक मुद्दों से वोटरों का ध्यान हटाना चाहती है? सवाल यह उठता है, इसके पीछे की रणनीति क्या है, क्या चुनावी चंदे या इलेक्टोरल बॉन्ड पर आए फैसले से ध्यान हटाकर सारे देश का ध्यान का सीएए की तरफ मोड़ दिया जाए?"

वरिष्ठ पत्रकार राजीव सिंह कहते हैं, "यूपी में हिंदू वोटों को रिझाने की कोशिश में लगे राजनीतिक दल सीएए के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए आवाज उठाने से डर रहे हैं। कहीं न कहीं गैर-भाजपाई दलों के नेताओं को भी डर है कि इन मुद्दों को छेड़कर, दुखती रग पर हाथ रखकर बहुसंख्यक समुदाय के वोटों से हाथ न धो बैठें। किसी भी पार्टी ने, चाहे वो समाजवादी पार्टी हो जो मुसलमानों की बड़ी हितैषी बनती है, कहीं कोई मामला नहीं उठाया, या इस बात को कहने की कोशिश नहीं की गई कि हमारी सरकार आएगी तो हम आपको इंसाफ़ देंगे। एमआईएमआईएम खुद को मुसलमानों की पार्टी बताती है, उसने भी इस मुद्दे पर आवाज़ उठाने का काम नहीं किया।"

ज्ञानवापी मस्जिद की देख-रेख करने वाली संस्था अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद कमेटी के संयुक्त सचिव एसएम यासीन कहते हैं, "नागरिकता संशोधन अधिनियम को जानबूझकर ऐसे समय में लागू किया गया है जब रमजान का महीना चल रहा है। इसके पीछे समाज को अशांत करने और मुस्लिम समुदाय को भड़काने की गहरी साजिश है। हमें उम्मीद है कि मुस्लिम समुदाय के लोग सरकार के किसी कदम से विचलित नहीं होंगे। सिर्फ दुआएं मांगते रहें। मौजूदा समय में जोश से ज्यादा होश में रहने की जरूरत है। इस मामले में मुस्लिम लीग ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर दी है। देखना यह है कि शीर्ष अदालत का फैसला क्या आता है? "


अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद कमेटी के संयुक्त सचिव एसएम यासीन
 
(विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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